यह पोस्ट, 7 से 9 मार्च 2000 को बिलासपुर में आयोजित संगोष्ठी के लिए साहित्य वाले डॉ. सरोज मिश्र जी और इतिहास वाले डॉ. ब्रजकिशोर प्रसाद जी के सुझाव पर मेरे द्वारा तैयार किया गया परचा, शुष्क आलेख है, जिनकी रुचि साहित्य एवं इतिहास विज्ञान में न हो, उनके लिए इसे पढ़ना उबाऊ और समय का अपव्यय हो सकता है।
''जन केन्द्रित और समग्र मानव इतिहास के लिए विभिन्न सामाजिक विज्ञानों का सहयोग और सहकार आवश्यक है। अनुशासनों से जुड़े गर्व के कारण इन विषयों के बीच का संवाद अब तक, पीटर बर्क के शब्दों में बहरों की बातचीत रहा है। इन अनुशासनों ने एक दूसरे को पूर्वाग्रह, शंका और भय की दृष्टि से देखा है। हमने उनकी सीमाओं पर विचार किया है, उपलब्धियों और संभावनाओं पर नहीं।'' प्रसिद्ध समाजशास्त्री श्यामाचरण दुबे के इस कथन में ''इतिहास और साहित्य-इतिहास लेखन का अंतरावलंबन'' की पड़ताल में यहां इतिहास की दिशा से प्रवेश का प्रयास है।
''राजतरंगिणी'' भारतीय साहित्य का वह बिन्दु है, जहां इतिहास और साहित्य के लेखन और अंतरावलंबन की पड़ताल सुगम है। बारहवीं सदी ईस्वी में काश्मीर के शासक जयसिंह के समकालीन कल्हण की यह रचना, प्रथम इतिहास ग्रंथ मान्य है। कल्हण की यह कृति साहित्य की रचना करते हुए, इतिहास का लेखन है, इसलिए अंतरावलंबन का यह बिन्दु विचार प्रस्थान के लिए उपयुक्त है। राजतरंगिणी इतिहास की शब्दगम्य श्रेणी है। इसके अतिरिक्त वस्तुगम्य और बोधगम्य इतिहास श्रेणियां कही जा सकती हैं। वस्तुगम्य इतिहास की सीमा में पुरातात्विक वस्तुओं के रूप में उत्खननों से प्राप्त प्रमाण से लेकर जीवाश्म और पूरा भौतिक संसार है, जो प्राकृतिक इतिहास के रूप में जाना जाता है और बोधगम्य इतिहास- मूल्य, मान्यता, आचार, व्यवहार, शैली और परम्परा यानि समष्टि लोक है।
पुनः प्रस्थान बिन्दु राजतरंगिणी पर दृष्टि केन्द्रित कर विचार करें। कालक्रम में इसके पूर्व, वैदिक युग है, जिस काल का शब्दगम्य इतिहास बन पाता है, वस्तुगम्यता नगण्य है। दूसरी स्थिति अशोक के अभिलेख हैं, जहां इतिहास गढ़ते हुए, साहित्य की रचना होती चलती है। इसके पश्चात् गुप्त युग है, जो अधिकतर पुराणों का रचनाकाल माना गया है। पुराणों के साथ रोचक यह है कि हिन्दू (भारतीय) धर्म-शास्त्रीय ग्रंथों के अंतिम क्रम में होने के बावजूद उन्हें पुराना और साथ ही इतिहास-पुराण सामासिक रूप में कहा गया है, इसीलिए इतिहास-साहित्य के अंतरावलंबन का यह बिन्दु महत्वपूर्ण हो जाता है। यह भी रोचक है कि एक विरोधाभासी भविष्यत् पुराण का उल्लेख आता है। अन्य पुराणों की शैली से अनुमान होता है कि पुराणों में प्राचीन गाथाओं के साथ समकालीन घटनाओं का भी विवरण संग्रह है, लेकिन प्राचीन गाथाओं को अद्यतन और समकालीन घटनाओं को भविष्यवाणी के रूप में रखा गया है। इस प्रकार पुराण, न सिर्फ इतिहास-पुराण सामासिक पद के रूप में प्रयुक्त हुए हैं, बल्कि भारतीय पद्धति में इतिहास-साहित्य लेखन के संघटन को समझने का अवसर भी प्रदान करते हैं।
गुप्तकालीन स्थितियों में चौथी सदी ईस्वी में रचित हरिषेण की प्रयाग-प्रशस्ति और पांचवीं सदी ईस्वी में रचित वत्सभटि्ट की मन्दसौर प्रशस्ति शिलालेख, जैसी रचनाएं तत्कालीन इतिहास की स्रोत-सामग्री तो हैं ही, इनका साहित्यिक मूल्य तत्कालीन साहित्यिक कृतियों से कम नहीं हैं। इसी युग के ताम्रपत्र, जिन पर दान के विवरण के साथ दान की प्रतिष्ठा 'आचन्द्रार्क तारकाः' यानि जब तक सूरज, चांद और तारे रहें, काल अवधि तक के लिए बताई जाती है, किन्तु इतिहास के कालक्रम का ढांचा तैयार करने में समस्या तब होती है जब ऐसे अनेक ताम्रपत्रों पर तिथि किसी प्रचलित संवत् के स्थान पर शासक के राज्य वर्ष की संख्या में अंकित की गयी है।
शब्दगम्य इतिहास में विदेशी यात्रियों के यात्रा-वृत्तांत और अन्य लिपियुक्त अवशेषों, साहित्यिक सामग्रियों का विवरण पाठ्य पुस्तकों में पर्याप्त है, किन्तु राजतरंगिणी के पश्चात् काल के शब्दगम्य इतिहास में विवेच्य प्रयोजन हेतु अंतिम आधुनिक चरण आरंभ होता है- 15 जनवरी सन 1784 से, जब सर विलियम जोन्स ने कलकता में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना की। इसके साथ इतिहास के वैज्ञानिक और व्यवस्थित लेखन के प्रयास का सूत्रपात हुआ। सन 1788 से 'एशियाटिक रिसर्चेज' शोध पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ और कुछ वर्षों बाद ही सेन्ड्राकोट्टस को चन्द्रगुप्त मौर्य से समीकृत किया गया, जोन्स का यह प्रसिद्ध शोध लेख भारतीय इतिहास को कालगत क्रम में व्यवस्थित करने का आधार बना। इसके बाद के उस दौर का भी स्मरण यहां आवश्यक है, जब राहुल सांकृत्यायन की 'वोल्गा से गंगा', रामधारी सिंह दिनकर की 'संस्कृति के चार अध्याय' और भगवतशरण उपाध्याय की 'पुरातत्व का रोमांस' जैसी पुस्तकें प्रकाशित हुई।
इतिहास लेखन की दृष्टि से कुछ विचार-कथनों का स्मरण कर लें, इससे भारतीय इतिहास-दृष्टि की न्यायसंगत समीक्षा आसान हो सकेगी। कौटिल्य ने इतिहास को पुराण, इतिवृत्त, आख्यायिका, उदाहरण, धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र से समन्वित माना है। नेहरू, इतिहास के साथ महाकाव्य, परम्परा और कहानी-किस्से को जोड़ते हुए मानों कौटिल्य के कथन की टीका करते हैं- दंतकथाएं, महाकाव्यों तक महदूद नहीं हैं, वे वैदिक काल तक पहुंचती हैं और अनेक रूपों और पोशाकों में संस्कृत साहित्य में आती हैं। कवि और नाटककार इनसे पूरा फायदा उठाते हैं और अपनी कथाएं और सुंदर कल्पनाएं इनके आधार पर बनाते हैं। नेहरू यह भी स्पष्ट करते हैं कि ''तारीखवार इतिहास लिखने की या घटनाओं का कोरा हाल इकट्ठा कर लेने की खास अहमियत नहीं रही है। जिस बात की उन्हें ज्यादा फिक्र रही है, वह यह है कि इन्सानी घटनाओं का इन्सानी आचरण पर क्या प्रभाव और असर रहा है।''
अमरीका के प्रसिद्ध विधिवेत्ता ऑलिवर वेन्डल होम्स मानो जिरह करते हैं- ''इतिहास का पुनर्लेखन होना चाहिए क्योंकि इतिहास कारणों और पूर्ववृत्त के ऐसे सूत्रों का चयन है, जिनमें हमारी रुचि है और रुचियां पचास वर्षों में बदल जाती हैं।'' अंगरेज इतिहासकार ईएच कार अपनी प्रसिद्ध कृति ''इतिहास क्या है?'' में दिखाते हैं- ''ऐतिहासिक तथ्य मात्र वे हैं, जो इतिहासकारों द्वारा जांच के लिए छांटी गयी हैं'' वे स्पष्ट करते हैं कि लाखों लोगों के बावजूद सीजर का रूबिकन पुल पार करना महत्वपूर्ण हुआ (और मुहावरा बन गया) वे आगे कहते हैं- ''सभी ऐतिहासिक तथ्य इतिहासकारों के समसामयिक मानकों से प्रभावित हुई अभिव्यक्ति के परिणामस्वरूप हम तक आते हैं।''
भारत में इतिहास, हमारी काल चिंतन पद्धति के अनुरूप रहा है। भारतीय, बल्कि समूचा प्राच्य चिंतन, काल तथा उसके सापेक्ष वस्तुओं, घटनाओं को परिवर्तनशील वृत्तायत दृष्टि से देखता है न कि पाश्चात्य, रैखिक विकास की दृष्टि से। साथ ही हमारा सुदीर्घ, अबाध और जीवन्त क्रम, सनातन माना जाकर इतिहास के बजाय स्वाभाविक ही परम्परा में बदल सकता है। परम्परा, जिसकी सार्थकता उसके पुनर्नवा होने में है, उसमें नदी सा सातत्य है। वह प्राणवान 'भवन्ति' का स्पंदित प्रवाह है, न कि खण्डित 'अस्ति' का संवेदनारहित समूह। वस्तुतः इतिहास और परम्परा किसी तथ्य अथवा घटना के दो लगभग विपरीत, किन्तु पूरक बनकर, दोनों सार्थक दृष्टिकोण हैं। परम्परा से जुड़ा व्यक्ति उसके प्रति विषयगत हो जाता है तो, बाहरी व्यक्ति इसके प्रति रूक्ष होकर इसके कपोल-कल्पना साबित करने में जुट जाता है। इसी स्थिति में भारतीयों पर 'इतिहास-बोध' न होने का आरोप लगता है, जिसकी सफाई में कुछ कहने के बजाय भारतीय मानस में 'नियति बोध' का दर्शन पा लेना अधिक आवश्यक है, किन्तु यहीं अभिलेखन के भारतीय दृष्टिकोण का एक उल्लेख पर्याप्त होगा, वृहस्पति का कथन है-
षाण्मासिके तु सम्प्राप्ते भ्रान्तिः संजायते यतः।
धात्राक्षराणि सृष्टानि पत्रारूढान्यतः पुरा॥
''किसी घटना के छः मास बीत जाने पर भ्रम उत्पन्न हो जाता है, इसलिए ब्रह्मा ने अक्षरों को बनाकर पत्रों में निबद्ध कर दिया है।''
इतिहास लेखन की यह एक विकट समस्या है कि समकालीन इतिहास, घटना के प्रभाव के प्रति तटस्थ नहीं हो पाता। इतिहास का आग्रह अधिकतर तभी तीव्र होता है, जब गौरवशाली अतीत के छीनने का आभास होने लगे। वैभव, जब मुट्ठी की रेत की तरह, जितना बांधकर रखने का प्रयास हो उतनी तेजी से बिखरता जाय अथवा ऐसा आग्रह भाव तब भी बन जाता है जब आसन्न भविष्य के गौरवमंडित होने की प्रबल संभावना हो, जैसे राज्याभिषेक के लिए नियत पात्र की प्रशस्ति रचना या प्रस्तावित छत्तीसगढ़ राज्य का पृथक अस्तित्व होने के पूर्व, उसे राज्य इकाई मानकर किया जाने वाला लेखन, लेकिन प्रयोजनीय होने से ऐसे दोनों अवसरों पर तैयार किया जाने वाला इतिहास लगभग सदैव सापेक्ष हो जाता है। इस तरह घटनाओं को साथ-साथ देखते चलें, आगे से देखें या पीछे से, इतिहास के लिए दृष्टि समकोण हो, अधिककोण या न्यूनकोण, वह मृगतृष्णा बनने लगता है।
इतिहास के तथ्य, तर्क-प्रमाण आश्रित होते हैं, परम्परा की तरह स्वयंसिद्ध नहीं। इसलिए इतिहास-नायकों को चारण-भाट की आवश्यकता होती है, जो उनकी सत्ता और कृतित्व के प्रमाणीकरण हेतु काव्य रच सकें, पत्थर-तांबे पर उकेर सकें लेकिन परम्परा के लोक नायकों के विशाल व्यक्तित्व की उदात्तता, जनकवि को प्रेरित और बाध्य करती है, गाथाएं गाने के लिए। इतिहास के तथ्य, तर्क-प्रमाणों से परिवर्तित हो सकते हैं, इसलिए संदेह से परे नहीं होते किन्तु लोक मन का सच, काल व समाज स्वीकृत होकर सदैव असंदिग्ध होता है। इसलिए जिस समाज के जड़ों की गहराई और व्यापकता परम्परा-पोषित जनजीवन में व्याप्त है, वह आंधी तूफान सहता, पतझड़ के बाद बसंत में फिर उमगने लगता है।
इतिहास लेखन में समस्या तब अधिक गंभीर होती है, जब किसी स्रोत-सामग्री का नाम लेना उसके जान लेने की एकमात्र बुनियादी शर्त बन जाती है। इतिहासकार अपना दायित्व वस्तु-घटनाओं के वर्गीकरण और उसकी सांख्यिकीय जमावट तक अपने को सीमित कर लेता है, वह इतिहास को परिवर्तन के बजाय, इकहरे क्रमिक विकास की दृष्टि से देखता है। भारतीय स्थापत्य के इतिहास का उदाहरण इसे अच्छी तरह स्पष्ट करता है। हम पाते हैं कि यहां आरम्भ में हड़प्पा सभ्यता में निर्माण हेतु ईंट प्रयुक्त हुए, वैदिक युग का स्थापत्य घास-फूस, लकड़ी और पत्थर की कुम्भियों का था, मौर्य युग में ढूह (स्तूप) और स्तम्भ तथा काष्ठ वास्तु की तरह रेलिंग बनने लगी, फिर अचानक संरचनात्मक के स्थान पर शिलोत्खात (लेण और गुहा) वास्तु का दौर आता है, संयोगवश लगभग यही काल भारतीय इतिहास का अंधकार युग कहा जाता है, फिर गुप्त युग में क्रमशः सीधे-सपाट संरचनात्मक वास्तु का पुनः आरंभ होता है, इसके बाद देश के कुछ हिस्सों, विशेषकर छत्तीसगढ़ में फिर ईंटों का प्रचलन हो गया और इसी प्रकार परिवर्तन अब तक होते रहे हैं। अब यदि इसे विकास क्रम में जमाने का प्रयास करें तो कुछ तथ्यों को छोड़कर आगे बढ़ना होगा या फिर कुछ मनगढ़ंत सम्मिलित करना विवशता होगी।
इस प्रकार पाश्चात्य पद्धति ने हमारी इतिहास दृष्टि को जागृत करने में सहायता की, जिसके माध्यम से हम मंदिरों का, मूर्तियों का, सिक्कों का, लिपियों का, बोली-भाषाओं का और साहित्य के इतिहास का ढांचा तैयार कर सके, किन्तु शायद इसी ने समग्रता के इतिहास से जो परम्परा से सम्बद्ध होकर मानव का, उसकी संस्कृति का, इतिहास हो सकता था, दूर कर दिया। यह विवेचन अंगरेजों को उत्तरदायी ठहराने के लिए नहीं, अपने स्वाभाविक वर्तमान का आकलन करने के लिए है।
निष्कर्ष यह कि हमारे व्यक्तित्व के ढांचे में, चेतना के स्तर पर समष्टि सूत्रों से हम सृष्टि में प्रकृति के सहोदर हैं, लोक-जन हमारे अग्रज हैं, वे ही हमारे मूल से वर्तमान को जोड़ने का परिचय-माध्यम हो सकते हैं, सूत्र बन सकते हैं। आज हम जहां हैं, वहां होने की तार्किकता, अपने आदि से कार्य-कारण संबंध तलाश कर, उसमें छूटे स्थानों को पूरी आस्था सहित लोक और जन से पूरित कर, यानि चेतना के स्तर पर अपने इतिहास से अपने वर्तमान का सातत्य पाकर हम वास्तविक अर्थों में मनुज कहलाने के अधिकारी हो सकते हैं। यह विश्लेषण आश्रित शब्दगम्य इतिहास मात्र से संभव नहीं, इसके लिए वस्तुगम्य इतिहास की व्याख्या और बोधगम्य इतिहास सम्पदा को साहित्य का सम्मान देते हुए, तैयार किया गया इतिहास ही सार्थक होगा।
बहुत सुगठित सुचिंतित और मन को आह्लादित करने वाला एक कालजयी आलेख ....
ReplyDeleteफिर भी यह एक बड़े शोध कार्य -प्रस्ताव का प्राक्कथन मात्र ही लगता है -मैं मंत्रमुग्ध पढता अचानक ही ही जब समापन बिंदु पर आया तो ऐसा अनुभव हुआ कि शोध प्रबंध तो अभी पूरा बाकी है ...
इतिहास लेखन के अंतर्साक्ष्यों -महाकाव्यों पर इस निमित्त पुनर्दृष्टि ,लोकाख्यानों का सावधान अनुशीलन,और इतिहास ही नहीं पुराणों के पुनर्लेखन जैसे विषयों पर आपसे विमर्श का मन हो आया है -जिसे प्रदान करें ब्रह्मण (आधुनिक विश्वामित्र ) ...
सीधे बनारस से ऐसा आशीर्वाद, ...शीश नवाने की प्रेरणा भी मिलती रहे.
ReplyDeleteअत्यन्त परिश्रम के द्वारा लिखा गया बुद्धिमत्तापूर्ण पोस्ट!
ReplyDelete"अब यदि इसे विकास क्रम में जमाने का प्रयास करें तो कुछ तथ्यों को छोड़कर आगे बढ़ना होगा या फिर कुछ मनगढ़ंत सम्मिलित करना विवशता होगी।"
तथ्यों को छोड़ना उचित है या मनगढ़ंत सम्मिलित करना?
छूटे हुए तथ्यों को तो फिर भी खोजा जा सकता है किन्तु मनगढ़ंत तो मनगढ़ंत याने कि झूठ ही रहेगा।
और मनगढ़ंत बातों को शिक्षा के रूप में परोसना कहाँ तक उचित है?
क्षमा करें राहुल जी, उपरोक्त प्रश्न मेरे मन में उठे तो इस पर आपके विचार जानने का कौतूहल हो आया।
कमाल का संग्रहणीय आलेख है ...आभार आपका !
ReplyDeleteगागर में सागर यहाँ चरितार्थ हो गया है ! विभिन्न प्रकार की नयी जानकारियाँ हम जैसे इतिहास के नौसिखियों के लिए प्रेरित करने को काफी हैं ! आशा है यह सफ़र चलता रहेगा !
शुभकामनायें !!
अत्यंत गूढ़ विषय, शोध और इतिहास की सम्ष्ठी.
ReplyDeleteआपका यह आलेख समय काल से परे एक दस्तावेज़ है.....
ReplyDeleteबिलकुल भी बोरिंग नहीं बहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख है..आपने श्रम से लिखा है और यह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बनेगा.
ReplyDeleteहमारा इतिहास अंग्रजों की कुटिल राजनीति से शापित रहा है, पुनः अध्याय खोले जायें सारे।
ReplyDeleteमैं होम्स के विचारों से लेश भी सहमत नहीं हूँ, क्या हमें हमारी वर्त्तमान रुचियों के अनुसार महाभारत का पुनर्लेखन करना चाहिए ? तब इससे तो इतिहास का मूल स्वरूप ही समाप्त हो जाएगा. पुनर्लेखन के स्थान पर पुनर्बोधन की आवश्यकता को तो स्वीकारा जा सकता है....वह भी इस शर्त के साथ कि पुनर्बोधन वर्त्तमान रुचियों के अनुरूप नहीं बल्कि वर्त्तमान रुचियों की प्रासंगिकता के सन्दर्भ में हो. महाभारत जैसा ऐतिहासिक साहित्य भारतीय समाज के लिए एक आदर्श मानक है जो समसामयिक भी था और सार्वकालिक भी. और हम मानते हैं कि किसी आदर्श के पुनर्लेखन की आवश्यकता नहीं होती.
ReplyDeleteगंभीर और तथ्यपूर्ण चर्चा !
ReplyDeleteमैं सचमुच में नहीं पढ सका।
ReplyDeleteराहुल जी!
ReplyDeleteइस आलेख की पृष्ठभूमि में मुझे वह गोल्ड मेडल दिखाई दे रहा है जिसकी चर्चा आपने पिछली पोस्ट में की थी! सचमुच गहन शोध और स्वर्ण-पदक को जस्टिफाय करता हुआ!!
सारगर्भित आलेख,मैं अभी सम्यक अध्ययन कर रहा हूँ,विस्तृत टिप्पणी बाद में,आभार.
ReplyDelete@ कौशलेन्द्र जी-
ReplyDeleteआपकी बातों के भाव से कुछ सीमा तक सहमत, किन्तु क्या कामिल बुल्के की रामकथा को खारिज कर देना चाहिए, यह भी ध्यान रहे कि तुलसीमानस, वाल्मीकि रामायण का पुनर्लेखन ही है.(पुरानी चर्चा है बस स्मरण करा रहा हूं, लक्ष्मण को शक्ति-बाण किसने मारा?)
मैंने बीते बहुत समय में ऐसा कुछ नहीं पढ़ा।
ReplyDeleteऔर पढ़ कर सचमुच मन बहुत आह्लादित है।
@ प्रवीण पाण्डेय जी-
ReplyDeleteअंगरेजों की अकादमिक क्षमता-योग्यता और अभिलेखन के गुण को नकारा नहीं जा सकता, अफसोस यही है कि जो अध्याय पुनः खोले जाने का प्रयास बाद में हुआ, उसमें से ज्यादातर अपने कमजोर अकादमिक स्तर और पूर्वग्रहों के चलते महत्वपूर्ण साबित नहीं हो सके, अक्सर मजबूत चुनौती भी नहीं दे पाए फिर यदि हमारे इतिहास को कुटिल राजनीति का शाप मान भी लें तो उससे मुक्ति कैसे संभव होगी.
आवश्यक ( यथा नवीन शोध ) होने पर वस्तुगम्य इतिहास का पुनर्लेखन स्वीकार्य है पर जिस अर्थ में होम्स पुनर्लेखन चाहते हैं वह तो इतिहास से छेड़छाड़ हो गयी न ! जहाँ तक रामायण और महाभारत के चरित्रों को लेकर लेखन की बात है तो वहाँ सम्वादों और कथानक का ही पुनर्लेखन होता है .....मौलिक एसेंस का नहीं. ऋतू वर्मा और तीजन बाई की महाभारत में अभिव्यक्ति की मौलिकता है पर इतिहास की नहीं. हो सकता है मैं अपनी बात ठीक से न कह पा रहा होऊँ. पर मेरा आशय मात्र इतना है कि इतिहास के एसेंस से छेड़छाड़ स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए. जो लोग भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन के पक्ष में हैं वे वस्तुतः भारतीय इतिहास के अनुद्घाटित तथ्यों को सामने लाने की बात कह रहे हैं. मैं भी इसका समर्थन करता हूँ.
ReplyDeletesaargarbhit aure vicharniya lekh, bahut kuch sochne pe majbur kerta aapka ye uttam lekh
ReplyDeleteजी हाँ ! विवाद एसेंस को लेकर भी होता है ...और यही असली विवाद है. डी.एन.ए. फिंगर प्रिंटिंग में यह प्रमाणित हो चुकने के बाद भी कि भारत के द्रविण, आर्य और आदिवासियों के पूर्वज एक ही समुदाय के थे, डॉक्टर पुरुषोत्तम मीणा जी अभी भी केवल आदिवासियों को ही भारत के मूल निवासी मानते हैं. उन्होंने आर्यों, विशेषकर ब्राह्मणों और क्षत्रियों को बाहर से आकर भारत में बसने वाली विदेशी जाति के लोग स्वीकार किया है जिन्होंने आदिवासियों के महान वेदों पर बलात अधिकार कर उन्हें हथिया लिया.
ReplyDeleteबहुत ही संग्रहणीय आलेख..कई कई बार पढ़ने और मनन करने लायक..
ReplyDeleteआभार
दिशा निर्धारित करता है आपका यह लेख .......आपके लेखों को पढने के बाद मुझे बहुत सोचना होता है ....अभी इस मनन चल रहा है ......पूर्ण टिप्पणी बाद में .....!
ReplyDeleteसोचा था वक़्त पे हाज़िर हो पाऊंगा पर ऐसा नहीं हुआ !
ReplyDeleteअध्ययनों में अन्तरअनुशासनात्मता के विचार से असहमति का प्रश्न ही नहीं उठता !
इतिहास लेखन के अपने ही खतरे हैं आपने 'स्रोतों' के संकेत दिए मित्रों ने उन्हें ही 'समूचा इतिहास' मान कर बहस आगे बढ़ा दी ! आख्यानों के पुनर्लेखन पर अरविन्द मिश्र आपसे बाद में विमर्श करने वाले हैं यही बात मैंने पढ़ी ! आपने होम्स के हवाले से इतिहास के पुनर्लेखन की बात कही ना कि आख्यानों के पुनर्लेखन की ! कौशलेन्द्र जी की समस्या यह है कि वे आख्यान और इतिहास में लेश मात्र भी भेद नहीं कर रहे हैं निश्चय ही यह उनकी व्यक्तिगत धारणा या समस्या है !
स्रोत को किस सीमा तक इतिहास बतौर स्वीकार किया जाये और तार्किक ढंग से कहें तो क्यों कर ? यह इतिहास लेखन की वस्तुनिष्ठता और वैज्ञानिक चिंतन धारा पर अधिकार रखने वाले विद्वानों को ही तय करना है !
मेरे विचार से बाबा तुलसी और कामिल बुल्के की तर्ज पर पुनर्लेखन एक अलग मुद्दा है ! पुनर्लेखन को भी इतिहास के स्रोत बतौर स्वीकार किया जा सकता है नाकि पूरा का पूरा इतिहास जैसा कि कौशलेन्द्र जी कह रहे हैं !
महाकाव्यों के इतर आख्यानों के अतिशयोक्ति पूर्ण विवरण जोकि तत्कालीन सत्ता के चारणों और भाटों द्वारा रचे गये हैं उनको स्रोत मानकर ऐतिहासिक तथ्यों की शल्यक्रिया ज़रूर की जानी चाहिए और सुसंगत सिद्ध सामग्री को इतिहासबद्ध भी किया जाना चाहिए परन्तु चारणों और भाटों कृत आख्यानों को सांगोपांग इतिहास की तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता !
आख्यानों / मौखिक लिखित परम्पराओं / साहित्य में कल्पना शीलता और सत्य के सहवास की स्वीकृति के साथ ही इतिहास के हिस्से जो टास्क आता है वो सत्य के टुकड़े को परीक्षणोंपरांत ग्रहण तक ही सीमित माना जा सकता है ! स्रोतों की काल्पनिकता वाले हिस्से इतिहास की जिम्मेदारी नहीं हैं !
आपने बहुत ही सुन्दर आलेख लिखा ! मुझे नीरस भी नहीं लगा ! संभवतः मैंने आपकी ही बात को आगे बढ़ाया है कि स्रोतों का दोहन किया जाये और इसी के तारतम्य में इतिहास का पुनर्लेखन भी हो किन्तु स्मरण रहे कि इतिहास को विज्ञानसम्मत होना है !
कल्पनाशीलता को प्रश्रय देने के लिए साहित्यशास्त्र स्वयं समर्थ है उसे इतिहास के माथे नहीं मढ़ा जा सकता है इतिहास वो ही लेगा जो उसके योग्य हो !
इसे पढ़ गया था पहले ही, अभी कह रहा हूँ…इस बार कुछ कम पल्ले पड़ा…फिर से पढना होगा कभी……इतिहास का तो मामला हर जगह विवाद का ही है…
ReplyDeleteकल्हण ने कहा है, “वही गुणवान कवि प्रशंसा का पात्र है, जो राज-द्वेष से ऊपर उठकर एकमात्र सत्यनिरूपण में ही अपनी भाषा का प्रयोग करता है।”
ReplyDeleteउससे भी पहले कौटिल्य ने इतिहास की उपयोगिता पर बल देते हुए कहा था कि इतिहास के अंतर्गत पुराण, इतिवृत्त, आख्यायिका उदाहरण, धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र को भी स्थान दिया जाना चाहिए।
आत्मप्रशस्तियों की अपेक्षा भारतीय विद्वान सत्कर्मों को ज़्यादा महत्व देते रहे, इसलिए तथाकथित पाश्चात्य दृष्टिकोण से मान्य इतिहास का अभाव हम अपने यहां देखते हैं।
घटनाओं के ऐतिहासिक क्रम की ओर हमारे पूर्वज उतना ध्यान नहीं देते थे, जितना कि सांस्कृतिक तथ्यों की ओर।
इतिहास धीरे-धीरे विज्ञान की कोटि में आ रहा है। वैज्ञानिक पद्धति अपनाकर ही हम गुत्थियों को सुलझा सकते हैं। ऐसा समझना कि भारतीयों को इतिहास बोध नहीं था, ग़लत होगा। उनके इतिहास का दृष्टिकोण ज़्यादा सांस्कृतिक था और पुरुषार्थ की प्राप्ति में इतिहास एक महत्वपूर्ण साधन था।
मेरी टिप्पणी स्पैम में चली गई क्या :)
ReplyDeleteइतिहास के विविध पक्षों पर सार्थक चिंतन. लोकस्मृति में दर्ज इतिहास को भी वैज्ञानिकता के साथ समाहित किया जाना चाहए.
ReplyDeleteकिसी घटना के छ मास बीतने पर भ्रम शुरू हो जाता है! :-)
ReplyDeleteनसीम निकोलस तालेब अपनी पुस्तक ब्लैक स्वान में इतिहास के बारे में लिखते हैं -
History is opaque. You see what comes out, not the script that produces events, the generator of history.
पोस्ट भी बहुत अच्छी है और इस पर आई टिप्पणियाँ भी, साहित्य और आलोचना दोनों ही उपस्थित है। नेहरू की टिप्पणी बेहद दिलचस्प है लेकिन फिर भी वामपंथी जैसी है जो सब कुछ फायदे के दृष्टिकोण को देखती है आपने अंग्रेजी इतिहासकारों के योगदान की जो तारीफ की उसका स्वागत होना चाहिए, मुझे बाशम की टिप्पणी बड़ी अच्छी लगती है कि इतिहास का अध्ययन उत्सुकता के लिए होना चाहिए केवल जानने और सीखने के मर्म के लिए नहीं। आभार
ReplyDeleteहमें तो कतई शुष्क न लगा यह आलेख...सार्थक एवं उम्दा चिंतन...
ReplyDelete@ 'मैं और मेरा परिवेश' सौरभ जी,
ReplyDeleteप्राचीन भारतीय इतिहास (नजरिए) के लिए कुछ नाम याद कर रहा हूं-
विदेशियों में बाशम और कनिंघम को लाजवाब मानता हूं, स्टेला क्रैमरिश भी पसंद हैं. भारतीयों में वासुदेवशरण अग्रवाल, मोतीचन्द्र, राय कृष्णदास की तिकड़ी और नेहरू तो हैं ही. डीडी कौशाम्बी, रोमिला थापर और डा. रमानाथ मिश्र से बार-बार असहमति के बाद भी उनके अलग नजरिये का मूल्य स्वीकार करता हूं.
बहुत सुंदर आलेख है और बोधगम्य भी। इस के लिए आरंभ में ही लेखक की टिप्पणी कि शुष्क आलेख है उचित नहीं थी। खैर! इस का एक लाभ यह भी हुआ कि मैं इसे ध्यान से पढ़ गया। शुष्कता प्रेमी होने के नाते।
ReplyDeleteइतिहास का महत्व मानव जीवन के लिए आगे की राह खोज निकालने के लिए है, न कि मिथ्या गौरव करने के लिए। एक वक्त था जब लखनऊ के तांगेवाले और टोंक के रिक्षा चालक ऐसा ही गौरव बखानते थे। आज भी बखानते हों तो जानकारी नहीं। लेकिन उस का क्या लाभ?
इतिहास सूत्रबद्ध रीति से यह बताए कि आदिम जीवन से आज के जीवन तक हम कैसे पहुँचे और फिर आगे की राहें सुझाए तो उस का महत्व है। इतिहास पर साहित्य लेखन का यही महत्व है। इतिहास हमें केवल किसी युग या समय की रूपरेखा बताता है। इतिहास को आधार बनाया हुआ साहित्य उस के सजीव दृश्य उपस्थित करता है। हम वैदिक साहित्य और सिंधुघाटी से प्राप्त वस्तुओं के आधार पर इतिहास की रचना करते हैं। लेकिन साहित्य उसे दृष्टिगोचर बनाता (विजुअलाइज करता) है। इतिहास में आर्य कबीलों और लिंगपूजकों के संघर्ष का उल्लेख मिलता है। लेकिन डॉ. रांगेय राघव का उपन्यास मुर्दों का टीला उसे दृष्टिगोचर बनाता है। इसी तरह राहुल सांकृत्यायन का सिंह सेनापति बुद्ध और महावीर के काल में ले जाता है गोत्रीय समाज, गणतंत्रों और राज्य के जीवन के भेदों को हमारे लिए दृष्टिगोचर बनाता है। .
मैं इस आलेख के लिए आप का बहुत आभारी हूँ।
सारगर्भित आलेख. वस्तुगम्य और बोधगम्य के बीच के अंतर को समझने का प्रयास कर रहा हूँ.
ReplyDeleteदेर से आने के लिए माफी चाहता हूँ..
ReplyDeleteआपका यह शोध आलेख वस्तुनिष्ठता के निदर्शन का सम्यक प्रयास है .पूर्व -मध्यकालीन भारत में ताम्र-प्रस्तरों पर प्राप्त बहुधा दान के अभिलेखों से मिलने से भारतीय इतिहास को एक नई अवधारणा मिली थी . डॉ राम शरण शर्मा जैसे विद्वानों का मानना था की तत्कालीन भारत में एक नया सामाजिक परिवर्तन देखने को मिलता है जब पहली बार वर्ण्य व्यवस्था के क्रम में हेर-फेर देखने को मिलता है..
इतिहास का निर्धारण पुरातत्व-विदेशी विवरण-और साहित्यिक श्रोतों के आधार पर होता आया है.केवल साहित्यिक श्रोतो को इतिहास निर्धारण में कभी श्रेय नहीं दिया गया क्योकि कुछ एक अपवाद को छोड़ दिया जाय तो राज्याश्रय में लिखा गया साहित्य चारण गीरी ही दर्शाता था.इसीलिये अशोक के समय से ही इतिहास का आरम्भ माना गया जब सभी श्रोत एक दुसरे की पुष्टि करते थे.कल्हण की राज तरंगनी तो इसका अपवाद है और विशुद्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ है.
मुझे आपका यह लेखन पसंद आया तथा उम्मीद है की आपके ब्लॉग पर ऐसे आलेख सदा मिलते रहेंगे .
आदर सहित
मनोज.
ये पोस्ट और उस पर आई टिप्पणियाँ बार बार पढ़ रहा हूँ,टिप्पणी, राय-मशविरे का अधिकारी नहीं हूँ लेकिन ये सच है कि नीरस बिल्कुल नहीं लगा और जानना अच्छा ही लग रहा है।
ReplyDeleteआज के परिवेश में जब चहुंओर इतिहास बदलने का शोर मचा हुआ है तब यह आलेख बहुत ही सारगर्भित और ज्ञानवर्धक है। आभार 🙏
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