भेद-भाव की अपनी समस्याएं हैं तो समानता के भी अलग संकट हैं, ऐसी किसी वजह से ''एक सिर बराबर एक मत (वोट)'', बीसवीं सदी का सबसे खतरनाक अविष्कार कहा गया होगा। 'थ्री ईडियट्स' फिल्म की प्रशंसा से अलग कुछ कहना शायद इसीलिए जल्दी संभव नहीं हुआ। उग्र प्रजातंत्र के माहौल में अपनी राय प्रकट करने के पहले कोई पक्ष बहुमत बन चुका हो तो सावधानी जरूरी है। लेकिन यहां राय, अल्पमत में रहकर विशेषाधिकार पा लेने या धारा के विरुद्ध खड़े होने जैसी क्रांतिकारिता के कारण नहीं है और यह वाद-विवाद प्रतियोगिता भी तो नहीं, जिसमें अपनी बात 'मैं इस सदन की राय के विपक्ष में कहने खड़ा हुआ हूं' इस जुमले की तरह रस्मी हो।
आप कभी-कभार और मुख्यतः अत्यधिक अनुशंसा के कारण फिल्में देखने जाते हों तो वापस आकर फिल्म की आलोचना का साहस जुटाना कठिन हो जाता है, क्योंकि ऐसा करने पर आप अनुशंसकों के आलोचक बनते हैं फिर निर्माता-निर्देशक ने तो आपको आमंत्रित किया नहीं था, आपने खुद चलकर, समय लगाकर, खर्च कर फिल्म देखी इसलिए फिल्म देखने का अपना निर्णय ईडियॉटिक मानने के बजाय, दुमकटी लोमड़ी बनकर हां में हां मिलाना अधिक सुविधाजनक और समझदारी भरा जान पड़ता है।
यह फिल्म पसंद न आने में मैंने अपने संस्कार और रूढ़ मन को टटोलना शुरू किया। सत्तरादि दशक के आरंभ में हम माध्यमिक शाला की पढ़ाई आठवीं कक्षा पास कर लेते तो उच्चतर शाला की नवीं कक्षा में प्रवेश के लिए जाते, बिना ताम-झाम और तैयारी के। पढ़े-लिखे, जागरूक अभिभावकों को भी खबर नहीं होती थी। सब गुरुजी तय कर देते। साठ फीसदी तक अंक वाले छात्रों का नाम नवीं 'अ' में पचास तक 'ब' में और उसके नीचे 'स' में। अ का मतलब होता, गणित विषय, इन्जीनियर, ब का मतलब बायोलाजी (उच्चारण होता बैलाजी) यानि डाक्टर बनेगा और बचे-खुचों के लिए स, माना जाता कि आगे पढ़ना तो है ही सो स यानि कला की पढ़ाई और क्या बनेगा के सवाल पर जवाब होता- अफसर न हुआ तो काला कोट पहनेगा, तो कभी भूगोल की प्रायोगिक कक्षा की याद दिला कर कहा जाता जमीन की पैमाइश तो कर ही लेगा। इस अ, ब, स में परिवर्तन कभी-कभार ही होता।
नवीं 'ब' में भरती हुई लेकिन डॉक्टर बनने के लक्षण और योग्यता मेरे परीक्षा परिणामों में नहीं दिखी। अपनी क्षमताओं का 'तत्वज्ञान' मुझे तो काफी हद तक हो ही चला था, इससे एक तरफ परीक्षा प्रणाली पर मेरा विश्वास बना रह गया और दूसरी ओर स्नातक बनने के लिए बीएस-सी से बीए करने लगा। विषय चुनने की बात आई, तो इस बात पर दृढ़ रहा कि मेरी पढ़ाई का विषय भाषा-साहित्य या गणित नहीं होगा, क्योंकि ये दोनों विषय मुझे आरंभ से और अब भी उतने ही पसंद हैं। मुझे लगता, बल्कि दृढ़ मान्यता रही कि पढ़ाई के लिए विषय के रूप में इनका चयन कर लेने पर इनमें मेरी रुचि बनी नहीं रह पाएगी, इन विषयों की स्वाभाविक समझ और उनके प्रति मौलिक सोच बची न रह पाएगी, इन्हें प्रशिक्षित रूढ़ ढंग से देखना शुरू कर दूंगा और ये दोनों विषय तो यों भी पढ़ लूंगा फिर और कुछ क्यों न आजमाया जाए।
बाद में मेरी पढ़ाई और स्नातकोत्तर डिग्री प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व की हुई, बावजूद इसके कि विगत में रुचि होने पर भी इतिहास मेरे सख्त नापसंद का विषय था। विषय चयन करने की बात पर मैंने इतिहास के लिए अपनी अरुचि प्रकट की तो मुझसे इसका कारण पूछा गया। मैंने बताया कि तिथि-सन रटना न मुझे पसंद है न मुझसे हो सकता। तब बताया गया कि पुरातत्व ऐसा इतिहास है, जिसमें सन का रट्टा नहीं है। सदी से और कभी सदियों और सहस्राब्दी से भी काम चल जाता है फिर तो कुछ पता किए बिना यह चयन करने में कोई असमंजस नहीं रहा।
स्नातकोत्तर परीक्षा के प्रश्न-पत्रों के अंतराल में परीक्षा की पढ़ाई के साथ 'चांद का मुंह टेढ़ा है', 'कुरु कुरु स्वाहा' और 'प्लेग' पढ़ा। इस परीक्षाफल में मुझे प्रथम स्थान और फलस्वरूप स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ। इस बार परीक्षा प्रणाली के प्रति विश्वास(?) बना कि मैं इस खेल के नियम कुछ-कुछ समझने लगा हूं, बस इतना ही और इसके बावजूद अव्वल आने की न चाहत बनी न आदत। वैसे भी अव्वल होते रहने के भाव के साथ कभी छल-छद्म का सहारा और सूक्ष्म हिंसा तो लगभग सदैव जुड़ी होती है।
अंततः संयोग यह भी बना कि निजी तौर पर अपरिग्रहवादी मैंने संग्रहालय विज्ञान में पत्रोपाधि ली। इस चाहे-अनचाहे अनिश्चित सिलसिले का सिला, शासकीय सेवा के अपने काम में पुरातत्व-इतिहास के साथ भ्रमण, दूरस्थ अंचलों में लंबी अवधि तक कैम्प, लोककला और संस्कृति से जुड़ाव का रुचि-अनुकूल अवसर मिलता रहा है।
थ्री ईडियट्स का नायक बीएड नहीं है, बाल मनोविज्ञानी भी नहीं, उद्यमी भी नहीं लेकिन स्कूल चला रहा है, व्यवसायी नहीं पर अविष्कार कर उसे पेटेंट करा रहा है। आइआइटीयन चेतन भगत युवा लेखक और विचारक हैं। दो-तीन आइआइटीयन को मैं जानता हूं, जिनमें से एक ने डिग्री पूरी कर सन्यास ले लिया, कोई रेडियो जॉकी बन गया या उनमें से कुछ और इसी तरह का भलता कुछ काम करने लगे और यों अपरिचित और काम के नए क्षेत्र में सफल भी हैं। देकार्त विधिस्नातक थे, सैनिक बने, गणित करने लगे और दार्शनिक के रूप में जाने गए। लियोनार्डो दा विंची, बैरिस्टर गांधी और आइसीएस बोस ... न जाने कितने उदाहरण हैं। पढ़ाई के विषय और रुचि में तादात्म्य, रोजगार-जीवन यापन की शुरुआत, बीच में बदलाव और कई बार उसके समानान्तर कार्य को रुचि के अनुकूल बना लेना या पसंद का काम, मुआफिक संभावना खोज लेना भी आवश्यक कौशल है।
'तारे जमीं पर' की याद करते चलें, जो मुझे कुछ बेहतर फिल्म लगी, बावजूद इसके कि डिस्लैक्सिया और बच्चों में छिपी नैसर्गिक प्रतिभा और उसके उजागर होने को गड्ड-मड्ड कर दिया गया है, मध्यान्तर तक नायक नहीं आता, लेकिन आता है तो फिर नायक, नायक ही है और ईशान भी अंततः फर्स्ट आता है, तभी जाकर फिल्म और शायद फिल्मकार की मुराद पूरी होती है।
थ्री ईडियट्स की कामेडी चर्चा में रही और पसंद की गई लेकिन यहां भी व्यापक मान्यता और स्वीकृति पा लेने के बाद इसे सहज आसानी से भोंडा की हद तक सुरुचिरहित कहना कठिन हो रहा है। फिल्म के हास्य की आलोचना की कठोरता कम करने के लिए यह कहा जा सकता है कि शालीनता और मर्यादा में हास्य की गुंजाइश कम होती है। अब तो 'दबंग' और 'डेल्ही बेली' भी हैं, जिसके भोंडेपन को जीवन और सामाजिक व्यवहार की स्वाभाविकता के तर्क में रंगा जा सकता है। इस फिल्म की कामेडी ऐसी है कि अपनी दिनचर्या में सभ्य नागरिक को इन बातों या स्थितियों का सामना करना पड़े तो वह असहज हो जाता है, लेकिन यहां...। सभ्य और नागरिक शब्द क्रमशः सभा और नगर से बने हैं और इसी तरह भदेस, गवांरु, देहाती शब्द देसी-गवंई से बने हैं लेकिन फूहड़ और अश्लील के लिए रूढ़ हो गए हैं। इसे संदर्भ के साथ आप जोड़ लें। मैं तो यही कहूंगा कि लोकप्रिय हो जाने के कारण, लोगों (बच्चे-बच्चे) की जबान पर चढ़ जाने के कारण भोंडे और फूहड़ को सुरुचिपूर्ण की स्वीकृति नहीं मिल जाती।
निष्कर्ष इतना कि कुछ अच्छे सीक्वेंस, संवाद, दृश्य-गीत के बावजूद मैं इसे बतौर अच्छी फिल्म स्वीकार नहीं कर पाया। बहरहाल, इस ईडियट के बहाने आमिर खान ने अपनी बाक्स आफिस समझ जरूर साबित की है।
पोस्ट के बहाने आपके बारे मे जाना......
ReplyDeleteउग्र प्रजातंत्र के माहौल में अपनी राय प्रकट करने के पहले कोई पक्ष बहुमत बन चुका हो तो सावधानी जरूरी है।
ReplyDeleteअत्यधिक अनुशंसा के कारण फिल्में देखने जाते हों तो वापस आकर फिल्म की आलोचना का साहस जुटाना कठिन हो जाता है, क्योंकि ऐसा करने पर आप अनुशंसकों के आलोचक बनते हैं
वाह…क्या बात है…सहमति है…
विषय चयन पर आपके विचार अच्छे लगे…
थ्री इडियट्स, तारे जमीन पर जैसी फिल्मों ने सिवाय व्यवसाय के क्या किया?…कुछ नहीं सुधरता नकली भावनात्मक और मनोरंजक कहानियों से…लोग जो आमिर खान के घोर पक्षधर हैं, उनपर फिल्मी नशा चढ़ा है, उन्हें बरदाश्त हो या न हो लेकिन इतना तय मान सकते हैं कि फिल्मकारों को किसी विषय की समझ ठीक से हो चाहे न हो, वे फिल्म जरूर बना देते हैं…तो जाहिर है गुणवत्ता दिखेगी ही!
कमाई ही अच्छी फिल्म होने का आधार हो जाय, तो गुणवत्ता का आधार वैसे भी डोल जाता है…
और यह तो हमारे यहाँ है (शायद और जगह भी हो) कि जबतक फिल्म का हीरो कुछ चमत्कार न दिखा दे, चाहे वह मानसिक हो या शारीरिक फिल्में बनती ही नहीं…तारे जमीन पर में ऐसी कोई गम्भीर चिन्ता या निदान की सफल यात्रा नहीं दिखती और नाच-गा के सब कुछ ठीक कर लिया जाता है, जैसे कि पुरानी फिल्मों में बेटे के बीमार पड़ते माँ को पता चल जाता था या भगवान लोग बड़ी कृपा रखते थे…खलनायक को मारने के लिए चमत्कार भी करा जाते थे…
टिप्पणी कुछ लम्बी हो चली है…अब चलता हूँ…प्रवचन कर लिया…
कुछ अलग तरह की लेकिन अच्छी लगी पोस्ट,आभार.
ReplyDeleteबड़ा मुश्किल है अपनी पसंद के काम से भरपेट रोटी पा लेना
ReplyDeleteशनिवार .... मानो शुक्रवार की रिलीज़ के बाद फिल्म की चर्चा .
ReplyDeleteअपनी बात बड़े निवेदन पूर्वक और दम से रखने का आपका अंदाज़ ही निराला है .
पर जैसे आपको फिल्म स्वीकारने में दिक्कत हुई ,वैसे ही पोस्ट की कई बाते हमारे लिए भी है . कोई भी फिल्म पूरी तरह से हमारी बात क्यों कहे ? ५७ राष्ट्रिय अवार्ड में इसे बेस्ट फिल्म intertainment पोपुलर केटेगिरी मिला था , तो उस फिल्म की अपनी सीमाए थी उसमे ही उसे कुछ मिला . फिल्म की बहुत सारी बातो पर असहमति के बाद भी मेरे लिए यह फिल्म एक अच्छी रंजक और कोई बात कहने वाली है ,भले वह आलोचकों को एक रैखिक लगे . चन्दन जी का रिअक्शन - गुणवत्ता का आधार दोल जाता है . तो भई रंजक हास्य के साथ यह बात की हमें क्या करना है ये दुसरे तय कर देते है , ये अपने आप में महत्वपूर्ण है ,उस पर फिल्म है . यदि हम इस बहस पे पड़ जाये की कई बार दूसरे हमारे लिए तय करते है वह ठीक होता है या था . कुछ जमा नहीं .
फ़िल्मकार जो कहना चाहता है वह उसमे सफल है , विचार की असहमति प्रस्तुति को गुणवत्ताहीन नहीं साबित कर सकती . वैसे ही हम राहुल सर के विचार पर सहमत या असहम तो हो सकते है पर पोस्ट की कला पर तो दाद ही है .
यह बातें तो उस समय भी कही जा सकती थीं... इसमें आपत्तिजनक तो कुछ भी नहीं... फिर भी एकला चलो रे का यह घोष पसंद आया!!
ReplyDeleteआपके विचार से काफी हद तक सहमत हूँ।
ReplyDelete@ फिल्म ,
ReplyDeleteफिलहाल अन्धों में काना या फिर कला फिल्म जो अब शायद बनती भी नहीं है ,में से एक का चुनाव आपकी मजबूरी हो सकता है क्योंकि आपके पास विकल्प ही क्या हैं ?
अगर आपका चुनाव अंधे या काने में से कोई एक है तो फिर दिमाग को हाशिए में रखकर फिल्म देखना चाहिए !
@ शिक्षा दीक्षा ,
उस ज़माने के गुरुओं की दादागिरी कि तुम अमुक विषय नहीं पढ़ सकते पर सहमत हूं ,रास्ते सुझाने और उन पर चलने में मदद करने लायक ज़रुरी पारिवारिक संबल उन दिनों सपने में भी मयस्सर नहीं होता था !
@ स्वर्ण पदक ,
लिख तो दिया पर स्वर्ण पदक पर कमेन्ट नहीं करूँगा ,असल में उसे लेते वक़्त आप बेहद हसीन लग रहे हैं :)
@ बाकी ये कि ,
पुरातत्व में हाथ ना भी डालते तो एक बेहतर फिल्म समीक्षक हो सकते थे :)
पता नही क्यों मुझे आपकी इस पोस्ट से तारतम्य नही बैठा फ़िल्म से समस्या किन मुद्दो पर और क्यों है यह समझ ही नही आया। खैर इसी बहाने आपके विद्द्यार्थी जीवन की झलक मिल गयी वैसे भी फ़िल्मे आज कल दिमाग घर छोड़ कर जाने के लिये बनती है स्क्रिप्ट दमदार भी हो तो बेचने के लिये कूड़ा कर ही दिया जाता है
ReplyDeleteजी, डटे रहेंगे... सही है :)
ReplyDeleteसभी के अपने अपने तर्क है, लोग कहते हैं समाज है - समाज में समरस रहो, पर अपने अपने समाज है, जो हमें रुचिकर लगता है, किसी और अप्रिय लग सकता है और जो किसी और को अप्रिय है हमें रुचिकर लग सकता है....
जैसा है जहाँ है के आधार पर सब सही है, - सभी कुछ.
विलम्बित समीक्षा और आत्मकथन
ReplyDeleteआदरणीय सुनील जी,
ReplyDeleteकोई हमारे मन से क्यों कुछ कहे लेकिन अपने मन से भी सब कुछ न करे, न कहे।
पुरस्कारों का क्या है जी। रेखा को पद्म पुरस्कार ऐश्वर्या के बाद मिला। या सैकड़ों बड़े लेखकों को नोबेल नहीं मिला। न गोर्की को, न तोलस्तोय को न प्रेमचन्द को।
फिल्मकार अब एक ही बात हर फिल्म से कहना चाहता है कि दर्शकों की जेब से पैसे निकालो चाहे भावनाएँ बेचनी पड़े, देह बेचनी पड़े या कुछ भी बेचना पड़े…हाँ, असहमति गुणवत्ता का आधार नहीं भी हो सकती है लेकिन गुणवत्ता तो स्वयं भी निरपेक्ष नहीं है न…
अब क्या कहें, फ़िल्में तो खालिस मनोरंजन के लिए भी देखते नहीं बनता. बाकी, जिन फिल्मों का ज़िक्र यहाँ हुआ उनके बारे में अपनी राय आपसे जुदा नहीं है. छुटपन में ही भारत और विश्व सिनेमा की इतनी बेहतरीन फ़िल्में देखने का मौका मिलने लगा था कि अब उनके सामने ज्यादातर फ़िल्में दोयम दर्जे की ही लगतीं हैं.
ReplyDeleteअरविन्द मिश्र जी ने जिसे (विलंबित) आत्मकथन कहा, उसे पढने के अपने फायदे हैं. हम एक व्यक्ति और उसके कालखंड से परिचित तो होते ही है और इसी बहाने उसके व्यक्तित्व और विचारधारा के भी और करीब आ जाते हैं.
कुल मिलाकर, अच्छी पोस्ट.
आपके व्य्कतित्व से परिचय मिला।
ReplyDeleteफ़िल्म पर कहने को मुझे नहीं आता। मुझे तो सारी फ़िल्में अच्छी लगती है, जादू नगरी से जौनी मेरा नाम तक!
फिल्मी चर्चा के मध्य आपने खुद का परिचय दिया।
ReplyDeleteअच्छा लगा पढकर।
आपको समझने का मौका मिला।
आभार....
पढाई के बारे में आपने बिलकुल मनोवैज्ञानिक और तार्किक सोच उजागर की है.औपचारिक ढंग से ली गई शिक्षा रूचि और जिज्ञासा से ग्रहण की जाने वाली शिक्षा से निश्चित ही कमतर होगी !
ReplyDelete'थ्री ईडियट' का मूल्यांकन मेरा भी वही है जैसा आपने किया है !
जिस प्रकार के बीज बोये जाते हैं उसी तरह के फल निकलते हैं।
ReplyDeleteटका सेर भाजी, टका सेर खाजा...
एक आम चिंतक के दिल की बात न सिर्फ आप ने कह दी बल्कि आंशिक स्वीकृति भी, पूरी ईमानदारी के साथ, रख दी।
ReplyDeleteकुछ सहमतियां हैं और कुछ असहमतियां।
ReplyDeleteआगे कभी किसी परीक्षा में बैठने का सुयोग मिला तो आपके तरीके से बैठा जायेगा। फ़्लिपकार्ट पर 'चांद का मुंह टेढ़ा है', 'कुरु कुरु स्वाहा' और 'प्लेग' की तलाश करता हूँ:)
ReplyDelete’सब कह रहे हैं, इसीलिये कुछ भी मान लिया जाये’ वाले लक्षण हमारे ग्रहयोग में भी नहीं रहे। ’थ्री इडियट्स’ विषय अच्छा था लेकिन मार्केटिंग मजबूरियाँ हों या मनोरंजन के माध्यम से हमारी ब्रेन वाशिंग करना, जिन दृश्यों में बाकी दर्शक हँस हँसकर लोट पोट हुये जाते थे, अपना रक्तचाप उबलता था। मेरी एक पोस्ट पर एक प्रिय बंधु ने गिला किया था कि फ़त्तू अश्लील होता जा रहा है, तो मैंने इसी फ़िल्म का उदाहरण देकर अपना क्षोभ जताने की कोशिश की थी। लेकिन सच ये है कि बाजार की दुनिया में फ़ूहड़ता और अश्लीलता अब स्वाभाविक और वांछनीय कर दी गई है।
तारे जमीं पर तो देखी थी,
ReplyDeleteमुझे फ़िल्मों का शौक नहीं लग पाया।
फ़िल्म समीक्षा के माध्यम से काफ़ी कुछ जानने को मिला ।
समीक्षा अच्छी लगी। ईमानदार।
ReplyDeleteचेतन भगत लिखते पॉपुलर हैं। पर बहुत ब्रिलियेण्ट नहीं। एक दो किताबें उनकी खरीदी, पढ़ी हैं। ज्यादा का मन नहीं है।
"थ्री ईडियट्स की कामेडी चर्चा में रही और पसंद की गई लेकिन यहां भी व्यापक मान्यता और स्वीकृति पा लेने के बाद इसे सहज आसानी से भोंडा की हद तक सुरुचिरहित कहना कठिन हो रहा है" padh kar raahat milee
ReplyDeleteविलम्बित समीक्षाऍं सही होने पर भी विस्मयबोधि चिह्न तो गलवा ही लेती हैं। और हॉं, कृपया चेतन भगत को महत्व न दें। यह 'सुविधावादी बिकाऊ माल' से अधिक और कुछ नहीं है। कोई 'स्टैण्ड' लेने का साहस इस आदमी में नहीं हैा
ReplyDelete1. "पढ़ाई के लिए विषय के रूप में इनका चयन कर लेने पर इनमें मेरी रुचि बनी नहीं रह पाएगी, इन विषयों की स्वाभाविक समझ और उनके प्रति मौलिक सोच बची न रह पाएगी, इन्हें प्रशिक्षित रूढ़ ढंग से देखना शुरू कर दूंगा"
ReplyDelete2. पढ़ाई के विषय और रुचि में तादात्म्य, रोजगार-जीवन यापन की शुरुआत, बीच में बदलाव और कई बार उसके समानान्तर कार्य को रुचि के अनुकूल बना लेना या पसंद का काम, मुआफिक संभावना खोज लेना भी आवश्यक कौशल है।
इन दोनों से शत प्रतिशत सहमती. अगर उससे अधिक सहमती हो सकती हो तो वो भी !
विषय पर त्वरित क्या कहा जा सकता है, सूझ नहीं रहा...
ReplyDeleteबस यही कहूँगी कि बड़ा ही आनंद आया पढ़कर... सबकुछ...
आपके विचारों से शतप्रतिशत सहमत-'थ्री इडियट्स,तारे जमीन पर, परीक्षा प्रणाली,पढाई के विषय.............आवश्यक कौशल है.आदि सभी विचारों से .'थ्री इडियट्स ' का सन्देश सुरुचिपूर्ण प्रस्तुतीकरण से बिना व्यथित हुए ग्राह्य हो सकता था.लोकमत से असहमति की प्रभावी प्रस्तुति.
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ सर.अभी तक ज्यादातर लोगो के ब्लॉग पर आपके कमेन्ट पढ़े आज एसे ही कही से यहाँ तक आ गई.इस फिल्म को इस नजर से नहीं देखा था आजतक....बहुत अच्छा लगा आपका आलेख आपकी यादें....
ReplyDeleteसहमत नहीं होने का कोई कारण नहीं बनता, विशेष कर जो दो बिंदु अभिषेक जी ने गिनाये और तीसरा "इस फिल्म की कामेडी ऐसी है कि अपनी दिनचर्या में सभ्य नागरिक को इन बातों या स्थितियों का सामना करना पड़े तो वह असहज हो जाता है"।
ReplyDeleteमुझे विषयहीन किन्तु ईमानदार फिल्मों से कोई परहेज नहीं है, लेकिन विषय के नाम पर "कुछ भी भावुक" से आपत्ति अवश्य है। यदि चुनना ही हो तो मैं संभवतः दबंग को थ्री इडियट्स कि अपेक्षा प्राथमिकता दूँगा।
ईमेल पर श्री अशोक कुमार शर्माजी-
ReplyDeleteराहुल भाई
नमस्कार
बहुत दिनों बाद मैं आपकी बताई हुए takanik ke adher par aapko email kar raha haoon aapaka idiot ke bahane wala lekh bahut achcha hai main sinhavalokan ka pura lekh padata hoon
ईमेल पर श्री बालमुकुंद ताम्बोली जी-
ReplyDeleteवास्तव में, ये नजरिए का फर्क है. In my opinion, the 'emphasis' should be on learning something, not on becoming something. जीवन में कुछ सीखा हुआ, कुछ पढ़ा हुआ कहीं-न-कहीं काम जरूर आता है. वास्तविक जीवन में शायद ही कोई रास्ता सीधा जाता हो,हर रास्ता थोड़ा-बहुत घूम के जाता है. रास्ते भी सिखाते हैं, इंसान को कुछ अनुभव, कुछ शिक्षा दे जाते हैं, बशर्ते इंसान सीखना चाहे.व्यक्तितव की विशिष्टता मंजिलों की कम, रास्तों की ही देन अधिक होते हैं. और एक जगह ऐसी आती है, जहां मंजिलों और रास्तों में, वास्तव में, कोई भेद नहीं रह जाता.
मुझे लगता है कि जब व्यक्ति के जीवन में प्रौढ़ता आने लगती है, उसके विचार mature होने लगते हैं, तो वो जीवन के सभी रास्तों और तथाकथित मंजिलों से कुछ-न-कुछ शिक्षा ग्रहण करता है, द्रष्टा या scientist की भूमिका में अधिक रहता है, और उसके मन में शिकायत नहीं, जीवन-रूपी शिक्षक और uni-verse के प्रति सिर्फ gratitude, सिर्फ thanks की feeling होती है. Thanks.
थ्री इडियट को मैं उसकी कॉमेडी के लिए याद नहीं करुंगा, मैं उसको याद करुंगा या मुझे वह अच्छी लगी इस वजह से कि हमारी शिक्षा व्यवस्था की विसंगतियों को बड़े फलक पर लोगों के सामने रखती है। थ्री इडियट में हम जिसे कॉमेडी कह रहे हैं वास्तव में वह व्यंग्य है। चमत्कार को बलात्कार में बदलकर बिना समझे रटने पर करारा व्यंग्य किया गया है। इसलिए मुझे तो वह कहीं से भी न तो भोंडा लगा और नहीं अश्लील।
ReplyDeleteइसी तरह तारे ज़मी पर भी इस बात की तरफ ध्यान खींचती है कि हर बच्चा अलग होता है। आपको उसे समझने की कोशिश करनी पड़ेगी।
असल में हमारी समस्या यह है कि दोनों ही फिल्मों में एक सुपर स्टार आमिरखान नायक के रोल में थे। आप कल्पना करिए कि इन दोनों फिल्मों के अगर उनक जगह कोई अनजान चेहरा होता तो क्या इन फिल्मों की इतनी चर्चा होती,शायद नहीं। तो हमें आमिरखान के लोकप्रिय चेहरे का फायदा उठाते हुए कुछ महत्वपूर्ण बातों को आमजन तक पहुंचाने की उनकी नीयत को पहचानना चाहिए।
और दंबग और थ्री इडियट की तुलना तो की ही नहीं जा सकती। दंबग शुद्ध मनोरंजक फिल्म थी। और मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि उसे देखना अच्छा लगता है,बावजूद इसके कि उसमें कोई समस्या नहीं उठाई गई है।
जन्म दिन की ढेर सारी शुभकामनाएं।
ReplyDeleteइस लेख को अभी ठीक से पढ़ नहीं पा रहा हूँ। पढ़कर कमेंट करूंगा, अच्छा लग रहा है।
ReplyDeleteजन्मदिन की बधाई हमारी ओर से भी स्वीकारें।
ReplyDelete*
दंबग से एक और बात याद आई कि उसमें 'पादने' की जिस क्रिया के उल्लेख से हास्य पैदा किया गया है,वह वास्तव में ऐसी क्रिया है जिसका हम सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन करने में संकोच करते हैं। लेकिन शायद हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वह एक आवश्यक क्रिया है।
एकलव्य की बैठकों में हम लोग ज़मीन पर दरी बिछाकर बैठते थे। मुझे याद है हमारे एक वरिष्ठ साथी बिना किसी संकोच के इस क्रिया को बाकायदा अपने को किसी एक और तिरछा करके नितंबों को जमीन से उठाते हुए संपन्न करते थे। हममें से कई लोग उनकी इस हरकत पर नाकमुंह सिकोड़ते थे, लेकिन उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आती थी। तो मुझे लगता है कि कुछ क्रियाएं ऐसी हैं जिन्हें हमने सार्वजनिक प्रदर्शन से दूर रखा है। लेकिन वे जरूरी हैं। जैसे मुझे तो बहुत अजीब लगता है जब लोग छींकने पर आसपास के लोगों को एक्सक्यूज मी कहते हैं। भला क्यों। मैं तो नहीं कहता।
*
आपको भी याद होगा, बचपन में कक्षा में जब अचानक किसी के 'पाद' की गंध भर जाती थी, तो बच्चे पता करने के लिए खेल खेल में कुछ इस तरह गाते थे-
आदा पादा किसने पादा
*
चलिए आपने इस बहाने बहुत कुछ याद दिला दिया।
सिर्फ लोकप्रिय हो जाने के कारण, लोगों (बच्चे-बच्चे) की जबान पर चढ़ जाने के कारण सुरुचिपूर्ण की स्वीकृति नहीं मिल जाती।......प्रतीक्षित पोस्ट जो बहुत अच्छी लगी.
ReplyDeleteघूमता घूमता अचानक आपके ब्लॉग में पहुंच गया | बहुत अच्छी समीक्षा है |
ReplyDelete…वैसे हमारे यहाँ भले सन् 1890 से कोई बात पढी जा रही हो लेकिन जब तक फिल्मी हीरो उसे कहता नहीं, तब तक दर्शक (ये किताब से भागते हैं, और पढना नहीं चाहते)लोग बात सुनते-समझते कहाँ हैं?…
ReplyDeleteसमीक्षा के बहाने निजी जीवन की झांकियां रुचिपूर्ण और सार्थक लगीं. फिल्म तो देखी नहीं.
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