आदि मानव ने सभ्यता के आरंभ में तकनीक विकसित कर अपने दो सबसे बड़े मित्रों को साधा। कुल्हाड़ी, भाले की नोक और तीरों के सिरे बनाने के लिए चकमक पत्थर से पहचान बनी क्योंकि यह लोहे की तरह सख्त होता है और पतली तीखी धार बनाने के लिए इसे घिसा भी जा सकता है। दूसरी तकनीक विकसित हुई, आग पैदा करने की। आग या तो कमान-बरमे से मथ कर पैदा की जाती थी या चकमक को लौह-मासिक पत्थरों पर रगड़कर। मानवजाति के निएंडरथल लोग, जो पृथ्वी पर लगभग सत्तर हजार साल बिताकर, अब से तीस हजार साल पहले पूर्णतया लुप्त हो गए, तकनीकी विकास की इस स्थिति को प्राप्त कर चुके थे।
लगभग दस हजार साल पहले हमारे पूर्वजों- होमो सेपियंस ने पाषाण उपकरण और आग पैदा करने से आगे बढ़कर कृषि तकनीक विकसित कर ली, जिससे गुफावासी मानव, बद्दू जीवन बिताने के साथ-साथ तलहटी, उपजाऊ मैदान और नदियों के किनारे बसने लगा। पत्थर की कुदालों और नुकीली लकड़ियों से जमीन को पोला कर अनाज बोया जाता और लकड़ी या हड्डियों में चकमक फंसाकर बनाए हंसिए से फसल काट ली जाती। उसने अनाज पीसने की विधि भी विकसित कर ली थी। कृषि के साथ पशुपालन भी आरंभ हुआ। वृक्षों की छाल के बाद ऊन, चमड़े आदि की सहज प्राप्ति से वस्त्र निर्माण की तकनीक विकसित होने लगी। वस्त्रों के प्राचीनतम उपलब्ध प्रमाणों में लगभग सात हजार साल पुराना लिनन का टुकड़ा मिस्र से ज्ञात हुआ है।
नवपाषाण काल के ही दौरान, यही कोई पांच-छः हजार साल पहले तकनीकी विकास में 'पहिया' जुड़ जाने से मानव सभ्यता की गति तीव्र हो गई। चाक पर मिट्टी के बर्तन बनने लगे और रथ-गाड़ियां बन जाने से यातायात सुगम हो गया। अब से कोई पांच हजार साल पहले, ताम्र युग आते-आते सुमेर लोगों ने चमड़े के टायर, तांबे की कील वाले पहियों की रीम विकसित कर ली। इसके पश्चात् धातुओं का प्रयोग और उनके मिश्रण से मिश्र धातु की तकनीक जान लेना महत्वपूर्ण बिंदु साबित हुआ।
इस आरंभिक तकनीकी विकास से मानव सभ्यता के इतिहास में ऐसे केन्द्र रच गए, जिनके अवशेष भी कुतूहल पैदा करते हैं। मिस्र में 150 मीटर ऊंचा और करीब ढाई-ढाई टन भारी 23 लाख शिलाखंडों का महान पिरामिड खड़ा किया गया, वह भी पहियों का ज्ञान न होने के बावजूद। स्वाभाविक है कि ईस्वी पूर्व 2600 के आसपास बने इन पिरामिडों की तकनीक की सांगोपांग जानकारी के लिए इस बीसवीं सदी में पिरामिड अध्ययन समितियां बनी लेकिन इनके शोध से तत्कालीन तकनीकी ज्ञान की जितनी जिज्ञासाओं का उत्तर मिलता है, उतने ही नए रहस्य गहराने लगते हैं।
मिस्री खगोल विशारदों ने ही अपनी जीवन-रेखा नील नदी के बाढ़ का हिसाब रखने के लिए पंचांग बनाया। वर्ष, माह, दिन और घंटों का गणित समझने की शुरूआत हुई। असीरिया के निनवे में सत्ताइस सौ साल पहले जल प्रदाय के लिए पांच लाख टन पत्थरों का इस्तेमाल कर 275 मीटर लंबी नहर बनाई गई थी। पत्थर और डामर-अलकतरा के मोट से ऐसी व्यवस्था की गई थी कि उस पर पानी का कोई असर नहीं होता था। बेबीलोन में अड़तीस सौ साल पहले सिंचाई के लिए नहरें खुदवाई गईं। पारसी राज्य में ढाई हजार साल पहले सड़कों का जाल बिछा था। सुसा से सारडिस जाने वाले राजमार्ग की लंबाई 2500 किलोमीटर थी। राजकीय संदेशवाहक इस सड़क को एक सप्ताह में पार कर लेते थे। यहां चमकीले टाइल्स पर बने चित्र आज भी धूमिल नहीं पड़े हैं। लगभग दो हजार साल पहले यहूदी विद्रोह को कुचलने के लिए रोमनों ने येरूशलम को घेर कर दीवार तोड़ने वाले इंजन चालू कर दिए, लगातार तीन सप्ताह लकड़ी के भारी यंत्रों से चलाए गए गोल पत्थरों के आघात से दीवारों पर बड़े-बड़े छेद बन गए थे।
चीन की 2400 किलोमीटर लंबी, प्राचीन दीवार (आमतौर पर 10000 ली यानि 5000 किलोमीटर बताई जाती है) पृथ्वी पर मानव निर्मित, अंतरिक्ष से दिखने वाली एकमात्र संरचना कही जाती है। इसके साथ लेखन कला के माध्यम के लिए कागज बनाने की तकनीक यहीं विकसित मानी जाती है। प्राचीन चीन के तकनीकी कौशल का अल्पज्ञात पक्ष है कि यहां ईस्वी पूर्व आठवीं सदी से भूकंपों का ठीक-ठीक विवरण रखा जाने लगा था और ईस्वी पूर्व दूसरी सदी में भूकंप लेखी यंत्र का अविष्कार कर लिया गया था। समुद्री द्वीप क्रीट में साढ़े तीन-चार हजार साल पहले विकसित मिनोअन सभ्यता के छः एकड़ क्षेत्र में फैले राजमहल के भग्नावशेष मिले, जिसमें जल-आपूर्ति और निकास की तकनीक दंग कर देने वाली है। यूनान के माइसिनी ही संभवतः कभी ब्रिटेन पहुंचे और साढ़े तीन हजार साल पहले यूरोप के प्रागैतिहासिक स्मारकों में सबसे महान गिने जाने वाले स्टोनहेंज का निर्माण किया। यारसीनियनों के साथ ट्रोजन ने भी तकनीक इतिहास रचा और फिनीशियन भी कम साबित नहीं हुए हैं, जिनकी समुद्र यात्रा का तकनीकी ज्ञान अत्यंत विकसित था।
यूनान ने दो-ढ़ाई हजार साल पहले धर्म-दर्शन के क्षेत्र में विकास किया ही, वैज्ञानिक सोच और तकनीक का विकास भी यहां कम न था। विशाल नौकाएं, एपिडारस की पहाड़ियों में पन्द्रह हजार दर्शक क्षमता वाले प्रेक्षागृह और पारसियों को जीतने के लिए टापू पर बसे शहर टायर तक पहुंचने के लिए लंबे पुल तथा उसके बाद शहर के बाहर दीवारों के पार देखने के लिए 50 मीटर ऊंची लकड़ी की दीवार बनाई। रोमनों का लगभग दो हजार साल पुराना कैलेंडर, विशाल नौका, नीरो का 50 हेक्टेयर क्षेत्र में बना 1600 मीटर लंबे कक्ष वाला प्रासाद और पचास हजार दर्शक क्षमता वाला कोलोसियम, रोमन नहर व नालियां, तकनीकी विकास के आश्चर्यजनक उदाहरण हैं। प्राचीन अमरीकी माया, एज्टेक और इन्का सभ्यताओं तथा घाना, सुडान, कांगो जैसी प्राचीन अफ्रीकी सभ्यता के अवशेषों में भी उनके तकनीकी ज्ञान और कौशल के चिह्न परिलक्षित होते हैं।
भारत प्रायद्वीप में आदिमानव के अनेकानेक केन्द्रों के साथ करीब सात-आठ हजार साल पुरानी मिहरगढ़ की सभ्यता प्रकाश में आई है, जिसमें सभ्यता के साथ तकनीकी विकास के कई महत्वपूर्ण सोपान उजागर हुए हैं। लगभग पांच हजार साल पहले कृषक समुदाय के अस्तित्व सहित तकनीकी ज्ञान के अवशेष बलूचिस्तान से ज्ञात हैं। इसके बाद साढ़े चार हजार साल पुरानी हड़प्पा की सभ्यता उद्घाटित हुई, जिन्हें कांसे- मिश्र धातु की तकनीक के अलावा सिंचाई, सड़क, जल-निकास, पकी ईटों, मिट्टी के बर्तन, क्षेत्रफल और आयतन के नाप का गणितीय ज्ञान था। यद्यपि हड़प्पाकालीन लिपि को निर्विवाद पढ़ा नहीं जा सका है, तथापि लिपि का पर्याप्त उपयोग यहां हुआ।
वैदिक काल में तीन-साढ़े तीन हजार साल पुराने ग्रंथों से तकनीकी विकास के साहित्यिक प्रमाण मिलते हैं, जब खगोल, गणित, चिकित्सा और धातु विज्ञान के क्षेत्र में पर्याप्त तकनीकी विकास कर लिया गया था। वैदिक काल में चीन, अरब और यूनान से तकनीकी और वैज्ञानिक ज्ञान के आदान-प्रदान की जानकारी भी मिलती है। प्राचीन भारत में गणित की विभिन्न शाखाओं अंकगणित, रेखागणित, बीजगणित और खगोल ज्योतिष उन्नत थी। ब्रह्मगुप्त, वराहमिहिर और आर्यभट्ट जैसे गणितज्ञ अपने समकालीन ज्ञान से बहुत आगे थे, जिनसे भारत प्रायद्वीप में तकनीकी विकास को गति मिली।
काल-गणना पद्धति और ग्रह-नक्षत्रों का ज्ञान भी विकसित तकनीक का द्योतक है। तत्वों और अणुओं का ज्ञान, रसायन की कीमियागिरी तथा नाप-तौल और समय-माप के लिए न्यूनतम और वृहत्तम इकाई तय की गई। धात्विक तकनीकी विकास का उदाहरण मिहरौली लौह स्तंभ, आश्चर्य और जिज्ञासा का केन्द्र है। भारतीय स्थापत्य, चाहे वह शिलोत्खात हो या संरचनात्मक, अपने आप में तकनीकी कौशल की मिसाल है। भारतीय मंदिरों की विभिन्न स्थापत्य शैलियों, सौन्दर्य सिद्धांत के स्थापित मानदण्डों के साथ संरचनात्मक और स्वरूपात्मक नियम पर खरे हैं, इसलिए ये धर्म-अध्यात्मिक गहराई के साथ-साथ तकनीकी और अभियांत्रिकी कौशल की ऊंचाई का अनोखा संतुलित तालमेल प्रस्तुत करते हैं।
छत्तीसगढ़ में पाषाणयुगीन उपकरण रायगढ़ जिले के सिंघनपुर, कबरा पहाड़, टेरम, दुर्ग जिले के अरजुनी तथा बस्तर जिले से प्राप्त हुए हैं। ताम्रयुगीन उपकरणों का संग्रह छत्तीसगढ़ के संलग्न बालाघाट जिले के गुंगेरिया से मिला है। लौह युग के विभिन्न महाश्मीय स्मारक-स्थल दुर्ग जिले के करकाभाट, करहीभदर, धनोरा, मुजगहन, चिरचारी तथा धमतरी के लीलर, अरोद आदि से ज्ञात हैं। आद्य-ऐतिहासिक काल में मल्हार से भवन निर्माण के अवशेष ज्ञात हैं और छत्तीसगढ़ के मिट्टी के परकोटे वाले गढ़ भी इसी युग के होने की संभावना है। तत्कालीन मृदभाण्ड भी प्रचुर मात्रा में मिलते हैं।
ऐतिहासिक युग के चट्टान, शिला व काष्ठ स्तंभ पर उत्कीर्ण लेख तथा प्राचीन विशिष्ट ठप्पांकित तकनीक सहित अन्य सिक्के किरारी, रामगढ़, गुंजी, मल्हार, ठठारी, तारापुर आदि स्थानों से मिले हैं। सिरपुर, सलखन, आरला, फुसेरा और हरदी से प्राप्त धातु प्रतिमाएं भी विशेष उल्लेखनीय हैं। आरंभिक स्थापत्य संरचनाएं, पाषाण तथा ईंटों से निर्मित हैं जिनके उदाहरण ताला, मल्हार, राजिम, नारायणपुर, सिरपुर, आरंग, सिहावा, खल्लारी, तुमान, रतनपुर, जांजगीर, पाली, शिवरीनारायण, डीपाडीह, महेशपुर, देवबलौदा, भोरमदेव, नारायणपाल, बारसूर और भैरमगढ़ आदि में विद्यमान हैं।
भारतीय तकनीकी ज्ञान का अनुमान प्राचीन साहित्यिक स्रोतों की सूचियों से स्पष्ट होता है-
अग्निकर्म- आग पैदा करना
जलवाय्वग्निसंयोगनिरोधैः क्रिया- जल-वायु-अग्नि का संयोग, पृथक करना, नियंत्रण
छेद्यम्- भिन्न-भिन्न आकृतियां काट कर बनाना
मणिभूमिका कर्म- गच में मणि बिठाना
अनेकरूपाविर्भावकृतिज्ञानम्- पत्थर, लकड़ी पर आकृतियां बनाना
स्वर्णादीनान्तु यथार्थ्यविज्ञानम्- स्वर्ण परीक्षण
कृत्रिमस्वर्णरत्नादिक्रियाज्ञानम्- नकली सोना, रत्न आदि बनाना
रत्नानां वेधादिसदसज्ज्ञानम्- रत्नों की परीक्षा, उन्हें काटना, छेदना
मणिरागः- कीमती पत्थरों को रंगना
स्वर्णाद्यलंकारकृतिः- सोने आदि का गहना बनाना
लेपादिसत्कृतिः- मुलम्मा, पानी चढ़ाना
तक्षकर्माणि- सोने चांदी के गहनों और बर्तन पर काम
रूपम्- लकड़ी, सोना आदि में आकृति बनाना
धातुवादः- धातु शोधन व मिश्रण
पाषाणधात्वादिदृतिभस्मकरणम्- पत्थर, धातु गलाना तथा भस्म बनाना
धात्वोषधीनां संयोगाक्रियाज्ञानम्- धातु व औषध के संयोग से रसायन तैयार करना
चित्रयोगा- विचित्र औषधियों के प्रयोग की जानकारी
शल्यगूढ़ाहृतौ सिराघ्रणव्यधे ज्ञानम्- शरीर में चुभे बाण आदि को निकालना
दशनवसनागरागः- शरीर, कपड़े और दांतों पर रंग चढ़ाना
वस्त्रराग- कपड़ा रंगना
सूचीवानकर्माणि- सीना, पिरोना, जाली बुनना
मृत्तिकाकाष्ठपाषाणधातुमाण्डादिसत्क्रिया- मिट्टी, लकड़ी, पत्थर के बर्तन बनाना
पटि्टकावेत्रवानविकल्पाः- बेंत और बांस से वस्तुएं बनाना
तक्षणम्- बढ़ईगिरी/ वास्तुविद्या- आवास निर्माण कला
नौकारथादियानानां कृतिज्ञानम्- नौका, रथ आदि वाहन बनाना
जतुयन्त्रम्- लाख के यंत्र बनाना
घट्याद्यनेकयन्त्राणां वाद्यानां कृतिः- वाद्ययंत्र तथा पवनचक्की जैसी मशीन बनाना
मधूच्छ्रिष्टकृतम- मोम का काम
गंधयुक्ति- पदार्थों के मिश्रण से सुगंधि तैयार करना
वेणुतृणादिपात्राणां कृतिज्ञानम्- बांस, नरकुल आदि से बर्तन बनाना
काचपात्रादिकरणविज्ञानम्- शीशे का बर्तन बनाना
लोहाभिसारशस्त्रास्त्रकृतिज्ञानम्- धातु का हथियार बनाना
वृक्षायुर्वेदयोगाः- वृक्ष चिकित्सा और उसे इच्छानुसार छोटा-बड़ा (बोनसाई?) करना
वृक्षादिप्रसवारोपपालनादिकृतिः- बागवानी
जलानां संसेचनं संहरणम्- जल लाना, सींचना
सीराद्याकर्षणे ज्ञानम्- जोतना आदि खेती का काम।
जलवाय्वग्निसंयोगनिरोधैः क्रिया- जल-वायु-अग्नि का संयोग, पृथक करना, नियंत्रण
छेद्यम्- भिन्न-भिन्न आकृतियां काट कर बनाना
मणिभूमिका कर्म- गच में मणि बिठाना
अनेकरूपाविर्भावकृतिज्ञानम्- पत्थर, लकड़ी पर आकृतियां बनाना
स्वर्णादीनान्तु यथार्थ्यविज्ञानम्- स्वर्ण परीक्षण
कृत्रिमस्वर्णरत्नादिक्रियाज्ञानम्- नकली सोना, रत्न आदि बनाना
रत्नानां वेधादिसदसज्ज्ञानम्- रत्नों की परीक्षा, उन्हें काटना, छेदना
मणिरागः- कीमती पत्थरों को रंगना
स्वर्णाद्यलंकारकृतिः- सोने आदि का गहना बनाना
लेपादिसत्कृतिः- मुलम्मा, पानी चढ़ाना
तक्षकर्माणि- सोने चांदी के गहनों और बर्तन पर काम
रूपम्- लकड़ी, सोना आदि में आकृति बनाना
धातुवादः- धातु शोधन व मिश्रण
पाषाणधात्वादिदृतिभस्मकरणम्- पत्थर, धातु गलाना तथा भस्म बनाना
धात्वोषधीनां संयोगाक्रियाज्ञानम्- धातु व औषध के संयोग से रसायन तैयार करना
चित्रयोगा- विचित्र औषधियों के प्रयोग की जानकारी
शल्यगूढ़ाहृतौ सिराघ्रणव्यधे ज्ञानम्- शरीर में चुभे बाण आदि को निकालना
दशनवसनागरागः- शरीर, कपड़े और दांतों पर रंग चढ़ाना
वस्त्रराग- कपड़ा रंगना
सूचीवानकर्माणि- सीना, पिरोना, जाली बुनना
मृत्तिकाकाष्ठपाषाणधातुमाण्डादिसत्क्रिया- मिट्टी, लकड़ी, पत्थर के बर्तन बनाना
पटि्टकावेत्रवानविकल्पाः- बेंत और बांस से वस्तुएं बनाना
तक्षणम्- बढ़ईगिरी/ वास्तुविद्या- आवास निर्माण कला
नौकारथादियानानां कृतिज्ञानम्- नौका, रथ आदि वाहन बनाना
जतुयन्त्रम्- लाख के यंत्र बनाना
घट्याद्यनेकयन्त्राणां वाद्यानां कृतिः- वाद्ययंत्र तथा पवनचक्की जैसी मशीन बनाना
मधूच्छ्रिष्टकृतम- मोम का काम
गंधयुक्ति- पदार्थों के मिश्रण से सुगंधि तैयार करना
वेणुतृणादिपात्राणां कृतिज्ञानम्- बांस, नरकुल आदि से बर्तन बनाना
काचपात्रादिकरणविज्ञानम्- शीशे का बर्तन बनाना
लोहाभिसारशस्त्रास्त्रकृतिज्ञानम्- धातु का हथियार बनाना
वृक्षायुर्वेदयोगाः- वृक्ष चिकित्सा और उसे इच्छानुसार छोटा-बड़ा (बोनसाई?) करना
वृक्षादिप्रसवारोपपालनादिकृतिः- बागवानी
जलानां संसेचनं संहरणम्- जल लाना, सींचना
सीराद्याकर्षणे ज्ञानम्- जोतना आदि खेती का काम।
तकनीक पर सिंहावलोकन न्याय द्वारा दृष्टिपात करने से आगे का मार्ग सुगम होकर प्रशस्त हो सकेगा।
डाटा स्पेक, बिलासपुर द्वारा रोटरी क्लब आफ बिलासपुर मिडटाउन के सहयोग से नवंबर 97 में आयोजित तकनीक व्यापार मेला के अवसर पर स्मारिका के लिए लेख की बात डा. डीएस बल जी से हुई, उनके नम्र आग्रह का बल, जिसने झेला हो वही जान सकता है। मैंने नसीहत याद की- किसी विषय की जानकारी न हो और जानना चाहें तो उस पर एक लेख लिख डालें। डा. बल से हुई चर्चा के तारतम्य में ऐसा ही कुछ किया और जो बन पड़ा, मसौदा उन्हें सौंप दिया, बाद में पता चला कि वह 'कल से आज तक' शीर्षक से स्मारिका में शामिल किया गया है।
उल्लेखनीय है कि प्राचीन ग्रंथों में 64 कलाओं की सूची के लिए वात्स्यायन कामसूत्र चर्चित है, किंतु ऐसी सूची ललित विस्तार, शुक्रनीतिसार, प्रबन्धकोश जैसे ग्रंथों में भी है। यह भी कि सन 1911 में अडयार, मद्रास से प्रकाशित ए वेंकटसुब्बैया द्वारा तैयार कला सूची को प्रामाणिक अध्ययन माना जाता है। साथ ही हजारी प्रसाद द्विवेदी की 'प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद' इस विषय की अनूठी पुस्तक है। विभिन्न स्रोतों से कुछ कलाओं के नाम यहां उदाहरणस्वरूप एकत्र हैं, जिनसे अनुमान होता है कि ये मात्र कला के नहीं, बल्कि हस्तशिल्प, अभ्यास के साथ तकनीकी कौशल के भी उदाहरण हैं।
अपने ब्लाग का शीर्षक और उसके साथ का वाक्य, ''सिंहावलोकन - आगे बढ़ते हुए पूर्व कृत पर वय वानप्रस्थ दृष्टि'', बड़ी मशक्कत के बाद तय किया था, लेकिन इस लेख की अंतिम पंक्ति चौंकाने वाली थी, क्योंकि कभी पहले सिंहावलोकन शब्द का प्रयोग मैंने इस तरह किया है मुझे कतई याद न था।
(इस पोस्ट का आरंभिक भाग समाचार पत्र 'जनसत्ता', नई दिल्ली के समांतर स्तंभ में 17 नवंबर 2011 को प्रकाशित)
Bahut upyukt jaankaaree deta hua aalekh!
ReplyDeleteअद्भुत अभी तक आप हमें छत्तीसगढ़ के ही ऐतिहासिक पक्षों से अवगत करा रहे थे, अब दुनिया की भी सैर करा रहे हैं। प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद पुस्तक के बारे में तो मुझे जानकारी ही नहीं थी। इतिहास के पाठकों को कम से कम ऐसी जानकारियाँ तो अपेक्षित ही हैं जिनसे उन्हें कम से कम अपने इतिहास की जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रारंभिक स्रोत तो पता चलें। आभार
ReplyDeleteकिसी भी कार्य को बेहतर ढंग से करने की ललक मानव में सदा से रही है, अनुपम आलेख..
ReplyDeleteवाह…बहुत मेहनत हुई है इस बार…फिर पुरातात्विक मूड में…विज्ञान के इतिहास जैसे बड़े ग्रंथ में कामों की सूची देखने को मिली थी…ढाई-ढाई टन भारी 23 लाख शिलाखंड, यह तथ्य आश्चर्य पैदा करता है…थोड़ा संदेह भी…वैसे जानकारी भरा लेख…तकनीक या गणित-विज्ञान में सन 7-800 तक तो भारत बहुत अच्छा चला लेकिन गुणाकर मुळे के अनुसार, उसके बाद जबरदस्त पाखंड, फलित ज्योतिष के नकली रूप, उसके प्रचार ने, अंधविश्वासों ने, तंत्र-मंत्र जैसे मिथ्या प्रलापों ने सब नष्ट कर डाला और हम तकनीक के लिए उधारवादी हो गए…बहुत अच्छा…लेकिन कई बार नहीं पढ़ने पर यह तथ्यात्मक लेख स्मृति में आंशिक रूप से भी बचेगा नहीं…
ReplyDeleteविचित्र है यह मानव मस्तिष्क! अपनी प्रत्येक आवश्यकता के लिए एक के बाद एक तकनीक विकसित करता गया मानव।
ReplyDeleteआपके मस्तिष्क का भी जवाब नहीं जो आपने प्रगैतिहासिक युग से आज तक के तकनीकों का गहन अध्ययन कर उन्हें इस पोस्ट रूपी हार में पिरोया है!
बहुत परिश्रम के साथ लिखा गया आपका यह पोस्ट जानकारी का खजाना है!
वाह...बहुत अच्छा आलेख. मनुष्य को विकसित होने में सदियाँ लगीं पर उसमें तरक्की करने का मूल गुण आरम्भ से ही था.
ReplyDeleteइतने लंबे इतिहास को आपने संक्षेप में बहुत व्यवस्थित ढंग से समेटा है.
अथः सम्पूर्ण मानव विकास गाथा!!
ReplyDeleteजिन चीजों को हम आज ’taken for granted' माने हैं, उन्हें विकसित करने में कितना श्रम लगा होगा, जब भी सोचा तो हैरत हुई।
ReplyDeleteतकनीक के ऊपर ऐसी पैनोरमिक नजर, राहुल सर, यू आर ग्रेट।
संग्रहणीय जानकारी!!
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी जानकारियां मिली आज तो..कभी कभी मैं भी सोचता हूँ की कैसे उस ज़माने में जब टेक्नोलोजी कुछ भी नहीं थी, लोगों ने एक से एक चीज़ों का निर्माण किया था!
ReplyDeleteमुझे नहीं याद आता की इतिहास के बारे में इससे सरल जानकारी पहले कभी पढ़ी हो ....
ReplyDeleteआभार आपका !
विस्मित कर दिया आज आपके लेख ने ....
ReplyDeleteरोचक जानकारी ..
काश सब इतिहासकार ऐसा सरल लिख पाते ..
तो हम जैसे हजारो अपढ़ आभारी होते ..
बधाई !
यह लेख मेरे संकलन में रहेगा ...
ReplyDeleteकालक्रमानुसार तकनीक की प्रगति और भारतीय संदर्भ का एक संग्रहनीय आलेख -
ReplyDeleteएक बात पूछूं -पहले विज्ञान जन्मा या तकनीक?
संग्रहणीय पोस्ट के लिए धन्यवाद । मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है ।
ReplyDeleteचक्के का आविष्कार एक क्रांतिकारी विकास था। इसने दुनिया का नक्शा ही बदल डाला।
ReplyDeleteआपके हर पोस्ट में कुछ ऐसा खास होता है जो काफ़ी विचारोत्तेजक सामग्री हमारे सामने पेश करता है।
ऐतिहासिक तथ्यों की इतनी सरल प्रस्तुति .. गजब !!
ReplyDeleteभारत में ईशा पूर्व पांचवी-छठी शताब्दी से पहले के बृहत् पुरातात्विक ऐतिहासिक स्थलों (अवशेषों) की कहीं सूचि होगी क्या? सिन्धु घाटी सभ्यता को छोड़कर?
ReplyDeleteमेरे पसंदीदा विषय पर महत्वपूर्ण जानकारी दी है आपने. धन्यवाद.
ReplyDeleteप्रागैतिहासिक काल की तकनीकी जानकारी !
ReplyDeleteमिस्र के पिरामिड तो वाक़ई अभी भी रहस्य हैं !
बहुत परिश्रम किया गया है इस पोस्ट में ,आभार !
यही ख़तम नहीं होता मानव मस्तिष्क ,ये तो निरंतर प्रक्रिया है विकास की ! आपके ब्लॉग में मानव मस्तिस्क के बारे में ज्ञानवर्धक बाते लिखी है जिसको कलेक्ट करने में बहूत मेहनत एवं समय लगा है ! हमारे पुराने सभी विद्या विज्ञानं का एक हिस्सा है चाहे वो पुरातत्व हो या विज्ञानं की अन्य शाखा ही क्यों न हो , आज हम उस चकमक पत्थर से आगे बढ़कर द्रव hydrogen तक की स्थिति में पहुच गए है और उसके आगे .............बधाई
ReplyDelete@ अरविन्द जी,
ReplyDeleteजन्मना तो पहले ज्ञान को ही चाहिए :)
@ राहुल सिंह जी ,
आलेख के दूसरे से सातवें पैरे तक जिन देशों के उद्धरण दिए गये हैं उनकी अपनी भाषाओँ में भी प्रचलित तकनीक के लिए वैसी ही शब्दावलियां ज़रूर होंगी जैसी कि हमारी परम्परा में यह संस्कृत भाषा में उपलब्ध हैं या पाली प्राकृत वगैरह में होंगी ! कहने का आशय यह है कि विज्ञान और तकनीक मनुष्य के अपने इतिहास क्रम की भाषा में बांची / उद्धृत की और सहेजी जाती रही होंगीं ! अतः विज्ञान और तकनीक के विकास /संवर्धन /और पल्लवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती अगर मनुष्य ने इनसे भी पहले अपनी भाषा / बोली ना विकसित कर ली हो ! तो फिर मैं यह मानूंगा कि मनुष्य ने सबसे पहले अपने स्वरयंत्र(बिना ध्वनि वाला सांकेतिक ही सही)के उपयोग और उसके परिष्कार का ज्ञान और तकनीक विकसित (कापी ) की होगी !
अवधिया जी मानव मस्तिष्क को विचित्र क्यों कहते हैं ? यह तो प्रकृति का अविष्कार और हमें उसकी अनुपम भेंट है ! मेरा हमेशा से यह मानना है कि ज्ञान और तकनीक के विकास के नाम में मनुष्य के पास अपना मौलिक कुछ भी नहीं है वह एक अनुसरणकर्ता विद्यार्थी या नक़ल चोर मात्र है जो प्रकृति के मौलिक उत्पादों / अविष्कारों / कृतियों की प्रतिकृतियां बनाता आ रहा है ! सच कहूं तो प्रकृति के ज्ञान और तकनीक पर आश्रित होकर उसका एक्सटेंसन /उसकी नक़ल करने वाला जीव मात्र है मनुष्य :)
अब ज़रा प्रकृति के मौलिक अविष्कारों के नमूने देखें...
दुनिया का पहला स्वर यंत्र...हमारा वोकल कार्ड जो संकेतों को ध्वनियों में कोडित कर प्रसारित करता है :)
पहला रिसीविंग एंटेना...हमारे कान जो ध्वनियों को रिसीव करके पुनः संकेतों में डिकोदित करके सोर्स सेंटर में जमा करा देते हैं :)
पहली भार उठाने वाली क्रेन...हमारे हाथ पैर जिनके बिन हम क्या होते और क्या करते :)
पहला कम्प्यूटर...हमारा मस्तिष्क :)
पहली बायनाकुलर...हमारी आँखें :)
पहला क्रशर यंत्र ,शोधन यंत्र ,ऊर्जा उत्पादक यंत्र...हमारे दांत जबड़े आंतें और अन्य आंतरिक सिस्टम जो हमारे जीवन के लिए ऊर्जा उत्पादित करता है :)
पहला घर ? पहले कपड़े ? पहला पेय ? पहला खाद्य ? पहला हथियार ? पहले रंग ? पहले आभूषण ? पहली स्याही ? पहला कागज ? पहला पेन ? ...
और कितना भी सोचता जाऊं वो सब भी मौलिक रूप से प्रकृति प्रदत्त तकनीक और ज्ञान है जिसका हम सब मनुष्यों ने एक्सटेंसन किया है प्रतिकृतियां बनाईं हैं कार्बन कापी की है :)
प्रकृति ही हमारी गुरु और ओरिजनल अविष्कारकर्ता है !
बहरहाल आपने एक शानदार आलेख लिखा है उसके लिए साधुवाद !
मुझे लगता है जितना आपने लिखा है उससे कै गुना अधिक आपको पढ़ना पढ़ा होगा। खैर हम लोगो को तो एक ही जगह संकलित खजाना मिल गया। इतिहास पर इस सिंहावलोकन के लिये आभार
ReplyDeleteलाजवाब पोस्ट..मनुष्य अपनी कल्पना को साकार करने सदैव प्रयत्नशील रहता है.और उसमें आशातीत सफलता भी मिलती है.पत्थर फिर चकमक फिर माचिस इसका जीता जागता उदाहरण है.आपके पोस्ट में लगा तस्वीर भी शायद यही बया कर रही है.एक बार फिर पोस्ट के लिए बधाई........
ReplyDeleteएक पोस्ट में आपने मानव इतिहास को समेट दिया, यह पोस्ट भी ऐतिहासिक है। हमारे जैसे लोगों के बहुत काम की है। आभार, अभिनंदन
ReplyDeleteअली भाई प्रकृति के जीवों से सीखी प्रविधियां बायोमीमिक्री कहलाती हैं -चिड़ियों से उड़ना ,सुरक्षा कामाफ्लेज ,चमगादड़ों से राडार आदि आदि और अनंत संभावनाएं अभी शेष हैं ......
ReplyDeleteकुछ लोग कहते हैं कि लुढकने वाले किसी पहले पत्थर ने मनुष्य में कुछ विचार कौन्धाया होगा और प्रौद्योगिकी रफ़्तार पकडती गयी होगी .....मतलब पहले टेक्नोलोजी आयी ??????
bahut badiya aitihasik jankari padne ko mili..
ReplyDeleteprastuti hetu aabhar!
@ अली साहब:
ReplyDelete"प्रकृति ही हमारी गुरु और ओरिजनल अविष्कारकर्ता है !"
सौ टका सच।
मैं के.एम. मुंशी का कृष्णावतार पढ़ रहा था तो बारम्बार यह अहसास होता था कि कृष्ण विलक्षण बने - इस लिये भी कि उन्होने तकनीकी ज्ञान को तात्कालिक प्रयोग हेतु साधा था - बखूबी।
ReplyDelete@ अरविन्द जी ,
ReplyDeleteप्रकृति के अवलोकनकर्ता के रूप में मनुष्य में पहले विचार कौंधा और फिर उसने नियोजित ढंग से पत्थर लुढ़काया या कि पहले अनियोजित ढंग से पत्थर लुढ़का और इसके बाद विचार कौंधा ?
अगर आप अनियोजित ढंग से पत्थर लुढकने को टेक्नीक का दर्जा दे दें तो फिर बात और है :)
उत्कृष्ट लेखन. बधाइयाँ.
ReplyDeleteबहुत बधाई स्वीकारें राहुल जी आपने तो पूरा शोध ग्रन्थ लिख डाला पुराने तकनीकी ज्ञान पर. लेकिन इस ज्ञान पर आश्चर्य किये बिना नहीं रहा जा सकता.
ReplyDeleteअसीम आभार इस सुंदर संकलन के लिये.
आलेख भी और कई टिप्पणियाँ भी सोचने को बाध्य करती हैं।
ReplyDeleteराहुल जी, चीन की दीवार के अंतरिक्ष से दिखने की बात चेन ईमेल्स द्वारा फैलाया हुआ एक भ्रम मात्र है। नासा का यह आधिकारिक पेज देखिये:
http://www.nasa.gov/vision/space/workinginspace/great_wall.html
अली जी,
विज्ञान के बिना भी तकनीक का प्रयोग हो सकता है। बाद में विज्ञान उसे परिभाषित कर सकता है
@ स्मार्ट इंडियन जी ,
ReplyDeleteचीन की दीवार पर आपसे मिली उपयोगी जानकारी के लिए आभार, अब दुरुस्त कर लिया है.
अरविंद मिश्र जी के प्रश्न पर अपनी बात उन्हें मेल की थी कि ''निसंदेह तकनीक पहले, उदाहरण के लिए लीवर का इस्तेमाल तो एक अनपढ़ भी जानता है, आदि मानव भी करता रहा है, लेकिन उसका विज्ञान बाद में समझा गया''
अन्य टिप्पणियों के संदर्भ में- '' इस पोस्ट में प्रयास है कि कालक्रम के साथ विश्व, भारत और छत्तीसगढ़ को एक साथ घटाया जाय और वह भी साहित्यिक स्रोतों के आधार पर नहीं, यथासंभव पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर''
@ स्मार्ट इन्डियन
ReplyDeleteमैंने जानबूझकर ज्ञान कहा ना कि विज्ञान !
@ राहुल सिंह जी ,
तो क्या मैं यह मान लूं कि अनपढ़ आदमी अज्ञानी होता है :)
मेरा अभिमत यह है कि विचार और व्यवहार में से पहल हर हाल में विचार / बोध / अनुभूति की ही होगी ! यही ज्ञान है ! आप उसे बाद में अपनी सुविधा अनुसार विज्ञान के खांचे में फिट करते रहिये और तकनीक से तुलना भी :)
आपके पोस्ट पर आना सार्थक लगा । मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है । सादर।
ReplyDeleteसंकलनीय,ज्ञानवर्धक,सारगर्भित आलेख.ऐसा आलेख वृहद् अध्ययन से ही संभव है. अब तो अगले ब्लॉग का इंतजार है.
ReplyDeleteआपने विश्व,भारतऔर छत्तीसगढ़ में मानव इतिहास और इसमें तकनीक के योगदान को को अकल्पनीय सरलता से बता दिया है.
ReplyDeleteराहुल जी,मेरा आना सार्थक रहा सुंदर जानकारी मानव जीवन की ...
ReplyDeleteबधाई ...मेरे नए पोस्ट "वजूद" में स्वागत है
बहुत ही जानकारी भरा उपयोगी आलेख...
ReplyDeletebahut hi goodh jankaari, hamesha ki tareh hamare gyan ko ek naya ayam deti hui aapki is behtreen prastuti ko hamara naman
ReplyDeleteपढता रहा हूँ और पढता ही रहूँगा आपका यहाँ ब्लॉग .....एक जीवंत चित्र खींच दिया आज आपने तकनीक का ...मानवीय विकास के प्रत्येक पहलु की जानकारी देता आपका यह आलेख संग्रहणीय है ....!
ReplyDeleteशानदार आलेख बहुत ही अच्छी जानकारियां मिली राहुल जी
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया लेख राहुल भाई बधाई ,
ReplyDeleteसोचनीय विषय तो यह भी है कि जिस मानव सभ्यता को विकसित होने में सदियाँ लग गयी उसे हम कितनी तेजी से मिटने की ओर बढ़ रहें है
नित्य भूलते जा रहें है अपने संस्कारों को पर अंत में आपकी ही बात याद आ जाती है कि आशा से आकाश टिका है
पुनः उम्दा लेख के लिए बधाई