tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post711997956187764653..comments2024-03-26T11:26:04.832+05:30Comments on सिंहावलोकन: साहित्यगम्य इतिहासRahul Singhhttp://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.comBlogger35125tag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-14253634302877302122023-04-11T14:01:34.347+05:302023-04-11T14:01:34.347+05:30आज के परिवेश में जब चहुंओर इतिहास बदलने का शोर मचा...आज के परिवेश में जब चहुंओर इतिहास बदलने का शोर मचा हुआ है तब यह आलेख बहुत ही सारगर्भित और ज्ञानवर्धक है। आभार 🙏डॉ. संजय शुक्लाnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-692757102100543952011-11-29T14:10:23.584+05:302011-11-29T14:10:23.584+05:30ये पोस्ट और उस पर आई टिप्पणियाँ बार बार पढ़ रहा हू...ये पोस्ट और उस पर आई टिप्पणियाँ बार बार पढ़ रहा हूँ,टिप्पणी, राय-मशविरे का अधिकारी नहीं हूँ लेकिन ये सच है कि नीरस बिल्कुल नहीं लगा और जानना अच्छा ही लग रहा है।संजय @ मो सम कौन...https://www.blogger.com/profile/14228941174553930859noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-25305777841961059992011-11-29T07:45:52.656+05:302011-11-29T07:45:52.656+05:30देर से आने के लिए माफी चाहता हूँ..
आपका यह शोध आ...देर से आने के लिए माफी चाहता हूँ..<br /> आपका यह शोध आलेख वस्तुनिष्ठता के निदर्शन का सम्यक प्रयास है .पूर्व -मध्यकालीन भारत में ताम्र-प्रस्तरों पर प्राप्त बहुधा दान के अभिलेखों से मिलने से भारतीय इतिहास को एक नई अवधारणा मिली थी . डॉ राम शरण शर्मा जैसे विद्वानों का मानना था की तत्कालीन भारत में एक नया सामाजिक परिवर्तन देखने को मिलता है जब पहली बार वर्ण्य व्यवस्था के क्रम में हेर-फेर देखने को मिलता है..<br />इतिहास का निर्धारण पुरातत्व-विदेशी विवरण-और साहित्यिक श्रोतों के आधार पर होता आया है.केवल साहित्यिक श्रोतो को इतिहास निर्धारण में कभी श्रेय नहीं दिया गया क्योकि कुछ एक अपवाद को छोड़ दिया जाय तो राज्याश्रय में लिखा गया साहित्य चारण गीरी ही दर्शाता था.इसीलिये अशोक के समय से ही इतिहास का आरम्भ माना गया जब सभी श्रोत एक दुसरे की पुष्टि करते थे.कल्हण की राज तरंगनी तो इसका अपवाद है और विशुद्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ है.<br />मुझे आपका यह लेखन पसंद आया तथा उम्मीद है की आपके ब्लॉग पर ऐसे आलेख सदा मिलते रहेंगे .<br />आदर सहित<br />मनोज.डॉ. मनोज मिश्रhttps://www.blogger.com/profile/07989374080125146202noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-42381373708284554142011-11-28T07:32:45.505+05:302011-11-28T07:32:45.505+05:30सारगर्भित आलेख. वस्तुगम्य और बोधगम्य के बीच के अंत...सारगर्भित आलेख. वस्तुगम्य और बोधगम्य के बीच के अंतर को समझने का प्रयास कर रहा हूँ.P.N. Subramanianhttps://www.blogger.com/profile/01420464521174227821noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-49184346817600826062011-11-27T19:08:11.194+05:302011-11-27T19:08:11.194+05:30बहुत सुंदर आलेख है और बोधगम्य भी। इस के लिए आरंभ म...बहुत सुंदर आलेख है और बोधगम्य भी। इस के लिए आरंभ में ही लेखक की टिप्पणी कि शुष्क आलेख है उचित नहीं थी। खैर! इस का एक लाभ यह भी हुआ कि मैं इसे ध्यान से पढ़ गया। शुष्कता प्रेमी होने के नाते। <br />इतिहास का महत्व मानव जीवन के लिए आगे की राह खोज निकालने के लिए है, न कि मिथ्या गौरव करने के लिए। एक वक्त था जब लखनऊ के तांगेवाले और टोंक के रिक्षा चालक ऐसा ही गौरव बखानते थे। आज भी बखानते हों तो जानकारी नहीं। लेकिन उस का क्या लाभ? <br />इतिहास सूत्रबद्ध रीति से यह बताए कि आदिम जीवन से आज के जीवन तक हम कैसे पहुँचे और फिर आगे की राहें सुझाए तो उस का महत्व है। इतिहास पर साहित्य लेखन का यही महत्व है। इतिहास हमें केवल किसी युग या समय की रूपरेखा बताता है। इतिहास को आधार बनाया हुआ साहित्य उस के सजीव दृश्य उपस्थित करता है। हम वैदिक साहित्य और सिंधुघाटी से प्राप्त वस्तुओं के आधार पर इतिहास की रचना करते हैं। लेकिन साहित्य उसे दृष्टिगोचर बनाता (विजुअलाइज करता) है। इतिहास में आर्य कबीलों और लिंगपूजकों के संघर्ष का उल्लेख मिलता है। लेकिन डॉ. रांगेय राघव का उपन्यास मुर्दों का टीला उसे दृष्टिगोचर बनाता है। इसी तरह राहुल सांकृत्यायन का सिंह सेनापति बुद्ध और महावीर के काल में ले जाता है गोत्रीय समाज, गणतंत्रों और राज्य के जीवन के भेदों को हमारे लिए दृष्टिगोचर बनाता है। .<br />मैं इस आलेख के लिए आप का बहुत आभारी हूँ।दिनेशराय द्विवेदीhttps://www.blogger.com/profile/00350808140545937113noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-12174456988304685242011-11-27T07:36:22.091+05:302011-11-27T07:36:22.091+05:30@ 'मैं और मेरा परिवेश' सौरभ जी,
प्राचीन भ...@ 'मैं और मेरा परिवेश' सौरभ जी, <br />प्राचीन भारतीय इतिहास (नजरिए) के लिए कुछ नाम याद कर रहा हूं-<br />विदेशियों में बाशम और कनिंघम को लाजवाब मानता हूं, स्टेला क्रैमरिश भी पसंद हैं. भारतीयों में वासुदेवशरण अग्रवाल, मोतीचन्द्र, राय कृष्णदास की तिकड़ी और नेहरू तो हैं ही. डीडी कौशाम्बी, रोमिला थापर और डा. रमानाथ मिश्र से बार-बार असहमति के बाद भी उनके अलग नजरिये का मूल्य स्वीकार करता हूं.Rahul Singhhttps://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-21866437052080810682011-11-27T05:26:45.798+05:302011-11-27T05:26:45.798+05:30हमें तो कतई शुष्क न लगा यह आलेख...सार्थक एवं उम्दा...हमें तो कतई शुष्क न लगा यह आलेख...सार्थक एवं उम्दा चिंतन...Udan Tashtarihttps://www.blogger.com/profile/06057252073193171933noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-12726930803561879982011-11-27T00:27:24.093+05:302011-11-27T00:27:24.093+05:30पोस्ट भी बहुत अच्छी है और इस पर आई टिप्पणियाँ भी, ...पोस्ट भी बहुत अच्छी है और इस पर आई टिप्पणियाँ भी, साहित्य और आलोचना दोनों ही उपस्थित है। नेहरू की टिप्पणी बेहद दिलचस्प है लेकिन फिर भी वामपंथी जैसी है जो सब कुछ फायदे के दृष्टिकोण को देखती है आपने अंग्रेजी इतिहासकारों के योगदान की जो तारीफ की उसका स्वागत होना चाहिए, मुझे बाशम की टिप्पणी बड़ी अच्छी लगती है कि इतिहास का अध्ययन उत्सुकता के लिए होना चाहिए केवल जानने और सीखने के मर्म के लिए नहीं। आभारsourabh sharmahttps://www.blogger.com/profile/11437187263808603551noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-84888127653163144982011-11-26T20:38:21.376+05:302011-11-26T20:38:21.376+05:30किसी घटना के छ मास बीतने पर भ्रम शुरू हो जाता है! ...किसी घटना के छ मास बीतने पर भ्रम शुरू हो जाता है! :-)<br /> <br />नसीम निकोलस तालेब अपनी पुस्तक ब्लैक स्वान में इतिहास के बारे में लिखते हैं - <br />History is opaque. You see what comes out, not the script that produces events, the generator of history.Gyan Dutt Pandeyhttps://www.blogger.com/profile/05293412290435900116noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-1189737903463912782011-11-25T11:55:38.838+05:302011-11-25T11:55:38.838+05:30इतिहास के विविध पक्षों पर सार्थक चिंतन. लोकस्मृति ...इतिहास के विविध पक्षों पर सार्थक चिंतन. लोकस्मृति में दर्ज इतिहास को भी वैज्ञानिकता के साथ समाहित किया जाना चाहए.अभिषेक मिश्रhttps://www.blogger.com/profile/07811268886544203698noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-63751568133830167242011-11-25T09:16:29.999+05:302011-11-25T09:16:29.999+05:30मेरी टिप्पणी स्पैम में चली गई क्या :)मेरी टिप्पणी स्पैम में चली गई क्या :)उम्मतेंhttps://www.blogger.com/profile/11664798385096309812noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-15822971875192237712011-11-25T09:07:15.714+05:302011-11-25T09:07:15.714+05:30कल्हण ने कहा है, “वही गुणवान कवि प्रशंसा का पात्र...कल्हण ने कहा है, “वही गुणवान कवि प्रशंसा का पात्र है, जो राज-द्वेष से ऊपर उठकर एकमात्र सत्यनिरूपण में ही अपनी भाषा का प्रयोग करता है।”<br /><br />उससे भी पहले कौटिल्य ने इतिहास की उपयोगिता पर बल देते हुए कहा था कि इतिहास के अंतर्गत पुराण, इतिवृत्त, आख्यायिका उदाहरण, धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र को भी स्थान दिया जाना चाहिए।<br /><br />आत्मप्रशस्तियों की अपेक्षा भारतीय विद्वान सत्कर्मों को ज़्यादा महत्व देते रहे, इसलिए तथाकथित पाश्चात्य दृष्टिकोण से मान्य इतिहास का अभाव हम अपने यहां देखते हैं। <br /><br />घटनाओं के ऐतिहासिक क्रम की ओर हमारे पूर्वज उतना ध्यान नहीं देते थे, जितना कि सांस्कृतिक तथ्यों की ओर।<br /><br />इतिहास धीरे-धीरे विज्ञान की कोटि में आ रहा है। वैज्ञानिक पद्धति अपनाकर ही हम गुत्थियों को सुलझा सकते हैं। ऐसा समझना कि भारतीयों को इतिहास बोध नहीं था, ग़लत होगा। उनके इतिहास का दृष्टिकोण ज़्यादा सांस्कृतिक था और पुरुषार्थ की प्राप्ति में इतिहास एक महत्वपूर्ण साधन था।मनोज कुमारhttps://www.blogger.com/profile/08566976083330111264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-5429809593701360982011-11-25T00:12:30.145+05:302011-11-25T00:12:30.145+05:30इसे पढ़ गया था पहले ही, अभी कह रहा हूँ…इस बार कुछ ...इसे पढ़ गया था पहले ही, अभी कह रहा हूँ…इस बार कुछ कम पल्ले पड़ा…फिर से पढना होगा कभी……इतिहास का तो मामला हर जगह विवाद का ही है…चंदन कुमार मिश्रhttps://www.blogger.com/profile/17165389929626807075noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-50727948155942437162011-11-24T17:01:21.129+05:302011-11-24T17:01:21.129+05:30सोचा था वक़्त पे हाज़िर हो पाऊंगा पर ऐसा नहीं हुआ ...सोचा था वक़्त पे हाज़िर हो पाऊंगा पर ऐसा नहीं हुआ !<br /><br />अध्ययनों में अन्तरअनुशासनात्मता के विचार से असहमति का प्रश्न ही नहीं उठता !<br /><br />इतिहास लेखन के अपने ही खतरे हैं आपने 'स्रोतों' के संकेत दिए मित्रों ने उन्हें ही 'समूचा इतिहास' मान कर बहस आगे बढ़ा दी ! आख्यानों के पुनर्लेखन पर अरविन्द मिश्र आपसे बाद में विमर्श करने वाले हैं यही बात मैंने पढ़ी ! आपने होम्स के हवाले से इतिहास के पुनर्लेखन की बात कही ना कि आख्यानों के पुनर्लेखन की ! कौशलेन्द्र जी की समस्या यह है कि वे आख्यान और इतिहास में लेश मात्र भी भेद नहीं कर रहे हैं निश्चय ही यह उनकी व्यक्तिगत धारणा या समस्या है !<br /><br />स्रोत को किस सीमा तक इतिहास बतौर स्वीकार किया जाये और तार्किक ढंग से कहें तो क्यों कर ? यह इतिहास लेखन की वस्तुनिष्ठता और वैज्ञानिक चिंतन धारा पर अधिकार रखने वाले विद्वानों को ही तय करना है ! <br /><br />मेरे विचार से बाबा तुलसी और कामिल बुल्के की तर्ज पर पुनर्लेखन एक अलग मुद्दा है ! पुनर्लेखन को भी इतिहास के स्रोत बतौर स्वीकार किया जा सकता है नाकि पूरा का पूरा इतिहास जैसा कि कौशलेन्द्र जी कह रहे हैं !<br /><br />महाकाव्यों के इतर आख्यानों के अतिशयोक्ति पूर्ण विवरण जोकि तत्कालीन सत्ता के चारणों और भाटों द्वारा रचे गये हैं उनको स्रोत मानकर ऐतिहासिक तथ्यों की शल्यक्रिया ज़रूर की जानी चाहिए और सुसंगत सिद्ध सामग्री को इतिहासबद्ध भी किया जाना चाहिए परन्तु चारणों और भाटों कृत आख्यानों को सांगोपांग इतिहास की तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता !<br /><br />आख्यानों / मौखिक लिखित परम्पराओं / साहित्य में कल्पना शीलता और सत्य के सहवास की स्वीकृति के साथ ही इतिहास के हिस्से जो टास्क आता है वो सत्य के टुकड़े को परीक्षणोंपरांत ग्रहण तक ही सीमित माना जा सकता है ! स्रोतों की काल्पनिकता वाले हिस्से इतिहास की जिम्मेदारी नहीं हैं !<br /><br />आपने बहुत ही सुन्दर आलेख लिखा ! मुझे नीरस भी नहीं लगा ! संभवतः मैंने आपकी ही बात को आगे बढ़ाया है कि स्रोतों का दोहन किया जाये और इसी के तारतम्य में इतिहास का पुनर्लेखन भी हो किन्तु स्मरण रहे कि इतिहास को विज्ञानसम्मत होना है ! <br /><br />कल्पनाशीलता को प्रश्रय देने के लिए साहित्यशास्त्र स्वयं समर्थ है उसे इतिहास के माथे नहीं मढ़ा जा सकता है इतिहास वो ही लेगा जो उसके योग्य हो !उम्मतेंhttps://www.blogger.com/profile/11664798385096309812noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-69929893343549000642011-11-24T14:00:06.801+05:302011-11-24T14:00:06.801+05:30दिशा निर्धारित करता है आपका यह लेख .......आपके लेख...दिशा निर्धारित करता है आपका यह लेख .......आपके लेखों को पढने के बाद मुझे बहुत सोचना होता है ....अभी इस मनन चल रहा है ......पूर्ण टिप्पणी बाद में .....!केवल रामhttps://www.blogger.com/profile/04943896768036367102noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-61300578118515632792011-11-23T16:18:31.173+05:302011-11-23T16:18:31.173+05:30बहुत ही संग्रहणीय आलेख..कई कई बार पढ़ने और मनन कर...बहुत ही संग्रहणीय आलेख..कई कई बार पढ़ने और मनन करने लायक..<br />आभारrashmi ravijahttps://www.blogger.com/profile/04858127136023935113noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-9609036597578063652011-11-23T15:10:49.373+05:302011-11-23T15:10:49.373+05:30जी हाँ ! विवाद एसेंस को लेकर भी होता है ...और यही ...जी हाँ ! विवाद एसेंस को लेकर भी होता है ...और यही असली विवाद है. डी.एन.ए. फिंगर प्रिंटिंग में यह प्रमाणित हो चुकने के बाद भी कि भारत के द्रविण, आर्य और आदिवासियों के पूर्वज एक ही समुदाय के थे, डॉक्टर पुरुषोत्तम मीणा जी अभी भी केवल आदिवासियों को ही भारत के मूल निवासी मानते हैं. उन्होंने आर्यों, विशेषकर ब्राह्मणों और क्षत्रियों को बाहर से आकर भारत में बसने वाली विदेशी जाति के लोग स्वीकार किया है जिन्होंने आदिवासियों के महान वेदों पर बलात अधिकार कर उन्हें हथिया लिया.बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttps://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-30215022890535886522011-11-23T14:47:04.606+05:302011-11-23T14:47:04.606+05:30saargarbhit aure vicharniya lekh, bahut kuch sochn...saargarbhit aure vicharniya lekh, bahut kuch sochne pe majbur kerta aapka ye uttam lekhamrendra "amar"https://www.blogger.com/profile/00750610107988470826noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-86618850178446187542011-11-23T14:35:47.863+05:302011-11-23T14:35:47.863+05:30आवश्यक ( यथा नवीन शोध ) होने पर वस्तुगम्य इतिहास ...आवश्यक ( यथा नवीन शोध ) होने पर वस्तुगम्य इतिहास का पुनर्लेखन स्वीकार्य है पर जिस अर्थ में होम्स पुनर्लेखन चाहते हैं वह तो इतिहास से छेड़छाड़ हो गयी न ! जहाँ तक रामायण और महाभारत के चरित्रों को लेकर लेखन की बात है तो वहाँ सम्वादों और कथानक का ही पुनर्लेखन होता है .....मौलिक एसेंस का नहीं. ऋतू वर्मा और तीजन बाई की महाभारत में अभिव्यक्ति की मौलिकता है पर इतिहास की नहीं. हो सकता है मैं अपनी बात ठीक से न कह पा रहा होऊँ. पर मेरा आशय मात्र इतना है कि इतिहास के एसेंस से छेड़छाड़ स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए. जो लोग भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन के पक्ष में हैं वे वस्तुतः भारतीय इतिहास के अनुद्घाटित तथ्यों को सामने लाने की बात कह रहे हैं. मैं भी इसका समर्थन करता हूँ.बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttps://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-12955552836394080472011-11-23T13:11:34.519+05:302011-11-23T13:11:34.519+05:30@ प्रवीण पाण्डेय जी-
अंगरेजों की अकादमिक क्षमता-य...@ प्रवीण पाण्डेय जी-<br />अंगरेजों की अकादमिक क्षमता-योग्यता और अभिलेखन के गुण को नकारा नहीं जा सकता, अफसोस यही है कि जो अध्याय पुनः खोले जाने का प्रयास बाद में हुआ, उसमें से ज्यादातर अपने कमजोर अकादमिक स्तर और पूर्वग्रहों के चलते महत्वपूर्ण साबित नहीं हो सके, अक्सर मजबूत चुनौती भी नहीं दे पाए फिर यदि हमारे इतिहास को कुटिल राजनीति का शाप मान भी लें तो उससे मुक्ति कैसे संभव होगी.Rahul Singhhttps://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-89352252907990875362011-11-23T12:04:51.910+05:302011-11-23T12:04:51.910+05:30मैंने बीते बहुत समय में ऐसा कुछ नहीं पढ़ा।
और पढ़ कर...मैंने बीते बहुत समय में ऐसा कुछ नहीं पढ़ा।<br />और पढ़ कर सचमुच मन बहुत आह्लादित है।Avinash Chandrahttps://www.blogger.com/profile/01556980533767425818noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-84208686478851253372011-11-23T11:47:57.855+05:302011-11-23T11:47:57.855+05:30@ कौशलेन्द्र जी-
आपकी बातों के भाव से कुछ सीमा तक...@ कौशलेन्द्र जी-<br />आपकी बातों के भाव से कुछ सीमा तक सहमत, किन्तु क्या कामिल बुल्के की रामकथा को खारिज कर देना चाहिए, यह भी ध्यान रहे कि तुलसीमानस, वाल्मीकि रामायण का पुनर्लेखन ही है.(पुरानी चर्चा है बस स्मरण करा रहा हूं, लक्ष्मण को शक्ति-बाण किसने मारा?)Rahul Singhhttps://www.blogger.com/profile/16364670995288781667noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-50186858321596322752011-11-23T11:46:42.904+05:302011-11-23T11:46:42.904+05:30सारगर्भित आलेख,मैं अभी सम्यक अध्ययन कर रहा हूँ,वि...सारगर्भित आलेख,मैं अभी सम्यक अध्ययन कर रहा हूँ,विस्तृत टिप्पणी बाद में,आभार.डॉ. मनोज मिश्रhttps://www.blogger.com/profile/07989374080125146202noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-29012982760076847992011-11-23T08:17:47.360+05:302011-11-23T08:17:47.360+05:30राहुल जी!
इस आलेख की पृष्ठभूमि में मुझे वह गोल्ड म...राहुल जी!<br />इस आलेख की पृष्ठभूमि में मुझे वह गोल्ड मेडल दिखाई दे रहा है जिसकी चर्चा आपने पिछली पोस्ट में की थी! सचमुच गहन शोध और स्वर्ण-पदक को जस्टिफाय करता हुआ!!चला बिहारी ब्लॉगर बननेhttps://www.blogger.com/profile/05849469885059634620noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-1560745184921178776.post-65583661043135499782011-11-23T00:51:43.313+05:302011-11-23T00:51:43.313+05:30मैं सचमुच में नहीं पढ सका।मैं सचमुच में नहीं पढ सका।विष्णु बैरागीhttps://www.blogger.com/profile/07004437238267266555noreply@blogger.com