उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ से 1978 में प्रकाशित, हिन्दी समिति प्रभाग ग्रन्थमाला-249 है ''उपनाम : एक अध्ययन'' लेखक हैं, डॉ. शिवनारायण खन्ना। लेखक ने बताया है कि ''व्यंग्य लेख 'कमल, कामिनी और कलकत्ता' शीर्षक से 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' में प्रकाशनार्थ भेजा, जो 12 अप्रैल 1959 के अंक में प्रकाशित हुआ। लगभग तभी से मैं उपनामों तथा प्रच्छन्न नामों का संकलन करता रहा हूं। इस ग्रंथ में उपनामधारी लगभग 2650 साहित्यकारों के 3000 से अधिक उपनाम तथा प्रच्छन्न नाम हैं। ... उपनाम, उपनाम रखने के उद्देश्य, उपनाम के आधार, प्रकार तथा विशेषताओं का विवेचन इस ग्रंथ में किया गया है।''
पुस्तक में उपनामों संबंधी जो नाम (शब्द) गिनाए गए हैं, वे हैं- अपर नाम, अन्य नाम, अवास्तविक नाम और इसी तरह नाम जोड़ते चलें- असत्य, आंशिक, आधा, उपाधि, कल्पित, कार्य, काल्पनिक, काव्य, कृतक, कृत्रिम, गुप्त, गुह्य, गोपन, गौण, घरेलू, छद्म, छोटा, तूलिका, दिखावटी, दुलार का, दूसरा, नकली, नीति, धारित, परिवर्तित, पुकारने का, प्रचलित, प्रच्छन्न, प्रिय, प्रसिद्ध, बचपन का, बनावटी, भावनात्मक, मुंहबोला, लघु, लाक्षणिक, लेखनी, व्यंग्य, व्यवसाय, शिक्षा, संकेत, सम्पादकीय और साहित्य नाम के साथ इस सूची में छाप (मुहर, चिह्न, निशान), तखल्लुस, पदवी भी है।
पुस्तक में उपनामों की चर्चा शुरू होती है- बाल्मीकि, व्यास, चाणक्य और कालिदास के क्रम से। लेकिन मुझे याद आ रहे हैं पंडिज्जी, यानि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, जिन्होंने व्योमकेश शास्त्री, प्रचंड, रंजन, द्विरद, राधामाधव शाक पार्थिव, अभिनव तुकाराम नामों से लेखन किया और जिनकी रचनाएं चारुचन्द्र का लेखा- 'चारुचन्द्रलेख' है और है 'बाणभट्ट की आत्मकथा', इससे भी आगे 'अनामदास का पोथा', मानों उनका कुछ नहीं। और याद आते हैं छत्तीसगढि़या मुक्तिबोध, जो गजानन माधव के बिना ही अधिक जाने जाते हैं।
मुक्तिबोध कुछ अन्य यौगन्धरायण, अवन्तीलाल गुप्ता तथा विंध्येश्वरी प्रसाद, (छद्म) नामों से भी लिखते थे। मुक्तिबोध रचनावली प्रकाशित हुई, तब छान-बीन करता रहा। उनके कुछ ऐसे लेख जो मेरे पास थे, रचनावली में शामिल न पाकर बेचैनी हुई, पर बात वहीं रह गई। फिर अवसर बना, मुक्तिबोध जी के सुपुत्र दिवाकर जी से मैंने इसका जिक्र किया, उन्होंने तुरंत भाई साहब रमेश जी को संदेश दिया और बताया कि मुक्तिबोध जी की ऐसी रचनाओं को प्रकाशित करने की तैयारी है। राजकमल प्रकाशन ने यह पुस्तक 2009 में छापी 'जब प्रश्नचिह्न बौखला उठे' शीर्षक से। पुस्तक की प्रस्तावना 'मेरी ओर से' में रमेश गजानन मुक्तिबोध जी ने उल्लेख किया है- ''बिलासपुर के राहुल सिंह ने अपने निजी संग्रह से 'सारथी' के कुछ-एक अंक उपलब्ध कराए जिनमें निबन्ध प्रकाशित थे। उनके सद्भाव के लिए मैं हृदय से आभारी हूं।'' मुझे इस प्रसंग में लेकिन, मुक्तिबोध की कहानी 'ब्रह्मराक्षस का शिष्य' वाली राहत हुई।
देखिए पुस्तक चर्चा में आत्मश्लाघा आने लगी और वह बात रह गई, जिसके लिए पोस्ट लिखने की सोचा। तो हुआ यूं कि पिछले माह एक छोटा सा पुस्तक मेला लगा। पुस्तकों से हमारा रिश्ता काफी समय से जरा नरम-गरम सा हो चला है। चाहे पुस्तक खरीदना हो या पढ़ना। व्यवस्थित रख सकने की चिंता होती है और समय पर किताब न मिले तो चिड़चिड़ाहट। नजर, वय का साथ निभा रही है, बारीक अक्षरों से मुक्ति मिल गई है और चश्मा कहीं भूला-छूटा रह जाता है, शायद चर्म चक्षु से अधिक मन की आंखें खोलने का दैवीय निर्देश है, कब तक रहें कागज की लेखी, अपरा के चक्कर में। पुराने पढ़े-पढ़ाए से जमा के ब्याज पर अब का काम चल ही जा रहा है, लेकिन सूदखोरी का धर्म निभाते हुए तगादे की तरह भटक लेते हैं, फिर आदत भी तो जाते-जाते जाती है। पुस्तक मेले में पहुंच गए एटीएम, कुछ फुटकर रकम और अपने इस आत्मविश्वास सहित जेब में हाथ डाले कि पुस्तकें लेनी तो हैं नहीं।
समाज को प्रतिबिंबित करती, ब्लाग पर पसरी, महरिन की गैरहाजिरी और सड़क पर छेड़खानी, ऐसे बिगड़ते रिश्ते जो बने ही नहीं थे, पंचायतीय और मुन्सीपाल्टीय-वार्ड स्तरीय आफतों से ले कर अन्ना, भ्रष्टाचार, देश का पैसा विदेशों में, टाटा-बाटा के शाब्दिक जूतम-पैजार में अलविदा टाइप 'घनघोर संकट' वाली पोस्टों के साथ ढेर साथी हैं जो यहां अपनी चिंता और दुख बांटते समाज की तस्वीर बदलने में निरंतर जुटे हैं जी-जान से। मनोहर श्याम जोशी के शब्दों के सहारे कहना चाहूं तो त्रासद होते हास्य और हास्यास्पद बन जाने वाले त्रास के बीच छोटे-छोटे सुख मुझसे टकराते रहते हैं इसलिए लगा कि पुस्तक मेला की किताब के बहाने 'महंगाई डायन' और 'हाय पेट्रोल' के दौर में एक अच्छी खबर क्यों न बांट ली जाय।
इस सजिल्द 562+14 पृष्ठ की किताब का मूल्य है, उन्नीस रुपये। मेला छूट (या फुटकर की समस्या) के कारण मुझसे लिए गए पन्द्रह रुपये और हां, बारीक हिसाब करूं तो मेले में प्रवेश के पांच रुपये। फिर तो ले ही आया अच्छे अच्छों पर बीस पड़ने वाली उन्नीस की यह किताब, चश्मा मिल गया है, पढ़ने के बाद यह पुस्तक भी अपनी जगह पा ही लेगी। कुल जमा बात इतनी, उपनाम की इस पुस्तक का दाम तो बस नाम का हुआ।
पुस्तक पढने की उत्कंठा सहज ही जाग्रत हुई .....आपने एक रोचक और संग्रहणीय पुस्तक के बारे में जानकारी देकर हमें धन्य कर दिया ...शुक्रिया आपका
ReplyDeleteबढ़िया रही उपनामावली :)
ReplyDeleteउन्नीस रूपये मात्र पढ़कर थोड़ा अचरज हुआ क्योंकि यहां मुम्बई में एक बहुत पुरानी किताब खरीदते समय देखा कि उसका मूल्य सात रूपये पचास पैसे मात्र था लेकिन दुकान वाले ने उसे काटकर चालीस रूपये लिखा था (उसे अब तक सहेजने सम्हालने का चार्ज :)
कई बार मोटी किताब के दाम कम देखकर भी किताबें खरीद ली जाती हैं। ऐसा तो नहीं?…भगतसिंह भी विद्रोही, बलवंत सिंह आदि नामों से लिखते थे…
ReplyDeleteइतना तो तय है कि किताब बहुत पुरानी है। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से कई किताबें 20-30 से कम में मिल जाएंगी…
ReplyDelete१९ रु तो बहुत कम है आज के समय में, मेहनत का मोल भी न निकलेगा।
ReplyDelete’महंगा न खरीदा तो क्या खरीदा’ वाले युग में मित्रों की नाक बलि पर रख दी आपने:)
ReplyDeleteबहुत अच्छा शोध है... पर कीमत देखकर विश्वास नहीं हो रहा है
ReplyDeleteहिन्दी गालियों की परिभाषा
बढिया जानकारी।
ReplyDeleteसच में किताब काफी उपयोगी होगी....
अंतिम अनुच्छेद पढने के बाद 'रुचिकर' जैसा शब्द कहूँगा तो औचित्यहीन लगेगा।
ReplyDeleteपुस्तक प्राप्त करने का यत्न करता हूँ जब समय निभे।
अच्छा लगा, पूरी पढने के बाद एक पोस्ट और लिखिये विस्तार से।
ReplyDeleteउन्नीस रुपये और आज के समय में??...आश्चर्य से कम नहीं..
ReplyDeleteवैसे इधर मिलेगी तो नहीं यह किताब,हिंदी किताबें वैसे ही कम मिलती हैं और इस तरह की किताबों के बारे में तो कह ही सकता हूँ की नहीं मिलेगी..
वैसे प्रेमचंद की कुछ किताबें(छोटी कहानियां)मुझे फ्लिप्कार्ट पर 70%डिस्काउंट पर मिल रही थी, दो तीन किताबें थी,मैंने खरीद ली :)
सस्ते में लहाया आपने :) यह पुस्तक और आप एक दूजे के लिए हो गए ...
ReplyDeleteरोचक लग रही है ..अच्छा प्रेत/प्रेतिनी लेखन पर भी कुछ है ?
और आपने एक ही प्रति खरीदी। कम से कम पांच तो खरीदते। दोस्तों को भेंट करने के काम ही आती। चलिए एक तो हमें ही चाहिए। और हां यह तो बताएं कि उसमें अपना भी कहीं जिक्र है कि नहीं।
ReplyDelete*
बहरहाल पिछले दिनों यहां बंगलौर के एक पुस्तक मेले में हमने भी साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित रवीन्द्रनाथ टैगोर के निबंध संग्रह 50 प्रतिशत छूट पर खरीदे हैं।
संग्रहणीय पुस्तक के बारे में जानकारी के लिए आभार
ReplyDeleteजरूरी कार्यो के कारण करीब 15 दिनों से ब्लॉगजगत से दूर था
ReplyDeleteआप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ,
उपनाम यानि कि तखल्लुसों पर भी एक क़िताब। करने वालों के लिए वाक़ई कितने सबजेक्ट्स मौजूद हैं, आश्चर्य होता है।
ReplyDeleteपुस्तक मेले में चाह कर भी न पहुच सका। पुस्तक उपलब्ध होने पर पढने की ईच्छा है।
ReplyDeleteकाफी उपयोगी किताब ||
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति |
बधाई स्वीकारें ||
एक अलग तरह की किताब, ज्यादा जानने लायक विषय है और उत्कंठा भी
ReplyDeleteउपनामों पर भी एक शोध और वह भी मूंगफल्ली के दाम.
ReplyDeleteआज के समौय में शायद रद्दी से भी सस्ती किताब
ReplyDeleteरोचक टिप्पणिया ....
शुभकामनायें आपके लिए !
चलिए आज भी सस्ता कुछ तो है। मन्नू तक बात पहुंच जाये तो शायद अपनी उपलब्धियों एक और का इजाफ़ा कर सके
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण पुस्तक का इतने कम मूल्य पर उपलब्ध होना भी आश्चर्य ही है.
ReplyDeleteगाँधी जी पर नवजीवन प्रकाशन की एक पुस्तक दस रूपये में मिली है दिल्ली के पुरानी पुस्तक के साप्ताहिक बाज़ार में... नियमित जाता हूं.... अभी अपने दस साल के बेटे को ले जाना शुरू किया है..अप्रत्यक्ष कोशिश है कि इंटरनेट के युग में पुस्तकों से भी मेल जोल रह जाये उसका... अच्छा पोस्ट...
ReplyDeleteनाम भी क्या ? ब्लागर्स कृत जैविक प्रविष्टि पे एक तरह की टैगिंग ही तो है :)
ReplyDeleteनि:संदेह लेखक की अपनी सीमायें होती हैं जिनके चलते 'महती कुछ' छूट भी सकता है , इसके बावजूद उल्लिखित विषय अत्यंत रुचिकर है सो पुस्तक भी ज़रूर होगी !
एक मित्र ( जो फिलहाल कोरबा में पदस्थ होना चाहिए ) ने बस्तर में प्रचलित नामों पर पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय से शोध उपाधि प्राप्त की थी जिसे उन्होंने प्रकाशित करने का कष्ट नहीं उठाया ! पर इस मुद्दे पर अपनी आसक्ति की एक वज़ह ये भी हुई !
१९ रुपये !
ReplyDeleteमुझे याद है एक बार पुस्तक मेला से ५ रुपये में हिंदी-अंग्रेजी डिक्शनरी लेकर आया था जो कभी भारत सरकार (नेहरु मंत्रालय) ने भारतीय दूतावासों के जरिये हिंदी के प्रचार के लिए छपवाई थी. बहुत अच्छे पन्ने हैं उस किताब में.
पुस्तक पर कीमत लिखा हुआ है - 'हिंदी में हस्ताक्षर'.
Is adbhut pustak ki jaanakri dene ka shukriya...
ReplyDeleteNeeraj
शानदार पुस्तक से रूबरू कराने के लिये शुक्रिया राहुल जी. इतनी मोटी पुस्तक का मूल्य इतना कम क्यों है? कितनी आश्चर्यजनक कीमत है ये. इतनी कीमत में तो अब पत्रिकायें भी नहीं मिलतीं. ये किताब कैसे उपलब्ध हो सकेगी?
ReplyDeleteउपनामों का पूरा ब्यौरा ले आए हैं आप ! पढ़ें और हमें भी बताएं किश्तों में !
ReplyDeleteआज के ब्लॉग-लेखन पर भी तिरछे होकर कटाक्ष किया है,आभार !
उपनामों पर पुस्तक अरे वाह ।
ReplyDeleteपुस्तकें उनका रख रखाव इस बारे में मेरा हाल भी आप के जैसा ही है । पुस्तक खरीदना हो या पढ़ना। व्यवस्थित रख सकने की चिंता होती है और समय पर किताब न मिले तो चिड़चिड़ाहट। नजर, वय का साथ निभा रही है, बारीक अक्षरों से मुक्ति मिल गई है और चश्मा कहीं भूला-छूटा रह जाता है, शायद चर्म चक्षु से अधिक मन की आंखें खोलने का दैवीय निर्देश है । मिली तो अवश्य पढना चाहूंगी ।
महत्वपूण किताब की जानकारी मिली...झकमार,दलित,मरहा,परमानंद,विकल,निर्मोही अादि छत्तीसगढिया रचनाकारों के उपनाम ब्लाग पढने के बाद याद आये....
ReplyDeleteनाम में क्या रखा है कहा था शेक्स्पियेर ने.. लेकिन यह नहीं कहा कि उपनाम में क्या रखा है!! और १९ रुपये तो मैक्डोनाल्ड भी ऑफर नहीं करता.
ReplyDeleteलग रहा है कि आपने जानगूझकर देर से जानाकारी दी। लगा होगा कि मेले के चलते ही जानकारी दे दी तो भाई लोग आपके जिम्मे इतना काम कर देंगे कि आपके घर में ही एक 'प्रेषण अनुभाग' खोलना पड जाएगा। आपसे ऐसे 'अत्याचार' की उम्मीद (?) तो बिलकुल ही नहीं थी। खैर! आप को जो करना था, कर गुजरे। उत्त्ार प्रदेश हिन्दी संस्थान को पत्र तो अब कल ही लिखा जा सकेगा। विषय वस्तु तो अपनी जगह है ही किन्तु स्वीकार कर रहा हूँ पुस्तक की कम कीमत भी बडा आकर्षण है इसें खरीदने का।
ReplyDeleteइतनी शानदार पुस्तक से साक्षात्कार के लिए बहुत बहुत शुक्रिया...कितनी मेहनत लगी होगी...इसे तैयार करने में...उस समय १९ रुपये का महत्त्व रहा होगा...अब तो यह पुस्तक अमूल्य हो गयी है.
ReplyDeleteआपके लेखन से कई बार विजयदान देथा जी का लिखा याद आ जाता है और उन्हें पढ़ते समय हमेशा आपकी तरफ़ ध्यान जाता है।
ReplyDeleteईमेल से प्राप्त संजय शर्मा जी की टिप्पणी-
ReplyDeleteआज जब दाम देख किताबों से मुंह फेरने का मन होता है तब नाम का ही दाम पढ़कर बड़ा मज़ा आ रहा है . और आप का भी कमाल है कि इसे "नाम का ही" लिखा भी है. आपकी इस कला का मै कायल हूँ.
इस आलेख के द्वारा कई नई नई जानकारी हासिल हुई।
ReplyDeleteआलेख की भाषा शैली ने काफ़ी प्रभावित किया।
अंत में सस्ते में इतनी मोटी किताब मिल गई जानकर सुखद आश्चर्य हुआ।
यह पुस्तक तो मेरे मन की लग रही है.कोई अपने नाम का ढिंढोरा पीटता है,अधिकतर अपने मुखड़े की फोटो भी लगा देते हैं तो कुछ क्यों यूँ उपनाम से लिख बदनाम ( ब्लॉगजगत में तो अवश्य ही ),गुमनाम होना चाहते हैं? यह विषय और वे कैसे नाम व क्यों चुनते हैं बहुत रोचक विषय है.
ReplyDeleteआपके पास पुस्तक है तो थोड़ी सी ईर्ष्या ...
घुघूतीबासूती
एक रोचक विषय पर अपने आप में अनूठी पुस्तक है यह इसके बारें में पहली बार जानकारी प्राप्त हुई।
ReplyDeletekitab ke liye pustak mele jana hoga ya aap ke ghar
ReplyDeleteप्रकाशक द्वारा कीमत को उन्नीस की जगह बीस करना बेहतर होता.
ReplyDeleteबाटा की झलक आती है उन्नीस में.बीस होने से चिल्हर का झंझट नहीं रहता . उपनाम से लिखा हुआ बेनामी संपत्ति जैसा लगता है.मुक्तिबोध वाले प्रकरण से भी लगा कि अपने नाम से लिखना ही ठीक है.भगत सिंह के लेखन में भी काफी झोल है .
कम मूल्य में इतनी अच्छी पुस्तक .. देखने की इच्छा हो रही है !!
ReplyDeleteसब के विचार पढ़े......सही है की बहुत सी सरकारी संस्थाओं से मिलने वाली किताबों के दाम बहुत कम होते हैं लेकिन नाम का दाम वाली कहावत तो केवल इस उपनाम वाली किताब पर ही चरितार्थ होती दिख रही है भाई.....
ReplyDeleteउपनाम ही सही नाम तो हुआ ....
ReplyDeleteवाह, कौडियों में भी मोती मिल जाते हैं पुस्तक मेले में!
ReplyDeleteसाढ़े पांच सौ से ज्यादा पन्नों की यह ज्ञानवर्धक पुस्तक आज के जमाने में केवल उन्नीस रूपए में ? किताब की विषय वस्तु के लिए लेखक को बधाई और इतनी कम कीमत में इतनी उपयोगी पुस्तक प्रकाशित करने वाले प्रकाशक को बहुत-बहुत धन्यवाद . सिंहावलोकन में आपकी इस दिलचस्प प्रस्तुति से मुझे गीता प्रेस गोरखपुर वालों की याद आ रही है,जो आज भी रामचरित मानस और महाभारत जैसे महाकाव्यों के सैकड़ों पन्नों के ग्रन्थ आम जनता को बेहद सस्ते में उपलब्ध कराते हैं .धनतेरस, ज्योति पर्व और गोवर्धन पूजा की हार्दिक शुभकामनाएं .
ReplyDeleteउपनामों पर पुस्तक ....?
ReplyDeleteइतनी मेहनत के बाद कीमत भी इतनी कम ....?
इतने में तो पेपर की भी कीमत न निकली होगी ....
दीपावली की हार्दिक बधाइयां एवं शुभकामनाएं।
ReplyDeleteबेहद सस्ता मानने वालों से निवेदन है कि 1978 में कीमत कम रही थी, आज वही हिन्दी संस्थान इसकी कीमत 2-300 से कम नहीं रखेगा…लेकिन किताब अभी तक चल रही है, नई नहीं छपी, इसलिए सस्ती है…वैसे बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, मध्यप्रदेश हिन्दी अकादमी, उप्र हिन्दी संस्थान, पीपिल्स पब्लिशिंग हाउस आदि और धर्मक्षेत्र से गीताप्रेस(कुछ किताबें धर्म के बाहर की भी छापी हैं इसने), अखंड ज्योति या गायती परिवार, मथुरा या फिर अन्य बाबा छाप माने आशाराम से लेकर आर्य समाज, इस्लामी प्रकशन सब सस्ती किताबें खरीदने के लिए हैं…किसी पुस्तक मेले में जैसे अभी जल्द ही पटना में लगेगा, आराम से सस्ता जिंदाबाद किया जा सकता है…1973 में अन्तरराष्ट्रीय पुस्तक वर्ष, 1973 में कई किताबें छपी थीं कम कीमत वाली…
ReplyDeleteदीपावली के पावन पर्व पर आपको मित्रों, परिजनों सहित हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteway4host
RajputsParinay
पुस्तक के बारे में जानकारी मिली । मेरे पोस्च पर आपका स्वागत है । दीपावली की शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteराहुल जी आपका आभार । दीपावली की शुभकामनाएं । ' जमुनी ' की जानकारी नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ । आप इसे पढ़ने की कोशिश करें एवं उसके बाद मुझे इस पुस्तक के संबंध में अपने विचारों से मुझे अवगत कराएं ।
ReplyDeleteलेखक- मिथिलेश्वर
प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन,प्रा.लि.
1B,नेताजी सुभाष मार्ग,
नई दिल्ली-110002
मूल्य- रू.175/ (Without Discount)
प्रेम सागर सिंह (www.premsarowar.blogspot.com)
bahut achchhi post, maza aa gaya rahul bhai ji...
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