Friday, June 29, 2012

विवादित 'प्राचीन छत्‍तीसगढ़'

किताबी प्राचीन छत्‍तीसगढ़ से पहले-पहल मेरा परिचय एक विवाद के साथ हुआ था, लेकिन जहां तक मेरी जानकारी है, इस विवाद के बाद भी प्‍यारेलाल गुप्‍त जी, पुरातत्‍व की तब युवा प्रतिभा लक्ष्‍मीशंकर निगम जी (अब वरिष्‍ठ विशेषज्ञ) के सदैव प्रशंसक रहे और निगम जी भी गुप्‍ता जी के उद्यम का बराबर सम्‍मान करते रहे। इस भूमिका के साथ सन 1973 में दैनिक देशबन्‍धु में प्रकाशित टिप्‍पणी यथावत प्रस्‍तुत-

प्राचीन छत्तीसगढ़ की प्रामाणिकता
रविशंकर विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित ''प्राचीन छत्तीसगढ़'' (लेखक- श्री प्यारेलाल गुप्त) नामक पुस्तक का अवलोकन करने का अवसर प्राप्त हुआ। यह पुस्तक अनेक त्रुटियों से युक्त तथा अन्य पुस्तकों एवं अन्य लेखों की प्रतिलिपि ही कही जा सकती है। अतः इस पुस्तक को विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं कहा जा सकता।

इस संबंध में स्मरण रहे कि उक्त पुस्तक के लेखक श्री प्यारेलाल गुप्त का एक लेख नवभारत ( दिनांक 24 दिसम्बर, 1972) के रविवासरीय अंक में ''छत्तीसगढ़ में गुप्त युग के सिक्के'' नामक शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। उसमें यह उल्लिखित था कि यह लेख 'प्राचीन छत्तीसगढ़' नामक ग्रंथ पर आधारित है तथा उक्त पुस्तक का प्रकाशन रविशंकर विश्वविद्यालय द्वारा किया जा रहा है। इस सन्दर्भ में मैंने रविशंकर विश्वविद्यालय के कुलपति जी का ध्यान दिनांक 19 जनवरी 1973 को एक पत्र लिखकर कतिपय त्रुटियों की ओर कराया था तथा उसमें अनुरोध किया था कि उक्त ग्रंथ के प्रकाशन के पूर्व उस पर पुनर्विचार किया जावे। किंतु किन्हीं अज्ञात कारणों से मेरे उक्त पत्र पर न तो ध्यान ही दिया गया न ही इस सम्बन्ध में कोई उत्तर ही मुझे दिया गया।

इस पुस्तक के अध्याय 5, 6, तथा 7 के अधिकांश अंश, जिनकी पृष्ठ संख्‍या लगभग 60 है, श्री बालचन्द जैन द्वारा लिखित 'उत्कीर्ण अभिलेख' नामक पुस्तक की प्रतिलिपि ही कहे जा सकते हैं। श्री जैन की उक्त पुस्तक के अधिकांश भाग कुछ शब्दान्तरों के साथ ज्यों के त्यों उतार दिये गये हैं। यहां तक वाक्य विन्यास भी बिल्कुल उसी प्रकार है। अतः उक्त अंश के सम्बन्ध में विचार करने का कोई औचित्य नहीं है। पुस्तक के अध्याय 2 एवं 3 जो कि द्रविड़ तथा आर्य सभ्यताओं से संबंधित है। इसमें लेखक ने कई भ्रान्तिपूर्ण मत प्रतिपादित किया है। उदाहरणार्थ उन्होंने मौर्ययुगीन प्रसिद्ध कूटनीतिज्ञ चाणक्य को द्रविड़ कहा है। जबकि समस्त भारतीय साहित्यिक साक्ष्यों से हमें ज्ञात होता है कि चाणक्य ब्राह्मण थे। पुनश्च लेखक के इस मत के विषय में कुछ नहीं कहना है, सिवाय इसके कि उन्होंने अपने मत के समर्थन में कोई साक्ष्य अथवा तथ्य प्रस्तुत करने का प्रयास नहीं किया है। साथ ही साथ ऐसा प्रतीत होता है कि वह स्वयं दिगभ्रमित हो गये हैं। एक ओर उन्होंने आर्य तथा द्रविड़ सभ्यताओं को एक सिद्ध करने का प्रयास किया है व कुछ ऐसे उद्धरण भी प्रस्तुत किया है जिससे यह प्रगट होता है कि आर्यों पर द्रविड़ सभ्यता का प्रभाव पड़ा था। इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा यहां असंगत होगी।
प्‍यारेलाल गुप्‍त // पुस्‍तक // लक्ष्‍मीशंकर निगम
गुप्त वंश का इतिहास (पृ 49 से आगे) लिखते समय लेखक ने अनेक अनैतिहासिक तथा काल्पनिक तथ्यों का समावेश किया है। इस खण्ड को देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि इतिहास के स्थान पर किंवदन्तियां तथा अनुश्रुतियां प्रस्तुत की जा रही हैं। इस अंश में दक्षिण कोशल के नरेश ''महेन्द्र'' का उल्लेख है जिसे समुद्रगुप्त ने पराजित किया था। कुछ पंक्तियों के पश्चात्‌ ''महेन्द्र'' को नाम न मानकर समुद्रगुप्त द्वारा पराजित दक्षिण के नरेशों की समुदायवादी उपाधि कहा गया है। इसी प्रकार फिंगेश्वर में समुद्रगुप्त की सेना का पड़ाव तथा राजिम से 13 मील दूर कोपरा नामक ग्राम में समुद्रगुप्त की रानी रूपा के निवास सम्बन्धी अनेक काल्पनिक घटनाओं तथा किंवदन्तियों का उल्लेख किया गया है। वैसे भी अभिलेखीय श्रोतों से हमें ज्ञात है कि समुद्रगुप्त की रानी का नाम ''दत्तदेवी'' था।

इस सम्बन्ध में लिखा गया है कि ''एक अभिलेख देवानामप्रिय प्रियदर्शिन अशोक का है जिसने इस अभिलेख में अपनी प्रजा को शान्ति और सदाचार के मार्ग में चलने की सीख दी है।'' इस सम्बन्ध में स्मरण रहे कि अशोक के इस अभिलेख में अपनी प्रजा को शान्ति और सदाचार की शिक्षा नहीं दी गई है, वरन्‌ इसमें अशोक का कौशाम्बी के महामात्यों के नाम आदेश है कि यदि कोई भिक्षु संघ में भेद फैलाये तो उसे श्वेत वस्त्र पहनाकर संघ से निकाल दिया जावे।

इस तरह हम देखते हैं कि इस पुस्तक में जहां एक ओर अन्य लेखकों की सामग्री का खुलकर प्रयोग किया गया है वहीं दूसरी ओर अनैतिहासिक तथा भ्रमात्मक तथ्यों का भी समावेश किया गया है।

लक्ष्मीशंकर निगम
रायपुर म.प्र.


प्‍यारेलाल गुप्‍त जी के लिए प्रो. कांति कुमार जैन के
20 फरवरी 2009 के एक पत्र में टिप्‍पणी-

''वस्‍तुतः प्‍यारे लाल जी गुप्‍त छत्‍तीसगढ़ी के
संस्‍कृति पुरूष हैं। यदि मुझे एक सुशिक्षित,
संवेदनशील और परंपराविज्ञ छत्‍तीसगढ़ी का
परिचय देने को कहा जाये तो मैं निस्‍संकोच श्री
प्‍यारे लाल जी गुप्‍त का नाम लूंगा''
कभी गंभीर आलोचना झेल चुकी यह पुस्‍तक समय के साथ और अन्‍य सामग्री की अनुपलब्‍धता के कारण महत्‍वपूर्ण होती गई। यही एक प्रकाशन था, जिसमें छत्‍तीसगढ़ की खासकर कला, संस्‍कृति, पुरातत्‍व और साहित्‍य की सामग्री इकट्ठी मिल जाती थी। सन 2000 में छत्‍तीसगढ़ राज्‍य निर्माण के दौर में इस पुस्‍तक की खोज होती, अनुपलब्‍ध होने के कारण, इस पुस्‍तक प्राचीन छत्‍तीसगढ़ पर आधारित, सन 1996 और 1998 में दो भाग में छपी मदनलाल गुप्‍त की पुस्‍तक 'छत्‍तीसगढ़ दिग्‍दर्शन' की धूम रही।
इस प्रसंग में उल्‍लेखनीय, छत्‍तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास पर आधारभूत पुस्‍तक, बालचन्‍द्र जैन लिखित एवं संपादित 'उत्‍कीर्ण लेख' प्रथमतः सन 1961 में प्रकाशित हुई। पुनः छत्‍तीसगढ़ की 21 नयी अभिलेख प्राप्तियों को शामिल कर मूल पुस्‍तक का परिवर्धित एवं परिमार्जित संस्‍करण जी एल रायकवार और राहुल कुमार सिंह ने तैयार किया, जो सन 2005 में प्रकाशित हुआ। छत्‍तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास पर यह पुस्‍तक प्रथम प्रकाशन से अब तक सर्वाधिक प्रामाणिक संदर्भ ग्रंथ के रूप में निर्विवाद प्रतिष्ठित है।

Saturday, June 23, 2012

रॉबिन

मौसम-मिजाज से, न खैर-खबर से, कभी तो सलाम-बंदगी भी रह जाती है, जब मोहित साहू जी से बात शुरू होती है। वे पूछ रहे हैं, पिछले साल की पंडुक, गौरैया, लिटिया के बारे में, मेरे पास जवाब खाली है, बचने को कहता हूं, पिछले दिनों व्‍यस्‍त रहा खुसरा चिरई के ब्‍याह में, कुछ नया बताऊंगा इस साल। मई का आखिरी हफ्ता। नवतपा की दोपहर। याद कर रहा हूं, इस मौसम में भी सक्रिय रॉबिन के जोड़े को। सोचता हूं, उन पर ध्यान दूं, शायद मोहित जी से अगली बातचीत तक कोई जवाब बन जाए।

रॉबिन?, यह किस चिड़िया का नाम है। इसका पूरा नाम इंडियन रॉबिन है यानि Saxicoloides fulicata या हिन्दी में कलचुरि और छत्तीसगढ़ी में कारीसुई (और इसकी जोड़ीदार मैगपाई रॉबिन छत्तीसगढ़ में बक्सुई कही जाती है)। हमारे लिए आमतौर पर इंडियन या मैगपाई रॉबिन के बजाय रॉबिन ब्ल्यू अधिक सुना गया शब्द है, जो लगभग नील का पर्याय था और इसी के कारण मैं मानता था कि रॉबिन का रंग नीला होता होगा, बहुत बाद में पता लगा कि नीली रॉबिन हिमालय की तराई, म्‍यांमार, पश्चिमी घाट और श्रीलंका में तो होती है लेकिन इस अंचल के लिए रॉबिन का नीलापन विसंगत है।

इस चिड़िया के नाम कलचुरि-इंडियन रॉबिन के साथ रॉबिनहुड, रॉबिन ब्ल्यू नील, नील की तीन कठिया खेती, चम्पारण, स्वाधीनता संग्राम, गांधी जी, कलचुरि राजवंश ... ... यानि प्रकृति, पर्यावरण, भूगोल, पुरातत्व-इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, राष्ट्रीयता, शौर्य, लोकोपकार, सब कुछ जुड़ जाता है, लेकिन फिलहाल तो ललित निबंध लिखने का कोई इरादा नहीं है। यह पोस्ट रॉबिन चिड़िया की जानकारी के लिए भी नहीं है, क्‍योंकि चिड़ियों के मामले में मेरी जानकारियों की तुलना में रुचि का पलड़ा एकतरफा भारी होता है। जानकारी के लिए पहल करने वाले मोहित साहू जी, विवेक जोगलेकर जी सहज उपलब्ध हो जाते हैं और फिर भी कुछ न निपट पाए तो सालिम अली हैं, जिन्होंने चिड़ियों के पीछे पूरा जीवन बिता दिया, उनकी पुस्तक देख लेता हूं और उनके काम और जीवन की सार्थकता को अपने-आप में पुष्ट करता रहता हूं।

मोहित जी से पिछले हफ्ते फिर बात हुई, मैं आगे बढ़ कर बताने लगा। रोजाना के रास्ते में, मेरी पहुंच में, बस नाम की ओट में, अहिंसा की प्रतिमूर्ति तीर्थंकर पार्श्‍वनाथ प्रतिमा (निबंध लिखना हो तो अब धर्म भी है और कला भी) की छत्रछाया में रॉबिन का जोड़ा अपने चूजे पाल रहा है। मोहित कहते हैं कि यह चिड़िया अपने घोंसले की सफाई का खास ध्यान रखती है, चूजे का पोषण चिड़ा, चिड़ी दोनों करते हैं और कई तरह की ढेरों जानकारियां, इसलिए फिलहाल मुझे न सालिम अली की जरुरत है न गूगल की। अपनी रुचि के अनुकूल अवसर है। चूजे तो बेझिझक हैं ही, चिड़ा-चिड़ी का रवैया भी सहयोगी है, सो कुछ तस्वीरें निकल आई हैं-


चिड़ी का चुग्‍गा

घोसले के आसपास चिड़ा-चिड़ी

अब चिड़े की बारी
लगभग महीने भर का वक्‍त, रॉबिन के पलने-पालने में उनके लिए किस तरह पल-पल बीता होगा, मेरे लिए तो समय के मानों पर लग गए और वह पंछी की तरह फुर्र हुआ।

Monday, June 11, 2012

खुसरा चिरई

औद्योगिक तीर्थ भिलाई, दुर्ग के साथ मिलकर छत्‍तीसगढ़ का जुड़वा शहर और कला-संस्‍कृति तीर्थ भी है। आसपास ऐसे कुछ अन्‍य तीर्थ हैं- पद्मभूषण तीजनबाई का गांव गनियारी, बिसंभर यादव मरहा और दाउ रामचंद्र देशमुख का बघेरा, देवदास बंजारे का धनोरा, दाउ महासिंग चंद्राकर का मतवारी, फिदाबाई का सोमनी, झाड़ूराम देवांगन का बासिन, पद्मश्री पूनाराम निषाद और भुलवाराम का रिंगनी और खड़े साज नाचा का जोड़ा गांव दाउ मंदराजी का रवेली, देवार कलाकारों का डेरा, दुर्ग का सिकोलाभांठा, पचरीपारा, दुर्ग वाले गुरुदत्‍त-परदेसी (राम बेलचंदन) और दुर्ग के शहरी आगोश में समाया, लेकिन विलीन होने से बचा गांव पोटिया।

पोटिया (वरिष्‍ठ हास्‍य अभिनेता शिवकुमार दीपक भी इसी गांव के हैं) में केदार यादव के परम्‍परा की स्‍मृति है। अपने दौर से सबसे लोकप्रिय छत्‍तीसगढ़ी गायक केदार की प्रतिभा ''चंदैनी गोंदा'' के मंच पर उभरी और उसके बाद ''नवा बिहान'' की शुरुआत हुई। उनसे ''तैं बिलासपुरहिन अस अउ मैं रयगढि़या'' और ''हमरो पुछइया भइया कोनो नइए ग'', जैसे रामेश्‍वर वैष्‍णव के गीत सुनना, अविस्‍मरणीय हो जाता। पहले गीत की मूल पंक्ति ''आज दुनों बम्‍बई म गावत हन ददरिया'' में बम्‍बई को बदलकर उस स्‍थान का नाम लिया जाता, जहां कार्यक्रम प्रस्‍तुत किया जा रहा हो और इसी तरह दूसरे गीत में ''ए भांटो'' का महिला स्‍वर आते ही लोग झूम जाते। केदार के साथ पूरी परम्‍परा रही, जिसमें उनकी जीवनसंगिनी-सहचरी साधना, उनके भाई गणेश उर्फ गन्‍नू यादव और उनकी जीवनसंगिनी-सहचरी जयंती तथा अन्‍य कलाकार भाई पीताम्‍बर, संतोष रहे हैं।

झुमुकलाल जी की विरासत
  के साथ गन्‍नू यादव
पूरे परिवार को संगीत के संस्‍कार मिले पिता झुमुकलाल यादव से, जो परमानंद भजन मंडली के सदस्‍य थे। पचास-साठ साल पहले रायपुर-दुर्ग में सैकड़ों ऐसी मंडलियां थीं, जिनमें मुख्‍यतः बद्रीविशाल परमानंद के गीत गाए जाते थे। झुमुकलाल, बद्रीविशाल जी के साथी थे, उनकी औपचारिक शिक्षा की जानकारी नहीं मिलती, लेकिन जिस सजगता और व्‍यवस्थित ढंग से उन्‍होंने गीत-परम्‍पराओं का अभिलेखन कर उन्‍हें सुरक्षित किया, वह लाजवाब है। इस अनमोल खजाने में अप्रत्‍याशित ही ''खुसरा चिरई के ब्‍याह'' मिल गई। खरौद के बड़े पुजेरी कहे जाने वाले पं. कपिलनाथ मिश्र की यह रचना, (ऐसे ही शीर्षक की रचनाकार के रूप में जगन्‍नाथ प्रसाद 'भानु' का नाम भी मिलता है) खूब सुनी-सुनाई जाने वाली, मेलों में बिकने वाली, लेकिन लगभग इस पूरी पीढ़ी के लिए सुलभ नहीं रही है। बिलासा केंवटिन के गीत में जिस तरह सोलह मछलियों से सोलह जातियों की तुलना है उसी तरह यहां कविता क्‍या, आंचलिक-साहित्यिक, परम्‍परा और पक्षी-विज्ञान की अनूठी आरनिथॉलॉजी है यह-

खुसरा चिरई के ब्याह

     टेक जांघ बांध जघेंला बांध ले, और केड़ के ढाला
     खुसरा चिरई के ब्याह होवत है, नेवतंव काला काला
1   एक समय की बात पुरानी, सुनियों ध्यान लगानी
     बड़े प्रेम से कहता हू मैं, खुसरा चिरई के कहानी
2   एक समय का अवसर था, सब चिड़ियों का मेला
     खुसरा बिचारा बैठे वहां पर, पड़ा बड़ा झमेला
3   बड़े मौज से घुसरा बैठे, घुघवा करे सलाव
     खुसरा भइया तैं तो डिड़वा, जल्दी करव बिहाव
4   कौन ल भेजय सगा सगाई, कौन ल बररौखी
     कौन ल पगरहित बनावंय, कौन सुवासा चोखी
5   नंउवा कौंवा करे सगाई, कर्रउवा बररौखी
     पतरेगिया ल पगरहित बनाइस, सुवा सुवासा चोखी
6   बामंन आवे लगिन धरावंय, मंगल देवय गारी
     आन जात ल नरियर देवय, जात ल पान सुपारी
7   बिल ले निकरय बिल पतरेगिया, हाथे में धरे सुपारी
     भरही चिरैया कागज हेरे, चांची लगिन बिचारी
8   काकर हाथ में तेल उठगे, काकर हाथ में चाउंर
     कौन बैठगे लोहा पिंजरवा, कौन बैठगे राउर
9   पड़की हाथ में तेल उठगे, परेवना हाथ में चाउंर
     सुवा बैठगे लोहा पिंजरवा, कोयली बैठगे राउर
10 अवो नवाईन लबक लुआठी, चल चुलमाटी जाइन
     लाव लसगर नगर बलुउवा, गीत मनोहर गाइन
11 कठवा ले कठखोलवा बोलय, सुन रे खुसरा साथी
     बने बने मोला नेवता देबे, ठोनक देहंव तोर आंखी
12 दहरा के नेवतेंव दहरा चिरैया, नरवा के दोई अड़ंवा
     कारी अऊ कर्रउंवा ला नेवतेंव, तेला बनावय गड़वा
13 इहां के समधिन कारी हावंय, उंहा के समधीन भूरी
     ईहां के समधिन नकटायल है, उहां के समधिन कुर्री
14 छोटे दाब अैरी के नेवतेंव, कोयली देवय गारी
     मकुट बांध के सारस आवे, कुर्री के दल भारी
15 कौन चिरई मंगरोहन लावे, कौन गड़ावे मड़वा
     कौन चिरई करसा लावे, घर घर नेवते गड़वा
16 मंग रोहन चिरई मंगरोहन लावे, कन्हैया गड़ावे मड़वा
     पतरेगिया हा करसा लावे, घर घर नेवते गड़वा

17 पीपर पेड़ के भरदा नेवतेंव, अऊ नेंवतेंव मैं चाई
     टाटी बांधय तबल के बरछी, दल में मजा बताई
18 आमाडार ले कोयली बोलय, लीम डार ले कौंवा
     कर्री बाज के देखे ले मोर, जीव खेले डुब कइंया
19 भुइंया के भुई लपटी नेवतेंव, अऊ नेव तेंव मैं चुक्का
     खुसरा के बिहाव में सब, भरभर पीवे हुक्का
20 खुसरा दीखय दुसरा 2, मूढ़ हवय ढेबर्रा
     वोकर पांव है थावक थइया, चोच हवय रन कर्रा
21 अटेर नेवतेव बटेर नेवतेंव, अऊ नेवतेन नटेर
     बड़े बड़े ल मुढ़ पटका पटकेंव, तुम्हरे कौन सनेर
22 ओती ले आवय लावा लशगर, ओती ले आवय बाजा
     बनत काम ल मत बिगारव, तोला बनाहू राजा
23 सब चिड़िया ला नेवता बलाके, खुसरा बनगे राजा
     चेंपा नांव के चिरई ला लानय, तेला धरावय बाजा
24 पानी के पनडुबी ल नेवतेंव, घर के दूठन पोई
     धन्य भाग वो खुसरा के, मन चुरनी के घर होई
25 हरिल चिरैया हरदी कूटय, गोड़रिया कूटय धान
     खुसरा के बिहाव में सब, हार दिंग मताइन
26 इधर काम ले फुरसत पाके, भरदा बैठय तेलाई
     लडु़वा पपची बनन लागे, तब मेछा ल टेंवय बिलाई
27 कौन कमावे रनबन 2, कौन कमावे मन चीते
     कौन बैठगे भरे सभा में, झड़े भड़ौनी गीदे
28 पड़की कमावे रनबन 2, परेवना कमावे मन चीते
     बलही बैठगे भरा सभा में, झड़े भड़ौनी गीदे
29 अपन नगर से चले बराता, गढ़ अम्बा में जाइन
     धूमधाम परघौनी होवय, गीत मनोहर गाइन
30 दार होगे थोरे थोरे, बरा होगे बोरे
     आधा रात के आये बरतिया, दांत ल खिसोरे
31 गांव निकट परघौनी होवय, दुरभत्‍ता खाये ल आइन
     लड़ुवा पपची पोरसन लागय, चोंच भर भर पाइन
32 सबो चिरई समधी घर जाके, खुसरा ल खड़ा करावय
     वैशाख शुक्ल अऊ सत्पमी, बुधवार के भांवर परावय
33 एक भांवर दुसर तीसर, छटवें भांवर पारिन
     सात भांवर परन लागिस, तब खुसरा मन में हांसिन
34 खुसरा हा खुसरी ला पाइस, बाम्‍हन पाइस टक्का
     सबो बरातिया बरा सोहारी, समधी धक्का धक्का

35 सोन चांदी गहना गुठ्‌ठा, अऊ पाइन एक छल्ला
     रूपिया पैसा बहुत से पाइन, नौ खाड़ी के गल्ला
36 सूपा टुकना चुरकी सुपली, खुसरा दाईज पाईन
     गढ़ अम्बा से बिदा कराके, अपन नगर में आईन
37 गांव के बाहिर डोला आवय, तब गिधवा डोला उतारय
     बेटा ले बहुरिया बड़े, कइसे दीन निकारय
38 सबो चिरई खुसरा घर आके, नेवता खायेला बैठिन
     गरूड़ चिरैया पूछी मरोड़य, कर्रा मेछा ऐठिन
39 कोने ल देवय सोन चांदी, कोनो ल देवय लुगरा
     कोनो ल देवय लहंगा साया, कोनो ल देवय फुंदरा

आरंभ वाले संजीव तिवारी और बस्‍तर बैंड वाले अनूप रंजन, तीर्थ-लाभ हम तीनों ने साथ-साथ लिया, लेकिन प्रसाद वितरण का जिम्‍मा मैंने ले लिया।

यहां आए सभी नामों के प्रति आदर-सम्‍मान।

Wednesday, June 6, 2012

मेरा पर्यावरण

कल एक और पर्यावरण दिवस हमने बिता लिया।

खबर है इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस का विषय- ''हरित अर्थव्यवस्था: क्या आप इसमें शामिल हैं?'' (Green Economy: Does it include you?)। यह भी खबर है कि इस अवसर पर विशेष प्रदर्शनी रेलगाड़ी के 8 डिब्बों में जैव विविधता और आजीविका के बीच का संबंध भी प्रदर्शित होगा।

पर्यावरण दिवस की अगली सुबह, आज शुक्र पारगमन हो रहा है। यह वैसी उजली नहीं, सूरज पर एक धब्‍बा बनेगा। यह सुबह मेरी रोजाना की साथी मछलियों के लिए हुई ही नहीं। रायपुर के इस खम्‍हारडीह तालाब में मछलियां, मछुआरों की आजीविका बनती रहीं, आज देखा तालाब का कालिख हो रहा हरा पानी और मछलियां...-




लगता है, बच्‍ची ने रट लिया है और सुबकते, पाठ अनचाहे दुहरा रही है-
मछली जल की रानी है
जीवन उसका पानी है
हाथ लगाओ डर जाती है
बाहर निकालो मर जाती है

आज तो यह पाठ झूठा हुआ।