''मकोइया की कंटीली झाड़ियां, पपरेल, कउहा, बमरी और मुख्यतः पलाश के पेड़ों का जंगल- परसा भदेर। गांव के इस दक्खिनी छोर पर 1945 में आखिरी बार काला हिरण देखा गया। काले हिरण की तो नस्ल दुर्लभ हो गई, परसा भदेर में पलाश के कुछ पेड़ बाकी रहे। 1952 में मालगुजारी उन्मूलन हुआ और जंगलात, सरकार के हो गए। इसी साल, इन पलाश वृक्षों ने आखिरी वसंत देखा।'' गोपा लमना कहानी सुना रहा है, इन अनगढ़ बातों को एक सूत्र में पिरोना चाहता हूं, पर कहां तक। सेटलमेंट की कहानी, चीझम साहब, गढ़ीदार भुवनेश्वर मिश्र की देवी-भक्ति और उनकी घोड़ी बिजली, गांव के उत्तर-पश्चिम का महल- हाथीबंधान। बहुत सी बातें। अपने पुरखों से सुनी-सुनाई। अपनी आंखों देखी। ''आंखों की देखी कहता हूं बाबू, मिसिर बैद के घर के पीछे पुराना सिद्ध मंदिर था, बड़ा भारी, सतजुगी। महल से कोटगढ़ तक कोस-भर लंबी सुरंग थी। अब कौन मानेगा ये बातें। सुनता ही कौन है। जब पहली दफा रेलगाड़ी आई थी, वह भी याद है। बिजली तो अब-अब लगी है।'' अतीत की बातें। एकदम सत्य। मेरे गांव का सच्चा-निश्छल बचपन, दाऊजी के दुलारू जैसा।
दाऊजी के किस्सों से सभी जी चुराते हैं, लेकिन वे सुनाते है- कई बार सुना चुके हैं, लक्खी के घोड़ाधार और गांव के मालिक देवता, ठाकुरदेव का किस्सा। पूरवी सिवाना के तालाब किनारे का डीह, ठाकुरदेव यहीं विराजते हैं, अपने बाहुक देवों जराही-बराही के साथ। और गांव के दूसरे छोर पर अंधियारी पाठ। ''जब भी गांव पर आफत-बिपत आती, यही देवता गांव के बैगा-गुनिया और मुखिया लोगों को सचेत करने निकलते थे और गांव की रखवारी तो किया ही करते थे। सात हाथ का झक्क सफेद घोड़ा, उस पर सफेद ही धोती-कुरता और पागा बांधे देवता। कोई उन्हें आज तक आमने-सामने नहीं देख पाया और देखा तो बचा नहीं।'' दाऊजी को कई रात उनके घोड़े की टाप सुनाई देती है। जाते हुए पीछे से या दरवाजे की झिरी से कइयों ने उन्हें देखा है। दाऊजी ने ही दुलरुवा का किस्सा भी सुनाया था। दाऊजी बताते हैं कि घोड़ाधार पहरुवा हैं और उनके आगे-पीछे ही दिख जाता है यह दुलारू। दुलारू को लेकर हमेशा मेरी जिज्ञासा बनी रहती है। सुना है, गांव के लोगों का ही लाड़-दुलार पाकर बड़ा हुआ। जवान होता लड़का दिखाई पड़ता है, सुंदर और बलिष्ठ। किसी से बोलता-बतियाता नहीं। गांव के सिवाने पर, स्टेशन या सड़कों पर इधर-उधर कहीं भी, कभी भी घूमता दिखाई पड़ जाता है। पता नहीं कब आ जाए, किधर निकल जाए। संभवतः मानसिक रूप से अविकसित। अब किसी का विशेष ध्यान इसकी ओर नहीं रहता। न ही दुलारू किसी से विशेष लगाव दिखाता। अक्सर हंसता रहता है पर उसकी हंसी में, भोलापन है या उपहास या व्यंग्य-भाव, मैं आज तक निर्णय नहीं कर पाया।
किस्सों से अनुमान होता है कि यह मुख्यतः बंजारा-नायकों की बस्ती थी, छोटा-सा विरल गांव। गोपा नायक के नाम पर गोपी टांड था और उसी का खुदवाया गोपिया तालाब, रामा का रामसागर और लाखा का लक्खी, इसी तरह सात टांड थे। लाखा बंजारा और नायक सौदागर द्वारा अपने कुत्ते को गिरवी रखने की कथाएं पूरे क्षेत्र में दूर-दूर तक प्रचलित हैं और ये देवार गीतों के भी विषय-वस्तु बने, लेकिन यह अधिक पुरानी बात नहीं है। यही कोई दो-ढाई सौ साल हुए होंगे। बंजारापन तो नायकों की जातिगत प्रवृत्ति है। मारवाड़ के ये बंजारे-नायक बैलों पर नमक और तम्बाकू का व्यापार करते यहां से गुजरे तो यह स्थान मध्य में होने के कारण और उपजाऊ जान पड़ने से उन्हें भा गया और उन्होंने इसे अपना स्थायी निवास बना लिया, हालांकि उनके बंजारेपन और व्यापार की प्रवृत्ति में विशेष अंतर नहीं आया फिर भी वे धीरे-धीरे कृषि की ओर उन्मुख होते गए। नायकों ने इसे सुगठित बस्ती का रूप अवश्य दिया पर आबादी-बसावट में शायद मूलतः निषाद-द्रविड़ जन ही रहे होंगे।
इस गांव के बसने में जिस आरंभिक क्रम का अनुमान होता है, उसमें भारत उपमहाद्वीप के आग्नेय कोण में स्थित मलय द्वीप समूह के कहे जाने वाले निषाद अर्थात् आस्ट्रिक या कोल-मुण्डा ही सर्वप्रथम आए होंगे। केंवट, जिन्हें छत्तीसगढ़ी में निखाद कहा जाता है और बैगा नामक जाति, इसी नस्ल के प्रतिनिधि हैं। अधिकतर यही पूरे क्षेत्र में ग्राम देवताओं के बैगा-गुनिया, ओझा, देवार होते हैं। कहीं-कहीं गोंड़-कंवर भी बैगा हैं, जो परवर्ती नस्ल, द्रविड़ की जातियां हैं। तात्पर्य कि निषादों की मूल बसावट का द्रविड़ों के आगमन और मेल-जोल से द्रविड़-संस्कार हुआ होगा। इसके बाद पुनः नव्य-आर्य, जो पहले ही भारत के उत्तर-पश्चिमी मुहाने से प्रवेश कर चुके थे, बाद में विन्ध्य पर्वत लांघ कर यहां पहुंचे होंगे और उन्हीं के साथ मिश्रित रक्त के कुछ लोग आए होंगे, जो काफी बाद तक भी यहां आते रहे।
अब की कहानी तो सबको मालूम ही है। बाद का कस्बाई रंग एक-एक कर उभरना हमने ही देखा है। तीसेक दफ्तर, नहर विभाग की अलग कालोनी, एक छोटा सा सरकारी कारखाना, जो हमें बहुत बड़ा लगता है, उसकी कालोनी अलग। चार-पांच कच्चे-पक्के सिनेमाघर, वीडियो हाल। सरकारी कालेज, नयी-नयी नगरपालिका, लगभग दोगुनी हो गई आबादी और नियमित व चौबीस घन्टे शहरीकरण आयात के उपलब्ध यातायात साधन। इस सबके साथ गांव के दूर तिराहे पर पर ढाबे, नयी उम्र के खर्चने वाले लड़कों के आउटिंग का अड्डा।
यह दुलारु उन होटलों के आसपास भी दिख जाता है। नयी कालोनियों की ओर जाने में जरूर हिचकिचाता है। उसका बालभावपूर्ण सहमता-दुबकता चेहरा हमेशा याद आता है, जब मैं पिछवाड़े झांककर कारखाने की दैत्याकार चिमनियों और चौंधिया देने वाली रोशनी देखता हूं। साइरन की आवाज से किस बुरी तरह घबरा जाता है, दुलारू। पहले चोंगे पर शादी और छट्ठी-बरही के गीत बड़ी पुलक से सुनता था, अब लाउड-स्पीकर पर इन्कलाबी और विकास के नारे सुनकर बिदकता है। पहले रेलगाड़ी की सीटी सुनकर प्रसन्न होता था, गाड़ी के समय स्टेशन पर ही रहता था, पर अब यदि वहां रहा तो मुंह लटकाए रहता है। मैं रोज-ब-रोज बेडौल होता उसका शरीर देखता हूं पर उसकी हरकतों में अब भी बचपना है, पहले की तुलना में असमय बुढ़ापे-सी उदासी भी दिखती है। वह मेरे लिए हमेशा अजूबा रहा है।
एक दुलारू ही क्यों, अंतर तो हर जगह दिखाई देता है। रोज-दिन विकास की मंजिलें तय हो रही हैं। लोग पहले से अधिक चतुराई या कहें बुद्धिमानी सीख-जान चुके हैं। बहुत पहले हमारे एक गुरुजी ने किसी पुराने शिलालेख के हवाले से बताया था- 'जानते हो, तुम्हारे गांव का इतिहास सात सौ साल पुराना है, जब कलचुरि राज-परिवार के अकलदेव ने मंदिर, तालाब व उपवन की रचना कर, इसे बसाया था।' अकलदेव या अकालदेव। नाम की सार्थकता, आज के व्यवसाय-कुशल परिचितों की अक्लमंदी की बातें सुनकर महसूस होती है। आठ-दस साल पहले ही यह अकालदेव का गांव था। सार-दर-साल अकाल। फिर भी दुलारू प्रसन्नचित्त रहता था, अब नहर है, दोहरी फसल होने लगी है, वैसा अकाल तो अब याद भी नहीं आता। सरकारी मंडी है, नयी-नयी राइस मिलें लगती जा रही हैं, लेकिन दुलारू को देखकर चिन्ता होती है, वह भयभीत क्यों है। वह क्यों अकलदेव के बसाए गांव के लोगों जैसा नहीं हो पा रहा है।
याद करता हूं, बैठक और घर-चौबारे की रोजाना आत्मीय चर्चा और सबसे जोहार-पैलगी के दिनों को। जब कोई अजनबी कभी गांव में आता- मेहमान, व्यापारी या स्थानान्तरित अफसर, तो सभी को इतनी उत्सुकता होती जैसे अपने घर के आंगन में किसी अनजान से टकरा गया हो और आज छुट्टी के दिनों में अनजानों की इतनी भीड़ होती है कि उनके बीच स्वयं को बाहरी आदमी जैसा महसूस होता है, फिर भी लगता था कि कहीं कोई मजबूत स्नेह-सौहार्द्र सूत्र हम सबको जोड़े हुए है। किसी घटना-दुर्घटना की, चाहे वह व्यक्तिगत ही क्यों न हो, चर्चा ही नहीं, चिंता भी हर कोई करता था, पर अब तो हर छठे-छमासे कोई जवान मौत बिना शिनाख्त पड़ी रह जाती है, अखबार में छपी गांव की ही कई खबरें हमारे लिए भी समाचार होती हैं।
मुझे अपने बचपन के साथी पीताम्बर की याद आती है। साथ खेले, पढ़े, बढ़े। एक सक्रिय व्यक्ति रहा वह, भरपूर उत्साही। भयंकर सूखा पड़ने पर, गांव में पीने के पानी की कमी होने पर, ट्राली-टैंकर पर सवार, चिलचिलाती धूप में दिन भर जल-वितरण व्यवस्थित करने में लगा रहता था। किसी घटना पर पुलिस की निष्क्रियता पर, बिना किसी परवाह के नारे बुलंद करता। भूख हड़ताल हो या चक्का जाम या कोई गमी-खुशी, हर जगह शामिल हो जाता। घर का मंझला लड़का, बड़े भाई की डांट सुनता और छोटे से हीन ठहराया जाता। फिर भी न तो उसकी हरकतें बदलीं, न बड़े भाई की इज्जत और छोटे भाई से प्रेम में कोई कमी आई। कुछ बरस हुए, कारखाने में उसे नौकरी मिल गई, छोटे से पद पर, किंतु वेतन चार अंक कब का पार कर चुका है, शादी भी हो गई। खेती इस साल ठीक हो नहीं पाई, 'बतर' में आदमी नहीं मिले, सो किसान बड़े भाई चिन्तित, छोटा भाई फेल हो गया सो अलग, बूढ़ी मां बीमार है और भाभी की जचकी होने वाली है, बड़ी बहन को उसका पति ले जाने को तैयार नहीं और छोटी के हाथ इस साल पीले करने हैं। तंग आ गया है पीताम्बर इन सबसे। ''दिन भर खटूं मैं और खाने वाले घर भर।'' मैंने पूछा, सुनता हूं तुम्हारे यहां कोई मिल में फंसकर मर गया और उसका मुआवजा नहीं दिया जा रहा है। मेरी बात पर वह कान नहीं देता। उसे क्या, कौन सी उसकी तनख्वाह कम हो जाएगी। अफसर घूंस लेता है, तो क्या हुआ, उसे तो चार अंकों में उतने रुपये ही मिल रहे हैं। उसने कालोनी में क्वार्टर के लिए आवेदन दिया था, अब वहीं रहने लगा है, बीवी के साथ। कारखाने से लोन लेकर स्कूटर भी खरीद लिया है, उसी पर हाट-बाजार आता-जाता है। मैं उससे मिलने पर अब भी पूछता रहता हूं- भाई की चिन्ता, मां की तबियत, बहन का गौना और वह जवाब देता जाता है- मैनेजर... ओवर टाइम... एरियर्स... एलडब्ल्यूपी....। सब कुछ बदल रहा है, शायद।
कभी यहां की रामलीला पूरे इलाके में प्रसिद्ध थी, सभी वर्ग-सम्प्रदाय के लोग इसे सफल बनाने में शामिल होते और पूरे इलाके के दर्शक दूर-दूर से आते। रामलीला तो अब कहानी बन चुकी है, पर बड़े-बुजुर्ग इसका स्मरण कर उमंग से भर जाते हैं। हाथी-बंधान का नवधा रास जरूर हमने देखा। मठ की रथयात्रा और भजन प्रभात-फेरी, बाजार और स्टेशन के राधाकृष्ण मंदिरों की जन्माष्टमी, कुटी में कई-कई अजूबे साधु-संतों का सिलसिला बना रहता था। जैन मंदिर के गजरथ समारोह की चर्चा तो आने वाली पीढ़ियों में भी होगी। दशहरा के रावण, मेले-तमाशे के बाद, दुर्गा-विसर्जन और ताजिया या गौरा का उत्साह एक जैसा ही होता। होली-दीवाली तो पूरे गांव का त्यौहार होता ही था। अखबारों में साम्प्रदायिक दंगों की खबर होती तो गांव के गैर-मुस्लिम मुखिया, मस्जिद के मुतवल्ली का झगड़ा निपटा रहे होते।
बचपन में अक्सर हमलोग खेत-बरछा की ओर चले जाते थे। वहां ददरिया सुनाई पड़ जाता था या चरवारों के बांसुरी की विचित्र किंतु मधुर धुन। अगहन लगते न लगते फसल घर आने लगती और मेला-बाजार का मौसम शुरू हो जाता। तमाशबीनों, डंगचगहा, बहुरूपियों के झुण्ड आने लगते, हम दिन भर उन्हीं के पीछे लगे रहते। फगुनहा मांदर और फाग अब जैसा दो-चार दिन और किराये पर नहीं, बल्कि पूरे माह चला करता था। चिकारा वाले भरथरी का इन्तजार तो अब भी रहता है। राखी के दूसरे दिन, भोजली के अवसर पर गुरुजी की ओसारी में बैठ कर भरत पूरे उत्साह से आल्हा का 'भुजरियों की लड़ाई' खंड गाता था। कई साल बाद, इस बार दुलारू के पीछे-पीछे, भोजली के दिन मैं भी पुरेनहा तालाब के पार तक गया। रास्ते में भरत नहीं दिखा। मित्रों से पूछताछ की, उसे क्या हो गया? तबियत खराब है या कहीं बाहर गया है? वे लोग बताते गए- निगोसिएशन... वर्क आर्डर... टाइमकीपर... पीस वर्क...।
आज पीताम्बर के भाई साहब मिले, अपनी व्यथा-कथा लिए। पीताम्बर की चर्चा होने पर मैंने उनसे पूछा- आपने पीताम्बर का नया घर देखा? उन्होंने बताया- 'हां, दशहरा के दिन बड़े-बखरी की जुन्ना हवेली से देखा, तिजउ भी साथ था। मैं तो कभी कारखाना देखने नहीं गया, तिजउ दिखा रहा था उसका क्वार्टर और कारखाने की चिमनी से निकलता धुआं। कह रहा था कि यही धुआं फेफड़ों में भरने लगेगा, धीरे-धीरे खेतों में बैठता जाएगा और सब किसानी चौपट हो जाएगी, सारी जमीन बंजर हो जाएगी।'
मैं घर वापस आया। चिमनी का धुंआ और ट्रकों से उड़ती धूल से पूरा शरीर चिपचिपा हो रहा था। खूब नहाया, पर लगा कि धुंआ धीरे-धीरे जमता ही जा रहा है, अंदर कहीं और जड़ किए दे रहा है, चौपट... बंजर। कारखाने का साइरन दहाड़ कर धीरे-धीरे लंबी गुर्राहट में बदल गया, चाह कर भी दुलारू के भयभीत चेहरे की याद दिमाग से नहीं निकाल पा रहा हूं।
तीसेक साल पहले अपना लिखा यह नोट ढूंढ निकाला, जो बाद में कभी दैनिक भास्कर, बिलासपुर संस्करण के अकलतरा परिशिष्ट में प्रकाशित हुआ था, फिर से पढ़ते हुए लगा कि यह किसी एक गांव की नहीं, आपके अपने या जाने-पहचाने गांव की भी कहानी हो सकती है।