रस-रसायन की भाषा। ... रससिद्ध करने वाले वैद्यराज, कविराज भी कहे जाते हैं। ... रस कभी कटु (क्षार), अम्ल, मधुर, लवण, तिक्त और कषाय, षटरस है तो करुण, रौद्र, श्रृंगार, अद्भुत, वीर, हास्य, वीभत्स, भयानक और शांत जैसे नवरस भी है, जिनमें कभी 'शांत' को छोड़कर आठ तो 'वात्सल्य' को जोड़कर दस भी गिना जाता है। ... हमारे एक गुरुजी 'एस्थेटिक' को सौंदर्यशास्त्र कहने पर नाराज होकर कहते, रसशास्त्र जैसा सार्थक शब्द है फिर कुछ और क्यों कहें। ... आजकल फिल्मी दुनिया में किसी न किसी की केमिस्ट्री बनती-बिगड़ती ही रहती है।
शास्त्रों में अज्ञानी के न जाने क्या और कितने लक्षण बताए गए होंगे, लेकिन मेरा विश्वास है कि उनमें एक होगा- 'अपनी बात कहने के लिए विषय प्रवेश की दिशा का निश्चय न कर पाना।' ऐसा तभी होता है, जब विषय पर अधिकार न हो और उसका 'हाथ कंगन को आरसी' यहां भी है। किन्तु विश्वास के साथ आगे बढ़ रहा हूं कि आपका साथ रहा तो कुछ निबाह हो ही जाएगा।
मेरी अपनी उक्ति है- ''गुणों का सिर्फ सम्मान होता है जबकि पसंद, कमजोरियां की जाती हैं।'' इस वाक्य के वैज्ञानिक परीक्षण के चक्कर में रसायनशास्त्र दुहराने बैठ गया। हमारी परम्परा में वैशेषिक पद्धति में कणाद ऋषि ने अविनाशिता का सिद्धांत प्रतिपादन करते हुए पदार्थ के सूक्ष्म कणों को परमाणु नाम दिया। वैसे पूरी दुनिया में रसायन की प्रेरणा है, चिर यौवन-अमरत्व (स्थिरता-अविनाशिता) और किसी भी पदार्थ को बदल कर स्वर्ण बना देना (परिवर्तन-गतिशीलता)। शोध अब भी जारी है, लेकिन इस क्रम में खोज हुई कि परमाणु के नाभिक में उदासीन न्यूट्रान (n) और धनावेशित प्रोटान (p) होते हैं, जबकि ऋणावेशित इलेक्ट्रान (e) नाभिक के बाहर कक्षाओं में सक्रिय होते हैं। कक्षों में इलेक्ट्रान की अधिकतम संभव संख्या क्रमशः 2, 8, 18, 32 आदि होती है।
इस रेखाचित्र में देखें। सोडियम (Na) n-12, p-11, e-11 (2,8,1) और क्लोरीन (Cl) n-18, p-17, e-17 (2,8,7) से बना सोडियम क्लोराइड (NaCl), नमक यानि सलाइन-सलोनेपन का संयोजक बंध -
बाहरी कक्षा में इलेक्ट्रान की संख्या पूर्ण हो तो तत्व अक्रिय होता है और यहां इलेक्ट्रान की संख्या उक्तानुसार पूर्ण न होने पर तत्व क्रियाशील होता है तथा इलेक्ट्रान त्याग कर या ग्रहण कर आवर्त सारिणी के निकटतम अक्रिय गैस जैसी रचना प्राप्त करने की चेष्टा (ॽ) करता है। किसी तत्व का परमाणु, जितने इलेक्ट्रान ग्रहण करता या त्यागता है, वही तत्व की संयोजकता होती है।
देखते-देखते तत्व या पदार्थ, मनुष्य का समानार्थी बनने लगा। पदार्थ के धनावेशित प्रोटान, मानव के पाजिटिव गुण और ऋणावेशित इलेक्ट्रान उसकी कमजोरियां हुईं, बाहरी कक्षा में जिनकी संख्या पूर्ण न होने के कारण अन्य के प्रति आकर्षण/पसंदगी और फलस्वरूप संयोजकता संभव होती है। लेकिन उदासीन और धनावेशित केन्द्र की स्थिरता के भरोसे ही, उसके चारों ओर ऋणावेश गति और यह संयोग संभव होता है। मानवीय चेष्टा/नियति भी तो अक्रिय गैस की तरह स्थिरता, मोक्ष, परम पद प्राप्त कर लेना है।
यह और भी गड्ड-मड्ड होने लगा। भ्रम होने लगा (अज्ञान का लक्षण ॽ) कि रसायनशास्त्र चल रहा है या कुछ और। आगे बढ़ने पर जॉन न्यूलैण्ड का अष्टक नियम मिल गया। तत्वों को उनके बढ़ते हुए परमाणु भारों के क्रम में व्यवस्थित करने पर 'सरगम' की तरह आठवां तत्व, पहले तत्व के भौतिक और रासायनिक गुणों से समानता रखता है, इस तरह-
सा- लीथियम, सोडियम, पोटेशियम// रे- बेरीलियम, मैगनीशियम, कैल्शियम// ग- बोरान, एल्यूमीनियम// म- कार्बन, सिलिकान// प- नाइट्रोजन, फास्फोरस// ध- आक्सीजन, सल्फर// नी- फ्लोरीन, क्लोरीन// जैसा सुर सधता दिखने लगा।
मजेदार कि यह नियम हल्के तत्वों पर लागू होता है, भारी पर नहीं। वैसे भी भारी पर नियम, हमेशा कहां लागू हो पाते हैं, 'समरथ को नहीं दोष गुसाईं'। सो सब अपरा जंजाल ...। जड़-चेतन का भेद विलोप ...। कहां तक पड़े रहें दुनियादारी के झमेले में- राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा। राम नाम रस पीजै मनवा ...
सो, गुणों का सम्मान करें और कमजोरियों से प्रेम करें।
साध्य उपपन्न।
सो, गुणों का सम्मान करें और कमजोरियों से प्रेम करें।
ReplyDeleteहां और सम्पूर्णता बनानें तक सक्रिय रहें। अनिष्ट इलेक्ट्रान त्याग करते रहे। पर इष्ट को लेकर उसे सकारात्मक नहीं बनाया जा सकता? अर्थात् उसे नाभिक में मिला दिया जाय?
हा हा हा,
ReplyDeleteयह शास्त्र है तो अपना फ़ेवरेट, लेकिन नियम, सूत्र वगैरह आड़े आ रहे हैं:)
सरगम के क्या कहने हैं, और अंतिम लाईन को जीवन लक्ष्य मानने का भरोसा देते हैं:)
संजय @ मो सम कौन ? जी की प्रतिक्रिया को कापी पेस्ट माना जाए :)
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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सो, गुणों का सम्मान करें और कमजोरियों से प्रेम करें।
सही है, प्रेम करें तो पूर्णता से करें, गुण-कमजोरियों दोनों से... पर नफरत करनी हो तो केवल कमजोरियों से ही करें... गुण हर हाल में सम्मानित होना चाहिये !
शायद यही जीवन-रस-सार है !
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बडा ही पेंचीदा लेख है।
ReplyDelete''गुणों का सिर्फ सम्मान होता है जबकि पसंद कमजोरियां की जाती हैं।'' मैं आपके इस सूत्र वाक्य से पुर्णतः सहमत हूँ अतः मैं रसायन शास्त्र वाले पैरा को लाँघ कर आगे बढ़ गया और सोचता हूँ की भविष्य में आपकी "गुणों का सम्मान करें और कमजोरियों से प्रेम करें।" वाली बात पर अमल करूँगा .
ReplyDeleteविचारोत्तेजक और प्रेरक आलेख।
ReplyDeleteराहुल भाई बात तो आपने बहुत ही उम्दा कही है लेकिन यह दुर्भाग्य ही है कि हम गुणों का सम्मान करना तो भूलते जा रहें है लेकिन कमजोरियों का उपहास उड़ाना नहीं भूलते
ReplyDeleteआज मुस्कुराने को जी चाहता है.. मेरे एम.बी.ए. में ऐडमिशन के समय जब इण्टर्व्यू में मुझसे केमिस्ट्री के सवाल पूछे गये (यह बताने पर की मैं केमिस्ट्री का स्नातकोत्तर हूँ)और कार्बन को बुरा भला कहा जाने लगा, तो मैंने आपका यही ज्ञान उनके सामने बखान कर दिया! और नतीजा... मुझे दाखिला मिल गया!!
ReplyDeleteबेचारा न्यूलैंड्स संगीत से तुलना करके फँस गया था बेचारा और उसका सिद्धांत मेन्दिलीव ले उड़ा!! मज़ा आ गया! राहुल जी!!
ऐस्थेटिक्स और अनेस्थेटिक्स में कुछ समानता है क्या? एक मन को जगाती है और दूजी तन को सुलाती है.
ReplyDeleteसलोना-सलाइन पढ़कर मेरा ध्यान सहसा 'सैलरी' पर चला गया. प्राचीन शब्द 'सल' से निकला है जिसका अर्थ है 'नमक'. रोमन सैनिक अपने वेतन से नमक और आटा खरीदते थे और कालांतर में इसी 'सल' से सैलरी बनी.
खैर... मैं तो शब्दव्युत्पत्ति के झमेले में जा फंसा. बाई द वे, यह पाश्चात्य परमानुवाद के जनक डाल्टनगंज में तो नहीं जन्मे थे?
ओह हो! बेकन ने नयी व्यवस्था या नवीन तंत्र नामक जो महत्वपूर्ण महाबोझिल (नोवम और्गानम) शास्त्र लिखा था उसके मूल में परिपूर्ण परमपदीय ऑर्गन गैस तो नहीं थी? मैं भी कैसे-कैसे तुक्के लगा रहा हूँ!
पर यह तो आप जानते ही होंगे कि भारी तत्व अंततः हलके तत्वों में टूट जाते हैं. टूटें भी क्यों नहीं, गरुता को उदासीन भाव से लेना आसान थोड़े ही है!
विषय प्रवेश की दुविधा से तो दो-चार होना ही होता है. हैं... अब मन विषय-विकार पर अटक रहा है.
सम्मान सदैव गुणों का ही किया जाता है. बड़ों के जो अवगुण हैं वे सिर्फ नज़रंदाज़ ही किये हैं, लानत-मलानत तो उनकी भी होती ही है.
ईमेल पर ब्रजकिशोर जी-
ReplyDeleteबिना दर्शनिक आधार के अपने अनुभव से जानता हूँ कि दुर्गुणों से भरे मनुष्य अधिक पसंद किये जाते हैं.
दार्शनिक और वैज्ञानिक आधार का शुक्रिया
प्रमेय सिद्ध करने का अनुपम व अद्भुत तरीका।
ReplyDelete@सो, गुणों का सम्मान करें और कमजोरियों से प्रेम करें।
ReplyDeleteजहाँ प्रेम और अपनापन हो, वहाँ क्या मुश्किल है।
@ गुणों का सम्मान करें और कमजोरियों से प्रेम करें।
ReplyDeleteअक्सर हम उल्टा व्यवहार करते हैं दूसरों के गुणों को देख जलन होती है जैसे इस लेख को पढ़ कर मुझे हो रही है काश हम भी आर्ट और साइंस पर राहुल सर की तरह सिद्ध होते :-(
आपकी कमजोरियों को ढूँढ़ते रहते हैं पता नहीं कब दिखेगी फिर बताते हैं आपको ....:-)
और उसके बाद हम भी हीरो कहलायेंगे बहुत से हमारे भी लोग प्रसंशक बन जायेंगे !
हमारे जैसे लोग खूब हैं यहाँ !
शुभकामनायें आपको सर !
@'समरथ को नहीं दोष गुसाईं'।
ReplyDeleteसार तुलसी बाबा कह गए ।
हा हा हा....बड़ा ही रासायनिक लेख है..
ReplyDeleteमज़ा आ गया..और सीखने को भी बहुत कुछ है...
"भारी पर नियम, हमेशा कहां लागू हो पाते हैं, 'समरथ को नहीं दोष गुसाईं'।"
ReplyDeleteमैं तो समझता था कि ऐसा सिर्फ जीवधारी प्राणियों के साथ होता है किन्तु आपने तो सिद्ध कर दिया कि ऐसा निर्जीव तत्वों के साथ भी होता है।
आपका दर्शन अद्भुत है!
वैसे भी भारी पर नियम, हमेशा कहां लागू हो पाते हैं,
ReplyDelete@ मनमोहन के पास दो गधे थे. एक हलका एक भारी. हलका वाला काम ज्यादा करता था. भारी वाला खाता अधिक था.
एक बार मनमोहन ने दोनों गधों पर नमक लादा और शहरी बाज़ार में बेचने के लिये नदी पार करने को गधों को उसमें घुसा दिया.
दोनों को एक-एक डंडा भी मारा. हलके वाले ने फुरती से नदी पार की. भारी वाले ने नमक हरामी की. मस्ती में लेट गया. नमक घुल गया.
भार कम होते ही मस्ती अधिक हो गयी. खैर मनमोहन ने भी उसे विधाता का लेखा जान भारी को माफ़ कर दिया.
लेकिन जब देखो डंडे हलके वाले को ही पड़ा करते क्योंकि वह काम सही करता था और फायदा भी उसीसे होता था.
आज़ भी हलके वाले ही नियम मानते हैं, भारी वालों पर तो तभी नियम काम करता है जब उनपर आ पड़ती हैं.
ReplyDeleteइसके लिये 'मानस शास्त्र' में एक दूसरी कथा आती है :
एक बार तेज़ भूकंप आया. दिल्ली के बोर्डर पर बसे कौशाम्बी के ऊँचे अपार्टमेंट्स हिल गये. सुप्रीम कोर्ट के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश जो बड़े सुकून से सबसे ऊपर वाले फ्लेट में समय बिता रहे थे.
वे सहसा चिल्लाए "गार्ड, गार्ड!" लेकिन लिफ्टमैन और गार्ड सभी सीड़ियों के रास्ते ज़मीन पर भाग गये. अकेले बचे जज महोदय. खैर कुछ दरारों को छोडके अपार्टमेन्ट ज़्यादा प्रभावित नहीं हुए.
हलके ओहदे वाले गार्ड और लिफ्टमैन ने अपनी नौकरी गवां दी. भारी ओहदे पर रहे जज ने रिटायर होने के बावजूद दो हलकों को सज़ा सुना दी. 'समरथ को नहीं दोष गुसाईं'।
सही कहा, नियम तो हल्के पर ही लागू होते हैं।
ReplyDeleteइस भारी पोस्ट को पढकर अच्छा लगा। आभार।
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विलुप्त हो जाएगा इंसान?
ब्लॉग-मैन हैं पाबला जी...
वाह क्या ललित निबन्ध है ..मजा आ गया और इंटर के दौरान की रस सिद्धि भी याद हो आई !
ReplyDelete:) क्या बात है, वैसे ये बता दूँ की केमेस्ट्री से मेरा कुछ खास लगाव नहीं रहा कभी..लेकिन आज केमिस्ट्री और यहाँ मिले ज्ञान ने मन प्रसन्न कर दिया.. :)
ReplyDeleteकुछ दिनों से ऐसी ही कुछ ज्ञान की बातें बाईलोजी से सीखने को मिल रही हैं और उसमे मेरे मित्र रवि जी मुझे बातें समझाते हैं, अच्छा लग रहा है :)
अभी कुछ नहीं कह रहा हूँ। फालोवर बनने आया था पर यहाँ विजेट ही नही है। आप का ब्लाग तलाशना पड़ेगा बार बार।
ReplyDeleteफीड बर्नर को ई-मेल दे दिया है।
ReplyDeleteअर्थात परमाणु की खोज भी भारत में ऋषि कणाद ने की थी अंग्रेज डाल्टन ने नहीं
ReplyDeleteईमेल पर श्री महेश शर्मा जी-
ReplyDeleteयह भी उल्लेखनीय है कि इलेक्ट्रोन ऋण आवेशित होते है और प्रोटोन धन आवेशित.जो तत्व इलेक्ट्रोन देते है, उनका धन आवेश बढ़ जाता है और ऐसे मनुष्य सकारात्मक / धनात्मक कार्यों में सलग्न दिखते हैं. कमजोरियों को त्यागने पर भी इलेक्ट्रोन त्यागने जैसा ही असर होता है ,और मनुष्य धनात्मक हो कर अन्य महत्वाकांक्षी व्यक्तियों की नजर में चुभने लगता है और वे उसे अपना प्रतिद्वन्दी मानने लगते है. कमजोरियों को पसंद किए जाने का यह कारण भी होता है.जिन तत्वों के अन्तिम कक्ष में २,८,१८ .. ... ....(2*n*n) इलेक्ट्रोन होते है,वे सन्तुष्ट /उदासीन रह कर "न उधो का लेना न माधव को देना " को चरितार्थ करते हैं.
जिनके पास त्यागने योग्य कमजोरियाँ/इलेक्ट्रोन है,और जो इन्हें ग्रहण करने हेतु प्रस्तुत रह्ते है,उनमें प्रबल बन्ध बन जाता है,जिसे गठबन्धन भी कहाँ जा सकता है.
यह भी ध्यान देने योग्य है कि प्रोटोन के कारण ही परमाणु का कुछ वजन होता है ,अर्थात् मनुष्य की इज्जत उसके धनात्मक कार्यों से ही होती है.
रसायन शास्त्र के मध्यम से दुनियादारी को समझाने वाला शायद यह पहला ब्लाग होगा
बधाई स्वीकार करें.
कुछ टिप्पणियाँ तो ऐसी हो गईं कि समझ में ही नहीं आतीं। रसायनशास्त्र ज्यादा हो गया है कहीं-कहीं।
ReplyDeleteसो, गुणों का सम्मान करें और कमजोरियों से प्रेम करें।
ReplyDeleteजीवन का सार यही है...जिसने इसे धारण कर लिया....वो महानता की श्रेणी में खुद ब खुद आ जाता है.
रसायन शास्त्र की भाषा में मानव व्यवहार को समझना रोचक रहा।
ReplyDeleteमैंने पाया है कि भौतिकी और गणित के बहुत सारे सिद्धांत और सूत्र मावन व्यवहार से मेल खाते हैं।
अक्रिय गैस कबीर के समान- कुछ लेना न देना मगन रहना ,
और आजकल के लोग सोडियम जैसे- पानी(अच्छाई) डालो तो जल जाते हैं और मिट्टी तेल(बुराई) के साथ रखने से शांत ।
गुण तो स्थिर हैं कहीं नही जाने वाले अवगुण या कमजोरियां हीं कम ज्यादा होती रहती हैं । रसायन शास्त्र( परमाणु शिध्दांत) और मानवीय व्यवहार की समानता खूब जमाई है । साध्य उपपन्न ।
ReplyDeleteसुंदर आलेख .. आपका कोई आलेख कभी भी कमजोर हो ही नहीं सकता .. ये मेरा विश्वास है ..
ReplyDelete- डा. जेएसबी नायडू
जीवन का पूरा सार...अच्छा आलेख.
ReplyDeleteit is very difficult to comment on it but as per my view as we lived our whole life it looks like it sir you have deep thought and better experience and i was part of this discussion iam thankfull to you ramakant singh
ReplyDeleteरसायन शास्त्र से मेरा संबंध बहुत अच्छा तो नहीं रहा है मगर संयोजक बंध सामाजिक बंध से भी लगते हैं. आभार.
ReplyDeleteबहुत सुंदर, अच्छा लगा
ReplyDeleteजिंदगी का रासायनिक निबंध है, परंतु १००% सत्य है।
ReplyDeleteस्वयं को विद्वान समझने वाले लोगो के दिमाग की बाहरी कक्षा में इलेक्ट्रान की संख्या पूर्ण होने से उनका दिमाग नव विचार ग्रहण करने मे अक्रिय रहता है ऐसे लोगो की संख्या बहुतायत मे होने के कारण ही विश्व आज इस हालत मे पहुंच गया है
ReplyDelete''गुणों का सिर्फ सम्मान होता है जबकि पसंद कमजोरियां की जाती हैं।''
ReplyDeleteलाख टके की बात,आभार.
क्या बात है सर, ऐसे तो कभी सोचा नहीं था,
ReplyDeleteआभार,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
रोचक एवं सारगर्भित आलेख!
ReplyDeleteSir, Thanks for leading me here:)
अद्भुत लेख । दो हजार छह में ब्लॉगिंग शुरू की और नौ में छोड़ भी दी । देख रही हूं के 2011 में भी सारे मित्र ब्लॉगर इस मंच पर सक्रिय रहे । मैं हैरान हूं के उन बरसों में , जब मैं चिट्ठाचर्चा कर रही थी आपका ब्लॉग कैसे मेरी नजर में नहीं आया होगा ..
ReplyDeleteनीलिमा चौहान , आँख की किरकिरी.