4 जुलाई की तारीख इस तरह कम याद की जाती है कि सन 1902 में स्वामी विवेकानन्द का निधन इसी दिन हुआ, यह और भी कम कि 12 जनवरी 1863 को जन्म लिए इस महामानव के डेढ़ साल रायपुर में बीते, जो कलकत्ता के बाद किसी अन्य स्थान में उनका बिताया सबसे अधिक समय है। रायपुर से कलकत्ता लौटकर उन्होंने 1879 में 16 वर्ष की आयु में एंट्रेंस परीक्षा पास की थी।
रायपुर का बुढ़ा तालाब/विवेकानंद सरोवर, जिसके पास उन्होंने निवास किया
छानबीन करते हुए स्वामी आत्मानंद जी का लेख मिल गया, जिसका कुछ हिस्सा मैंने उनसे प्रत्यक्ष चर्चा में और उनके उद्बोधन में भी सुना है। 'स्वामी विवेकानन्द और मध्यप्रदेश' शीर्षक से अबुझमाड़ ग्रामीण विकास प्रकल्प की स्मारिका 1987 में प्रकाशित इस लेख का रायपुर प्रवास से संबंधित अंश-
विवेकानन्द, जो नरेन्द्र नाथ दत्त के रूप में सन् 1877 ई. में रायपुर आये। तब उनकी वय 14 वर्ष की थी और वे मेट्रोपोलिटन विद्यालय की तीसरी श्रेणी (आज की आठवीं कक्षा के समकक्ष) में पढ़ रहे थे। उनके पिता विश्वनाथ दत्त तब अपने पेशे के काम से रायपुर में रह रहे थे। जब उन्होंने देखा कि रायपुर में काफी समय रहना पड़ेगा, तब उन्होंने अपने परिवार के लोगों को भी रायपुर में बुला लिया। नरेन्द्र अपने छोटे भाई महेन्द्र, बहिन जोगेन्द्रबाला तथा माता भुवनेश्वरी देवी के साथ कलकत्ता से रायपुर के लिए रवाना हुए। तब रायपुर कलकत्ते से रेललाइन के द्वारा नहीं जुड़ा था। उस समय रेलगाड़ी कलकत्ता से इलाहाबाद, जबलपुर, भुसावल होते हुए बम्बई जाती थी। उधर नागपुर भुसावल से जुड़ा हुआ था, तब नागपुर से इटारसी होकर दिल्ली जानेवाली रेललाइन भी नहीं बनी थी। अतः बहुत सम्भव है, नरेन्द्र अपने परिवार के सदस्यों के साथ जबलपुर उतरे हों और वहां से रायपुर आने के लिए बैलगाड़ी की हो। उनके कुछ जीवनीकारों ने लिखा है कि नरेन्द्र एवं उनके घर के लोग नागपुर से बैलगाड़ी द्वारा रायपुर गये, पर नरेन्द्र को इस यात्रा में जो एक अलौकिक अनुभव हुआ, वह संकेत करता है कि वे लोग जबलपुर से ही बैलगाड़ी द्वारा मण्डला, कवर्धा होकर रायपुर गये हों। उनके कथनानुसार, इस यात्रा में उन्हें पन्द्रह दिनों से भी अधिक का समय लगा था। उस समय पथ की शोभा अत्यन्त मनोरम थी। रास्ते के दोनों किनारों पर पत्तों और फूलों से लदे हुए हरे हरे सघन वनवृक्ष होते। भले ही नरेन्द्र नाथ को इस यात्रा में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, तथापि, उनके ही शब्दों में, ''वनस्थली का अपूर्व सौन्दर्य देखकर वह क्लेश मुझे क्लेश ही नहीं प्रतीत होता था। अयाचित होकर भी जिन्होंने पृथ्वी को इस अनुपम वेशभूषा के द्वारा सजा रखा है, उनकी असीम शक्ति और अनन्त प्रेम का पहले-पहल साक्षात् परिचय पाकर मेरा हृदय मुग्ध हो गया था।'' उन्होंने बताया था, ''वन के बीच से जाते हुए उस समय जो कुछ मैंने देखा या अनुभव किया, वह स्मृतिपटल पर सदैव के लिए दृढ़ रूप से अंकित हो गया है। विशेष रूप से एक दिन की बात उल्लेखनीय है। उस दिन हम उन्नत शिखर विन्ध्यपर्वत के निम्न भाग की राह से जा रहे थे। मार्ग के दोनों ओर बीहड़ पहाड़ की चोटियां आकाश को चूमती हुई खड़ी थीं। तरह तरह की वृक्ष-लताएं, फल और फूलों के भार से लदी हुई, पर्वतपृष्ठ को अपूर्व शोभा प्रदान कर रही थीं। अपनी मधुर कलरव से मस्त दिशाओं को गुंजाते हुए रंग-बिरंगे पक्षी कुंज कुंज में घूम रहे थे, या फिर कभी-कभी आहार की खोज में भूमि पर उतर रहे थे। इन दृश्यों को देखते हुए मैं मन में अपूर्व शान्ति का अनुभव कर रहा था। धीर मन्थर गति से चलती हुई बैलगाड़ियां एक ऐसे स्थान पर आ पहुंची, जहां पहाड़ की दो चोटियां मानों प्रेमवश आकृष्ट हो आपस में स्पर्श कर रही हैं। उस समय उन श्रृंगों का विशेष रूप से निरीक्षण करते हुए मैंने देखा कि पासवाले एक पहाड़ में नीचे से लेकर चोटी तक एक बड़ा भारी सुराख है और उस रिक्त स्थान को पूर्ण कर मधुमक्खियों के युग-युगान्तर के परिश्रम के प्रमाणस्वरूप एक प्रकाण्ड मधुचक्र लटक रहा है। उस समय विस्मय में मग्न होकर उस मक्षिकाराज्य के आदि एवं अन्त की बातें सोचते-सोचते मन तीनों जगत् के नियन्ता ईश्वर की अनन्त उपलब्धि में इस प्रकार डूब गया कि थोड़ी देर के लिए मेरा सम्पूर्ण बाह्य ज्ञान लुप्त हो गया। कितनी देर तक इस भाव में मग्न होकर मैं बैलगाड़ी में पड़ा रहा, याद नहीं। जब पुनः होश में आया, तो देखा कि उस स्थान को छोड़ काफी दूर आगे बढ़ गया हूं। बैलगाड़ी में मैं अकेला ही था, इसलिए यह बात और कोई न जान सका।''14 (14- स्वामी सारदानन्दः'श्रीरामकृष्णलीलाप्रसंग', तृतीय खण्ड, द्वितीय संस्करण, नागपुर, पृ. 67-68) नरेन्द्र नाथ की यह रायपुर-यात्रा इसलिए भी विशेष महत्वपूर्ण हो जाती है कि इस यात्रा में उन्हें अपने जीवन में पहली भाव-समाधि का अनुभव हुआ था।
रायपुर में अच्छा विद्यालय नहीं था। इसलिए नरेन्द्र नाथ पिता से ही पढ़ा करते थे। यह शिक्षा केवल किताबी नहीं थी। पुत्र की बुद्धि के विकास के लिए पिता अनेक विषयों की चर्चा करते। यहां तक कि पुत्र के साथ तर्क में भी प्रवृत्त हो जाते और क्षेत्र विशेष में अपनी हार स्वीकार करने में कुण्ठित न होते। उन दिनों विश्वनाथ बाबू के घर में अनेक विद्वानों और बुद्धिमानों का समागम हुआ करता तथा विविध सांस्कृतिक विषयों पर चर्चाएं चला करतीं। नरेन्द्र नाथ बड़े ध्यान से सब कुछ सुना करते और अवसर पाकर किसी विषय पर अपना मन्तव्य भी प्रकाशित कर देते। उनकी बुद्धिमता तथा ज्ञान को देखकर बड़े-बूढ़े चमत्कृत हो उठते, इसलिए कोई भी उन्हें छोटा समझ उनकी अवहेलना नहीं करता था। एक दिन ऐसी ही चर्चा के दौरान नरेन्द्र ने बंगला के एक ख्यातनामा लेखक के गद्य-पद्य से अनेक उद्धरण देकर अपने पिता के एक सुपरिचित मित्र को इतना आश्चर्यचकित कर दिया कि वे प्रशंसा करते हुए बोल पड़े, ''बेटा, किसी न किसी दिन तुम्हारा नाम हम अवश्य सुनेंगे।'' कहना न होगा कि यह मात्र स्नेहसिक्त अत्युक्ति नहीं थी- वह तो एक अत्यन्त सत्य भविष्यवाणी थी। नरेन्द्र नाथ बंग-साहित्य में अपनी चिरस्थायी स्मृति रख गये।
बालक नरेन्द्र बालक होते हुए भी आत्मसम्मान की रक्षा करना जानते थे। अगर कोई उनकी आयु को देखकर अवहेलना करना चाहता, तो वे सह नहीं सकते थे। बुद्धि की दृष्टि से वे जितने बड़े थे, वे स्वयं को उससे छोटा या बड़ा समझने का कोई कारण नहीं खोज पाते थे तथा दूसरों को इस प्रकार सोचने का कोई अवसर भी नहीं देना चाहते थे। एक बार जब उनके पिता के एक मित्र बिना कारण उनकी अवज्ञा करने लगे, तो नरेन्द्र सोचने लगे, ''यह कैसा आश्चर्य है! मेरे पिता भी मुझे इतना तुच्छ नहीं समझते, और ये मुझे ऐसा कैसा समझते हैं।'' अतएव आहत मणिधर के समान सीधा होकर उन्होंने दृढ़ स्वरों में कहा, ''आपके समान ऐसे अनेक लोग हैं, जो यह सोचते हैं कि लड़कों में बुद्धि-विचार नहीं होता। किन्तु यह धारणा नितान्त गलत है।'' जब आगन्तुक सज्जन ने देखा कि नरेन्द्र अत्यन्त क्षुब्ध हो उठे हैं और वे उसके साथ बात करने के लिए भी तैयार नहीं हैं, तब उन्हें अपनी त्रुटि स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा। कठोपनिषद् में बालक नचिकेता में भी ऐसी ही आत्मश्रद्धा दिखाई देती है। उसने कहा था, ''बहुत से लोगों में मैं प्रथम श्रेणी का हूं और बहुतों में मध्यम श्रेणी का, पर मैं अधम कदापि नहीं हूं।''
नरेन्द्र में पहले से ही पाकविद्या के प्रति स्वाभाविक रूचि थी। रायपुर में हमेशा अपने परिवार में ही रहने के कारण तथा इस विषय में अपने पिता से सहायता प्राप्त करने तथा उनका अनुकरण करने से वे इस विद्या में और भी पटु हो गये। रायपुर में उन्होंने शतरंज खेलना भी सीख लिया तथा अच्छे खिलाड़ियों के साथ वे होड़ भी लगा सकते थे।15 (15- स्वामी गम्भीरानन्दः'युगनायक विवेकानन्द' (बंगला), प्रथम खण्ड, कलकत्ता, पृ. 55-57 (आगे युगनायक नाम से अभिहित)) फिर, रायपुर में ही विश्वनाथ बाबू ने नरेन्द्र को संगीत की पहली शिक्षा दी। विश्वनाथ स्वयं इस विद्या में पारंगत थे और उन्होंने इस विषय में नरेन्द्र की अभिरूचि ताड़ ली थी। नरेन्द्र का कण्ठ-स्वर बड़ा ही सुरीला था। वे आगे चलकर एक सिद्धहस्त गायक बने थे, पर उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष भी रायपुर में ही विकसित हुआ। 16 (16- 'दि लाइफ ऑफ स्वामी विवेकानन्द', अद्वैत आश्रम, मायावती, भाग 1, पांचवां संस्करण, पृ. 42-43 (आगे 'दि लाइफ' नाम से अभिहित))
डेढ़ वर्ष रायपुर में रहकर विश्वनाथ सपरिवार कलकत्ता लौट आये। तब नरेन्द्र का शरीर स्वस्थ, सबल और हृष्ट-पुष्ट हो गया और मन उन्नत। उनमें आत्मविश्वास भी जाग उठा था और वे ज्ञान में भी अपने समवयस्कों की तुलना में बहुत आगे बढ़ गये थे। किन्तु बहुत समय तक नियमित रूप से विद्यालय में न पढ़ने के कारण शिक्षकगण उन्हें ऊपर की (प्रवेशिका) कक्षा में भरती नहीं करना चाहते थे। बाद में विशेष अनुमति प्राप्त कर वे विद्यालय की इसी कक्षा में भरती हुए तथा अच्छी तरह से पढ़ाई कर सभी विषयों को थोड़े ही समय में तैयार करके उन्होंने 1879 में परीक्षा दी। यथासमय परीक्षा का परिणाम निकलने पर देखा गया कि वे केवल उत्तीर्ण ही नहीं हुए हैं, प्रत्युत उस वर्ष विद्यालय से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले वे एकमात्र विद्यार्थी हैं। यह सफलता अर्जित कर उन्होंने अपने पिता से उपहार स्वरूप चांदी की एक सुन्दर घड़ी प्राप्त की थी।
रायपुर में घटी और दो घटनाएं नरेन्द्र नाथ के व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण हैं। विश्वनाथ ने पुत्र को संगीत के साथ-साथ पौरुष की भी शिक्षा दी थी। एक समय नरेन्द्र नाथ पिता के पास गये और उनसे पूछ बैठे, ''आपने मेरे लिए क्या किया है?'' तुरन्त उत्तर मिला, ''जाओ दर्पण में अपना चेहरा देखो!'' पुत्र ने तुरन्त पिता के कथन का मर्म समझ लिया, वह जान गया कि उसके पिता मनुष्यों में राजा हैं।
एक दूसरे समय नरेन्द्र ने अपने पिता से पूछा था कि परिवार में किस प्रकार रहना चाहिए, अच्छी वर्तनी का माप-दण्ड क्या है? इस पर पिता ने उत्तर दिया था, ''कभी आश्चर्य व्यक्त मत करना!'' क्या यह वही सूत्र था, जिसने नरेन्द्र नाथ को विवेकानन्द के रूप में समदर्शी बनाकर, राजाओं के राजप्रासाद और निर्धनों की कुटिया में समान गरिमा के साथ जाने में समर्थ बनाया था।17 (17- वही, पृ. 44)
उपर्युक्त विवरण प्रदर्शित करते हैं कि नरेन्द्र के व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास में रायपुर का क्या योगदान रहा है।
बताया जाता है कि नरेन्द्र, पिता विश्वनाथ दत्त के साथ रायबहादुर भुतनाथ दे (1850-1903) के इसी ''दे भवन'' में रहे थे। भवन की वर्तमान तस्वीर, जिसमें भुतनाथ जी के पुत्र हरिनाथ दे का शिलालेख है कि उन्होंने अपने जीवन के 34 वर्षों में 36 भाषाएं सीखीं।
इस भवन में नरेन्द्र-विवेकानन्द के निवास का संदर्भ यहां लगे एक अन्य शिलालेख में था, जिसके सहित इस भवन की तस्वीर सन 2003 में स्वामी जी के रायपुर आगमन के 125 वर्ष पर छत्तीसगढ़ शासन, संस्कृति विभाग द्वारा प्रकाशित की गई थी। पता चला कि यह शिलालेख अब वहां नहीं है।
बूढ़ापारा का डे
भवन, जिसमें
स्वामी
विवेकानंद
के
निवास
की
जानकारी
का
शिलालेख
होता
था।
|
सन 1995 का
एक
महत्वपूर्ण
दस्तावेज, जिसका
आशय
स्वयं
स्पष्ट
है।
|
स्वामी विवेकानन्द की 150 जयंती के आयोजन आरंभ हो रहे हैं। समय की पर्त कभी इतनी मोटी होती है कि कम समय में ही बड़ी घटना पर भी ओझल कर देने वाला परदा पड़ सकता है। इस अवसर पर उनके रायपुर आगमन व निवास के लिए कुछ ऐसी ही स्थिति बनती देखकर यह प्रस्तुत करना जरूरी लगा।
अद्भुत जानकारी! यह सब आज से पहले कभी नहीं पढ़ा!
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद!
रायपुर में पढने के दौरान हरिनाथ दे भवन को देखा था,पहली बार इस शिलालेख को देखकर मुझे आश्चर्य हुआ कि उन्हो्ने 34 वर्षों में 36 भाषाएं सीखी,और मुझे अंग्रेजी ही धोए जा रही थी। इसलिए इस शिलाले्ख पर मेरे नजर दिन में दो बार पड़ ही जाती थी। फ़िर भादुड़ी जी से मुझे पता चला कि यहाँ विवेकानंद जी रहे हैं।
ReplyDeleteनरेन्द्रनाथ के रायपुर आने का मार्ग जबलपुर हो सकता है। क्योंकि इस मार्ग से कम समय में पहुंचा जा सकता था। रायपुर आने के लिए कोलकाता से भूसावल और भुसावल से नागपुर, फ़िर नागपुर से बैलगाड़ी से रायपुर आना समय की बर्बादी ही है।
सबसे पहले तो इस पोस्ट के लिए आपका आभार!!
ReplyDeleteस्वामी विवेकानंद से जुडी कोई भी बात हो, कैसा भी लेख हो, मैं पढ़ना छोड़ता नहीं..
जहाँ तक मुझे याद आता है एक किताब थी जो शायद स्वामी आत्मानंद जी ने लिखी थी(या फिर किसी और ने), वो किताब मैंने करीब एक साल पहले पढ़ी थी, बहुत से अनछुए हिस्से थे विवेकानंद जी के बारे में...मुझे काफी अच्छा लगा था पढ़ना उस किताब को.
वैसे १२ जनवरी तारीख मुझे याद रहती है..चार जुलाई भी :)
सही में अद्दुत जानकारी मिली पोस्ट के जरिए
ReplyDeleteराहुल भाई अद्भुत संकलन स्वामी जी के जन्म दिन पर आपका यह ब्लॉग निश्चित ही आपकी अध्ययनशीलता को रेखांकित कर जाता है आपका ब्लॉग पढ़कर पुरानी स्मृतियाँ ताजा हो गयी जब श्रध्येय स्वामी आत्मानंद जी के श्री मुख से सारगर्भित उद्बोधन सुनने को मिलते थे अकलतरा से उनका लगाव भुलाये जाने की बात नहीं है
ReplyDeleteआपका ब्लॉग पढ़कर डे जी के माकन को मस्तक झुकाने का मन हो आया क्योंकि धन्य है वह जमीन जहाँ स्वामी जी के पैर पड़े
अद्भुत जानकारी के लिए साधुवाद
ईश्वर खंदेलिया
पुनश्च स्वामी जी के जीवन से सम्बंधित शंकर द्वारा लिखित एवं पेंग्विन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक ** विवेकानंद जीवन के अनजाने सच** हॉल ही में पढने को मिली अद्भुत रचना लगी स्वामी जी के जीवन से सम्बंधित समय निकलकर जरुर पढ़े निवेदन है
ReplyDeleteराष्ट्रीय इतिहास की इस धरोहर को इस ब्लॉग-पृष्ठ पर सुरक्षित रखने और हमसे बाँटने का अभार। जानकारी बहुत अच्छी लगी, चित्र भी। काश हम ऐतिहासिक महत्व के इन स्थलों को बचाने के बारे में सोचते।
ReplyDeleteएक संग्रहणीय पोस्ट।
ReplyDeleteविवेकानन्द जी को सादर नमन।
स्वामी जी के बारे में इतनी महत्वपूर्ण जानकरी इस अंदाज में पहली बार पढ़ी है
ReplyDeleteआभार आपका
समझ नहीं पा रहा हूँ कि क्या कहूँ। खुद पर क्षोभ, आश्चर्य और खेद हो रहा है। मैं पचासों बार रायपुर गया हूँ और तीन-तीन दिन रहा हूँ किन्तु विवेकानन्द से रायपुर का सम्बन्ध पहली बार मालूम हो रहा है। आपके इस आलेख ने समृध्द तो किया ही, रोमांचित भी किया। कोटिश: आभार।
ReplyDeleteआदरणीय राहुल सिंह जी
ReplyDeleteसादर प्रणाम !
हिंदुस्तान ही नहीं , विश्व की महानतम विभूतियों में से एक स्वामी विवेकानन्द जी से संबद्ध आपकी पोस्ट रोचक और जानकारी में वृद्धि करने वाली है । इसके लिए आपका आभार !
4 जुलाई को स्वामीजी की पुण्य तिथि के अवसर पर कृतज्ञता सहित विनम्र श्रद्धांजलि !
हार्दिक शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार
स्वामी विवेकानंद जी को श्रद्धा सुमन करते हुए इस महत्वपूर्ण जानकारी के लिए आपको हार्दिक धन्यवाद !
ReplyDeleteबिलकुल नवीन जानकारी है मेरे लिए ! हार्दिक आभार !
ReplyDeleteस्वामीजी से जुड़ी अनमोल जानकारी देती पोस्ट ..... स्वामी जी, इस देश के गौरव को.....नमन
ReplyDeleteराहुल जी!
ReplyDeleteशायाद्पहाले भी कभी कहा था मैंने और आज पुनः बाध्य हूँ कहने पर कि जिस प्रकार की जानकारी और जिस शोध के उपरांत आपके यहाँ देखने को मिलाती है वह अन्यत्र दुर्लभ है.. मेरा बेटा, जिसकी उम्र १४ वर्ष है, उसके तो हीरो हैं स्वामी विवेकानंद. इन दिनों नरेन्द्र कोहली रचित "पूत अनोखो जायो" पढने में व्यस्त है. यह लेख मेरी तरफ से उअको उपहार होगा. आशीष प्रदान करें मेरे पुत्र को!
पौरुष, भाषाविद, जंगल यात्रा और विवेक के आनन्द की निर्माण प्रक्रिया, न जाने कितना कुछ समेट दिया इस पोस्ट में आपने।
ReplyDeleteमेकिंग आफ विवेकानंद में रायपुर की भूमिका 'किंग' सरीखी लग रही है
ReplyDeleteज्ञानवर्धक पोस्ट ...
ReplyDeleteविवेकानंदजी को नमन !
स्वामी आत्मानन्द जी के इस लेख को बहुत साल पहले पढ़ा था मैंने, आज फिर से पढ़ कर आनन्द आ गया!
ReplyDeleteआत्मानन्द जी के लेख को पढ़ कर ध्यान आया कि अंग्रेजी क्लासिक "अराउण्ड द वर्ल्ड इन 80 डेज" में भी बम्बई से कलकत्ता के व्हाया जबलपुर वाले लाइन का उल्लेख है जिसमें यह भी बताया गया है कि बम्बई से हावड़ा तक का टिकिट तो रेल्वे दे देती थी किन्तु बीच के एक हिस्से में कुछ दूरी तक पटरियाँ ही नहीं थी और लोगों को उतनी दूरी तक अपने स्वयं के साधन से सफर करना पड़ता था।
स्वामी विवेकानन्द की पुण्य तिथि पर आपका यह पोस्ट सराहनीय है।
bahut bahut abhar.........
ReplyDeletepranam.
राहुल जी,
ReplyDeleteअति सुंदर अभिव्यक्ति। जबलपुर से रायपुर की यात्रा, प्राकृतिक सौंदर्य और विचारों के प्रस्फुटन का बहुत ही खूबसूरत युज्म पेश करती है। आलेख हौले से इस प्रश्न को भी जिंदा रखता है, कि स्वामी जी का रायपुर में रहना कम सौभाज्य की बात क्यों माना जाता है? राहुल जी ब्रम्हचारी सदी में एक ही बमुश्किल हो पाता है, क्योंकि यह सिर्फ कामविजयी गुण नहीं, बल्कि संपूर्णता है। सतयुग में मुनि नारद, त्रेता में हनुमान, द्वापर में गंगापुत्र भीष्म और कलियुग में स्वामी विवेकानंद। रायपुर का तो नामकरण तक उनके नाम से होना चाहिए। इस पोस्ट के लिए सर आप ढेर बधाई के पात्र हैं।
बहुत सुन्दर और ज्ञान वर्धक आलेख... नरेन्द्रनाथ के जीवन के इस अंश से परिचित नहीं था.... बहुत बढ़िया...
ReplyDeleteविवेकानंद, रायपुर और वहां के अतीत के बारे में नई जानकारी मिली। बहूत बहूत आभार।
ReplyDeleteएक बार किसी बात पर नरेंदर ने अपनी माँ से कुछ अशिष्ट व्यवहार किया जब उनके पिताजी को पता चला तो उन्होंने कोयला से नरेंदर के कमरे में लिख दिया कि नरेंदर ने अपनी माँ को इस तरह अभद्र जवाब दिया
ReplyDeleteताकि उनके साथ आने वाले बच्चे भी जान सकें, तत्पश्चात नरेंदर नें पुनः कभी ऐसी बात नहीं की. इस जानकारी भरे लेख के लिए आभार
ज्ञान से लबरेज पोस्ट पढ़ कर आनंद आ गया,स्वामी जी मेरे आराध्य रहे है ,आपने कुछ नई जानकारियाँ दी ,बहुत धन्यवाद.
ReplyDeleteYah alekh main bahut pahle padha tha kintu kuchh vismrit sa ho gaya tha. is aalekh ko punarujjeevit karne ke liye dhanyavad.
ReplyDeleteविवेकानंद से जुडी हर बात पता नहीं क्यों उत्सुकता जगाती है ... अच्छा लगा आपकी शैली में उनको पढ़ना ...
ReplyDeleteमालूम तो था कि आदरणीय़ विवेकानंद जी रायपुर मे निवास कर चुके हैं पर ऐसी मनमोहक जानकारिया नही थी आपको कोटी कोटी साधुवाद वैसे रायपुर और जबलपुर के बीच का वह अनुपम सौंदर्य वनविभाग की भेट चढ़ चुका है अब उस रास्ते मे जो जंगल शेष भी है उनमे सिवाय इमारती लकड़ियो के पेड़ो के अलावा कुछ भी नही
ReplyDeleteमेरे लिए तो बिलकुल नई जानकारी...
ReplyDeleteबहुत कुछ जानने को मिला.
ईमेल पर अशोक कुमार शर्मा जी-
ReplyDeletenarendra nath dutt ka artical kafi achha hai
धन्यवाद राहुल जी, स्वामी विवेकानन्द के बारे में ये जानकारियां अपने लिये अनजानी थीं। अवगत करवाने के लिये और आज के दिन उस महान व्यक्तित्व को स्मरण करने करवाने के लिये पुन: धन्यवाद।
ReplyDeleteश्रीरामकृष्णलीलाप्रसंग का प्रथम भाग आज से 25 साल पहले पढ़ा था।
ReplyDeleteशेष खंड नहीं पढ़ पाया । उनके रायपुर निवास के संबंध में कहीं और पढ़ा था।
मेरे लिए यह जानकारी नई है कि नरेंद्र दत्त स्वजनों के साथ जबलपुर से मंडला, कवर्धा होते हुए रायपुर गए थे।
यह जानकारी मुझे रोमांचित और पुलकित भी कर रही है क्योंकि उसी मार्ग में हमारा शहर बेमेतरा भी है।
मन में यात्रा करते हुए नरेंद्र दत्त की वीडियो-सी चलने लगी है।
पुलकित होने का अवसर देने के लिए आपका आभार।
अनुपम स्मृति-लेख!
ReplyDeleteसाभार धन्यवाद
फेसबुक पर गौरव घोष जी-
ReplyDeleteIncredible Information!!
स्वामी विवेकानन्द और रायपुर से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी दी आपने. कभी रायपुर भ्रमण का सुअवतर मिला तो हरिनाथ दे भवन अवश्य देखूंगी.
ReplyDeleteकिया था तुम ने इस धरा को कभी पावन
ReplyDeleteजान कर प्रफ्फुलित है मेरा भी मन
अब तो आने लगी खुशबु चन्दन सी इस धरा से
चलो ढूंढे उन चरणों की चिन्ह
मार्ग जो चुना था आप ने जागरण का
चलो झंझोर कर देखू खुद का भी मन तन
काश पद का एक चिन्ह मुझे भी आप का मिल पाता
सफल कर लू अपना भी जीवन ..
एक कदम भी अगर आप की राह में चल पाता
मेरा कोटि कोटि नमन इन दिव्य आत्मा और रायपुर की इस पवित्र धरा को ......
स्वामी विवेकानंद की जीवनी प्रेरणा का सर्वश्रेष्ठ स्रोत है...उनके जन्म दिवस को युवा दिवस के रूप में मनाया जाना उन्हें हमेशा जीवित रखेगा. लोगों में इच्छशक्ति का अभाव है अन्यथा उन्हें भूलना असंभव है. आपकी जानकारी ज्ञानवर्धन करने में सफल हुई. वे हमारे आदर्श हैं और रहेंगे...
ReplyDeleteधन्यवाद. बिलकुल नयी जानकारी थी मेरे लिए. विवेकानंद उन गिनी चुनी विभूतियों में से हैं जिनके बारे में जानना हमेशा सुखद होता है.
ReplyDeleteस्वामी जी को श्रद्धांजली.
ReplyDeleteचार जुलाई के साथ अमेरिका जुड़ा है। विवेकानन्द की जीवनी एक नहीं तीन-चार लेखकों की पढ़ी है। युगनायक भी पहला खंड है और पढ़ा भी था। भाव समाधि जैसी बात हर बच्चे के साथ होती है। लेकिन हीरो को तो हीरो बनाकर दिखाया ही जाता है।
ReplyDeleteजीवनियों में तो सब बातें थीं हीं, जो आपने बताईं। लेकिन आपके इस पोस्ट को पाँच जुलाई को पढ़ा। विवेकानन्द के बारे में ज्यादा नहीं कहूंगा वरना हमला शुरु हो जाएगा।
Aap jab bhii kuch likhate hain wah prabhaawpurn, shodhparak aur chintan ke liye prerit karane waalaa hotaa hai. Adbhut, anirwachniiy aur apuurw. Badhaaii!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
ReplyDeletebahut hi gyanverdhak lekh ..........
ReplyDeleteaabhar
Though I visited areas around Raipur but was never aware that this city is also rich in heritage. Now I have to visit it again, but don't know when that opportunity will come. Thanks for this rare information.
ReplyDeleteतमाम नई जानकारी हुई।
ReplyDeleteआभार
विश्व की महान विभूतियों में से एक, स्वामी विवेकानंद जी, के जन्म दिन पर, आपका यह पोस्ट, आपकी अध्ययनशीलता को प्रतिबिंबित करता है । इस पोस्ट के लिए आपका आभार । प्रस्तुत लेख .. जानकारी-भरा था .. अच्छा लगा .. साथ में चित्र भी ..
ReplyDelete- डा.जे.एस.बी.नायडू ( रायपुर )
एक संग्रहणीय पोस्ट।
ReplyDeleteविवेकानन्द जी को सादर नमन।
ज्ञानवर्धक पोस्ट ...
ReplyDeleteविवेकानंदजी को नमन !
स्वामी जी ने अपनी रायपुर यात्रा के बारे में कुछ लिखा भी था यह तो हममें से कम ही लोगों का पता होगा। जब भी उस भवन से गुजरता हूँ तो बार-बार उस समय में पहुँचने का मन होता है, इस पोस्ट से अलग हटकर एक जिज्ञासा, मैंने सुना है रायपुर में जब दादा साहब खापर्डे आए थे तो बूटी के वाड़े में ठहरे थे, क्या वो बिल्डिंग अभी है। बताते हैं कि यह वही बूटी का वाड़ा है जो नागपुर के बूटी साहब ने बनाई थी, जिन्होंने शिर्डी में साईं बाबा का मंदिर बनवाया था। अगर आप इस संबंध में कुछ प्रकाश डाल पायें तो?
ReplyDeleteईमेल पर प्रशांत शर्मा जी-
ReplyDeleteराहुलजी जोहार, आप जो जाकारी अपन ब्लाग के जरिए दिये ह एकदम अनुठा हे। एकर पहिली मैं ह स्वाजी के बारा म थोड़ा पढ़े रहेंव फेर ये जानकारी मोर कना नइ रहिस हे। नवा जानकारी देहे बर धन्यवाद
ईमेल पर 'मैं और मेरा परवरिश' का संदेश-
ReplyDeleteस्वामी जी ने अपनी रायपुर यात्रा के बारे में कुछ लिखा भी था यह तो हममें से कम ही लोगों का पता होगा। जब भी उस भवन से गुजरता हूँ तो बार-बार उस समय में पहुँचने का मन होता है, इस पोस्ट से अलग हटकर एक जिज्ञासा, मैंने सुना है रायपुर में जब दादा साहब खापर्डे आए थे तो बूटी के वाड़े में ठहरे थे, क्या वो बिल्डिंग अभी है। बताते हैं कि यह वही बूटी का वाड़ा है जो नागपुर के बूटी साहब ने बनाई थी, जिन्होंने शिर्डी में साईं बाबा का मंदिर बनवाया था। अगर आप इस संबंध में कुछ प्रकाश डाल पायें तो?
4 जुलाई को यह मेल प्राप्त हुआ था, मेल पर जवाब भेजा, फोन नं. पर भी प्रयास किया लेकिन अब तक कोई संपर्क नहीं हो सका है-
ReplyDeleteश्रीमन ,
सादर अभिवादन ,
आपके ब्लॉग पर स्वामी विवेकानंद जी के रायपुर प्रवास के सन्दर्भ में अत्यंत रोचक ऐतिहासिक तथा महतव्पूर्ण जानकारी प्राप्त हुई, आपके इस उच्चतम सद्प्रयास के लिए हम ह्रदय से अत्यंत आभारी है / प्रस्तुत लेख को हम "युग गरिमा" हिंदी मासिक पत्रिका में प्रकाशित करना चाहते है जिसके माध्यम से यह ऐतिहासिक जानकारी देश के लाखो सुधी पाठको तक पहुंचकर संरछित होगी / अतैव आपसे विन्रम निवेदन है कि ब्लॉग पर प्रस्तुत लेख को पत्रिका में प्रकाशित करने हेतु
अनुमति प्रदान करने का कस्ट करे /
सादर साधुवाद !
धन्यवाद !
भवदीय
श्रीरविन्द्र
संपादक
युग गरिमा (हिंदी मासिक पत्रिका )
10 /400 , इंदिरा नगर लखनऊ 226016
9455275222 email- yuggarima@gmail.com
स्वामी विवेकानन्द के बचपन के बारे में मैंने कम ही पढ़ा है...बहुत अच्छा लगा. प्रकृति का वर्णन इतना सुन्दर है कि चित्र की तरह सब आँखों के सामने स्पष्ट हो गया.
ReplyDeleteरोचक लेख के लिए हार्दिक आभार.
rahul singh ji aapake blog par aane ka avasar mila ,dhnay huya swami ji ke baare m anuthi jakari raypur ki janakari aanad se bhar gayi.sadhuwad ke patr hai aap.rahi baat nusake ki ,ye kayi dr. chikitasak dwara anubhut yog hai khud bhi esaka kayi logon ko esase labh mila hai.santust hone ke baad hi blog par likha hai.aasha karata hun aap bhi santust hongen .aapke comments ka mujhe be-sabari se intzar rahega ,nivedan ye ki aap blog par padhar kar niranter aashirwad dete rahe .naa jaane kab kahi koyi bhul ho jaye.to aap jaise sudhi bhrata hi marg darshan kar sakate hain sadar namaskar.
ReplyDeleteआहा! विलक्षण पोस्ट.
ReplyDeleteस्वामी जी पर अत्यंत सुंदर और रोचक आलेख. स्वामी विवेकानंद जी से जुड़ी कई नवीन जानकारी प्राप्त हुई.................आभार........!
ReplyDeleteअद्भुत संकलन!
ReplyDeleteI was wondering if you ever thought of changing the
ReplyDeletelayout of your website? Its very well written; I love what youve got to say.
But maybe you could a little more in the
way of content so people could connect with it better.
Youve got an awful lot of text for only having 1 or two pictures.
Maybe you could space it out better?
Also visit my page ; hier
I needed to thank you for this wonderful read!
ReplyDelete! I absolutely loved every little bit of it. I have got you
book-marked to look at new things you post…
Stop by my web blog; this site
धन्यवाद आपने इतनी अच्छी जानकारी यहां दी
ReplyDeleteआपका लेख मेरे लिए अत्यंत लाभकारी रहा। मैं इतना तो जानता था कि बूढ़ा तालाब में स्वामी जी की प्रतिमा (जो मेरे परबाबा गुरु भी हैं) उनके रायपुर प्रवास के कारण बनी है लेकिन रायपुर का उनके जीवन पर इतना प्रभाव था यह आज जानने को मिला। बहुत-बहुत धन्यवाद। प्रणाम। आपने गुरुदेव की याद दिला दी।
ReplyDelete