Saturday, February 20, 2021

बिलासपुर की त्रिवेणी-1966

छत्तीसगढ़ की पुरानी और प्रतिष्ठित संस्था ‘भारतेन्दु साहित्य समिति, बिलासपुर द्वारा पुस्तक प्रकाशन माला के पंचदश पुष्प के रूप में साहित्यिक त्रिमूर्ति अभिनंदन समारोह पत्रिका का प्रकाशन महाशिवरात्रि सं. 2022 यानि 18 फरवरी 1966 को किया गया था।
इसमें जिन तीन साहित्यिक विभूतियों का अभिनंदन हुआ, उनके बारे में पुस्तिका के आरंभ में कहा गया है-
जिन तीनों ने किया पल्लवित साहित्यिक उद्यान।
वे तीनों हैं ‘विप्र‘ के काव्य रसिक भगवान।।

इस पुस्तिका में छपा छायाचित्र और स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी जी का लेख प्रस्तुत है। पुस्तिका, प्रातःस्मरणीय हरि ठाकुर के संग्रह से उनके पुत्र आशीष सिंह द्वारा उपलब्ध कराई गई है।


।। बिलासपुर की त्रिवेणी ।।

[द्वारा- स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी]

बिलासपुर की साहित्यिक त्रिवेणी का यह सम्मान लगता है कि जैसे पुण्य तीर्थराज प्रयाग यहां साकार हो उठा है। आदरणीय मधुकर जी, प्यारेलाल जी गुप्त तथा यदुनन्दन प्रसाद जी श्रीवास्तव ने अपनी अकथ तपस्या और अपनी बहुमुखी प्रतिभा के बल पर छत्तीसगढ़ के साहित्य जगत का सदैव ही पथ प्रदर्शन किया है।

आदरणीय मधुकर जी को काव्य शक्ति तो पैतृक विरासत में मिली है। मुझे स्मरण है कि मधुकर जी के पुण्य स्मरणीय पिता जी बिलाईगढ़ में चाकरी की अवधि में रायपुर आकर जब अपने सहयोगी के यहाँ जो मेरे किरायेदार थे, ठहरते थे तब हम बालकों का मनोरंजन यह कहकर किया करते थे “पुरानी है पुरानी है। मेरी डिबिया पुरानी है। जमाने भर की नानी है” आदि आदि। वयस्क होने पर जब मुझे ज्ञात हुआ कि वे मधुकर जी के पिता श्री थे तो मेरा मन अकस्मात ही उनके प्रति श्रध्दावनत हो गया। ऐसे मधुकर जी ७५ वर्ष पार कर साहित्य साधना में यदि आज भी युवकों को मात दे रहे हैं, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। 

आदरणीय गुप्त जी कवि, आलोचक, पुरातत्वज्ञ, इतिहासकार आदि क्या नहीं है? को-आपरेटिव्ह बैंक की सेवा करते हुए जमा खर्च के शुष्क आंकड़ों में व्यस्त रहते हुए भी उनका हृदय साहित्य की अमृतधारा से परिपूरित है। 

और यदुनन्दन प्रसाद जी श्रीवास्तव तो “कलम के जादूगर“ हैं ही। अपनी सशक्त लेखनी के द्वारा पत्रकारिता के क्षेत्र में तथा अपनी वाणी और सक्रियता के द्वारा राजनीति के क्षेत्र में उनका योगदान स्मरणीय रहेगा। 

आज उनके अभिनन्दन के अवसर पर इस त्रिवेणी-स्वरूपा त्रिमूर्ति की सेवा में पुष्पान्जलि अर्पित कर कौन अपने को धन्य नहीं समझेगा?

Thursday, February 11, 2021

भानु जी के पत्र-2

भानु जी के दो पत्रों में से दूसरा पत्र यहां और भूमिका सहित पहला इस लिंक पर है।

दूसरा पत्र

बिलासपुर 26।2।12

प्रियवर सेठजी - जयगोपाल

आपका पत्र हस्तगत हुआ। परमानंद हुआ। छंदःप्रभाकर की तृतीयावृत्ति शोधकर छपने को तय्यार है आपने ठीक समय पर उसका स्मरण किया एतदर्थ आपको धन्यवाद देता हूं हमें कल्यान वालों ने बहुत धोखा दिया और हमारा एक बड़ा भारी ग्रंथ 500 से अधिक पृष्ठ वाला ‘‘मधुबन चरितामृत‘‘ तीन बरस से लापता कर दिया कई पत्र लिखे कि उसको वापिस ही कर देव परंतु कोई जवाब नहीं देवे इसके लिये उनके साथ खास कारवाई करना होगी हमारा उनका अब कोई संबंध नही रहा. यदि आपकी सहायता से हमें वह ग्रंथ ही वापिस मिल जायगा अथवा आप ही छापें तो विषेष कृपा होगी आशा है आप इसमें हमारी सहायता करेंगे

छंदःप्रभाकर के विषय में काशी और प्रयाग में लिखा पढ़ी चल रही है परंतु आप हतारे प्राचीन स्नेंही हैं आप ही के यहां शीघ्र छपे तो अत्युतम है परंतु आप यह लिख भेजिये कि किस शर्त से आप उसे छापेंगे. इस तृतीयावृति का आप स्वत्व लेने को प्रसन्न हैं तो हमें क्या प्रदान करेंगे और मूल्य ले कर छापेंगे तो किस निरख से छापेंगे.

कहना नही होगा कि इस ग्रंथ की बहुत मांग हिंदुस्थान के प्रत्येक नगर में है और सरकार से भी यह मंजूर हो चुका है शीघ्र पत्रोत्तर प्रदान करने की कृपा करें।। और भी ग्रंथ छापने को तयार हैं जैसे -

काव्य प्रभाकर (भाषा द्वितीयावृति) पृष्ठ 800
शुद्ध सप्तशती सान्वय भाषा टीका ‘‘ 400
रसिक प्रमोद ‘‘ 200
नवपंचामृत रामायण ‘‘ 70
काल प्रबोध ‘‘ 60
तुम्ही तो हो (श्रीकृष्णाष्टक) ‘‘ 10

मेरी हार्दिक इच्छा यही है कि हमारा और आपका जैसा प्रेम चला आया है वैसा ही बना रहे कोइ अंतर न पड़े वरन वृद्धिगत होता रहै. 

आपकी सेवा में गत वर्ष एक कापी काव्य प्रभाकर की भेजी गई थी परंतु आज तक समालोचना की कृपा न हुई अस्तु इस बात की जल्दी नही 

आशा है छोटे सेठ कुशल होंगे.

आपका परम स्नेही
जगन्नाथ प्रसाद
भानुकवि
छोटेसाहीब
बंदोबस्त

प्रसंगवश-

भानु जी के सबसे लोकप्रिय ग्रंथ छन्दःप्रभाकर की दसवीं आवृत्ति सन 1960 में पूर्णिमा देवी, धर्मपत्नि स्वर्गीय बाबू जुगल किशोर द्वारा प्रकाशित कराई गई, जिसके अंतिम कवर पृष्ठ पर भानु-कवि विरचित ग्रंथों की सूची दी गई है, जिसका चित्र यहां दिया गया है।  


भानु जी के पत्र-1

जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु कवि‘ का बिलासपुर में निवास चांटापारा यानि तिलक नगर में था। उनके पुत्र जुगल किशोर हुए, जिनके निधन के बाद उनकी धर्मपत्नी पूर्णिमा देवी ने जगन्नाथ प्रिंटिंग प्रेस और प्रकाशन का काम संभाला। इनके पुत्र मोहन, स्वयं को मोहन मस्ताना या मोहन कवि कहलाना पसंद करते थे। मोहन कवि को हाथी पांव था। यही कोई 30 साल पहले वे यदा-कदा हमारे घसियापारा यानि राजेन्द्र नगर स्थित दफ्तर में मुझसे मिलने आते थे। उनके निवास की पहली मंजिल पर भानु जी की मेज-कुरसी, पुस्तके आदि धूल-गर्द भरी, लेकिन सुरक्षित थीं।

हरि ठाकुर के परिवार से जुगल किशोर के सपरिवार करीबी संबंध थे, जिनके माध्यम से भानु जी के दो पत्र उन्हें प्राप्त हुए, जो अब हरि ठाकुर के पुत्र आशीष सिंह के पास सुरक्षित हैं। आशीष जी ने इन पत्रों की जानकारी दी, दिखाया, प्रतिलिपि बनाने के साथ सार्वजनिक करने की अनुमति दी है। अनुमान होता है कि भानु जी ऐसे पत्र दो प्रतियों में लिखते और दूसरी प्रति संदर्भ हेतु अपने पास सुरक्षित रखते थे, जैसा उस जमाने का आम चलन था।

इनमें से पहला पत्र सन 1907 का खंडवा से तथा दूसरा 1912 का बिलासपुर से लिखा गया है। दोनों ही पत्र बंबई के प्रकाशक को लिखे गए हैं। यहां पत्र का मजमून दिया जा रहा है, जिसमें मूल से मामूली अंतर हो सकता है। शोधकर्ता और बारीकी से समझने का उद्यम करने वालों की सुविधा के लिए, सामग्री के मूल स्वरूप से मिलान हो सके, इसलिए पत्र की प्रति भी यहां लगाई जा रही है।

पत्रों को पढ़ते और प्रस्तुत करने के लिए फीड करते कई स्थानों पर टिप्पणी का विचार बना, किंतु वह फिर कभी। अभी कुछ छोटी-छोटी बातें। पत्रों में अनुस्वार के लिए चंद्र बिंदु के बजाय मात्र बिंदु का प्रयोग हुआ है। पहले पत्र का भारत वर्ष दूसरे पत्र में हिंदुस्थान हो गया है। दोनों पत्रों में प्रकाशक को पुराने नहीं बल्कि प्राचीन स्नेही कहा गया है। ग्रन्थों के लिए कम से कम दस हजार रुपये की अपेक्षा की गई है, जिनका व्यय सार्वजनिक कार्य में किए जाने और पुस्तक बाइ-बैक यानि वापस खरीदी (इस दौर में विनोद कुमार शुक्ल और पेंगुइन बुक्स विवाद याद आता है।) की बात कही गई है। साथ ही हिन्दी पाठकों की दशा का उल्लेख ध्यान देने योग्य है।

इन दोनों पत्रों में से पहला पत्र यहां और दूसरा इस लिंक पर है।

पहला पत्र

खंडवा. म. प्र.
21-7-07 

श्रीमान् सेठ खेमराज श्रीकृष्णदास जी, जयगोपाल! 

कृपा पत्र ताः 17-7 का मिला, समाचार जाने। इन ग्रन्थों को उत्तम बनाने में हम ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। ईश्वर चाहेगा तो ये ग्रन्थ थोड़े ही काल में भारत वर्ष में घर 2 व्याप्त हो जावेंगे। हमने अनुमान किया था कि, इन ग्रन्थों के उपलक्ष में हमें कम से कम दश हजार रुपैये मिलेंगे, तथा उन रुपैयों को हम अपने व्यवहार में न लाकर सार्वजनिक काय्र्य में व्यय करेंगे। किन्तु भाषा काव्य के दुर्भाग्य से कहो, किवां हिन्दी पाठकों के अभाव से कहो, अभी इतर देशों के समान यहां के कवि, लेखकों तथा विद्वानों का उतना मान नहीं है अस्तु चिन्ता नहीं, आप हमारे प्राचीन स्नेही तथा शुभचिन्तक हैं। अतएव हमने भी आप ही के यहां छपाना निश्र्चय किया है आपके लिखे अनुसार हम सब पुस्तकों का सत्त्व आपको दिये देते हैं। इस पर चाहे आप हमें इसके उपलक्ष में अपनी इच्छा अनुसार जो कुछ देंगे, सहर्ष स्वीकृत किया जायगा और वह परोपकार ही में लगाया जायगा। साथ में यह भी विदित हो कि अभी छन्दःप्रभाकर की पांच सौ प्रतियां शेष है यदि उन्हें भी आप अर्ध मूल पर खरीद लें तो छन्दःप्रभाकर का भी सत्त्व आप को दे देंगे। मूल्य जब चाहे तब भेजें कोई जल्दी नहीं है। इतनी काॅपी बचे रहने का कारण हमारे सात चर्ष से कोई विज्ञापन न देने का है। दूसरे अन्तिम प्रूफ शोधन के लिये हमें भी यहां पर एक कर्मचारी 25/ माहवार पर रखना पड़ेगा और बम्बई में भी यदि हम एक कर्मचारी रखें तो दुहरा खर्च हम को पड़ेगा। अतएव वहां के लिये दो प्रूफ जांचने तक का प्रबन्ध अपनी ओर से कर लेवें और अन्तिम प्रूफ पास करने को हमारे पास भेजें व जब तक हम पास न कर लेवें तब तक छापना ठीक नहीं है परन्तु छपाई के काम में ढील न हो। जहां तक हो ग्रन्थ शीघ्र छप जाना चाहिये। कागज तो आप उत्तम लगावेंगे ही, किन्तु काल प्रबोध व नव पंचामृत रामायण को छोड़कर शेष ग्रन्थों का उत्तम बाईडिंग अवश्य ही करना होगा। इन पुस्तकों की भविष्यावृत्तियों में भी शोधने तथा रदबदल करने का हमको पूर्ण अधिकार होगा। इन सब प्रश्नों का उचित उत्तर आते ही ग्रन्थ भेज दिये जावेंगे। पत्रोत्तर तफसीलवार शीघ्र देवें। इति.

कापीराइट इस प्रकार देंगे।

1 काव्य प्रभाकर ..... कापीराइट 100 जिल्द लेकर देवेंगे।
2 शुद्ध सप्तशती ..... तथा 100 ..... तथा,
3 छन्दःप्रभाकर ..... तथा 200 ..... तथा
4 मधुबनचरित्रामृत ..... तथा 50 ..... तथ
5 नव पंचामृत रा. ..... तथा 100 ..... तथा
6 काल प्रबोध ..... तथा 100 ..... तथा
यह आप ही के लेखानुसार है 

आपका कृपाअभिलाषी
(हस्ताक्षर)
असिटन्ट सेटल्मेन्ट आफीसर

Wednesday, February 3, 2021

गिधवा में बलही

तीन दिवसीय पक्षी महोत्सव का कल 2 फरवरी 2021 को समापन हुआ और इसके साथ एक नई शुरुआत हुई, जिसकी जानकारी विस्तार से अखबारों आदि में आई है।

यहां इस पर कुछ अलग बातें।

गिधवा सामान्यतः गिद्ध, चील अर्थात ब्लैक काइट, जिसे पड़िया काइट कहा जाता था, का समानार्थी है और इससे मिलती-जुलती अन्य को भी गिधवा कह दिया जाता है, लेकिन छत्तीसगढ़ी में इजिप्शियन वल्चर के लिए गुकोड़ी और अन्य वल्चर के लिए रौना शब्द का प्रयोग होता है। यह संयोग है कि शिवनाथ नदी के बायीं ओर जितनी दूर गिधवा है, दाहिनी ओर लगभग उतनी ही दूर दरचुरा-विश्रामपुरी है, जो गिधवा-रौना का पुराना अड्डा है, क्योंकि यहां हड्डी गोदाम और किसी जमाने में बोन मिल हुआ करता था। मगर यह ग्राम नाम ‘गिधवा‘ पक्षी के नाम का द्योतक है यह निश्चित नहीं कहा जा सकता। छत्तीसगढ़ में एकाधिक गिधवा, गिधौरी, गीधा, गिधली, गिधनी, गिधापाली, गिधामुड़ा, गिधडांड, गिधपुरी जैसे ग्राम नाम सामान्यतः मिलते हैं और संभव है कि यह सिर्फ संयोग हो ऐसे ग्राम अधिकतर नदियों के आसपास हैं। अतएव गिधवा शब्द को नदी से जोड़कर भी समझने का प्रयास होना चाहिए। ऐसे स्थानों को रामकथा और जटायु से भी संबद्ध कर दिया जाता है। ऐसा ही एक शब्द, स्थल नाम सिंघल या सिंघुल है, जो नदी के साथ ही मिलता है, जिसे सिंहल द्वीप या श्रीलंका, रामकथा की लंका से जोड़ दिया जाता है।

मोहित साहू और जीत सिंह आर्य मेरे साथ थे। गिधवा बांध पर आसपास गांवों के लोग इकट्ठे थे। मेले का माहौल था। इस मौके पर मेरे लिए पक्षी-दर्शन के बजाय ग्रामवासियों की बातचीत अधिक दिलचस्प थी। पक्षियों को लोग अपने ढंग, अपनी भाषा और शब्दों में पहचान-बखान रहे थे। इसमें मुझे एक बुजुर्ग के मुंह से ‘बलही‘ शब्द सुनाई पड़ा। अन्य लोग कह रहे थे अइरी, पनबुड़ी, बदक, उन्होंने सुधारा और कहा ‘बलही आय‘। इस शब्द ने स्मृति का द्वार खटखटाया तो याद आया कि पोटिया, दुर्ग निवासी झुमुकलाल यादव के पुत्र गन्नू यादव से मुलाकात के अवसर पर पंक्तियां सुनी थी-
‘‘पड़की कमावे रनबन रनबन, परेवना कमावे मनचीते।
बलही बैठगे भरा सभा में, झड़े भड़ौनी गीदे।।‘‘

और इसी तरह की पंक्तियां किसी समय आकाशवाणी, रायपुर से बजने वाले बेहद लोकप्रिय गीत खुसरा चिरई के बिहाव में होती थीं, इस गीत के गायक आसाराम-झल्लूराम की जोड़ी थी। पता लगा कि इस जोड़ी के 68 वर्षीय आसाराम वल्द झाड़ूराम निषाद, बालोद जिला के रनचिरई के पास के गांव ठेठवार परसाही में रहते हैं, फरवरी 2018 में उनसे मिल कर उनसे यह गीत सुना था। एक अन्य ‘खुसरा चिरई के ब्याह‘ खरौद के बड़े पुजेरी कहे जाने वाले पं. कपिलनाथ मिश्र की लगभग सौ साल पुरानी प्रकाशित रचना, खूब सुनी-सुनाई जाने वाली, मेलों में बिकने वाली, लेकिन लगभग इस पूरी पीढ़ी के लिए सुलभ नहीं रही है। अनूठी आरनिथॉलॉजी है यह।

फिलहाल बलही। मवेशियों, विशेषकर गाय-बैल के लिए बलही के अलावा लाखी, चितकबरी, टिकलाही जैसे शब्द भी हैं। टिकलाही यानि सामान्यतः खैरी या धूसर काली गाय, जिसके माथे पर छोटा सा सफेद चिह्न हो और बलही, जिसके माथे पूनम का पूरा चांद खिला हो। तब समझ में आया कि वे यूरेशियन कूट की पहचान करा रहे हैं।
अकलतरा के पुरेनहा तालाब में बलही-नांदुल

इस पक्षी की एक उपजाति यहां निवासी है और एक ठंड के महीनों में आने वाली प्रवासी। काले रंग की इस चिड़िया की चोंच और माथा सफेद होता है, इसलिए इस चिड़िया को भी, आमतौर पर मवेशी के लिए प्रयुक्त बलही नाम दे दिया गया है, लेकिन टिकरी भी कहा जाता है। संस्कृत साहित्य में इसका नाम कारण्डव और कहीं सहचारी सुमुख भी मिलता है। छत्तीसगढ़ में इसका एक अन्य नाम नांदुल प्रचलित है। इसी तरह गडवाल का स्थानीय नाम कबरा है। छत्तीसगढ़ के तालाबों में सामान्यतया ओड़केर्री, नांदुल, चिरहुल, केंवटपदरा, पनबुड़ी, पनबुड़ा, तेलसरा, पनखौली, कोवा, लमगोड़ा, लमपुच्छा, कैम, जलमुर्गी चिड़िया होती हैं। सुरखाब, नकटा और गोनिन-गोना भी कहीं कहीं दिख जाती हैं। अइरी या ऐरी किसी भी पानी की चिड़िया को नाम दे दिया जाता है।

प्रसंगवश, छत्तीसगढ़ के कुछ ग्राम नाम पंडकी के साथ कलां, खुर्द, डीह, पाली, पारा, डीपा, भाट, पहरी जुड़कर, इसी तरह कुकरा-कुकरी के साथ झार, झरिया, बहरा, पानी, दह, टोला, चोली, चुंदा जुड़कर, कोन्हा और परेवा के साथ पाली, डोल, डीह जुड़कर बने हैं। ग्राम नामों में जिन चिड़ियों के नाम मिलते हैं, उनमें से कुछ हैं- चिड़ियाखोह, चिरई, चियाडांड, चिरईपानी, चिरईखार, गदेलाभंठा, चेपा, मैनी, मैना, सोन चिरइया, सारसडोल, सरिसमार, रनचिरई, हंसपुर, धनेसपुर, नीलकंठपुर, किलकिला, टिहली, लवा, गुंडरू, बटई, घघरी, घुघुवा, तितुरगहन, चिरहुलडीह, तेलसरा, लिटिया, पुटकी, छछान पैरी, गरुड़डोल, रौनाभांठा, कोकड़ी, कुर्री, भरदा, बटेर, गौरैया, सुआचुंदी, सुआबहरा, सुआभोंडी, सुआताल, तोताकांपा, कौंआझार, कौआताल, कौआडीह, मंजूरपहरी, मयूरडोंगर, मंजूरपाली, मयूरनाचा, कोयलीबेड़ा, कोइलबहाल, कोइलीकछार आदि। किसी भलेमानस को ईर्ष्याा हो सकती है कि मुझे इनमें से अधिकतर गांवों या उनके आसपास से गुजरने का मौका मिला है।

और इसके बिना तो बात पूरी न होगी कि छायावाद के प्रवर्तक छत्तीसगढ़ के कवि पद्मश्री मुकुटधर पांडेय थे, जिन्होंने यहां आने वाले प्रवासी पक्षी ‘डेमाइजल क्रेन‘ पर ‘कुररी के प्रति‘ शीर्षक से कविता रची थी-
‘बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बात, पिछड़ा था तू कहां, आ रहा जो इतनी रात।‘

ये कुछ बातें और अब गिधवा-परसदा पक्षी महोत्सव की सफलता के साथ भविष्य की आशा भी जुड़ी है।