तीन दिवसीय पक्षी महोत्सव का कल 2 फरवरी 2021 को समापन हुआ और इसके साथ एक नई शुरुआत हुई, जिसकी जानकारी विस्तार से अखबारों आदि में आई है।
यहां इस पर कुछ अलग बातें।
गिधवा सामान्यतः गिद्ध, चील अर्थात ब्लैक काइट, जिसे पड़िया काइट कहा जाता था, का समानार्थी है और इससे मिलती-जुलती अन्य को भी गिधवा कह दिया जाता है, लेकिन छत्तीसगढ़ी में इजिप्शियन वल्चर के लिए गुकोड़ी और अन्य वल्चर के लिए रौना शब्द का प्रयोग होता है। यह संयोग है कि शिवनाथ नदी के बायीं ओर जितनी दूर गिधवा है, दाहिनी ओर लगभग उतनी ही दूर दरचुरा-विश्रामपुरी है, जो गिधवा-रौना का पुराना अड्डा है, क्योंकि यहां हड्डी गोदाम और किसी जमाने में बोन मिल हुआ करता था। मगर यह ग्राम नाम ‘गिधवा‘ पक्षी के नाम का द्योतक है यह निश्चित नहीं कहा जा सकता। छत्तीसगढ़ में एकाधिक गिधवा, गिधौरी, गीधा, गिधली, गिधनी, गिधापाली, गिधामुड़ा, गिधडांड, गिधपुरी जैसे ग्राम नाम सामान्यतः मिलते हैं और संभव है कि यह सिर्फ संयोग हो ऐसे ग्राम अधिकतर नदियों के आसपास हैं। अतएव गिधवा शब्द को नदी से जोड़कर भी समझने का प्रयास होना चाहिए। ऐसे स्थानों को रामकथा और जटायु से भी संबद्ध कर दिया जाता है। ऐसा ही एक शब्द, स्थल नाम सिंघल या सिंघुल है, जो नदी के साथ ही मिलता है, जिसे सिंहल द्वीप या श्रीलंका, रामकथा की लंका से जोड़ दिया जाता है।
मोहित साहू और जीत सिंह आर्य मेरे साथ थे। गिधवा बांध पर आसपास गांवों के लोग इकट्ठे थे। मेले का माहौल था। इस मौके पर मेरे लिए पक्षी-दर्शन के बजाय ग्रामवासियों की बातचीत अधिक दिलचस्प थी। पक्षियों को लोग अपने ढंग, अपनी भाषा और शब्दों में पहचान-बखान रहे थे। इसमें मुझे एक बुजुर्ग के मुंह से ‘बलही‘ शब्द सुनाई पड़ा। अन्य लोग कह रहे थे अइरी, पनबुड़ी, बदक, उन्होंने सुधारा और कहा ‘बलही आय‘। इस शब्द ने स्मृति का द्वार खटखटाया तो याद आया कि पोटिया, दुर्ग निवासी झुमुकलाल यादव के पुत्र गन्नू यादव से मुलाकात के अवसर पर पंक्तियां सुनी थी-
‘‘पड़की कमावे रनबन रनबन, परेवना कमावे मनचीते।
बलही बैठगे भरा सभा में, झड़े भड़ौनी गीदे।।‘‘
और इसी तरह की पंक्तियां किसी समय आकाशवाणी, रायपुर से बजने वाले बेहद लोकप्रिय गीत खुसरा चिरई के बिहाव में होती थीं, इस गीत के गायक आसाराम-झल्लूराम की जोड़ी थी। पता लगा कि इस जोड़ी के 68 वर्षीय आसाराम वल्द झाड़ूराम निषाद, बालोद जिला के रनचिरई के पास के गांव ठेठवार परसाही में रहते हैं, फरवरी 2018 में उनसे मिल कर उनसे यह गीत सुना था। एक अन्य ‘खुसरा चिरई के ब्याह‘ खरौद के बड़े पुजेरी कहे जाने वाले पं. कपिलनाथ मिश्र की लगभग सौ साल पुरानी प्रकाशित रचना, खूब सुनी-सुनाई जाने वाली, मेलों में बिकने वाली, लेकिन लगभग इस पूरी पीढ़ी के लिए सुलभ नहीं रही है। अनूठी आरनिथॉलॉजी है यह।
फिलहाल बलही। मवेशियों, विशेषकर गाय-बैल के लिए बलही के अलावा लाखी, चितकबरी, टिकलाही जैसे शब्द भी हैं। टिकलाही यानि सामान्यतः खैरी या धूसर काली गाय, जिसके माथे पर छोटा सा सफेद चिह्न हो और बलही, जिसके माथे पूनम का पूरा चांद खिला हो। तब समझ में आया कि वे यूरेशियन कूट की पहचान करा रहे हैं।
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अकलतरा के पुरेनहा तालाब में बलही-नांदुल |
इस पक्षी की एक उपजाति यहां निवासी है और एक ठंड के महीनों में आने वाली प्रवासी। काले रंग की इस चिड़िया की चोंच और माथा सफेद होता है, इसलिए इस चिड़िया को भी, आमतौर पर मवेशी के लिए प्रयुक्त बलही नाम दे दिया गया है, लेकिन टिकरी भी कहा जाता है। संस्कृत साहित्य में इसका नाम कारण्डव और कहीं सहचारी सुमुख भी मिलता है। छत्तीसगढ़ में इसका एक अन्य नाम नांदुल प्रचलित है। इसी तरह गडवाल का स्थानीय नाम कबरा है। छत्तीसगढ़ के तालाबों में सामान्यतया ओड़केर्री, नांदुल, चिरहुल, केंवटपदरा, पनबुड़ी, पनबुड़ा, तेलसरा, पनखौली, कोवा, लमगोड़ा, लमपुच्छा, कैम, जलमुर्गी चिड़िया होती हैं। सुरखाब, नकटा और गोनिन-गोना भी कहीं कहीं दिख जाती हैं। अइरी या ऐरी किसी भी पानी की चिड़िया को नाम दे दिया जाता है।
प्रसंगवश, छत्तीसगढ़ के कुछ ग्राम नाम पंडकी के साथ कलां, खुर्द, डीह, पाली, पारा, डीपा, भाट, पहरी जुड़कर, इसी तरह कुकरा-कुकरी के साथ झार, झरिया, बहरा, पानी, दह, टोला, चोली, चुंदा जुड़कर, कोन्हा और परेवा के साथ पाली, डोल, डीह जुड़कर बने हैं। ग्राम नामों में जिन चिड़ियों के नाम मिलते हैं, उनमें से कुछ हैं- चिड़ियाखोह, चिरई, चियाडांड, चिरईपानी, चिरईखार, गदेलाभंठा, चेपा, मैनी, मैना, सोन चिरइया, सारसडोल, सरिसमार, रनचिरई, हंसपुर, धनेसपुर, नीलकंठपुर, किलकिला, टिहली, लवा, गुंडरू, बटई, घघरी, घुघुवा, तितुरगहन, चिरहुलडीह, तेलसरा, लिटिया, पुटकी, छछान पैरी, गरुड़डोल, रौनाभांठा, कोकड़ी, कुर्री, भरदा, बटेर, गौरैया, सुआचुंदी, सुआबहरा, सुआभोंडी, सुआताल, तोताकांपा, कौंआझार, कौआताल, कौआडीह, मंजूरपहरी, मयूरडोंगर, मंजूरपाली, मयूरनाचा, कोयलीबेड़ा, कोइलबहाल, कोइलीकछार आदि। किसी भलेमानस को ईर्ष्याा हो सकती है कि मुझे इनमें से अधिकतर गांवों या उनके आसपास से गुजरने का मौका मिला है।
और इसके बिना तो बात पूरी न होगी कि छायावाद के प्रवर्तक छत्तीसगढ़ के कवि पद्मश्री मुकुटधर पांडेय थे, जिन्होंने यहां आने वाले प्रवासी पक्षी ‘डेमाइजल क्रेन‘ पर ‘कुररी के प्रति‘ शीर्षक से कविता रची थी-
‘बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बात, पिछड़ा था तू कहां, आ रहा जो इतनी रात।‘
ये कुछ बातें और अब गिधवा-परसदा पक्षी महोत्सव की सफलता के साथ भविष्य की आशा भी जुड़ी है।