छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास में गुहावासी पुरखों का सबसे महत्वपूर्ण केन्द्र रायगढ़ अंचल रहा, जहां सिंघनपुर, कबरा पहाड़, बसनाझर, ओंगना, करमागढ़, खैरपुर, छापामाड़ा, बोतलदा, भंवरखोल, अमरगुफा-छेरीगोडरी, सुतीघाट, टीपाखोल, नवागढ़ी, बेनीपाट, सिरोली डोंगरी, पोटिया, गीधा जैसे अनेक स्थल हैं। इस काल की गतिविधियों के प्रमाण कोरिया, बस्तर और दुर्ग-राजनांदगांव अंचल से भी चित्रित शैलाश्रयों के रूप में मिलते हैं। मौर्यकाल में सरगुजा के रामगढ़, शक-सातवाहनकाल में मल्हार और किरारी के पुरातात्विक प्रमाणों से अनुमान होता है कि ये स्थल तत्कालीन सत्ता के केन्द्र रहे होंगे।
नलों की राजधानी पुष्करी का समीकरण बस्तर के गढ़ धनोरा के साथ किया जाता है। श्रीपुर-सिरपुर शरभपुरियों के काल से प्रतिष्ठित होते हुए पांडु-सोमकाल में न सिर्फ राजधानी बल्कि छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण धार्मिक और आर्थिक केन्द्र रहा। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने दक्षिण कोसल की जिस भव्य राजधानी का बौद्ध केन्द्र के रूप में विवरण दिया है, उसका सबसे करीबी मेल सिरपुर से ही होता है। कलचुरियों ने तुमान के बाद रतनपुर को राजधानी बनाया तथा इसके साथ पाली, कोसगईं और चैतुरगढ़ भी महत्वपूर्ण केन्द्र रहे। बस्तर में छिंदक नागों की राजधानी बारसूर बना तो कांकेर परवर्ती सोमवंशियों की और 'बस्तर' (वर्तमान गांव) को काकतीयों की राजधानी का गौरव प्राप्त हुआ। कवर्धा-भोरमदेव फणिनागवंशियों की राजधानी रही और इस क्षेत्र का पचराही भी महत्वपूर्ण केन्द्र रहा।
इतिहास सम्मत जानकारी मिलती है कि कलचुरी राजा सिंघण के दो बेटे हुए, डंघीर और रामचन्द्र। डंघीर रतनपुर गद्दी पर रहे और उल्लेखनीय नाम संयोग कि ‘रामचन्द्र’ ने रायपुर नगर बसाकर इसे अपनी राजधानी बनाया। इस तरह कलचुरियों की ही एक शाखा ने चौदहवीं सदी के अंतिम चरण में रायपुर को पहली बार राजधानी बनाया। इस रामचन्द्र के पुत्र ब्रह्मदेव की राजधानी खल्वाटिका-खल्लारी का उल्लेख भी शिलालेखों में मिलता है। संवत 1470 यानि ईस्वी 1415 का लेख कलचुरि शासकों का अंतिम शिलालेख है। ब्रह्मदेव के लेखों से रामचन्द्र की फणिवंश के शासक भोणिंगदेव पर विजय, देवपाल द्वारा खल्वाटिका में मंदिर निर्माण तथा रायपुर में हाटकेश्वर महादेव मंदिर निर्माण का पता चलता है।
इतिहास का रास्ता भूल-भुलैया होता है अक्सर किसी ऐसे स्थल से संबंधित इतिहास, जो सुदीर्घ अवधि तक राजसत्ता का मुख्य केन्द्र, प्रशासनिक मुख्यालय के साथ-साथ धार्मिक तीर्थस्थल भी हो तो वहां इतिहास-मार्ग और भी दुर्गम हो जाता है, छत्तीसगढ़ की पुरानी राजधानियों की कहानी भी कुछ इसी तरह की है। चतुर्युगों में राजधानी के गौरव से महिमामण्डित मान्यता, मूरतध्वज की नगरी और भगवान कृष्ण की पौराणिक कथाओं से रतनपुर को सम्बद्ध कर देखा गया। सिरपुर की समृद्धि भी परत-दर-परत सामने आ कर, छत्तीसगढ़ के वैभव का इतिहास-प्रमाण बन रही है।
पुरातत्वीय वैभव से संपन्न सिरपुर में महानदी के सुरम्य तट पर कला-स्थापत्य उदाहरणों के साथ-साथ धार्मिक सौहार्द के प्रमाण सुरक्षित हैं, जिनमें ईंटों का प्रसिद्ध लक्ष्मण मंदिर और अन्य मंदिर, भव्य कलात्मकता तथा अलंकरण अभिप्रायों वाला अद्वितीय तीवरदेव महाविहार और अन्य विहार, राजप्रासाद, विशाल सुरंगटीला मंदिर, स्तूप, आवासीय मठ-संरचनाएं इस नगरी की गाथा बखानती हैं। इसके अतिरिक्त यहां से प्राप्त सिक्के, ताम्रपत्र और धातु प्रतिमाओं की बहुमूल्य निधि प्राप्त हुई है। मल्हार-जुनवानी ताम्रलेख में रोचक विवरण है कि सिरपुर राजधानी में भूमिदान, हाथ के माप के पैमाने से दिया गया, जिसमें स्पष्ट कर दिया गया है कि हाथ का मान 24 अंगुल के बराबर होगा। संभवतः तब भी यह किस्सा प्रचलन में रहा होगा, जिसमें राजधानी सीमा में राजा द्वारा ब्राह्मण को एक खाट के बराबर भूमिदान की चर्चा होती है, किन्तु बाद में दान प्राप्तकर्ता ने खाट की रस्सी खोलकर पूरे राजमहल को घेर लिया था। इसी तरह सिरपुर ताम्रपत्र निधि से यहां शैव सम्प्रदाय की अत्यंत महत्वपूर्ण शाखा का पता चलता है महाशिवगुप्त बालार्जुन इन्हीं शैव-सोम सम्प्रदाय के आचार्यों से दीक्षित होकर परम माहेश्वर की उपाधि का धारक बना था। यह भी उल्लेखनीय है कि बालार्जुन के बाद छत्तीसगढ़ के स्वर्ण युग और उसकी राजधानी श्रीपुर की चमक फीकी पड़ने लगी।
राजधानी-नगरों की कहानी बड़ी अजीब होती है, कहीं तो उनका वैभव धुंधला जाता है और कभी-कभी उनकी पहचान खो जाती है। छत्तीोसगढ़ या प्राचीन दक्षिण कोसल के दो प्रमुख नगरों- राजधानियों शरभपुर और प्रसन्नपुर की पहचान अभी तक सुनिश्चित नहीं की जा सकी है। शरभपुर का समीकरण सिरपुर, मल्हार, सारंगढ़ तथा उड़ीसा के कुछ स्थलों से जोड़ा गया, किन्तु प्रसन्नपुर की चर्चा भी नहीं होती। इसी प्रकार इस अंचल में कोसल नगर और ‘गामस कोसलीय‘ नाम के ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं, किंतु यह स्थान ‘कोसल’ राजधानी था अथवा नहीं, या कहां स्थित था, निश्चित तौर पर यह भी नहीं तय किया जा सका है। अंचल के सर्वाधिक अवशेष सम्पन्न पुरातात्विक स्थल मल्हार का राजनैतिक केन्द्र या राजधानी होना, अभी तक अनिश्चित है।
छत्तीसगढ़ की ऐतिहासिक राजधानी रतनपुर के संबंध में ऐसा कोई सन्देह नहीं है, जो रायपुर से पहले लगभग पूरी सहस्राब्दि छत्तीसगढ़ की राजधानी रहा। राजधानी तुम्माण का स्थानान्तरण रतनपुर को इस दृष्टिकोण से देखा जाना भी समीचीन होगा, कि यह काल कबीलाई छापामारी से विकसित होकर खुले मैदान में विस्तृत हो जाने का था। मुगलकाल में राजा टोडरमल का भू-राजस्व व्यवस्थापन आरंभिक माना जाता है, लेकिन इतिहास गवाह है कि तत्कालीन छत्तीरसगढ़ की व्यवस्था, जमींदारियों, ताहुतदारियों और खालसा में मालगुजारी और रैयतवारी में विभाजित कर ऐसा व्यवस्थित प्रबंधन रतनपुर राजधानी से हुआ था। छत्तीस गढ़ों की यही व्यवस्था इस राज्य के नाम का आधार बनी। रतनपुर राजधानी के साथ इन गढ़ों के माध्यम से खालसा क्षेत्र का केन्द्रीय प्रशासन होता रहा तो इसके समानांतर बस्तर, कांकेर, नांदगांव, खैरागढ़, छुईखदान, कवर्धा, रायगढ़, सक्ती, सारंगढ़, सरगुजा, उदयपुर, जशपुर, कोरिया, चांगबखार भी सीमित-संप्रभु रियासती सत्ता के केन्द्र रहे।
इतिहास में झांककर समाज के उज्जवल भविष्य की रूपरेखा बनती है और इतिहास के संदर्भ कोश से प्रेरक आशा का उत्साह संचारित होता है, आगत की तस्वीर उजागर होती है। रायपुरा से किला-पुरानी बस्ती और रायपुर से नया रायपुर तक का सफर न सिर्फ समय की बदलती करवट है, बल्कि यह राज्य की क्षमता और उसके पुरुषार्थ का भी प्रमाण है। नया रायपुर (अब अटल नगर, नवा रायपुर) के साथ नये संकल्पों का दौर आरंभ हो रहा है, इस नयी राजधानी में राज्योत्सव के शुभारंभ अवसर के लिए निर्धारित मुहूर्त पर प्रकृति ने जलाभिषेक कर मानों राज्य के उज्ज्वल भविष्य का मार्ग प्रशस्त किया है। इस अवसर पर अपने गौरवशाली अतीत का स्मरण इतिहास-यज्ञ ही है, जिसमें दृढ़ संकल्पों के साथ कर्म-उद्यम का यज्ञफल राज्य के लिए शुभ और मंगल सुनिश्चित करेगा।
नवभारत, संपादकीय पृष्ठ पर 3 नवंबर 2012 को प्रकाशित