छत्तीसगढ़ की भूमि का स्वभाव शांत, सौम्य और संतुष्ट है। यह विशिष्टता अगर किसी पूरे भौगोलिक खण्ड में सामान्य-सहज ढंग से उपलब्ध हो तो यह निश्चय ही अत्यंत सम्पन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर ही विकसित होना संभव है।
कहावत है कि ‘पूत के पांव पालने में दिखाई पड़ते हैं’ और इतिहास की झलकियां इस अंचल की विशिष्टताओं की साक्षी हैं। इस सांस्कृतिक विरासत के रूप-आकार में हमारा समष्टि उद्यम तो कारक बना ही, प्राकृतिक स्थितियों का महत्व भी कम नहीं है। छत्तीसगढ़ की पहाड़ियों और वन-कान्तार में जैव विविधता, खनिज-सम्पदा, नदी-नाले, वह सभी कुछ है, जो सभ्यता-शिशु को अपनी गोद में दुलार-संवार कर पाल-पोसकर सक्षम बना सकता है। इस भूभाग के उपजाऊ मैदान से छत्तीसगढ़ की पहचान सिर्फ ‘धान का कटोरा’ कहकर किया जाना, अंचल को कमतर आंकना होगा। प्रकृति ने इस अंचल को विशिष्टता प्रदान की है और उसका सम्मान कर अंचल ने जो प्रतिमान रचे-गढ़े हैं, वही पृष्ठभूमि इस सम्पन्न धरती पुत्रों की संतुष्टि और शालीनता में अभिव्यक्त होती है। सभ्यता विकास के विभिन्न चरणों के लिए इस धरती की उपयुक्तता सहज देखी जा सकती है, जहां इतिहास में ऋषभतीर्थ-गुंजी विकसित हुआ उसी से जुड़ा आधुनिक औद्योगिक तीर्थ कोरबा भी बुलंदियों पर है। चित्रकला, मूर्तिकला, भाषा-लिपि के विभिन्न अप्रतिम, सर्वोच्च, सर्वप्रथम और विशिष्ट चमत्कार यहां घटित हुए हैं जिनमें कुछ अल्पज्ञात हैं, कुछ अचर्चित तो कुछ विस्मृत। इन्हीं का विवरण किसी (भूभाग) के निवासियों के साथ उनकी संस्कृति में प्रस्फुटित हो जीवन की सतरंगी छटा बिखेरता है और अपनी पहचान स्थापित करता है।
गौरव गाथा के क्रम में वर्तमान परिस्थितियों की प्रासंगिकता भी उतनी ही आवश्यक होती है और यह समय प्राकृतिक आपदाओं का, संसाधनों के निर्मम दोहन को उत्पादन घोषित करने वालों और क्षेत्रीय हितों को स्वहितों से घालमेल कर आगे बढ़ने वालों का है। ऐसी परिस्थिति में इस भूमि पर गर्व करने वालों की शालीनता और संतुष्टि में सक्षम और सजग रहने का समावेश अपरिहार्य हो गया है। पंचतंत्र की नीति शिक्षा है- ‘‘अपनी शक्ति को प्रकट न करने से शक्तिशाली मनुष्य भी अपमान सहन करता है, काठ के भीतर सोई आग को लोग आसानी से लांघ जाते हैं किन्तु धधकती ज्वाला को नहीं।’’ और दिनकर की पंक्ति है-
छीनता हो स्वत्व तेरा और तू, त्याग, तप से काम ले, यह पाप है,
है उचित विच्छिन्न का देना उसे, बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ है।
गढ़ों का तिलस्म
छत्तीसगढ़ के नामकरण का आधार तो निस्संदेह रतनपुर राज्य मुख्यालय के अंतर्गत विभक्त प्रशासनिक इकाईयां हैं। देवार गीतों में भी मंडला राज के बावनगढ़, सम्बलपुर राज के अट्ठारहगढ़ और रतनपुर राज के छत्तीसगढ़ गिनाये जाते हैं, लेकिन इसके साथ-साथ भौतिक स्वरूप वाली परिखा (खाई) और प्राकार (दीवार) युक्त संरचनाओं का अस्तित्व भी इस अंचल में हैं।
मृत्तिका या धूलि दुर्ग नाम से अभिज्ञात इन गढ़ों में व्यवस्थित वैज्ञानिक उत्खनन अब तक नहीं हुआ है, इसलिए इनका तिलस्म कायम है लेकिन यह निष्कर्ष सहज ही निकाला जा सकता है कि ऐसे गढ़ लगभग 2700 साल तक पुराने और इतिहासपूर्व युग को ऐतिहासिक काल से संबद्ध करने वाली कड़ी साबित हो सकते हैं। विभिन्न आकार प्रकार की इन विशिष्ट संरचनाओं को महाजनपद काल का माना जाता है। मिट्टी के इन गढ़ों की संख्या व वितरण इनके सामरिक प्रयोजन को संदिग्ध बनाता है। जांजगीर जिले में ही ऐसे गढ़ों की संख्या छत्तीस से अधिक है। दो गढ़ों की आपसी दूरी कहीं-कहीं तो सिर्फ तीन किलोमीटर है, जैसे मल्हार और कोनारगढ़। ऐसे उदाहरण पामगढ़-शिवरीनारायण के बीच और जांजगीर-केरा के बीच बहुतायत में है। मिट्टी के इन गढ़ों की विशालता और उसके निर्माण में लगे मानव श्रम का अनुमान चकित कर देने वाला है। मल्हार जैसे कुछ गढ़ों से मिलने वाले प्राचीन अवशेष की विपुलता और विविधता भी कम आश्चर्यजनक नहीं है। अंचल के ऐसे सभी गढ़ों की प्राचीनता अगर अनुरूप हो तो इनके व्यवस्थित अध्ययन से इतिहास का रोमांचक पृष्ठ खुल सकता है और अपने अनूठेपन के साथ-साथ इतिहास को सार्थक तथ्य उपलब्ध करा सकता है।
छत्तीसगढ़ी का पहला नमूना
छत्तीसगढ़ी का पहला नमूना अभिलेख पत्थर पर उत्कीर्ण व सुरक्षित है। यह शिलाखंड दंतेवाड़ा में स्थापित है। लेख में शासक दिकपाल देव का उल्लेख है और तिथि सम्वत् 1760 यानि सन् 1702 है। लेख वस्तुतः साथ लगे संस्कृत शिलालेख का अनुवाद है, लेख का अन्य संबंधित विषय स्वयं स्पष्ट है -
दंतावला देवी जयति।। देववाणी मह प्रशस्ति लिषाए पाथर है महाराजा दिकपालदेव के कलियुग मह संस्कृत के बचवैआ थोरही हैं ते पांइ दूसर पाथर मह भाषा लिखे है। ..... ते दिकपालदेव विआह कीन्हे वरदी के चंदेल राव रतनराजा के कन्या अजवकुमरि महारानी विषैं अठारहें वर्ष रक्षपाल देव नाम जुवराज पुत्र भए। तव हल्ला ते नवरंगपुरगढ़ टोरि फांरि सकल वंद करि जगन्नाथ वस्तर पठै कै फेरि नवरंगपुर दे कै ओडिया राजा थापेरवजि। पुनि सकल पुरवासि लोग समेत दंतावला के कुटुम जात्रा करे सम्वत् सत्रह सै साठि 1760 चैत्र सुदि 14 आरंभ वैशाष वदि 3 ते संपूर्न भै जात्रा कतेकौ हजार भैसा वोकरा मारे ते कर रकत प्रवाह वह पांच दिन संषिनी नदी लाल कुसुम वर्न भए। ई अर्थ मैथिल भगवान मिश्र राजगुरू पंडित भाषा औ संस्कृत दोउ पाथर मह लिषाए। अस राजा श्री दिकपाल देव देव समान कलि युग न होहै आन राजा।
सामाजिक समरसता
जाति चरित्र का सूक्ष्म अध्ययन करने की परम्परा का प्रमाण बिलासा केंवटिन के देवार गीत में मिलता है किन्तु सामाजिक समरसता और जाति सद्भाव-सम्मान की अनूठी परम्परा इस अंचल मेें रही है। बिलासा केंवटिन, राजिम तेलिन, बहादुर कलारिन, किरवई की धोबनिन, गंगा ग्वालिन और मुरहा राउत, परऊ बैगा, बैगा-बैगिन जैसे लोक चरित्रों की प्रतिष्ठा तथा उनके प्रति सम्मान प्रकट कर गौरव बोध होना अंचल की सामाजिक समरसता का द्योतक है। लोक गाथा गायक देवार जाति के इतिहास के अनाम नायकों के शौर्य, महानता और उदारता की गाथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी गाकर हाशिये के इतिहास की चारण-गाथा को सुरक्षित रखा है।
गांव के दो समान नाम वाले जाति, वर्ग, धर्म भेद से परे ‘सहिनांव’ मितान बन जाते हैं और ननिहाल आये बच्चों के लिए पूरा गांव मामा-मामी और नाना-नानी बन जाने की सौहार्द्रपूर्ण परम्परा की सम्पन्नता भी इस अंचल में है। खल्लारी में देवपाल नामक मोची ने छः सौ साल पहले मंदिर निर्माण कराया और उसे इस काम में राजा के साथ ब्राह्मण और कायस्थ जातियों का समर्थन और सहयोग मिला था।
धूमिल भित्तिचित्रों से मुखरित सदियों पुरानी चित्रकला
रामगढ़, सरगुजा की ख्याति नाट्यशाला और सुतनुका के लिये है किन्तु यहां एक और अनजाना सा दुर्लभ प्रमाण ऐतिहासिक चित्रकला का भी है, जो अजंता और बाघ की विश्वप्रसिद्ध भित्तिचित्रों से भी अधिक पुरानी है। चित्रों की रेखाएं ओर रंग धूमिल हो जाने से उन्हें वह प्रतिष्ठा नहीं मिली, जिसकी वे हकदार है, किन्तु उनका अस्तित्व आज भी विद्यमान है। छत्तीसगढ़ में कैप्टन टी. ब्लाश ने सन् 1904 में इन चित्रों का अवलोकन कर, इन्हें ‘‘दो हजार साल से भी अधिक पुरानी और संभवतः’’ भारत को प्राचीनतम भित्तिचित्र के प्रमाण माना। प्राचीनता के प्रमाण स्वरूप इनमें चैत्य गवाक्ष आकृतियां, दो पहियों वाली तीन या चार घोड़ों द्वारा खींची जाने वाली गाड़ी और प्राचीन रूपाकार मानव चित्रित हैं। ये चित्र सफेद पृष्ठभूमि पर सिंदूरी जैसे रंग से बनाए गए हैं और मानव, हाथी और वृक्ष के लिए समान रंग प्रयोग में लाया गया है, जबकि रेखांकन काले रंग से किया गया हैं। आंख के स्थान सफेद छोड़े गए हैं जबकि बाल काले रंग से बने हैं और कहीं कहीं बाल को बांई ओर जूड़ा बंधा दिखाया गया है। वस्त्राभरण सफेद रंग के लाल रेखांकन से प्रदर्शित है। विभिन्न दृश्यों से अर्द्धवृत्त में लाल रेखाओं से विभक्त किया गया है। सबसे निचले भाग में पीले और लाल रंग से चित्रित अस्पष्ट दृश्य हैं। रामगढ़ की इस पहाड़ी में पाली में उत्कीर्ण है- सुतनुका व रूपदक्ष की गाथा। विश्व में भारतीय कला को प्रतिष्ठा दिलाने वाले कला मर्मज्ञ आनंद कुमारस्वामी ने इन चित्रों की कलात्मकता और प्राचीनता को स्वीकृति देते हुए इन्हें प्रतिष्ठित किया है।
जैन, बौद्ध, शैव और वैष्णव धर्मों की भूमि
लगभग दो हजार साल पहले बूढ़ीखार (मल्हार) में दान स्वरूप निर्मित कराई गई विष्णु की प्रतिमा को भारतीय मूर्तिकला में विष्णु की प्राचीनतम प्रतिमा का गौरव प्राप्त है। चतुर्भुजी विष्णु की मानवाकार प्रतिमा दण्ड, चक्र सहित है। बौद्ध तथा जैन प्रतिमा भी मल्हार तथा सिरपुर से बड़ी संख्या में मिली हैं।
शैव प्रतिमा का आंचलिक अनूठापन भी निर्विवाद है, चाहे ताला के ‘रूद्र शिव’ की पहचान और नामकरण का मामला विवादग्रस्त हो। पशु-पक्षियों से शारीरिक अंगों का रूपांकन और पूरे शरीर पर मानव मुख अंकित हैं। आठ फुट ऊंची यह प्रतिमा पांच टन से भी अधिक भारी है। इस प्रतिमा की विशिष्टता का साम्य मांढल (महाराष्ट्र) की शिव-प्रतिमाओं, चीन के गुहा शिल्प, नेपाल के तांत्रिक चित्रों और सेल्टिक पेंटिंग्स में तलाशने का प्रयास किया गया, किन्तु इस प्रतिमा के शिल्पशास्त्रीय और धार्मिक परम्परा का रहस्य इसके अनूठेपन को बढ़ाता है। शैव प्रतिमा निर्माण का स्थल सरदा (दुर्ग) भी कम विस्मयकारी नहीं है जहां उमा-महेश और अर्द्धनारीश्वर जैसी प्रतिमाओं में पाशर््िवक-विपर्यय हुआ है। यानि शास्त्रीय विधान में शिव के बाएं और इसी तरह बांया अर्द्धांग नारी का होता है किन्तु यहां इसे उलट कर व्यतिक्रम करते हुए मानों कोई समांतर शास्त्र की रचना हुई थी।
सुदीर्घ राजनैतिक स्थिरता का दुर्लभ इतिहास
रतनपुर, आज भी इस अंचल में राज और राजा के लिए सदैव न सिर्फ याद किया गया है, बल्कि राजशक्ति का पर्याय बन गया है क्यों न हो, कलचुरि, हैहय या चेदि वंश के नाम से ज्ञात संबद्ध कालखण्ड किसी एक राजवंश का संभवतः सर्वाधिक दीर्घ अवधि का राज्यकाल रहा है। पुराण-महाकाव्यों का महानायक सहस्रबाहु कार्त्तवीर्यार्जुन हुआ। इतिहास में हैहयवंशी महिष्मती में रहे, इसके बाद उनकी राजधानी त्रिपुरी (जबलपुर-भेड़ाघाट के निकट वर्तमान तेवर ग्राम) बनी। त्रिपुरी के कलचुरियों का प्रभाव कोसल अर्थात वर्तमान छत्तीसगढ़ क्षेत्र में भी रहा और संभवतः इस वंश के राजपुत्र दक्षिण कोसल के सामंत नियुक्त होते रहे। लगभग दसवीं सदी में इस वंश की एक शाखा ने दक्षिण कोसल पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर, अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। इनकी राजधानी तुम्माण (कटघोरा के निकट वर्तमान तुमान ग्राम) बनी। तुमान के राजधानी बनने में निश्चय ही इस स्थान की भौगोलिक स्थिति प्रमुख कारण थी। तुमान-खोल के पूरे क्षेत्र में प्रवेश और निकास का एक-एक मार्ग है बाकी पूरा भू-भाग दुुर्गम पहाड़ी से घिरा हुआ है।
तुमान में आज भी प्राचीन मंदिर और सतखण्डा क्षेत्र में पुरावशेष उपलब्ध होते हैं। राजधानी समय के साथ परिवर्तित होकर रतनपुर आ गई, लेकिन कलचुरियों की यह शाखा रतनपुर के कलचुरियों के नाम से प्रसिद्ध होकर लगभग साढ़े सात सौ साल अखण्ड राज्य करती रही। बीच-बीच में त्रिपुरी कलचुरियों, चक्रकोट के नागवंशियों, बाणवंशियों, क्षेत्रीय मूल के स्थानीय राजाओं और अंततः मुगलों से संघर्ष और मनमुटाव हुआ, किन्तु यह राजवंश पीढ़ी पर पीढ़ी दान, स्थापत्य-निर्माण आदि की कीर्ति-पताका फहराते रतनपुर राजधानी से सन् 1740 तक राज्य करता रहा। इतनी सुदीर्घ अवधि तक अविच्छिन्न राज्य का इतिहास में यह अत्यंत दुर्लभ उदाहरण है।
नागपुर के भोंसला-मराठों के आगमन के पश्चात् भी उन्नीसवीं सदी तक इस वंश की शाखा सहित इसका प्रभाव बना रहा। रतनपुर के कलचुरियों की इस गौरव गाथा के प्रमाण रतनपुर सहित पूरे छत्तीसगढ़ में पचासों अभिलेखों, हजारों-हजार सिक्कों और मूर्तियों, बहुसंख्यक मंदिर हैं जिसका कोई भी अंश प्रत्यक्ष पाकर उस गरिमामय सुदीर्घ कालखण्ड की झलक अभिभूत कर देने के लिए पर्याप्त साबित होती है।
छत्तीसगढ़ का ‘पाणिनी’-हीरालाल
आज हम जिस छत्तीसगढ़ी के लिए भाषा या बोली तथा उसके नियमित-वैज्ञानिक व्याकरण के विवाद में उलझ जाते हैं तब शायद यह तथ्य नजरअंदाज होता है या हम भूल जाते हैं कि पूरी एक सदी से भी अधिक पहले एक व्यक्ति ऐसा भी हुआ, जिसने तर्क-वितर्क या विवाद पैदा करने अथवा कोई नारा गढ़ने के बजाय अपनी प्रतिभा को पूरी लगन और समर्पण से छत्तीसगढ़ का व्याकरण तैयार करते हुए, मानों न सिर्फ छत्तीसगढ़ी का, बल्कि पूरे इस अंचल की जबान का गौरवशाली इतिहास रचा। यह मनीषी था- धमतरी के एंग्लो-वर्नाकुलर स्कूल का हेड मास्टर- हीरालाल काव्योपाध्याय।
छत्तीसगढ़ी व्याकरण का यह इतिहास एक अन्य ऐतिहासिक तथ्य से जुड़ा हुआ है। लगभग सौ साल पहले जार्ज ए. ग्रियर्सन द्वारा कराया गया भारत का भाषा सर्वेक्षण पूरी दुनिया में किसी भी क्षेत्र में हुए सर्वेक्षणों में भाषा सर्वेक्षण का विशालतम पैमाना था। इस पूरे सर्वेक्षण के दौरान एकमात्र छत्तीसगढ़ी का वैज्ञानिक व्यवस्थित व्याकरण प्राप्त हुआ था और इसका गौरव-मंडन स्वयं ग्रियर्सन ने किया। यह व्याकरण प्राप्त होने पर ग्रियर्सन इतने रोमांचित और उत्साहित हुए कि उन्होंने हीरालाल काव्योपाध्याय के ससम्मान नामोल्लेख सहित इसे सन् 1890 में एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल, शोध-पत्रिका के खंड-49, भाग-1 में अनूदित और सम्पादित कर प्रकाशित कराया। छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी व्याकरण की यह परम्परा आगे सतत् विकसित होती रही। सन् 1921 में पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय ने रायबहादुर हीरालाल के निर्देशन में इस व्याकरण को विस्तृत रूप से पुस्तकाकार प्रकाशित कराया। इसी परम्परा में बिलासपुर के डॉ. शंकर शेष और रायपुर के डॉ. नरेन्द्रदेव वर्मा का कार्य भी स्मरणीय हैं।
धरती में गढ़ा इतिहास का अनमोल खजाना
धरती में गड़ा धन और खजाने की खोज की चर्चा भी रोमांचकारी होती है। किन्तु पुराने सिक्कों में दर्ज इतिहास का रोमांच भी कम नहीं होता, तभी तो प्रसन्नमात्र के ताम्बे के सिक्के के सामने इसी शासक के सोने के सिक्कों की कीमत दो कौड़ी जैसी हो जाती हैै।
मल्हार, बालपुर जैसे स्थानों में प्राचीन सिक्कों का ऐसा भूमिगत भंडार भरा है कि मल्हार में ‘संफरिया नांगर’ (जोड़ी में हल) चलाने का रिवाज नहीं है, हल चलाते हुए कभी भी, कुछ भी मिल सकने की उम्मीद जो बनी रहती है, और किंवदन्ती यह भी है कि कोटगढ़ के राजा के आह्वान पर मल्हार में सोने की बरसात हुई थी। बालपुर के लिये कहा जाता है कि वहां भू-गर्भ में पूरी दुनिया को ढाई दिन खिला सकने जितनी सम्पदा गड़ी हुई है। कोटमी-धुरकोट का साधु प्रसिद्ध है जो चिमटे से बिच्छू कमण्डल में डालकर चांदी के सिक्के बना देता था और रमल विचार कर यहां-वहां खुदाई की खबरें मिलती रहती हैं।
छत्तीसगढ़ व सीमावर्ती क्षेत्र से मिलने वाले ठप्पांकित या उभारकर सिक्के, एक तरह से अंचल की पहचान हैं क्योंकि एसे सिक्के सिर्फ इस अंचल से उपलब्ध हुए हैं, जो पूरी दुनिया के मुद्राशास्त्रीय इतिहास में अनूठे हैं। ये उभारदार सिक्के लगभग छठी सदी ई. के हैं। इन सिक्कों की प्राप्ति रायपुर जिला में खैरताल, पितईवंद, रीवां, महासमुुंद, सिरपुर से, बस्तर के एड़ेंगा से, दुर्ग के कुलिया से, रायगढ़ के साल्हेपाली से बिलासपुर के मल्हार, ताला, नन्दौर और तलवा से हुई है। संलग्न राज्य सीमाओं पर उड़ीसा के बहरमपुर, नहना, मारागुड़ा, मदनपुर-रामपुर, महाराष्ट्र के भण्डारा, बिहार के शाहाबाद व अन्य फुटकर स्थानों से मिलने के साथ-साथ उत्तरप्रदेश व पश्चिम बंगाल के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। इन सिक्कों में 215-महेन्द्रादित्य, 127-प्रसन्नमात्र, 4-क्रमादित्य, 29-वराहराज, 3-भवदत्त, 1-नंदनराज, 1-स्तंभ तथा 4 सिक्के संभवतः कुषाण तथा गुप्त शासकों से संबंधित हैं। इनमें संख्या की दृष्टि से बिलासपुर जिले के बाराद्वार के निकट तलवा से प्राप्त 81 स्वर्ण सिक्के से भी अधिक की प्राप्ति, ऐसे सिक्कों की विशालतम निधि है और मल्हार के ताम्बे का तथा ताला के चांदी का सिक्का अपने प्रकार के अकेले उदाहरण हैं।
अंचल से प्राप्त होने वाले सिक्कों के कुछ अन्य प्रमुख स्थान रायपुर में तारापुर, आरंग, खैरताल, दलाल सिवनी, रायगढ़ में बार और पाराडीह, दुर्ग में सिरसा, खैरागढ़ और रायगढ़ रियासतों में तथा बिलासपुर के अकलतरा, केरा, बछौद, चकरबेड़ा, केन्दा, पेण्डरवा, झझपुरी, भगोद, धनपुर आदि हैं। इनमें बिलासपुर जिले के सोनसरी से प्राप्त 600 सोने के सिक्के विशेष उल्लेखनीय हैं। छत्तीसगढ़ की इस विशिष्ट मुद्रा निर्माण तकनीक के ठप्पांकित सिक्के अन्यत्र दुर्लभ, मौलिक और असमान्तर कृतियां हैं।
अक्षरों की कहानी, लिपि का रहस्य
छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास में अक्षरों की अपनी कहानी है। उत्कीर्ण लिपियों का अपना रहस्य है, जो पूरी दुनिया को आकर्षित कर अंचल को गौरवशाली प्रतिष्ठा देता है। रामगढ़, गुंजी, किरारी और सीमावर्ती विक्रमखोल इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं।
प्राचीनतम रंगशाला, रामगढ़, जिला-सरगुजा के नाट्यमण्डप होने से दो राय हो सकती है, किन्तु सुतनुका देवदासी और देवदीन मूर्तिकार का अभिलिखित प्रणय-प्रसंग दो हजार से भी अधिक साल की प्राचीनता सहित आरंभिक उत्कीर्ण राग लेख है, संक्षिप्त किन्तु सम्प्रेषण-समर्थ -
सतुनुका। देवदाशिय। सुतनुका नाम देवदाशी।
तं कामयिथ बालुणसुएये देवदीन नाम लूपदखे।
लगभग दो हजार साल पहले इस अंचल में लकड़ी पर लिपि उत्कीर्ण करने का भी प्रयोग हुआ, जो पूरी दुनिया में अपनी तरह का अनूठा नमूना है। किरारी (चन्द्रपुर) से प्राप्त अभिलिखित काष्ठ स्तंभलेख का अब अंश ही सुरक्षित बच सका है, किन्तु हीराबंध तालाब से निकले इस लकड़ी के खंभे का महत्व समझकर स्थानीय ग्रामवासी पंडित लक्ष्मीधर उपाध्याय ने इसकी नकल उतार ली थी और उसे जांचकर तत्कालीन पुरालिपि विशेषज्ञों ने प्रामाणिक मानकर उसी के आधार पर लेख का अध्ययन किया, जिसमें तत्कालीन राज पदाधिकारियों का उल्लेख है।
सक्ती के निकट दमऊदहरा अथवा गंुजी लगभग दो हजार साल पहले ऋषभतीर्थ के नाम से प्रसिद्ध था। दक्षिण कोसल के इस तीर्थ का नामोल्लेख महाभारत में भी हुआ है। यहां राजा, अमात्य, दण्डनायक और बलाधिकृत ने दो बार एक-एक हजार गायों का दान किया। अन्य अमात्य और दण्डनायक ने भी एक हजार गौओं का दान दिया। यह अभिलिखित प्रमाण भी अपनी प्राचीनता के कारण दुर्लभ जानकारी और क्षेत्र की सम्पन्न परम्परा को द्योतक हैै।
आंचलिक सीमा से संलग्न विक्रमखोल का चट्टान लेख हड़प्पाकालीन संकेतों और ब्राह्मी लिपि के बीच की कड़ी माने जाने के कारण अत्यधिक महत्वपूर्ण और अनूठा प्रमाण है।
मल्हार की कालधारा में पुरावशेषों की विविधता
सभ्यताओं के बनते-बिगड़ते इतिहास और वैभवशाली विशाल अट्टालिकाओें-प्रासादों का खंडहर में तब्दील होना मानों स्वाभाविक नियति-चक्र है, किन्तु हड़प्पायुगीन सभ्यता के नगर हों या मजमूली नक्शों में अंकित वीरान गांव, यह जिज्ञासा अवश्य जगाते हैं, कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि समय के साथ मिट्टी को परतों में दबकर कोई स्थान इतिहास का पन्ना बनकर रह गया। विस्मयकारी यह भी है कि कोई सात-आठ किलोमीटर की परिधि कालक्रम और अवशेषों की विविधता से इतनी सम्पन्न हो, जैसा मल्हार। विशाल और विख्यात कोई भी पुरातात्विक स्थल विविधता की दृष्टि से मल्हार के सीमित किन्तु सघन क्षेत्र के सामने बौना लगने लगता है।
मल्हार और निकटवर्ती ग्रामों जैतपुर, बूढ़ीखार, नेवारी, बेटरी, जुनवानी आदि से अब तक प्रकाश में आये पुरावशेषों को देखकर लगता है कि धरती का यह छोटा सा हिस्सा सदैव प्रबल आकर्षण का केन्द्र रहा और सभ्यता-संस्कृति के सभी कर्ताओं को अपने अंक में पाला-पोसा है। मल्हार में प्राचीनता के प्रमाणस्वरूप सागर विश्वविद्यालय द्वारा कराये गये उत्खनन से लगभग अट्ठाइस सौ साल पुरानी बसाहट के चिन्ह प्राप्त हुए हैं। महामाया खोदा गया तो पातालेश्वर मंदिर निकट आया और भीमा-कीचक टीला खुदा तो देउर मंदिर निकल आया। किसानों को तो विशेषकर भसर्री क्षेत्र में कुआं खोदते हुए पुराना रेडीमेड पक्का कुआं मिल जाता है, तो कहीं नींव खोदते हुए पत्थर की बनी बनाई प्राचीन नींव। हल चलाते हुए धातु, पत्थर, मिट्टी, इंट का कोई पुरावशेष मिल जाता है तो बरसात में पानी के कटाव से सिक्के निकल आते हैं। यानि पूरा सिलसिला है पत्थर, तांबे, मिट्टी पर उकेरे-उभरे हजारों शब्दों का भण्डार- शिलालेख, ताम्रपत्र, मूर्तिलेख, राजमुद्रा और मुद्रांक, इसके आगे पत्थर और मिट्टी पर गढ़ी गई मूर्तियां हैं। मंदिर और स्थापत्य के अनेकानेक नमूने हैं।
पत्थर और मिट्टी की गुरिया, मनके, मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े, सोने, चांदी, तांबा, सीसा और पोटीन के सिक्कों का तो अकूत भंडार है यहां। यह भी कम आश्यर्चजनक नहीं कि काल की दृष्टि से इन सामग्रियों का क्रम अनवरत है। मल्हार के जिक्र में वहां से शंख के जीवाश्म की प्राप्ति इस स्थल की पहेली को अधिक अबूझ बना देती है तो भूगर्भ में विद्यमान संभावनाएं इस समृद्धि का अनुमान लगाने में भी मानव-मस्तिष्क को अचंभित कर जड़ कर देती हैं।
ईंटों पर रचा तकनीक का काव्य
भारतीय स्थापत्य कला के इतिहास में राजिम, ताला और जांजगीर के पाषाण-निर्मित मंदिरों का अपना-अपना विशिष्ट स्थान है। राजिम में राजीव लोचन मंदिर का शिखर शैलीगत आरंभिक स्थिति का प्रमाण है तो ताला के जिठानी और देवरानी मंदिर की निर्माण योजना अत्यंत विशिष्ट संरचना है। आरंभिक काल के इस उदाहरणों के पश्चात लगभग 12 वीं सदी का जांजगीर का भीमा मंदिर या विष्णु मंदिर स्थापत्य विकास का चरमोत्कर्ष है जहां जंघा के साथ-साथ जगती पर भी आदमकद प्रतिमाएं जड़ी हैं। लेकिन इस अंचल ने तारकानुकृति मंदिरों की योजना को ईंट माध्यम का प्रयोग कर साकार किया है तथा स्थापत्य इतिहास में जो प्रतिमान रचे हैं उनका कोई साम्य नहीं मिलता।
खरौद का शबरी और इन्दल देउल, सिरपुर का लक्ष्मण और राम मंदिर, पलारी का सिद्धेश्वर मंदिर, धोबनी का चितावरी मंदिर, पुजारीपाली के केंवटिन और गोपाल मंदिर, यह पूरी श्रृंखला ईंटों पर बारीक नक्काशी और साफ जुड़ाई अनूठी है। अष्टकोणीय भू-योजना का अड़भार मंदिर और ताराकार ईंटों के उल्लिखित मंदिरों सहित भोरमदेव का भग्न मंदिर और शिवरीनारायण के केशवनारायण मंदिर की कोणिक रचना-पद्धति को कोसली नामकरण सहित शास्त्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।
इन मंदिरों की निर्माण प्रक्रिया के लिए अनुमान है कि बिना पकी उकेरी गई ईंटों को पतली छनी गीली मिट्टी को जुड़ाई के लिए इस्तेमाल कर पूरी संरचना तैयार कर ली जाती थी और इसके बाद पूरी रचना भट्ठी लगाकर उसे पकाया जाता था। यह अनूठी स्थापत्य योजना व अभिकल्प और प्रयोग हमारी वैचारिक तकनीकी सम्पन्नता का प्रमाण प्रस्तुत करने के लिए सक्षम उदाहरण है।
देश में राजस्व व्यवस्थापन की छत्तीसगढ़ी गुरूआत
देश के इतिहास में राजस्व भू-व्यवस्थापन के साथ सदैव अकबर और उनके नवरत्नों में से एक राजा- टोडरमल को याद किया जाता है, किन्तु हम स्वयं भी अक्सर अपने क्षेत्रीय गौरव कलचुरि शासक कल्याण साय की जमाबंदी को भूल जाते हैं। कल्याण साय (सन् 1550) के जमाबंदी की पृष्ठभूमि निश्चय ही अकबर से पहले की है।
इस जमाबंदी में दर्ज ऐतिहासिक राजस्व व अन्य राजकीय सूचनाओं का महत्व अंग्र्रेज अधिकारियों ने पहचाना। सन् 1861-68 के दौरान (पहला) सेटिलमेंट करते हुए मि. चीजम ने इसी जमाबंदी को अपने कार्य का आधार बनाया और फिर सन् 1909-10 में बिलासपुर जिला गजेटियर तैयार करने के सिलसिले में मि. नेल्सन द्वारा इसकी खोज की गई, यह मूल अभिलेख न मिल पाने के फलस्वरूप ढेरों जानकारियां जो मि. चीजम ने उद्धृत की थीं, ज्यों की त्यों इस्तेमाल कर गजेटियर पूरा किया जा सका। कल्याण साय की जमाबंदी तत्कालीन, अत्यंत रोचक और महत्वपूर्ण जानकारियों का दस्तावेज है, जिसके अनुसार रतनपुर राज के गढ़ों यानि सिर्फ खालसा क्षेत्र से साढ़े छह लाख रूपये का राजस्व वसूल होता था, तब के रूपये का मूल्य अनुमान कर तत्कालीन सम्पन्नता समझी जा सकती है। कल्याण साय की सेना में बंदूकधारियों (मैचलाक) सहित 14,200 सैनिक थे और 116 हाथियों की फौज अलग थी।
कल्याण साय की जमाबंदी से तत्कालीन इतिहास की जो तस्वीर उभरती है, उससे इस क्षेत्र के नामकरण के पीछे छत्तीस प्रशासनिक इकाईयां गढ़ ही आधार बनीं, इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता। इस दृष्टि से यह अभिलेख और भी प्रासंगिक हो जाता है। तत्कालीन गढ़ चौरासी गांवों का परम्परागत समूह होता था और इसके प्रभारी दीवान कहलाते थे। आगे विभाजन बियालिस, चौबीसा, बरहों में होता था और इन समूहों में ग्रामों की संख्या सदैव नियमित होना आवश्यक नहीं था लेकिन अंतिम इकाई गांव ही होती थी। जमाबंदी में अड़तालिस गढ़ नामों को अलग-अलग संख्या में समूह-वर्गीकरण कर इस संख्या को छत्तीस बनाया गया है, जिसमें वर्तमान जमींदारियां भी शामिल है। इन्हीं गढ़ों की व्यवस्था तीन परगनों में बदल गई। इन परगनों बिलासपुर (रतनपुर), मुंगेली (नवागढ़) व शिवरीनारायण (खरौद) के अंतर्गत ग्रामों की संख्या क्रमशः 241, 482 व 145 थी। कलचुरियों के सुदीर्घ और निर्विघ्न राज्य का प्रमुख आधार संभवतः उनका यहां व्यवस्थित और सुसंगठित राजस्व-व्यवस्थापन था, जो छत्तीसगढ़ के नामकरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण और इतिहास में प्राचीनता की दृष्टि से अनूठा हैै।
आंकस ग्राम देवताओं की भूमि
आधी रात के बाद गांव की गली में टपा-टप घोड़े की टाप सुनाई पड़ती है। सात हाथ का झक्क सफेद घोड़ा और सवार भी सफेद धोती-कुरता पहने, सफेद ही पागा बांधे चला जा रहा है। इसे किसी ने आज तक सामने से नहीं देखा और देखा तो बचा नहीं। बड़े बुजुर्ग बताते हैं देव है, गांव का मालिक देवता, ठाकुर देव, बड़ा देव। गांव की निगरानी में निकलता है। सीवाने के देवता अंधियारी पाठ को ताकीद करने।
ठाकुरदेव सहित अन्य सभी देवता आज भी उतने की जागृत हैं, जितनी हमारी मौलिक सांस्कृतिक चेतना। छत्तीसगढ़ में ग्राम देवताओं का मण्डल व्यापक और सुरक्षित है। ग्राम देवताओं की पूजा-उपासना पद्धति व संबंधित भाषा विशिष्टता में यहां की वर्तमान समेकित संस्कृति के मूल घटकों-उपादानों की पहचान हो सकती है।
ठाकुरदेव और बड़ादेव जैसा ही महत्वपूर्ण देवता बूढ़ादेव है। बूढ़ादेव के साथ बढ़ावन की मान्यता होती है, जो पत्थर की गोल गोटियां हैं। वार्षिक उत्सव बार के अवसर पर बढ़ावन की पूजा होती है। पर्यावरण-सजग कोल समुदाय के वन्य ग्रामों में ग्राम से संलग्न वन खंड, अधिकतर शाल वृक्ष समूह में ‘सरना’ स्थापित-मान्य होता है। इसे अत्यंत पवित्र और जागृत क्षेत्र माना जाता है। ग्राम व क्षेत्र की मनोरंजन-गोष्ठियां और सामान्य बैठक से लेकर पंचायत-फैसले, देव-साक्ष्य में सरना में होते हैं, साथ ही सरना राहगीरों को रात्रि विश्राम के लिए शरण भी देता है।
उजाड़ वीराना, टीलों में डीह, डिहवार या डिहारिन दाई की मान्यता होती है। मातृ शक्तियों के रूप माताचौंरा या महामाया सामान्य रूप से लगभग प्रत्येक गांव में विद्यमान हैं। मातृकाओं में सतबहिनिया और अक्कइसो बहिनी भी पूजी जाती हैं। कुछ क्षेत्रों में सतबहिनियां का नाम जयलाला, बिलासिनी, कनकुद केवदी, जसोदा, कजियाम, वासूली और चण्डी मिलता है, जबकि छत्तीसगढ़ अंचल में सतबहिनिया को चेचक या सात माता, बूढ़ी मां, मटारा, लोहाझार, कथरिया, सिंदुरिया, कोदइया और आलस के नाम से भी पूजा जाता है। अन्य प्रचलित देवियां- कमलई, समलई, महलई, खमदेई, कोसगई, केन्दई, विशेसरी, सत्ती, चण्डी, मावली, कालिका, कंकालिन, परेतिन दाई, रात माई, आदि हैं, जो ग्राम के मध्य, थाना-गुड़ी या सीवाने पर हो सकती हैं।
ग्राम देवताओं के पुजारी बैगा, गुनिया, देवार, सिरहा आदि नाम से जाने जाते हैं, इनमें ठाकुर देव और बाहुकों जराही-बराही के साथ परउ बैगा की मान्यता होती है कुछ क्षेत्रों में बैगा के सहायक होमदेवा भी होते हैं, जो केवल होम दे सकते हैं। देव-आह्वान का अधिकार मात्र बैगा का होता है। परऊ बैगा जैसी ही प्रतिष्ठा दइगन गुरू, राउतराय, बिरतियाबावा, लाल साहब, संवरादेव, सौंराइनदाई की है जबकि गोंड जनजाति में परगनिहा और कुमर्रा देव प्रचलित हैं। अन्य बैगा देवता, सुनहर, बिसाल, बोधी, राजाराम, तिजऊ, लतेल, ठंडा आदि हैं। इसी प्रकार की प्रतिष्ठा मुनिबाबा, पांडेदेव, धुरूआदेव की भी होती है।
बाबा देवताओं में सिद्ध या सीतबावा, बरम, भैरो, मुड़िया, अघोरी, कलुआबावा आदि हैं। पाट या पाठ देव अधिकतर वृक्ष देवता हैं, जिनमें कुर्रु, बासिन, डूंगर, कोटरा, सिंहासन, भंवर, अंधियारी, अंजोरी, बघर्रा, डोंगा, बइहार, नगनच्चा आदि पाठ हैं। कुकुरदेव को बंजारों का देवता और बंजारी देवी को वन देवी माना गया है। ग्राम के प्रभारी प्रतीक दाऊ साहब और रियासत जमीदारियों की दन्तेश्वरी, सरंगढ़िन, कुदरगढ़िन, चांगदेवी आदि हैं। मार्ग सूचना या यात्रा संकल्प के देव ओंगनापाठ, चिथरीदाई, चिरकुटी, ढेलादेव आदि हैं। अन्य कुछ देवताओं में हरदेलाल, घोड़ाधार, सांढ-सांढ़िन, साहड़ादेव, नागदेव, चिरकुटी, खूंटदेव, मेंड़ोदेव, खरकखाम्ह, अखराडांड, गौरइया, धूमनाथ, चितावारी, ठेंगहादेव से डॉक्टरदेव तक विस्तृत सूची है। छत्तीसगढ़ के लोक संसार का इन देवताओं के प्रति आत्मीय साहचर्य तब प्रकट होता है, जब देवताओं से कथित भयभीत होकर उन्हें सम्मान देने वाला जनमानस वर्षा के लिए देवता को गोबर या मिट्टी लीप-पोत कर या धूप में बाहर निकालकर सजा भी देता है। छत्तीसगढ़ की जनजातीय और मौलिक संस्कृति की सच्ची पहचान के लिए ग्राम देवताओं के विस्तृत और गहन सर्वेक्षण शोध आवश्यक है, क्यांेकि इसी बिन्दु को पहचान कर हम सृष्टि में अपनी सहोदरा प्रकृति और अंग्रेजों से स्वयं तक की सांस्कृतिक अनेकता में एकता के सूत्र पा सकते हैं।
पर्यावरणीय चेतना के बीज
कहा जाता है कि सभ्यता का आरंभ उस दिन हुआ होगा, जिस दिन पहला पेड़ कटा और पर्यावरण का संकट तब पैदा हुआ, जब आरे का इस्तेमाल शुरू हुआ। तात्पर्य यह कि पर्यावरण का असंतुलन, प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग से नहीं बल्कि दोहन के कारण होता है। इस दृष्टि से मिथकीय दन्तकथाओं का हमारा सार्थक और सम्पन्न संसार है। कृष्ण-मोरध्वज का प्रसंग और आरे की कथा भूमि में आरे का प्रयोग निषिद्ध मानकर, इस अंचल ने अपनी पर्यावरणीय चेतना और दूरदर्शिता का परिचय दिया।
कथा संक्षेप में यह है कि राजा मोरध्वज द्वारा कृष्ण को दिये गए वचन के पालन में, उसने अपना आधा शरीर आरे से चिराकर दान देना चाहा, इसके लिए आरे को एक ओर रानी कुमुद देवी ने और दूसरी ओर पुत्र ताम्रध्वज ने संभालकर आरा चलाना शुरू किया। कृष्ण ने देखा कि राजा मोरध्वज की बांयी आंख से आंसू बह रहा है। इस पर कृष्ण ने दान ग्रहण करने से मनाही की, किन्तु राजा ने इसका कारण बताया कि बांये अंग को इस बात का दुख हो रहा है कि केवल दायां अंक ही समर्पित हो पा रहा है, बांये अंग का कोई उपयोग नहीं हो रहा है। मोरध्वज को हैहय-कलचुरि राजाओं का पूर्वज माना जाता है और यह भी कहा जाता है कि रतनपुर कलचुरि शासकों की नाक के ऊपर से कपाल के पिछलेे भाग तक आरे से चिरा जैसा चिन्ह हुआ करता था।
स्थान नाम आरंग की व्युत्पति को भी आरे और इस कथा से संबद्ध किया जाता है और परम्परा में अब तक बस्तर के प्रसिद्ध दशहरे के लिए रथ के निर्माण में केवल बसूले का प्रयोग किया जाता है। मि. चीजम ने उल्लेख किया है कि इस अंचल में आरे का प्रचलन मराठा शासक बिंबाजी भोंसले के काल से हुआ और तब तक की पुरानी इमारतों में लकड़ी की धरन, बसूले से चौपहल कर इस्तेमाल हुई है। अंचल में आरे के प्रयोग को निकट अतीत में भी अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता था और आरा चलाने वाले ‘अरकंसहा’ को महत्व देने के बाद भी उनके पेशे को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा गया है।
परम्परा का इतिहास और इतिहास की परम्परा
कहा जाता है कि कहानी से बड़ा सच और इतिहास से बड़ा झूठ कुछ नहीं होता। कहावत है, तो सच्चाई भी होगी और सच न हो तो कोई ईमानदार दृष्टिकोण तो जरूर होगा। इस सिलसिले में जब विदेशी आलोचना करते हैं कि हमें इतिहास-बोध नहीं हैं, हम इतिहास के बदले पुराण और किस्से-कहानी सुनाने लगते हैं, तो इस विसंगति की ओर ध्यान जरूर जाता है कि यह आलोचना उन्हीं की ओर से आ सकती है, जिनका न कोई इतिहास है न कोई पुराण। अपनी अविच्छिन्न परम्परा से हम सनातन हैं और इतना सुदीर्घ इतिहास अगर निरन्तर विकाशील है तो वह परम्परा में ही बदल सकता है, वस्तुतः इतिहास और परम्परा किसी तथ्य अथवा घटना के दो लगभग विपरीत किन्तु दोनों सार्थक दृष्टिकोण हैं, परम्परा से जुड़ा व्यक्ति विषयगत हो जाता है तो बाहरी इसे प्रति अपनी नामसझी से इसे कपोल-कल्पना साबित करने में जुट जाता है।
दरअसल पारम्परिक मान्यताएं ही सांस्कृतिक सूत्र के झीने ताने-बाने हैं जो समष्टि सोच की मजबूत पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। छत्तीसगढ़ में घुग्घुस राजा, दामा धुरुआ, लोहार रानी, कुम्हार राजा, भोंसला राज केवल कल्पना नहीं सार्थक शब्द हैं। छमासी रात का मंदिर, सतजुगी मंदिर, रतनपुर राज का मंदिर, काल निर्धारण की हमारी निजी शैली है। नये मिट्टी के ठीकरों से पण्डवन चुकिया की अलग पहचान के लिये सदैव पुराविद होना आवश्यक नहीं होता। बरात का पत्थर में तब्दील हो जाना और बरतिया भांठा के अपने अर्थ हैं। देवरहा, जोगीडीपा, पुतरा-पुतरी, खइया और गंगार में गहरे संकेत हैं। माची पखना, झांपी पखना और छंकना पथरा में भिन्नता है। जिठानी-देवरानी, ममा-भांचा, भीमा-कीचक सिर्फ रिश्ते और नाम नहीं इसके आगे के भेद का पता देते हैं।
सोने की बरसात, डीह, डोंगा, कुकुरदेव और नायक बंजारा, मंदिर का कलश चढ़ने के पहले सूर्योदय या भाई-बहन का साथ-साथ मंदिर न जाना, गुड़ी, ठाकुरदेव, महामाया या माताचौंरा, छः आगर छः कोरी तलाब, अड़बंधा तलाब और सतखंडा तलाब या महल, अड़भार (अष्टद्वार) और बारादुआर (द्वादशद्वार) ऐसे न जाने कितने शब्द है, जिससे हम अपनी संस्कृति से अपनी आत्मीय समझ के साथ संबद्ध हैं। यह कहा जा सकता है कि जिसे ये शब्द आत्मीय लगें वही दरअसल छत्तीसगढ़िया है और जिसे भदेस या बेगाने लगे वह अपनी पहचान स्वयं तय करे।
छत्तीसगढ़ इसी प्रकार के शब्द और परम्परा-मान्यताओं से सम्पन्न है, जिसके माध्यम से लोक समझ का संसार स्पंदित रहता है। एक दृष्टिकोण यदि किसी ऐतिहासिक स्थल या सामग्री को खंडित, भग्न या खंडहर मान लेता है तो इस अंचल की जन-चेतना में जीवन शैली बनकर अंगीकार हो गया है। शुष्क इतिहास को जीवन परम्परा बनाकर युगों-युगों की सांस्कृतिक उपलब्धियों की संघटित धारणा से सम्पन्न और शास्त्रीय प्रतिमानों में मौलिक संवेदना से प्रवहमान गति संचार हमारी विशिष्टता है।
खरौद के मंदिर में अद्वितीय गंगा-यमुना
भारतीय संस्कृति में मंदिर, मात्र धार्मिक श्रद्धा के केन्द्र नहीं बल्कि सुदीर्घ और सम्पन्न अवधारणा का मूर्तन हैं, इसलिए प्रतिमा रहित, अधूरे छूटे या भग्न खण्डहर भी आकर्षण के केन्द्र और दर्शनीय होते हैं, बल्कि शायद पूजित मंदिरों की गहमा-गहमी के माहौल में जो चीजें छूटती हैं, वे खण्डहरों के गहरे सन्नाटे में उपलब्ध हो जाती हैं।
मंदिर स्थापत्य के स्पष्ट उदाहरण लगभग चौथी सदी से मिलने लगते हैं। आंरभिक मंदिरों में एक कक्ष ईश्वर के लिए होता है, जो प्रवेश द्वार से स्तंभ आश्रित खुले मंडप से संलग्न होता है। इन मंदिरों का ऊपरी भाग यानि छत सपाट है। शिखर का विकास उत्तरोत्तर हुआ है। मंदिर स्थापत्य में विकास के साथ उसकी रचना और अवधारणाएं दोनों, परिवर्धित होकर संश्लिष्ट होती गई और सबसे महत्वपूर्ण भाग बना गर्भगृह का प्रवेश द्वार, जिसमें से गुजर कर व्यक्ति, भक्त समूह से पृथक होकर, गर्भगृह में एकाकी प्रवेश करता है और मानों पुनर्जन्म प्राप्त कर लौटता है, इस बिन्दु पर भक्त और भगवान के बीच का अन्तर नाममात्र रह जाता है।
यह प्रसंग छत्तीसगढ़ के परिप्रेक्ष्य में खरौद के तीन मंदिरों- इंदल देउल, लक्ष्मणेश्वर और सौंराई मंदिर से जुड़ा हुआ है। मंदिरों के प्रवेश द्वार पर गज-लक्ष्मी, ब्रह्मा-विष्णु-महेश, गणेश, सप्तमातृका नवग्रह, द्वादश-आदित्य आदि का अंकन धरन की क्षैतिज शिला यानि सरदल पर हुआ करता है तथा दोनों उर्द्ध बाजुओं अर्थात् द्वारशाखा पर नदी देवी गंगा-यमुना सहित द्वारपाल, ऊपर विभिन्न शाखाओं, यथा- रूपशाखा, मिथुनशाखा, पत्रशाखा आदि, विभाजन होता है। फर्श पर उदुम्बर-शिला में कल्पवृक्ष या लक्ष्मी अंकित होती हैं। इन अंकनों का अभिप्राय यह है कि भक्त कल्पवृक्ष से ऊपर उठकर, प्रतिहारियों द्वारा अशुभ शक्तियों के निवारण से गर्भगृह प्रवेश की इच्छा करता है वैसे ही गंगा-यमुना (अर्थात पवित्र संगम-जल) उसका अभिषेक करती हैं और ग्रह, नक्षत्र, देव-राशि उसके पक्ष में हो जाते हैं।
मंदिरों के प्रवेश द्वार पर नदी-देवियों का अंकन गुप्त काल से आरंभ हो गया था किन्तु इस शास्त्रीय परम्पराओं में जो आंचलिक प्रयोग खरौद में हुआ है, वह पूरी भारतीय कला में दुर्लभ है। सौंराई मंदिर की द्वारशाखा के निचले लगभग तिहाई भाग मंे गंगा-यमुना हैं तो लक्ष्मणेश्वर में परम्परागत अगल-बगल के बजाय, आधे ऊपरी द्वार शाखा में नदी देवियां और निचले आधे भाग में द्वारपाल हैं और सर्वाधिक विलक्षण और दुर्लभतम उदाहरण इंदल देउल में है, जहां पूरी द्वारशाखा की लम्बाई-चौड़ाई गंगा और यमुना की मानवाकार प्रतिमाओं से पूरित है, यह भारतीय स्थापत्य का अपनी तरह का एकमात्र उदाहरण है।
ताला के मंदिर
मंदिर वास्तु की संरचना भारतीय मनीषा का ठोस और जीवन्त प्रतीक हैं। भारतीय मंदिर वास्तु का नियमित इतिहास गुप्तों के स्वर्ण युग के आरंभ होता है, उदयगिरी (विदिशा) और सांची के मंदिर के बाद क्रमिक विकास का उत्स उत्तर भारत के खजुराहो, उड़ीसा के भुवनेश्वर और दक्षिण भारत के मदुरै जैसे कला केन्द्रों में परिलक्षित होता है। हालांकि छत्तीसगढ़ क्षेत्र में आरंभिक मंदिरों का स्वरूप प्राप्त नहीं हुआ है, किन्तु प्रसिद्ध पुरातात्विक केन्द्र ताला के प्रकाश में आने के बाद स्थापत्य के क्रमिक विकास की अनहोनी और शास्त्रीय सीमा के अन्तर्गत ऐसा व्यतिक्रम उद्घाटित हुआ कि यह पूरे विश्व के प्राच्य-विद्या विशारदों को अंचभे में डाल दिया।
शिवनाथ और मनियारी नदी के संगम के निकट मनियारी बसंती संगम पर छठी सदी ई. के दो स्मारक टीले जिठानी-देवरानी, सिद्ध-बाबा और देउर नाम से जाना गया, यह अमेरीकांपा ग्राम सीमा में तालाखार में स्थित है। इस स्थल का पहला ज्ञात उल्लेख 1873-74 में मि. बेगलर ने किया। छठें दशक में पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय ने इन खण्डहरों को निजी-नोट््स में दर्ज किया। सातवें दशक में डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर ने इनकी जानकारी सार्वजनिक की। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर 1980 में अमरीकी शोधार्थी डोनाल्ड स्टेडनर ने ताला के देवरानी मंदिर का छायाचित्रों और रेखाचित्र सहित प्रकाशित कराया और इसके पश्चात प्रदेश शासन के पुरातत्व विभाग की उपलब्धियां हुई।
ताला के जेठानी मंदिर का स्थापत्य नासिक, भाजा, कार्ले के चैत्य वास्तु की झलक युक्त है। विलक्षण दक्षिणामुख इस मंदिर में पूर्व व पश्चिम से भी प्रवेश की व्यवस्था है। मंदिर में विशाल आकार के पाषाण स्थापत्य खंडों पर विविध आकृति भाव व अलंकरणयुक्त गुणों का अंकन अनूठा है। देवरानी मंदिर पूर्वाभिमुख गर्भगृह अंतराल और मुखमंडप वाली संरचना है। प्रवेश द्वार की बारीक और सूक्ष्य नक्काशी जाली का काम अत्याकर्षक है तथा द्वारशाखा पार्श्वों में कीर्तिमुखों के रौद्र भाव के लिये कोमल पुष्प-पत्रों का अभिकल्प प्रयुक्त हुआ है। रूद्र शिव की प्रतिमा आकार के साथ, विभिन्न मानवमुखों युक्त तथा जीव-जंतुओं को मुख व अंगों में प्रदर्शित किया गया है।
ताला से प्राप्त छठी सदी ई. के शरभपुरीय शासक प्रसन्नमात्र का सिक्का निश्चित तौर पर ज्ञात इस शासक का एकमात्र रजत सिक्का है। ताला प्रतिमाशास्त्र में भी गहन शोध अध्ययन की आवश्यकता है, तभी भारतीय वास्तु व कला इतिहास के इस विशिष्ट अध्याय से देश व अंचल के इतिहास का गौरव प्रतिपादन हो सकेगा।
सूर्य पुत्र रेवन्त के मंदिर की मिसाल, बेमिसाल
प्रकृति-पूजा की परम्परा, हमारे देश में आदिकाल से रही है और उसमें सूर्य की प्रखरता ने पूरे विश्व की धार्मिक भावना को चकाचौंध कर उभारा है। वेदों में सूर्य का स्थान इंद्र और वरूण के साथ तीन प्रमुख देवताओं में है।
मंदिर स्थापत्य में सूर्य के अत्यंत प्रसिद्ध मंदिर अल्प संख्या में किन्तु विभिन्न क्षेत्रों में विद्यमान हैं। उड़ीसा का कोणार्क सूर्य मंदिर, राजस्थान के बरमान और ओसियां के मंदिर, गुजरात में प्रभासपाटन के निकट तथा मोढेरा का मंदिर, कश्मीर का मार्तण्ड मंदिर और दक्षिण भारत के त्रिकूट मंदिर सूर्य के प्रसिद्ध मंदिर हैं। बिहार में देव का मंदिर भी विख्यात है तथा वहां सूर्य-षष्ठी पर सूर्य की पूजा लोक जनजीवन में रचा बसा है। मध्यप्रदेश में मंदिरों की नगरी खजुराहो में चित्रगुप्त मंदिर, वस्तुतः सूर्य मंदिर ही है। छत्तीसगढ़ क्षेत्र में भी सरगुजा जिले के डीपाडीह और रायपुर जिले के नारायणपुर में सूर्य-आदित्य के मंदिर विद्यमान हैं तथा बिलासपुर जिले के मल्हार से प्राप्त एक आकर की विविध सूर्य प्रतिमाएं, वहां द्वादश आदित्य मंदिर की प्रबल संभावना प्रकट करती है।
इस परिप्रेक्ष्य में अकलतरा के शिलालेख में एक अत्यंत दुर्लभ उल्लेख प्राप्त होता है, जो पूरे भारतीय स्थापत्य में बेमिसाल है वह है रेवन्त का मंदिर। रेवन्त के एकमात्र मंदिर के निर्माण का विवरण इस शिलालेख में मिलता है, जिसमें रेवन्त को सप्ताश्र्व (सूर्य) का पुत्र कहा गया है। मंदिर निर्माता के रूप में कलचुरि शासकों के सामंत हरिगण के पुत्र वल्लभराज का नाम मिलता है। वल्लभराज निश्चय ही कलचुरि राज्य का अत्यंत महत्वपूर्ण व्यक्ति था, क्योंकि कलचुरि शासकों के अन्य अभिलेखों में उसका नाम आया है साथ ही उसके द्वारा वल्लभसागर तालाब तथा अन्य सार्वजनिक, धार्मिक कार्य कराये जाने की जानकारी मिलती है। रेवन्त को शिल्प में अधिकतर शिकार यात्रा पर दिखाया जाता है। रेवन्त, बड़वारपी संज्ञा, जो विश्वकर्मा की पुत्री और सूर्य की सर्वप्रधान पत्नी थी, के गर्भ से उत्पन्न गुहों का अधिपति माना जाता है। पुराणों के अनुसार राजा लोग तोरण प्रान्त में प्रतिमा या घर में सूर्य पूजा की विधि के अनुसार रेवन्त की पूजा करते हैं। शिलालेख में उल्लिखित इस रेवन्त मंदिर का मूल स्थान संभवतः कोटगढ़ अथवा महमंदपुर में रहा होगा। मंदिर के प्रवेश द्वार, शिखर व अन्य स्थापत्य खंडों के साथ कोटगढ़ के द्वार पर देव-कोष्ठ में स्थापित सूर्य की प्रतिमा एकमात्र ज्ञात रेवन्त मंदिर का मुख्य अवशेष है।
छत्तीसगढ़ का स्वर्ण युग
सोमवंश का शासक, महाशिवगुप्त बालार्जुन का लगभग तेरह सौ साल पुराना इतिहास छत्तीसगढ़ का स्वर्ण युग माना जाता रहा और इस मान्यता पर मुहर लगी, जब सिरपुर से इस शासक के 27 ताम्रपत्रों (9 सेट) की निधि एक साथ मिली। किसी एक ही शासक के इतने प्राचीन ताम्रलेख इस तादाद में अब तक कहीं नहीं प्राप्त हुए हैं (विश्वसनीय जानकारी के अनुसार इस निधि में ताम्रपत्रों की संख्या इससे भी अधिक थी), यह प्राप्ति केवल संख्या की दृष्टि से ही उल्लेखनीय नहीं हैं, बल्कि यह तत्कालीन छत्तीसगढ़ के स्चर्ण युग की गौरव-गाथा का अमूल्य अभिलेख है। महाशिवगुप्त बालार्जुन, सोमवंश में उत्पन्न हुआ और वंशानुगत वैष्णव धर्म से भिन्न शैव धर्म के सोम सम्प्रदाय का अनुयायी बनकर, अपने पूर्वजों के विपरीत स्वयं को परम भागवत के बदले परम माहेश्वर कहलाने लगा, किन्तु उसके राजस्व काल में माता वासटा द्वारा बनवाया गया विष्णु मंदिर, जो अब सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर के नाम से जाना जाता है और बौद्ध आचार्यों को उसके द्वारा दिये गए दान से, उसकी धार्मिक सहिष्णुता का परिचय मिलता है।
वासटा के सिरपुर शिलालेख की प्रशस्ति, अतिशयोक्तिपूर्ण होगी, किन्तु इस महान शासक के सद्गुणों, क्षमता और शक्ति का साफ अनुमान जरूर होता है। इस शिलालेख के अनुसार ‘धर्मावतार दिखाई पड़ने वाले महाशिवगुप्तराज ने पृथ्वी को जीत लिया। यह भीष्म पितामह से भी महान होगा, पराक्रम से आचार्य द्रोण को जीतेगा, तब रण में सामना करने के लिए कौन इसके लिये समान बल वाला कर्ण बनेगा। इस प्रकार बालार्जुन को अस्त्र विद्या में सभी को जीतने वाला और कुशल मानकर शत्रुओं ने अपने जीवन की इच्छा छोड़ दी, सम्पत्ति की इच्छा तो वे पहले ही छोड़ चुके थे। कृष्ण भी इस बालार्जुन के समान नहीं थे और न ही भावी कल्कि ही इसके समान हो सकेंगे।’
महाशिवगुप्त बालार्जुन की सिरपुर ताम्रपत्र निधि के अलावा बरदुला, बोंडा, लोधिया से एक-एक तथा मल्हार से तीन ताम्रलेख, सेनकपाट और मल्हार शिलालेख के साथ-साथ सिरपुर से विभिन्न शिलालेख प्राप्त होते हैं। मल्हार (वस्तुतः जुनवानी) से प्राप्त अब तक ज्ञात उसके अंतिम 57 वें राज्यवर्ष के ताम्रलेख में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सूचनाओं सहित, अत्यंत रोचक विवरण आता है, जिसमें भूमिदान, हाथ के माप के पैमाने से दिया गया है तथा यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि हाथ का मान 24 अंगुल के बराबर होगा। संभवतः तब भी यह किस्सा प्रचलन में रहा होगा, जिसमें राजधानी सीमा में राजा द्वारा ब्राह्मण को एक खाट के बराबर भूमिदान की चर्चा होती है, किन्तु बाद में दान प्राप्तकर्ता ने खाट की रस्सी खोलकर पूरे राजमहल को घेर लिया था।
सिरपुर ताम्रपत्र निधि से मिलने वाली ऐतिहासिक जानकारी के साथ ही तत्कालीन राजधानी श्रीपुर में राज परिवार के सदस्यों द्वारा दिये गये दान का जिक्र है और यहां शैव सम्प्रदाय की अत्यंत महत्वपूर्ण शाखा का पता चलता है और विभिन्न शैव-आचार्यों की गुरू-शिष्य परम्परा के नाम यथा अघोरशिव, दीर्घाचार्य, व्यापशिवाचार्य मिलते हैं जबकि जुनवानी ताम्रलेख में सोम सिद्धांत के आचार्यों भीमसोम, तेजसोम, रूद्रसोम और सोमशर्मा जैसे नाम मिलते हैं। निःसंदेह महाशिवगुप्त बालार्जुन इन्हीं शैव-सोम सम्प्रदाय के आचार्यों से दीक्षित होकर परम माहेश्वर की उपाधि का धारक बना था।
टीप
प्राचीन इतिहास, पुरातत्व और परंपराओं को एकजुट कर अंचल को समझने के प्रयास में छत्तीसगढ़ के विभिन्न पक्षों पर मेरा यह नोट किश्तों में, कभी समग्र रूप से विभिन्न अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में छपा, जिसमें से उल्लेखनीय दैनिक भास्कर, बिलासपुर में 9 से 29 मई 1998 के बीच 20 किश्तों में छपा, इसे कुल 36 किश्त छपना था, लेकिन अटक गया। पुनः मध्यप्रदेश शासन, उच्च शिक्षा विभाग एवं मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी के समवेत उपक्रम की द्विमासिक पत्रिका ‘रचना‘ के छत्तीसगढ़ राज्य गठन के विशेष अंक, नवंबर-दिसंबर 2000 में मुख्य लेख के रूप में प्रकाशित हुआ।
पत्रिका 'बहुमत' अंक 24, मार्च 2014 में यह विशेष रूप से प्रकाशित हुआ, जिसमें कहा गया है कि- ‘वे सांस्कृतिक भूमण्डलीकरण के इस दौर में भी अपने आसपास के जनजीवन को ही रचना और विचार के केन्द्र में रखते हैं। ऐसे समय में जब आधुनिकतावाद और उत्तरआधुनिकतावाद जैसे जुमले साहित्यिक विमर्श के केन्द्र में आते जा रहे हैं जिनसे साहित्य का आम पाठक अपने आपको सम्पृक्त नहीं कर पा रहा, राहुल सिंह उस दुनिया और समाज को अपनी अभिव्यक्ति का हिस्सा बनाते हैं जो आम तौर पर किसी भी साहित्यिक बातचीत में हाशिए पर ही खड़ा दीखता है।‘