• हमारे सम्माननीय 80 पार चुके बुजुर्ग हैं शर्मा जी, पिछले दिनों तटस्थ भाव से कहा, पत्नीे बिस्तर पर हैं, मेरे सामने चली जाएं तो ठीक, हमने हंसी की, उन्होंने भी साथ दिया फिर संजीदा हुए, कहा, यदि मैं पहले गया तो उनकी देखभाल कौन करेगा। हम आपस में बात करने लगे कि उनके बच्चे बहू..., सब हैं, 'भरा-पूरा परिवार', दोनों नौकरी-पेशा, किसी और शहर, दूर देश में हैं। मां-बाप का ध्यान नहीं, अपने में ही मगन। मगर बुजुर्गों की सयानी बात। शर्मा जी कहने लगे, जिसका दाना-पानी जहां लिखा। बेटा-बहू, अपने ही बच्चों की देखभाल नहीं कर पा रहे थे सो हास्टल में दाखिला कराया है, मां-सासू मां के लिए क्या और कितना कर पाएंगे। किसी पक्ष की आलोचना की जा सकती है, लेकिन है यह वस्तुतः आज की सहज, सामान्य, स्वाभाविक परिस्थितियां।
• कुछ बरस पहले बिलासपुर में एक अखबार ने जानना चाहा कि ऐसा कौन सा सरकारी दफ्तर है, जो सबसे कम जनोपयोगी है (या जिसे बंद किया जा सकता है), इसमें अव्वल नंबर पर था पुरातत्व विभाग यानि मेरा कार्यालय। मैंने उन पत्रकार महानुभाव का पता करने की कोशिश की, प्रेस ने तो नहीं बताया लेकिन पता लग गया, वे युवा पत्रकार परिचित निकले और स्वयं पहल कर खेद व्यक्त किया। फोन पर धन्यवाद देने पर उन्हें लगा कि मैं व्यंग्य या खीझ में ऐसा कह रहा हूं। बाद में प्रत्यक्ष मुलाकात में मैंने स्पष्ट किया कि यह तो मेरे लिए अपेक्षित था, क्योंकि इस (और ऐसे अन्य सर्वेक्षण संबंधी) कार्यालय का सामान्य-जन से सीधा ताल्लुक कम ही होता है। मैं यह भी मानता हूं कि पुरातत्व-संस्कृति जैसी चीज हाशिये पर ही होनी चाहिए। मुख्य धारा में तो रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्य्य, शिक्षा, बिजली, पानी, सड़क और भू-राजस्व के साथ कानून-व्यवस्था को ही होना चाहिए। राग-रंग को हाशिये पर ही होना चाहिए। पुरातत्व-संस्कृति मुख्य धारा में आए तो इनका और समाज दोनों का बंठाधार होते देर नहीं। वैसे भी हाशिया महत्वपूर्ण, विशेष उल्लेखनीय और ध्यान देने योग्य के लिए नियत स्थान है।
• चर्चित, पुरस्कृत कलाकार-साहित्यकार सब से अच्छे न माने जाएं, लेकिन अधिकतर अच्छे कलाकार जरूर होते हैं और कुछ उदाहरणों में अनूठे और श्रेष्ठ भी। सम्मानित-पुरस्कृत कलाकारों में आमतौर पर (अन्य से अलग) अपनी कला क्षमता के साथ 'नागर समाज या मुख्य धारा' में उपयुक्त साबित हो कर हाशिये पर सुशोभित होने के लिए आवश्यक अतिरिक्त गुण (जागरूकता और उद्यम), अन्य की अपेक्षा अधिक होता है।
• विनोद कुमार शुक्ल के चर्चित उपन्यास 'नौकर की कमीज' का अंगरेजी अनुवाद, संभवतः 2000 प्रतियों का संस्करण, 'द सर्वेन्ट्स शर्ट' पेंगुइन बुक्स ने 1999 में छापा था, उन्हें 2001 में छत्तीसगढ़ शासन का साहित्य के क्षेत्र में स्थापित पं. सुंदरलाल शर्मा सम्माःन मिला। लगभग इसी दौर में एक विवाद रहा, जैसा मुझे याद आता है- पेंगुइन बुक्स ने श्री शुक्ल को पत्र लिखा कि उनकी पुस्तकें बिक नहीं रही हैं, यों ही पड़ी हैं, जिन्हें वे लुगदी बना देने वाले हैं, लेकिन श्री शुक्ल चाहें तो पुस्तक की प्रतियों को किफायती मूल्य पर खरीद कर पुस्तकों को लुगदी होने से बचा सकते हैं, यह बात समाचार पत्रों में भी आ गई। साहित्य बिरादरी, विनोद जी के प्रशंसकों, और खुद उनके लिए यह अप्रत्याशित था, प्रमाण जुटाने के प्रयास हुए कि किताब खूब बिक रही है और प्रकाशक रायल्टी देने से बचने के लिए ऐसा कर रहा है।
बहरहाल, इस भावनात्मक उबाल को मेरी जानकारी में, समय और बाजार ने जल्द ही ठंडा कर दिया और अंततः क्या हुआ मुझे पता नहीं, लेकिन लुगदी बना देने वाली बात से यह सवाल अब तक बना हुआ है कि सामाजिक-जासूसी उपन्यास, जो लुगदी साहित्य कह कर खारिज किए जाते हैं, बड़ी संख्या में छपते-बिकते और पढ़े जाते हैं, सहेज कर रखे भी जाते हैं। तब सोचें कि 'लुगदी-पल्प' मुहावरा और शब्दशः के फर्क की विवेचना से क्या बातें निकल सकती हैं। लुगदी की तरह मटमैले कागज पर छपने वाला लेखन होने के कारण लुगदी साहित्य कहा जाता है या छपने-पढ़ने के बाद जल्द लुगदी बना दिए जाने के कारण। यह निसंदेह कि प्रतिष्ठित साहित्यकार भी अधिक से अधिक बिकना चाहता है और लुगदी लेखन करने वाले, साहित्यिक बिरादरी में अपने ठौर के लिए व्यग्र दिखते हैं।