छत्तीसगढ़ में कृष्णकथा और उत्सव की अपनी परम्परा है, जिसमें भागवत कथा आयोजन, गउद के दादूसिंह जी, हांफा के पं. दुखुराम, बेलसरी वाले पं. रामगुलाम-पं.बालमुकुंद जी, पेन्ड्री के पं. बसोहर. रतनपुर वाले पंडित ननका सूर्यवंशी, सांसद रहे गोंदिल प्रसाद अनुरागी जी, विधायक रहे कुलपतसिंह जी सूर्यवंशी जैसे रासधारियों और रानीगांव आदि का पुतरी (मूर्ति) और बेड़ा (मंच, प्रदर्शन स्थल) वाला रहंस (रास), छत्तीसगढ़ का वृन्दावन कहे जाने वाले गांव नरियरा की कृष्णलीला, रतनपुर का भादों गम्मत, पं. सुन्दरलाल शर्मा की रचना छत्तीसगढ़ी दानलीला, महाप्रभु वल्लभाचार्य जी की जन्म स्थली चम्पारण, राउत नाच, दहिकांदो, कान्हा फाग गीत, रायगढ़ की जन्माष्टमी, डोंगरगढ़ का गोविन्दा उत्सव, बस्तर में आठे जगार, सरगुजा में डोल तो उल्लेखनीय हैं ही, पहले-पहल गोदना कृष्ण ने गोपियों के अंग पर गोदा, इस रोचक मान्यता का गीत भी प्रचलित है-
गोदना गोदवा लो सखियां गोदना गोदवा लो रे
मांथ में गोदे मोहन दुई नयनन में नंदलाला
कान में गोदे कृष्ण कन्हैया गालों में गोपाला।
ओंठ में गोदे आनन्द कंद गला में गोकुल चंद
छाती में दो छैला गोदे नाभी में नंदलाला।
और कृष्णकथा सहित पाण्डवों की गाथा को 'बोलो ब्रिन्दाबन बिहारीलाल की जै' से आरंभ कर 'तोरे मुरली म जादू भरे कन्हैया, बंसी म जादू भरे हे' तक पहुंचाने वाली पद्मभूषण तीजनबाई जी की पंडवानी, जैसे छत्तीसगढ़ की पहचान बन गई है।
इसकी पृष्ठभूमि में धर्म-अध्यात्म और साहित्य की भूमिका निसंदेह है, कृष्ण नाम यहां पहली बार रानी वासटा के लक्ष्मण मंदिर शिलालेख, सिरपुर से ज्ञात है- ''यः प्रद्वेषवतां वधाय विकृतीरास्थाय मायामयीः कृष्णो'' और सैकड़ों साल के ठोस प्रमाण प्राचीन शिल्प कला में तुमान, पुजारीपाली, देव बलौदा, रायपुर, गंडई, लक्ष्मणगढ़, महेशपुर, सिरपुर, तुरतुरिया, जांजगीर आदि में मूर्त हैं। प्रतिमा-शिल्पखंड का अभिज्ञान, काल, राजवंश-कला शैली उल्लेख सहित चित्रमय झांकी-
गोदना गोदवा लो सखियां गोदना गोदवा लो रे
मांथ में गोदे मोहन दुई नयनन में नंदलाला
कान में गोदे कृष्ण कन्हैया गालों में गोपाला।
ओंठ में गोदे आनन्द कंद गला में गोकुल चंद
छाती में दो छैला गोदे नाभी में नंदलाला।
और कृष्णकथा सहित पाण्डवों की गाथा को 'बोलो ब्रिन्दाबन बिहारीलाल की जै' से आरंभ कर 'तोरे मुरली म जादू भरे कन्हैया, बंसी म जादू भरे हे' तक पहुंचाने वाली पद्मभूषण तीजनबाई जी की पंडवानी, जैसे छत्तीसगढ़ की पहचान बन गई है।
इसकी पृष्ठभूमि में धर्म-अध्यात्म और साहित्य की भूमिका निसंदेह है, कृष्ण नाम यहां पहली बार रानी वासटा के लक्ष्मण मंदिर शिलालेख, सिरपुर से ज्ञात है- ''यः प्रद्वेषवतां वधाय विकृतीरास्थाय मायामयीः कृष्णो'' और सैकड़ों साल के ठोस प्रमाण प्राचीन शिल्प कला में तुमान, पुजारीपाली, देव बलौदा, रायपुर, गंडई, लक्ष्मणगढ़, महेशपुर, सिरपुर, तुरतुरिया, जांजगीर आदि में मूर्त हैं। प्रतिमा-शिल्पखंड का अभिज्ञान, काल, राजवंश-कला शैली उल्लेख सहित चित्रमय झांकी-
कृष्ण जन्म?, ईस्वी 11वीं सदी, त्रिपुरी कलचुरी |
वसुदेव-बालकृष्ण गोकुल गमन, बलराम-प्रलंबासुर, ईस्वी 12वीं सदी, रतनपुर कलचुरी |
बाललीला, कुब्जा पर कृपा, कुवलयापीड़वध, ईस्वी 10वीं सदी, त्रिपुरी कलचुरी |
कृष्णजन्म, योगमाया, पूतना वध, ईस्वी 9वीं सदी, त्रिपुरी कलचुरी |
पूतनावध, ईस्वी 18वीं सदी, मराठा |
कालियदमन, ईस्वी 13वीं सदी, फणिनागवंश |
पूतनावध, तुरंगदानव केशीवध ईस्वी 7वीं सदी, सोमवंश |
केशीवध, ईस्वी 6वीं सदी, शरभपुरीयवंश |
केशीवध, वत्सासुरवध, ईस्वी 6वीं सदी, शरभपुरीयवंश |
शकट भंजन, यमलार्जुन उद्धार-ऊखलबंधन, अरिष्ट(वृषभासुर)वध, कालियदमन, धेनुकासुरवध, कृष्ण-बलराम-अक्रूर मथुरा यात्रा, ईस्वी 10वीं सदी, त्रिपुरी कलचुरी |
गोवर्धनधारी कृष्ण, ईस्वी 13वीं सदी, फणिनागवंश |
कर्णार्जुन युद्ध, वेणुधर कृष्ण, ईस्वी 13वीं सदी, फणिनागवंश |
लिखित, वाचिक-मौखिक परम्परा, पत्थरों पर उकेरी जाकर स्थायित्व के मायनों में जड़ होती है। इन पर सर भी पटकें, पत्थर तो पत्थर। इस पोस्ट की योजना तो बना ली लेकिन ये पत्थर मेरे लिए पहाड़ साबित होने लगे। काम आगे बढ़ा, हमारे आदरणीय वरिष्ठ गिरधारी (श्री जीएल रायकवार जी) की मदद से। पथराया कला-भाव और उसकी परतें उनके माध्यम से जिस तरह एक-एक कर खुलती हैं, वह शब्दातीत होता है। कर्ण-अर्जुन युद्ध करते रहें, बंशीधर के चैन की बंसी बजती रहे। काम सहज पूरा हो गया। इस बीच एक पुराने साथी जी. मंजुसाईंनाथ जी ने जन्माष्टमी पर बंगलोर से खबर दी-
भोँपू, नारा, शोरगुल, कौवों का गुणगान।
हंगामे में खो गयी, मधुर मुरलिया तान।
लेकिन अहमदाबाद की एक तस्वीर यहां देख सकते हैं।