Friday, October 7, 2016

पोंड़ी

पूर्वजों के गांव पोंड़ीशंकर और अपने मूल निवास अकलतरा से करीबी गांव, पोंड़ी दल्हा नाम के चलते ‘पोंड़ी‘ के फेर में पड़ा हूं। टोहने-टटोलने की जरूरत न होती, इतनी मशक्कत की गुंजाइश ही कहां, जो भाषाविज्ञान आता, चुटकियों में बात बन जाती। लेकिन किसी खास सहारे बिना भेदने-बूझने की जहमत में ही तो नये रास्ते खुलते हैं।

इस तरह राह चलते किसी पोंड़ी से गुजरता या सुनता, नाम जमा कर लेता, हिसाब लगाया कि कोरिया, सरगुजा, जशपुर, रायगढ, कोरबा़, जांजगीर, बिलासपुर, कवर्धा, राजनांदगांव क्षेत्र, यानि उत्तर-मध्य छत्तीसगढ़ में पोंड़ी नामक गांवों की संख्या लगभग दो कोरी तक है। इनमें पोंड़ी-उपरोड़ा तो है ही, लुंड्रा में उपरपोंड़ी और खालपोंड़ी (खाल या खाल्ह-खाल्हे यानि नीचे) है। इसके अलावा आधा दर्जन से अधिक गांवों के नाम पोड़ी (पोंड़ी के बजाय) उच्चारण वाले हैं। छत्तीसगढ़ से बाहर निकलें तो बगल में चिल्फी घाटी के साथ एक पोंड़ी है फिर हर की पौड़ी और पौड़ी गढ़वाल का नाम किसने नहीं सुना।

पौड़ी या पौरी (ड्योढ़ी) या पोंड़ी अर्थ देता है दहलीज का यानि उदुम्बर (जिसका एक अर्थ दो तोले की तौल भी है)। एक करीबी शब्द पौढ़ना है, जिसका तात्पर्य शयन मुद्रा/लेटना या क्षैतिज होना है। उदुम्बर या उडुम्बर यानि गूलर, जिसकी लकड़ी इस काम के लिए इस्तेमाल होती थी। सामान्यतः गूलर की लकड़ी इमारती काम में नहीं आती, लेकिन इस वर्ग में भुंइगूलर (Drooping fig या Ficus semicordata), गूलर (Indian fig या Ficus Glomerata or Ficus racemosa) और खुरदुरे पत्ते वाला कठगूलर (Hairy fig या Ficus hispida) जाने जाते हैं, जिनमें से संभवतः कठगूलर ही इस इमारती काम में इस्तेमाल होता है।

उदुम्बर, शाब्दिक चौखट का वह भाग, जिसके लिए चौखट शब्द रूढ़ हो गया है, जो जमीन पर क्षैतिज टिका होता है। यही देहली और देहरी या छत्तीसगढ़ी में डेहरी (बिहार में डिहरी) हो जाता है। माना जाता है कि गंगा-यमुना दोआबे के मैदान में प्रवेश का दहलीज होने से ही देहली हो कर दिल्ली नाम आया है। उडुम्बर के उ का छत्तीसगढ़ी में लोप होकर बाकी बचे डुम्बर से सीधे डूमर बन जाता है। ड्योढ़ी, (ड्योढ़ा या डेढ़) समतल-एक तल से कुछ अधिक, ऊपर उठा हुआ, अर्थ देता है। जैसे सामान्य से कुछ अधिक होशियार बनने को ‘डेढ़ होशियार‘ कहा जाता है। छत्तीसगढ़ी में डेढ़ का खास प्रयोग रिश्ते के लिए है, डेढ़ साला। पत्नी के छोटे भाई सारा (साला) हैं और बड़े भाई डेढ़ सारा। लेकिन मजेदार कि पत्नी की छोटी बहनें तो सारी होती हैं पर पत्नी से बड़ी बहनें डेढ़ सारी नहीं, बल्कि डेढ़ सास कही जाती हैं।

माना जाता है कि शब्द के मूल की ओर बढ़ते हुए पोंड़ी-पौड़ी-पौरी या पौरि, पउरी (पांव?)-पउली-पओली-प्रतोली से आता है। ‘प्रतोली‘ का अर्थ मिलता है रथ्या, यानि रथ चलें ऐसा मार्ग, चौड़ा, प्रशस्त राजमार्ग, नगर की मुख्य सड़क आदि। लेकिन कुछ अन्य पुराने विवरणों से अनुमान होता है कि प्रतोली का करीबी अर्थ होगा- ऊंचाई लिए, दो-तीन मंजिला, मुख्य प्रवेश द्वार जैसा कुछ। अर्थ की यह ‘भिन्नता‘ अमरकोश और रामायण, महाभारत, अर्थशास्त्र के उद्धरणों में है। आइये देखें, कोई समाहार-समाधान संभव है। 

वापस पौरी पर आएं और मूल शब्द के साथ थोड़ी जोड़-तोड़ करें तो प्रतोली में ‘प्र‘ उपसर्ग आगे, सामने का अर्थ देगा और तोली- तुलना, तोलना या तौलना, जिसका अर्थ उठाना, ऊपर करना भी होता है। पौरी के करीबी पोर का अर्थ संधि यानि जोड़ ही होता है और पोल का मतलब छेद होने के कारण यह दीवार के बीच खोले गए दरवाजे के लिए प्रयुक्त होता है जैसे जयपुर का त्रिपोलिया या दूसरे पोल (दरवाजे)। छत्तीसगढ़ी में यही पोल, पोला, पोळा होते पोंडा बन जाता है। इसी तरह पोर, फोर (फूटा हुआ) बनता है, जैसे सरगुजा के रामगढ़ का हथफोर, ऐसी सुरंग जिससे हाथी गुजर जाए।

अब समेटें तो पोंड़ी के प्रतोली का ‘प्र‘ हुआ रास्ता जिसमें ऊपर उठा होने का आशय जुड़ा है, जो रास्ते के बीच बने स्थापत्य (द्वार पर) के साथ ऊंचाई का अर्थ देगा। माना भी गया है- जैसा दक्षिण भारत में ‘गोपुर‘ वैसा उत्तर भारतीय स्थापत्य में ‘प्रतोली‘। और तोलने में ऊपर उठाना तो होता ही है (उत्तोलन), चाहे वह तराजू हो या किसी वस्तु का भार अनुमान करने के लिए उसे हाथ में ले कर ऊपर उठाना। इसके साथ यह ऊंचाई (पहाड़ी) की ओर जाने का मार्ग भी संभव है। अब एक बार फिर से यहां आए शब्दों को दुहरा कर देखिए, इस रास्ते पर चल कर कहां तक पहुंच पाते हैं। यहां कुछ दाएं-बाएं के संकेत भी छोड़े गए हैं, आपके भटकने की पसंद और सुविधा का ध्यान रखते हुए। मेरे पूर्वजों ने पोंड़ीशंकर से अकलतरा तक का रास्ता नापा, और उसके पार है पोंड़ी गांव हो कर, दल्हा पहाड़ पर चढ़ने का रास्ता।

यह पोस्‍ट, शोध पत्रिका 'ज्ञान प्रवाह' के एक अंक में छपे ए.एल. श्रीवास्‍तव जी का लेख पढ़कर, बहुत दिनों से मन में खुदबुदा रही बातों का लेखा है।

Saturday, October 1, 2016

हीरालाल

डेढ़ सौ साल पहले पैदा हुए व्यक्ति को क्योंकर याद करना जरूरी हो जाता है, सिर्फ इसलिए नहीं कि वह पितरों में है, फिर भी पूरी श्रद्धा और सम्मान के साथ। 150 वीं जयंती के अवसर पर मुड़वारा-कटनी वाले रायबहादुर डा. हीरालाल की जन्मतिथि 1 अक्टूबर 1867 तक लौटते हुए देखा जा सकता है कि वे किस तरह इतिहास, पुरातत्व, जाति-जनजातियों से जुड़े, इस माध्यम से पूरे समाज की परम्परा, संस्कृति और उसकी भाषा-बोलियों में सराबोर हो कर अस्मिता, आत्म-गौरव की अभिव्यक्ति का नित-नूतन रस-संसार रचा। 67 वर्ष के जीवन सफर में इतिहास-परम्परा के न जाने कितने अनजाने-अनचीन्हे रास्तों को नाप लिया, शिक्षक से डिप्टी कमिश्नर (कलेक्टर) बनते तक अपने समकालीन परिवेश और समाज के दैनंदिन कल्याण के समानांतर, भविष्य का मार्ग प्रशस्त करते हुए। अब यह मौका है देखने का, कि उनके इंगित राह पर उनकी स्मृतियों को उंगली पकड़े हम कहां पहुंच पाए हैं।

रामकथा और मानस, भारतीय समाज में धर्म-अध्यात्म का सर्वप्रिय साधन है साथ ही साहित्य और ज्ञान-प्रकाश का स्तंभ बन कर कथावाचकों-टीकाकारों के माध्यम से 'सुराज', स्वाधीन और पराधीन के व्यापक अर्थ भी रचता है। महोबा के पास सूपा गांव की एक कलवार बिरादरी व्यापार के लिए बिलहरी आ बसी। इनमें एक, नारायणदास रामायणी हो कर पाठक कहलाए, मुड़वारा-कटनी आ बसे। इनके वंश क्रम में आगे मनबोधराम, ईश्वरदास और फिर हीरालाल हुए। शिवरीनारायण में तहसीलदार रहे 'श्यामा-स्वप्न' के रचयिता ठाकुर जगमोहन सिंह मुड़वारा मिडिल स्कूल में आए और तब तीसरी कक्षा के विद्यार्थी हीरालाल की प्रतिभा को पहचान कर बालक को संस्कृत पढ़ाने की बात शिक्षक से कही और चले गए। विद्या-व्यसनी बालक हीरालाल ने संस्कृत पढ़ने की जिद ठान ली, शिक्षक ने किसी तरह अपना पिंड छुड़ाया, लेकिन बालक हीरालाल के मन में पड़ा यह बीज आगे चलकर वट-वृक्ष बना।

शासकीय सेवा में विभिन्न दायित्वों के निर्वाह में उनकी विशेष योग्यता के अनुरूप कार्यों में संलग्न किया गया। उन्होंने शिक्षा और अकाल संबंधी काम तो किया ही, भाषा सर्वेक्षण, जाति-जनजाति अध्ययन, जनगणना और गजेटियर के लिए तैयारी करते हुए उन्होंने भाषा-साहित्य, प्राचीन इतिहास और परम्पराओं पर अतुलनीय कार्य किया। आपके सहयोग से आर.वी. रसेल ने चार खंडों में 'द ट्राइब्स एंड कास्ट्स आफ द सेन्ट्रल प्राविन्सेस आफ इंडिया' (सन 1916) तैयार किया, इसकी जानकारियां और तथ्य, प्रामाणिकता की मिसाल है। एक पुराने ताम्रपत्र के अपरिचित अक्षरों में खुदी लिपि को स्वयं के प्रयास से पहले-पहल समझ कर उसका संपादन किया, जो प्राचीन अभिलेखों की सबसे प्रतिष्ठित शोध पत्रिका 'एपिग्राफिया इंडिका' में प्रकाशित हुआ। फिर तो यह सिलसिला बन गया और वे इस शोध-पत्रिका के विशिष्ट व्यक्ति बन गए, इस क्रम में उन्होंने सन 1916 में 'डिस्क्रिप्टिव लिस्ट्स आफ इन्स्क्रिप्शन्स इन द सेन्ट्रल प्राविन्सेस एंड बरार' पुस्तक में छत्तीसगढ़ सहित मध्यप्रान्त और बरार के तब तक ज्ञात सभी प्राचीन अभिलेखों की सूची तैयार कर प्रकाशित कराया।

मैदानी छत्तीसगढ़ में नांगा बइगा-बइगिन के अलावा विभिन्न बइगा ग्राम देवता यथा- सुनहर, बिसाल, बोधी, राजाराम, तिजउ, ठंडा, लतेल आदि हैं, इन्हीं में एक सुखेन भी हैं, जिनकी पूजा-स्थापना, अब कौशिल्या माता मंदिर के लिए प्रसिद्ध ग्राम चंदखुरी में है, इस जानकारी को सुषेण वैद्य से रोचक ढंग से जोड़कर आपने शोध लेख लिखा। इसी तरह लोकनायक नायिकाओं सुसकी, मुरहा, न्यौता नाइन, गंगा ग्वालिन, राजिम तेलिन, किरवई की धोबनिन, धुरकोट की लोहारिन और बहादुर कलारिन की तरह बिलासा केंवटिन के बारे में जाना तो देवार गीत- 'छितकी कुरिया मुकुत दुआर, भितरी केंवटिन कसे सिंगार। खोपा पारे रिंगी चिंगी, ओकर भीतर सोन के सिंगी।...' का अभिलेखन कर अंगरेजी अनुवाद करते हुए शोध लेख लिखा। बीसवीं सदी के पहले दशक में प्राचीन अभिलेखों संबंधी उनके शोध लेखों से छत्तीसगढ़ और विशेषकर बस्तर का प्राचीन गौरव उजागर हुआ।

31.12.1987 को
जारी डाक टिकट
हिन्दी गजेटियर की पहल के साथ हिन्दी-सेवा का मानों मौन संकल्प आपने दुहराया। इस काम में औरों को भी जोड़ते हुए बिलासपुर जिला के सन 1910 के गजेटियर का संक्षिप्त हिन्दी स्वरूप 'बिलासपुर वैभव' के लिए प्यारेलाल गुप्त को प्रेरित किया। इसी क्रम में गोकुल प्रसाद, धानूलाल श्रीवास्तव, रघुवीर प्रसाद जैसे नाम भी जुड़े। जबलपुर से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका 'हितकारिणी' के लिए 1915-16 में ग्रामनामों पर आपके लिखे लेख 1917 में 'मध्यप्रदेशीय भौगोलिक नामार्थ-परिचय' प्रकाशित पुस्तक, स्थान नामों की पहली हिन्दी पुस्तक है, जिसमें छत्तीसगढ़ के स्थान नामों पर रोचक और सुबोध चर्चा है। वह 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी' के अध्यक्ष रहे। ''मध्यप्रान्त में संस्कृत एवं प्राकृत पाण्डुलिपियों की विवरणात्मक ग्रंथ-सूची'' संकलित की जिससे 8,000 से अधिक पाण्डुलिपियां प्रकाश में आईं। साथ ही नागपुर विश्वविद्यालय में 'हिन्दी-साहित्य परिषद' का गठन तथा स्नातकोत्तर तक के पाठ्यक्रम में हिन्दी को मान्यता दिलाने में उनकी प्रमुख भूमिका रही।

जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु‘ ने आपके निधन पर श्रद्धांजलि देते हुआ रचा- 'हीरा मध्यप्रदेश के, भारत के प्रिय लाल, कीर्ति तुम्हारी अमर है, पंडित हीरालाल।' और राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘सरस्वती‘ के लिए लिखा- 'अयि अतीत तेरे ढेले भी, दुर्लभ रत्न तुल्य चिरकाल, पर तेरा तत्वज्ञ स्वयं ही, एक रत्न था हीरालाल।'

यह लेख 1.10.2016 को
‘नवभारत‘ में प्रकाशित हुआ।

Wednesday, September 14, 2016

हिन्दी का तुक


समय-समय पर और खासकर हिन्दी दिवस के अवसर पर हिन्दी के साथ तुक मिला कर बिन्दी-चिन्दी जैसे शीर्षकों वाले लेख छपते हैं, इनमें भाषा-साहित्य की बखिया भी उधेड़ी जाती रहती है। आज रायपुर के अखबारों में एक शीर्षक है 'बाजार के जरिये विश्व भाषा बन रही है हिंदी'। हिन्दी दिवस पर 'अविरल व्यक्तित्व के धनी क्रान्तदृष्टा साहित्यकार-पत्रकार श्री रावलमल जैन 'मणि' की 108वीं कृति के प्रकाशन अवसर पर दो पेज में फैला 'विशेष' भी है। और विनोद कुमार शुक्ल से बातचीत छपी है, जिसका शीर्षक है- 'हिन्दी जनता की भाषा है' - 'और जनता से बड़ा ग्राहक कौन होगा?' इसी तारतम्य में दो बातें याद आ रही है, सैकड़ों हिन्दीे पुस्तकों के लेखक-बेस्ट सेलर सुरेन्द्र मोहन पाठक, जिनके एक उपन्यास की लगभग ढाई करोड़ प्रतियां बिकने की चर्चा दुनिया भर में हुई थी, पिछले माह एक कार्यक्रम में रायपुर आए थे और इसके साथ बेतुकी सी लग सकने वाली बात कि-

विनोद जी के चर्चित उपन्या‍स 'नौकर की कमीज' का अंगरेजी अनुवाद, संभवतः 2000 प्रतियों का संस्करण, 'द सर्वेन्ट्स शर्ट' पेंगुइन बुक्स ने 1999 में छापा था, उन्हें 2001 में छत्तीसगढ़ शासन का साहित्य के क्षेत्र में स्थापित पं. सुंदरलाल शर्मा सम्मान मिला। लगभग इसी दौर में एक विवाद रहा, जैसा मुझे याद आता है- पेंगुइन बुक्स ने श्री शुक्ल को पत्र लिखा कि उनकी पुस्त‍कें बिक नहीं रही हैं, यों ही पड़ी हैं, जिन्हें वे लुगदी बना देने वाले हैं, लेकिन श्री शुक्ल‍ चाहें तो पुस्तक की प्रतियों को किफायती मूल्य पर खरीदे जाने की व्यवस्था कर सकते हैं, यह बात समाचार पत्रों में भी आ गई। साहित्य बिरादरी, विनोद जी के प्रशंसकों, और खुद उनके लिए यह अप्रत्याशित था, प्रमाण जुटाने के प्रयास हुए कि किताब खूब बिक रही है और प्रकाशक रायल्टी देने से बचने के लिए ऐसा कर रहा है।

बहरहाल, इस भावनात्मक उबाल को मेरी जानकारी में, समय और बाजार ने जल्द ही ठंडा कर दिया और अंततः क्या हुआ मुझे पता नहीं, लेकिन लुगदी बना देने वाली बात से यह सवाल अब तक बना हुआ है कि सामाजिक-जासूसी उपन्यास, जो लुगदी साहित्य कह कर खारिज किए जाते हैं, बड़ी संख्या में छपते-बिकते और पढ़े जाते हैं, सहेज कर रखे भी जाते हैं, पुनर्प्रकाशित हो रहे हैं। सोचें कि ‍'लुगदी-पल्प' मुहावरा और शब्दशः के फर्क की विवेचना से क्या बातें निकल सकती हैं। लुगदी की तरह मटमैले कागज पर छपने वाला लेखन होने के कारण लुगदी साहित्य कहा जाता है या छपने-पढ़ने के बाद जल्द लुगदी बना दिए जाने के कारण। यह निसंदेह कि प्रतिष्ठित साहित्यकार भी अधिक से अधिक बिकना चाहता है और कथित लुगदी लेखन करने वाले, साहित्यिक बिरादरी में अपने ठौर के लिए व्यग्र दिखते हैं।

इस तारतम्य में याद आता है कि बिलासपुर के एक महानुभाव ने अपनी आत्मकथा लिख डाली और उसे छपाने का इरादा कर बैठे। कुछ दिन भटकने के बाद पाकेट बुक छापने वाली एक लोकप्रिय प्रकाशन संस्था तैयार हुई, अपनी तर्ज, शर्त-खर्च के साथ। बाजार की नब्ज समझने वाले इन लेखक को सभी शर्तें सहज-स्वाभाविक लगीं, बात तय होने को थी तभी उन्होंने इस बात की चर्चा मुझसे की। वे पांडुलिपि मुझे पढ़ा चुके थे, मैंने उनसे कहा कि इन शर्तों पर तो कोई अच्छा, प्रतिष्ठित प्रकाशक भी इसे छापने को तैयार हो सकता है। इस पर उन्होंने कहा कि स्वयं की गणना साहित्यकार में कराने की उनकी कोई रुचि नहीं है, वे तो बस यह चाहते हैं कि लोग इसे खरीदें, बस स्टैंड और रेल्वे स्टेशनों पर, सफर में पढ़ें और अपनी जिंदगी के साथ कुछ समानता पा कर थोड़ा मन बहला लें। पता चला कि कुछ महीनों बाद इस किताब का संस्करण छपने वाला है और उस प्रकाशक की फरमाइश पर वे अपनी आत्मकथा का दूसरा भाग लिख रहे हैं।

पुनश्चः और अब साहित्य नोबल पुरस्कार के लिए बाब डिलन का नाम, इस तारतम्य में उल्लेखनीय है।

Monday, August 22, 2016

त्रयी


रहस्य को भेदने का अपना आकर्षण होता है और रोमांच भी, इसलिए खतरों, चुनौतियों, आशंकाओं के बावजूद व्‍यक्ति अनदेखे, अनजाने, अंधेरे, उबड़-खाबड़ रास्तों को चुन लेता है, कुछ नया, अलग, खास, ‘बस अपना’ पा लेने के लिए, भले यह सफर 'तीर्थ नहीं है केवल यात्रा' साबित हो।

इतिहास में कालक्रम और वंशानुक्रम की सीढ़ी पर घटित जय-पराजय, निर्माण-विनाश और मलिन-उज्ज्वल कहानियों को महसूस कर सकें तो यही अनगढ़ कविता भी है। यह कविता पढ़ लिये जाने पर काल और पात्र के भेद को मिटाती, इतिहास का शुष्क विवरण न रह कर मानव-मन का दस्तावेज बन जाती है। प्राचीन इतिहास की टोही सुस्मिता, शोध-अध्येता के रूप में काल की परतों में दबे इतिहास में झांकते हुए भूत के अंधे-गहरे कुएं में थाह लगाने के पहले से उतरने को उद्यत रहती हैं और वह भी बिना कमंद के।

मानव-मन, जीवन-निर्वाह करते तर्क और खोया-पाया में ऐसा मशगूल होता है कि अपने अगल-बगल बहती जीवन धारा से किनाराकशी कर लेता है। इस धारा को स्पर्श करने या देखने का भी साहस वह नहीं जुटा पाता, इसमें उतर जाने की कौन कहे। ऐसा करना अनावश्यक, कभी बोझिल और कई बार खतरनाक जान पड़ता है, लेकिन व्यक्ति का कवि-मन बार-बार इस ओर आकृष्ट होता है। सुस्मिता की कविताएं, साहित्यिकता के दबाव से मुक्त, किसी कवि नहीं बल्कि एक ऐसे आम व्यक्ति की अन्तर्यात्रा और महसूसियत की लेखी है, जिसने इस धारा को भी समानान्तर अपना रखा है।

एक तरह का संकट यह भी है कि साहित्य की भाषा अधिक से अधिक टकसाली होने लगे और मनोभाव रेडीमेड-ब्रांडेड, जब कविताएं शब्दकोश और तुकांतकोश के घालमेल का परिणाम दिखें, ऐसे दौर में सुस्मिता की कविताओं का साहित्यिक मूल्यांकन सिद्धहस्त समीक्षक करेंगे, हो सकता है ये कविताएं 'अकवि की गैर-साहित्यिक सी रचनाएं' ठहराई जाएं लेकिन इसमें दो मत नहीं कि 'कविता में गढ़ने का उद्यम जितना कम हो और सृजन की सहज निःसृति जितनी स्वाभाविक, कविता उतनी ही ईमानदार होती है', जो इन कविताओं में है, इसलिए पाठक के लिए इनमें अपनेपन के साथ ताजगी तो है ही, गहरी उम्मीदें भी।

'एक टुकड़ा आसमां' शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियां इस तरह हैं-
छत से सूखे हुए कपड़े उतार लाते हुए
एक टुकड़ा आसमां भी तोड़ लाये हम ... ... ...
सितारे थककर एक दिन
जुगनू बनकर उड़ गए

'जामदानी' शीषर्क कविता की कुछ पंक्तियां-
घरों में उनके रोटियों के लाले हैं
हाथों में उनके सिर्फ छाले हैं
पहनने वालों को कभी न समझ आएगा
इन फूल पत्तों में छिपे कितने निवाले हैं

आज बुन रहा है वो जामदानी
दो महीने बुनने पर होगी आमदनी... ... ...
आँखों की रौशनी से नींद में उसने
मांगा सिर्फ एक वादा है
और कुछ दिन रोक ले मोतियाबिंद को
बेटे ने अब शहर का रुख साधा है

और 'हिसाब के कच्चे हैं हम (२)' शीर्षक कविता की पंक्ति है-
चाँद जोड़ा आज हमने, सूरज घटाकर
तेरे इंतज़ार में

एक कविता है- 'मन बावरा', जो पढ़ने से अधिक सुनने की है, (नाम पर ऑडियो-विजुअल लिंक है.)

सुरुचिपूर्ण छपाई वाली पुस्तक "TRIANGULAM", ISBN 978-93-5098-112-2 सुस्मिता बसु मजुमदार, राजीव चक्रवर्ती और सुष्मिता गुप्ता की क्रमशः हिन्दी, बांग्ला और अंगरेजी कविताओं का संग्रह है, उक्त टिप्पणी हिन्दी कविताओं के लिए है। इस पुस्तक में मेरे नाम का भी आभार-उल्लेेख है।

Tuesday, August 9, 2016

अखबर खान

फक्क गोरिया, कुसुवा मुहां बड़े भारी मुड़ वाला अंगरेज रहंय डांक गाड़ी के ड्रैभल, तोर-हमर जांघ बरोबर तो यंह (दोनों हाथ की तर्जनी और अंगूठे के बीच बित्ते भर का अंतर रखते), ओ कर भुजा रहय, अउ इहां ले छाती भर के लीले फुलपेंट पहिरे रहंय, गेलिस वाला। बेर बुड़तहूं, कभी टेम नइ झुकय, उड़नताल पया मेरा हबरय, तहां चिचियाय, किल्ली पारे बर धर लय, सिवनाथ पुलिया के नाहकत भर ले धडांग खडांग, गुंजा जाय पूरा इलाका।

तओ भइ गे एक दिन अखबर खान ल ताव चढ़ गे, कहिस रहि तो रे अंगरेजवा, ओतका कस के भगाथस गाड़ी ल, धन्न रे तोर पावर, फेर ओ आय तो मसीन के बल म। त मैं देखाहंव तो ल एक दिन। फेर होइस का के चिहुर पर गे पूरा इलाका म। रेस बद देहे हे मालिक ह, ओती डांक गाड़ी अउ एती ओ कर घोड़ी। अउ अपन घोड़ी म सवार मंझनिया ले आ गे पया मेरा। इलाका भर के मन्से सकलाय रहंय, इहां-उहां ले, घुंच देव रे लइका-पिचका मन, झोरसा जाहा, लाग-लुगा दिही। चिहुर मत पारो, खमोस खाओ, सब खबरदार, गाड़ी का टेम हो गया है। ऐ जी, जड़ा रस्ता छोड़के, आस्ते न धिल्लगहा। बस, धक धक धइया, तिहां ले तडांग भडांग। डांक गाड़ी पया ल नहाक ले लिस त एक घरी चुको के अखबर खान के घोड़ी ढिलाइस। गै रे बबा, पछुआही झन। इहां ले उहां, बेल्हा टेसन के हबरत ले सल्लग मन्से। कोइ टाइम नइ लगिस फैसला टुट गे। अखबर खान बेल्हा टेसन के बाहिर म हबर ले लिस, त थिरका दिस अपन घोड़ी ल। अउ लहुट के देखिस जेवनी बाजू ल, इंजिन रहय, नहीं भी त, बीस हांथ पाछू। तओ। अउ का तओ, लुआठ ल चाट ले अंगरेज। ड्रैभल दांत निपोर के हांथ हलाइस, टा टा। अउ अखबर खान घोड़ी के चुंदा ल अंगठी म खजुआत, कोरत रहय।

हं! फेर अंगरेज रहंय बात के सच्चा, कानून के पक्का। कहिस के आज ले अखबर खान के नांव के एक फस्क्लास के डब्बा लगिही डांक गाड़ी में, तिसमें उसका घर परिवार कुटुम, बेडाउस, जब चाहय, जिहां चाहय, जा आ सकत हे। लेकिन कई झन कथें कि तेहि डब्बा खाली रथे त कई बार रेलवाही के बड़े साहब मन सीट नइ पांय त ओइ म लुका के बइठे भी रथें।

मजा आ गे बबा, जोरदार किस्सा। हौ ग, फेर किस्सा नो हय, असली बात आय, सिरतो, ओ कर नांव के डब्बा ह सबूत आय, आज भी। पतियास नहीं त बेलासपुर टेसन म जा के देख लेबे, गाड़ी ठढ़ा होही तओ। हौ, हौ, अउ कस ग, घोड़ी के का नांव रिसे। वह दे, घोड़ी भाई घोड़ी, ते कर का नांव। हं, रेस के थोड़े दिन म गुजर गए रिसे। गजब सुग्घर, सात हांथ के घोड़ी, चिक्कन, फोटो बरोबर। चल जान्धर सुरता नइ आत होही त, आने कहूं ल पूछ लीहंव। अउ का ल पूछबे, हमर जंवरिहा तो रुख-राई नइए ग इलाका भर म। त कस ग बबा मन, अउ ए ह कब के बात होही, तइहा के गोठ आय ग। तभो ले कोन सन के। वो दे, चार कच्छा पढ़ का लिस तिहां ले तो ओ कर से गोठियाए के धरम नइए, तइहा के बात ए ग ते जमाना म कहां के सन पाबे, अउ कहां के संबत, हं, फेर लबारी नोहय, पतियाबे तओ।

हिंदी में कुछ यूं कह सकते हैं-
फक्क गोरे, भूरे-से, बड़े सिर वाले अंगरेज होते थे डाक गाड़ी के ड्राइवर, तुम्हारे-हमारे जंघा के बराबर तो इतना (दोनों हाथ की तर्जनी और अंगूठे के बीच बित्ते भर का अंतर रखते), उनकी भुजा होती, और यहां तक छाती तक चढ़ा फुलपैंट पहने होते, गेलिस वाला। दिन ढलते, कभी समय नहीं टलता था, उड़नताल के पुल के पास पहुंचते, शोर होने लगता, शिवनाथ पुल पार करते धड़ांग-खड़ांग पूरा इलाका गूंज जाता। 

फिर तो बस, अकबर खान को ताव आया, कहा, रुको रे अंगरेज, इतना तेज दौड़ाते हो गाड़ी को, बहुत पावर है तुम्हारा, लेकिन है तो वह मशीन के बल पर। तो मैं तुमको दिखाऊंगा एक दिन। फिर हुआ क्या कि पूरे इलाके में शोर हो गया। मालिक रेस करेंगे, उधर डाक गाड़ी और इधर उनकी घोड़ी। और अपनी घोड़ी पर सवार दोपहर से ही आ गए पुल के पास। पूरे इलाके के लोग इकट्ठा थे, यहां-वहां तक, सरक जाओ बच्चे-कच्चे, चपेट में आ जाओगे, चोट लग जाएगी। शोर मत मचाओ, खमोश रहो, सब खबरदार, गाड़ी का समय हो गया है। ए जी, रास्ता छोड़के, धीरज से, संभल के। बस, धक-धक धइया, फिर तडांग-भडांग। डाक गाड़ी पुल से निकल गई उसके बाद पल भर रुक कर अकबर खान की घोड़ी छूटी। बाबा रे, पिछड़ न जाए। यहां से वहां, बिल्हा स्टेशन तक लगातार लोग। समय नहीं लगा और फैसला हो गया। अकबर खान बिल्हा स्टेशन के बाहर पहुंच चुके, तो अपनी घोड़ी को रोका। और पीछे मुड़ कर दाहिनी ओर देखा, इंजन था, नहीं भी तो बीस हाथ पीछे। तो! और क्या तो, ठेंगा चाट ले अंगरेज। ड्राइवर खीस निपोरते हाथ हिलाया, टा टा। और अकबर खान घोड़ी के अयाल पर उंगलियां फिराते, संवारते रहे।

हां! अंगरेज थे बात के सच्चे, कानून के पक्के। कहा कि आज से अकबर खान के नाम का फस्क्लास का डब्बा लगेगा, डाक गाड़ी में, जिसमें उसका घर-परिवार, कुटुम्ब, मुफ्त बिना टिकट, जब चाहे, जहां चाहे, आ-जा सकता है। लेकिन कई लोग कहते हैं कि वह डिब्बा खाली रहता है तो कई बार रेलवे के बड़े अधिकारी, सीट न मिलने पर उसी में छिप कर बैठते भी हैं।

मजा आ गया बाबा, जोरदार किस्सा। हां! लेकिन किस्सा नहीं यह असल बात है, सचमुच, उयके नाम का डिब्बा सबूत है, आज भी। विश्वास नहीं तो बिलासपुर स्टेशन में जा कर देख लेना, गाड़ी खड़ी होगी तब। हां, हां, और क्यों भई, घोड़ी का नाम क्या था। ये देखो, घोड़ी भई घोड़ी, उसका क्या नाम। हां, रेस के कुछ दिन बाद चल बसी। बहुत सुंदर, सात हाथ की घोड़ी, चिकनी, मानों तस्वीर। ठीक है, रहने दो याद नहीं आ रहा हो तो, और किसी से पूछ लूंगा। और किसको पूछोगे, हमारे हमउम्र तो पेड़ भी नहीं इलाके भर में। तो क्यों बाबा लोग, और यह कब की बात होगी, पुरानी बात है भई। फिर भी किस सन की। ये लो, चार कक्षा पढ़ लिए फिर तो उससे बात करने का भी धर्म नहीं, पुरानी बात है। उस जमाने में कहां सन पाओगे और कहां का संवत, हां, लेकिन झूठ नहीं है, भरोसा करो तो।
सरगांव के मालगुजार अकबर खान 11 दिसंबर 1944 को जन्नतनशीं हुए, जिनके नाम पर सरगांव का अकबर खान का बाड़ा, बिलासपुर में अकबर खान की चाल और अमेरीकांपा का टुकड़ा गांव अमेरी अकबरी है, की ऐसी ढेरों कहानियां उस पूरे इलाके में चाव से सुनी-सुनाई जाती हैं, उनके और भी कई किस्से हैं, जैसे- मालगुजार अकबर खान का मुख्तियार खान मालिक रेल की पटरी के उपर सायकिल चलाता था... ... ... हाजी मोहम्मद अकबर खान देवी भक्त थे, उन पर देवी आती थी, उनके पांव में पदुम था, जिसे लात मार देते थे, उसकी बरक्कत होती थी ... ... ... अकबर खान के पास 57000 एकड़ जमीन थी, सरगांव में पथरिया के रास्ते जाने पर दाहिनी ओर 100 एकड़ रकबा वाला एक चक खेत था ... ... ... एक बार शिवरीनारायण मठ वाले ओनहारी का बोरा बिछाते गए तो मुकाबले में मलार के साव ने टक्कर ली धान के बोरे बिछाते गए तब सरगांव के अकबर खान के नगदी पैसा के बोरे बराबरी में बिछाए थे ... ... ... मृत्यु के समय उनके खजाने में सवा दो लाख रुपये नगद और चांदी की एक-एक मन की चालीस सिल्ली थी ... ... ... अकबर खान की मृत्यु बैतलपुर अस्पताल में हुई, वहां आज भी उनकी फोटो लगी है, जो उनकी एकमात्र तस्वीर है। 

हलीम खां जी से मिली जानकारी- हाजी मोहम्मद अकबर खां के पुत्र जनाब मजीद खां की डायरी के अनुसार मो. अकबर खां का निधन बैतलपुर अस्पताल में 11-12-1944, सोमवार शाम 6 बजे को हुआ, जिन्हें अगले दिन सरगांव मस्जिद में दफन किया गया। इसी डायरी के अनुसार अकबर खां के ज्येष्ठ पुत्र, बड़े सरकार, मो. मसूद खां का हिस्सा 27042.14 एकड़ तथा उनके कनिष्ठ पुत्र, छोटे सरकार, अब्दुल मजीद खां (हलीम खां जी के बाबा) का हिस्सा 19238.72 एकड़ था।

अकबर खान का बाड़ा, सरगांव 

सीत बावा-देउर, ताला के पुजेरी मूरितदास वैष्णव, खन्तहा के समारू गोंड़ और पंवसरी के मिलउ साहू से सन 1987 में सुनी कहानी, जितनी और जैसे याद रही। 15 अगस्त के आसपास अक्सर याद आती है। इन सुनी-सुनाई की होनी-अनहोनी, मैंने अपने मन का मान जस का तस रखा है।

Monday, August 1, 2016

स्थान-नाम

‘छत्तीसगढ़‘ नाम छत्तीस घर से या छत्तीस किलों के आधार पर नहीं, बल्कि कलचुरियों के मैदानी खालसा क्षेत्र के छत्तीस प्रशासनिक-राजस्व मुख्यालयों/केन्द्रों के कारण हुआ। फिर भी अन्य मतों का उल्लेख होता है और इस क्रम में सामाजिक विज्ञान के विभिन्न अनुशासन जीवन्त होते हैं। वर्तमान छत्तीसगढ़ में स्थान नामों की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय कि पिछले सौ सालों में सर्वाधिक नाम परिवर्तन शायद सरगुजा अंचल में हुए हैं। स्थान-नाम अध्ययन का आरंभ तलाशें तो हिन्दी में इसकी शुरुआत ही छत्तीसगढ़ के स्थान-नामों पर विचार के साथ हुई। रायबहादुर हीरालाल ने जबलपुर से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका हितकारिणी के लिए 1915-16 में ‘मध्यदेशीय ग्रामनाम अर्थावली‘ शीर्षक से लेख लिखे, जो 1917 में ‘मध्यप्रदेशीय भौगोलिक नामार्थ-परिचय‘ पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ। 
हितकारिणी का अंक, जिसमें रायपुर, बिलासपुर
स्थान नामों की चर्चा है.

हिन्दी में प्रकाशित स्थान-नामों की इस पहली-पहल पुस्तक में सी पी एंड बरार यानि मध्यप्रांत या मध्यप्रदेश और बरार, जिसका एक प्रमुख भाग छत्तीसगढ़ था, के विभिन्न स्थान नामों पर व्यवस्थित और सुबोध चर्चा है।

स्थान-नाम का अध्ययन भाषाविज्ञान का महत्वपूर्ण और रोचक हिस्सा है। छत्तीसगढ़ में इसके अध्येताओं में महत्वपूर्ण नाम है, प्रो. एन एस साहू। स्थान-नामों पर ‘ए लिंग्विस्टिक स्टडी आफ प्लेसनेम्स आफ द डिस्ट्रिक्ट आफ रायपुर एंड दुर्ग‘, डा. साहू का शोध प्रबंध है, अन्य संदर्भों में इसका वर्ष 1974 या 1977 उल्लेख मिलता है, लेकिन उन्होंने स्पष्ट किया कि यह शोध 1974 में प्रस्तुत किया गया था, जिस पर 1975 में डाक्टरेट उपाधि मिली। यह शोध 1989 में ‘टोपोनिमी‘ शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ है। मेरी जानकारी में छत्तीसगढ़ में इस दिशा में यह पहला शास्त्रीय अध्ययन है। डा. साहू द्वारा उपलब्ध कराई गई प्रति को देख कर लगा कि पूरे काम में विषय और शोध अनुशासन का अत्यधिक दबाव है। कई नामों की व्याख्या गड़बड़ लगती है, एक उदाहरण साजा+पाली है, जिसे लेखक ने 'डेकोर'+'शिफ्ट' से बना बताया है, जबकि साजा, वृक्ष और पाली, बसाहट का आशय अधिक मान्य होगा। साथ ही पुस्तक में कुछ चूक है। डा. साहू जैसे बापरवाह (एलर्ट और केयरफुल) अध्येता के काम में विसंगति खटकती है, जैसे रायबहादुर हीरालाल का कोई उल्लेख नहीं है, कुछ अन्य गंभीर अशुद्धियां हैं, जिसके बारे में उन्होंने बताया कि पुस्तक प्रकाशन के पूर्व उन्हें प्रूफ नहीं दिखाया गया था। मजेदार यह कि नाम पर किए गए इन शोधार्थी का पूरा नाम जानने में भी मशक्कत हुई, उन्होंने स्वयं बताया कि वह ‘एन एस‘ से जाने जाते हैं, वस्तुतः ‘नारायण सिंह‘ हैं, लेकिन मुझे कहीं उनका नाम ‘नरसिंह‘ भी मिला।

1981 में डा. चित्तरंजन कर का शोध ‘छत्तीसगढ़ के अभिलेखों का नामवैज्ञानिक अनुशीलन‘ - ‘एन ओनोमेस्टिक स्टडी आफ द इंसक्रिप्शन्स आफ छत्तीसगढ़‘ आया, अब तक यह पुस्तक रूप में मुद्रित नहीं हुई है, लेकिन 1982 में ‘नामविज्ञान‘ शीर्षक से हस्तलिखित चक्रमुद्रित (साइक्लोस्टाइल) रूप में प्रकाश में आई है। प्रकाशन का यह स्वरूप अपने आप में अनूठा और उल्लेखनीय है। इसमें शोध-प्रबंध के दृढ़ निर्धारित प्रारूप और उसकी सीमाओं के चलते बौद्धिक उपक्रम के मशीनी हो जाने की मजबूरी झलकती है, लेकिन शोध-प्रविधियों के आदर्श-पालन के फलस्वरूप शोध के अनुशासन और मर्यादा का निर्वाह अनुकरणीय है। इस अध्ययन में नामों के कई रोचक पक्ष उजागर हुए हैं, एक उदाहरण में स्पष्ट किया गया है कि शर्करापद्रक और शर्करापाटक में कैसे 'शर्करा' का आशय बदल जाता है।

1984-85 के डा. विनय कुमार पाठक के डी-लिट शोध प्रबंध से मेरा परिचय सन 2000 में ‘छत्तीसगढ़ के स्थान-नामों का भाषावैज्ञानिक अध्ययन‘ शीर्षक वाली पुस्तक के माध्यम से हुआ। उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण इस शोध में छत्तीसगढ़ की समग्रता के साथ विषय-अनुशासन और शोध-प्रविधि प्रभावशाली है। यह कार्य विचार के कई अवसर देता है लेकिन इसमें असहमतियों की भी गुंजाइश पर्याप्त है। कुछ उदाहरण- पृष्ठ 55 का ‘नार‘ वल्लरि के बजाय नाला/पतली जलधारा होना चाहिए। पृष्ठ 56 का ‘बीजा‘ बीज से नहीं बीजा वृक्ष से संबंधित होना चाहिए। पृष्ठ 65 का ‘देवर‘ रिश्ता नहीं देउर, देउल, देवल, देवालय है। पृष्ठ 67 का ‘भतरा‘, ‘भुजिया‘ खाद्य पदार्थ से नहीं बल्कि जनजातियों से और ‘करी‘ संभवतः करही वृक्ष से संबंधित है। पृष्ठ 69 का ‘गाड़ाघाट‘ जाति के अर्थ में नहीं गाड़ा वाहन आशय का होगा। पृष्ठ 70 का मानिकपुर, मानिकचौरी, भंडार कबीरपंथियों/सतनामियों से और लाख संख्यात्मक गिनती के बजाय लाखा बंजारा से संबंधित होगा। पृष्ठ 73 का जयरामनगर (पुराना नाम पाराघाट) सेठ जयरामवाल के कारण है। पृष्ठ 74 का ‘अखरा‘, लाठी चलाने का, करतब प्रशिक्षण स्थल, व्यायाम शाला, स्पष्टीकरण आवश्यक है। पृष्ठ 77-79 पर सद्गुण-संबंधी स्थान-नाम और दुर्गुण-संबंधी स्थान-नाम सूची में बड़ा, सीधा, चोरा, गुंडा, जलील आदि शब्द या आशय के ग्राम नामों पर असहमति होती हैं, जैसे मोहलई और मोहलाइन पत्तल बनाने वाले पत्ते-वनस्पति से संबंधित है न कि मोह से। चौरेल, चतुष्टय से और चोरिया मछली पकड़ने के उपकरण से तथा चूरा, चूड़ी आभूषण से संबंधित है। पृष्ठ 130 का छापर, छावनी-छप्पर के बजाय सलोनी मिट्टी के अधिक करीब है।

एक मजेदार ग्राम-नाम की चर्चा अपनी ओर से करना चाहूंगा, वह है 'बैकुंठ'। यह रायपुर-भाटापारा के बीच सेंचुरी सीमेंट कारखाना का रेलवे स्टेशन है और तीन गांवों 'बहेसर-कुंदरू-टंडवा' की जमीन संलग्न होने के कारण उनके पहले अक्षरों को जोड़ कर 'मुख-सुख' से बैकुंठ बन गया। बहरहाल, छत्तीसगढ़ के ग्राम-नामों पर हुए इन शोधों को देख कर लगा कि स्थान-नामों में आए नगर, पुर, पारा, पार, गांव के अलावा डांड, केरा, केला, पदर, पाली, नार, डोल, दा, उद, उदा, तरा, तरी, तराई, वंड, गुंडा, मुड़ा, खेड़ा, डीह, कांपा, गहन, डेरा, दादर जैसे कई शब्द हैं, जिनकी समानता अपने पड़ोसी प्रदेशों के ग्राम-नामों से है तथा उनकी भाषा से प्रभावित है, इसी तरह मसाती, दमामी, कलां-खुर्द पर भी ध्यान जाता है और केन्द्री-बेन्द्री, हिर्री-सिर्री, चेऊ-मेऊ, खोरसी-बोरसी, कल्ले-मुल्ले, चर्रा-मर्रा तुकबंद जोड़े ग्राम नाम भी कई-एक हैं, इन्हें आधार बनाना बेहतर निष्कर्ष पर पहुंचा सकता है। अंगरेजी स्पेलिंग के कारण भी ढेरों ग्राम नाम अब बदल गए हैं, ये परिवर्तन अचंभित करने वाले और मजेदार भी है- लमाइनडीह लभांडी बन गया तो जबड़ नाला, जब्बार नाला बन जाता है, डंड़हा या डाढ़ा पारा, दाधापारा हो जाता है, मांढर, मांधर बन जाता है, भंवरटांक अब भनवारटंक प्रचलित है। इस कारक का भी ध्यान रखना आवश्यक है। यह एक पूरा अध्याय हो सकता है। रायपुर-सरायपाली राष्ट्रीय राजमार्ग पर ऐसे ढेरों ग्राम-नाम नमूने देखे जा सकते हैं। ठीक (या प्रचलित) वर्तनी सहित ग्राम-नाम राजस्व नक्शों में तो है, लेकिन आसानी से उपलब्ध होने वाले मेरी जानकारी के अन्य स्रोतों में ग्राम-नाम रोमन में ही मिलते हैं।

इन अध्येताओं के स्थान-नामों की चर्चा जरूरी मानते, राय बहादुर हीरालाल, मुड़वारा (कहीं मुरवाड़ा लिखा मिलता है) से संबंधित हैं, जो रेलवे के बाद कटनी नदी के आधार पर इसी स्टेशन-जंक्शन नाम से जाना गया और अब मुड़वारा भी संलग्न किन्तु पृथक जंक्शन है। डा. एन एस साहू, सुरपा-भनसुली, जिला दुर्ग निवासी हैं। डा. चित्तरंजन कर पैकिन, सरायपाली निवासी हैं, ग्राम नाम की बात आते ही पैकिन से पदातिक, पाइक, पैदल सैनिक, पैकरा का उल्लेख करते हैं। डा. विनय कुमार पाठक का पुश्तैनी मूल स्थान मुंगेली के पास बइगाकांपा, कोंदाकांपा है, लेकिन परिवार पाठकपारा, मुंगेली में रहा और उनका जन्म-बचपन पचरीघाट, जूना बिलासपुर का है।

अध्येताओं के स्थान-नामों के साथ-साथ तीन, यथा नाम तथा गुण, ‘हीरालाल‘ का उल्लेख प्रासंगिक, बल्कि आवश्यक है। छत्तीसगढ़ी बोली-भाषा-व्याकरण की चर्चा होने पर सबसे पहले हैं- सन 1885 में छत्तीसगढ़ी का व्याकरण तैयार करने वाले धमतरी के व्याकरणाचार्य हीरालाल काव्योपाध्याय, जिनके बारे में पोस्ट छत्तीसगढ़ी में उल्लेख है। दूसरे रायबहादुर हीरालाल, जिनका जिक्र यहां है और तीसरे भाषाविज्ञानी (बघेलखंडी, छत्तीसगढ़ होते हुए अब भोपालवासी) डा. हीरालाल शुक्ल, अस्मिता की राजनीति और बस्तर में रामकथा, पोस्ट जिनसे संबंधित है।

Sunday, July 24, 2016

पुलिस मितानी


‘पुलिस की न दोस्ती अच्छी, न दुश्मनी‘ कहावत अक्सर कही जाती रहती है। कोई कथन, कहावत-रूढ़ हो जाए तो उस पर विचार भी कम होता है, तैयारशुदा, एकदम रेडीमेड जुमला जो मिल जाता है, और बात समयसिद्ध, अनुभवसिद्ध, परखी-आजमायी हुई मानी जाती है। लेकिन ‘मितान पुलिस‘ जैसे शब्द का प्रयोग हो तो इस पर फिर गौर करने की जरूरत महसूस होती है।

कहावत नसीहत के अंदाज में है, दोस्ती और दुश्मनी के लिए। किसी पुलिस वाले से दोस्ती न करें, नुकसान हो सकता है, परेशानी हो सकती है या पुलिस, दोस्ती के उपयुक्त नहीं होते और दुश्मनी भी न करें। खैर, दुश्मनी तो किसी की अच्छी नहीं, बावजूद इसके कि दुश्मन भी नादान दोस्त से बेहतर कहा जाता है, बशर्ते समझदार हो और कभी-कभी ‘प्यारा दुश्मन‘ भी होता है। यों भी किसी संस्था, जो समाज-हित के उद्देश्य से काम करती हो, से दुश्मनी कतई उचित नहीं, न इसमें कोई समझदारी है।

यानि दुश्मनी तो किसी अच्छी नहीं लेकिन दोस्ती क्यों नहीं, याद करने की कोशिश करता हूं ऐसे दोस्त-दुश्मनों को जो अब ‘पुलिस‘ हैं और उन पुलिस वालों को जिनसे दोस्ती-दुश्मनी बनी। तो क्या दोस्ती न करने की सीख इसलिए है कि हम उसका अनुचित लाभ लेंगे। कुछ लोग तो इसी बात से ही खुश रहते हैं, धाक बनी रहती है कि उनके घर के सामने पुलिस की रौब वाली, बत्ती वाली गाड़ी खड़ी होती है। कुछ को फख्र होता है कि पुलिस महकमे में उनकी आमद-रफ्त, दुआ-सलाम है।

पुलिस सेवा से जुड़े किसी व्यक्ति का व्यवहार कर्तव्यनिष्ठा का हो, अनुशासनपूर्ण हो या कठोरता का, यदि किसी के हितों के अनुकूल नहीं बैठ रहा हो तो दुहरा दिया जाता है- पुलिस की न दोस्ती अच्छी, न दुश्मनी। यह कहते हुए भाव कुछ इस तरह का होता है कि पुलिस के लोग किसी अलग दुनिया के या कुछ अलग किस्म के इन्सान होते हैं। किसी पुलिस परिवार को याद कीजिए, परिवार के लिए समय न देने की शिकायत परिवार-जन को भी बनी रहती है, न दिन-रात, न होली-दीवाली। दरअसल, किसी सार्वजनिक जिम्मेदारी की भूमिका के साथ पद-प्रतिष्ठा मिलती है तो इसकी कुछ सीमाएं और बंदिशें भी हो जाती हैं।

अमन-चैन किसे पसंद नहीं, लेकिन मानव कभी प्रवृत्तिवश तो कभी परिस्थितिवश, नियम विरुद्ध काम करता है, कानून हाथ में ले लेता है। पुलिस की छवि का एक महत्वपूर्ण उल्लेखनीय कारक यह भी है, कि ला एंड आर्डर, कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए लगातार सक्रिय रहते प्रयास-परिश्रम करना होता है, जो आमतौर पर नजरअंदाज हो जाता है और हमें अक्सर यही याद रह जाता है कि कहां चालान हुआ, लाठी लहराई, गोली बरसी।

निष्पक्ष और तटस्थ एजेंसी को निष्ठुर ठहराया जाना स्वाभाविक है, (परेशान हाल इंसान, उपर वाले को भी नहीं बख्शता, निष्ठुर-निर्मम ठहरा देता है) बल्कि उस एजेंसी की कर्तव्य-निष्ठा का प्रमाण भी है। इन सब बातों और उसके विभिन्न पक्षों पर विचार करें तो लगता है कि पुलिस, सच्चे अर्थों में अपनी भूमिका और जिम्मेदारी का निर्वाह तभी कर सकती है, जब वह किसी से दोस्ती-दुश्मनी के बिना, सबकी खैरियत के लिए काम करे, यानि वह कबीर की तरह हो- ‘कबीरा खड़ा बाजार में, सबकी मांगे खैर। ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।‘

मेरा यह लेख रायपुर से प्रकाशित ‘मितान पुलिस टाईम्स‘ पत्रिका के प्रवेशांक जनवरी-मार्च 2014 में छपा।

Monday, July 18, 2016

रामचन्द्र-रामहृदय


दुर्ग, भिलाई की छाती में तो लोहा पनीला होकर बहने लगता है फिर कला-संस्कृति की सतत्‌ प्रवाहित रसधार का उद्‌गम कैसे न हो। रामचन्द्र देशमुख और रामहृदय तिवारी, ऐसी ही दो धाराएं हैं।

रामचन्द्र देशमुख जी का 'छत्तीसगढ़ देहाती कला विकास मंडल', नाम से ही स्पष्ट है कि लोककला के विकास की मंडली थी लेकिन राष्ट्रवाद और आदर्शवाद के साथ उनकी यह पीड़ा कि 'छत्तीसगढ़ विश्व के उपेक्षित अंचलों का प्रतीक है', ने छत्तीसगढ़ के 'लोकमंचों' का स्वरूप निर्धारित किया। प्रस्तुति को उन्होंने 'नसीहत की नसीहत और तमाशे का तमाशा' कहा।

मैंने 'देवार डेरा' की पहली प्रस्तुति, तीसेक साल पहले, बघेरा में देखी थी, इसके पहले सत्तरादि दशक के शुरुआत में पामगढ़ और बलौदा में 'चंदैनी गोंदा' देखने का अवसर मिला था। भैयालाल हेड़उ का गाना 'बधिया के तेल' और दृश्य अब भी याद आता है। 'चंदैनी गोंदा फुल गे' के साथ खुमान साव का संगीत और लक्ष्मण मस्तुरिया, केदार यादव, साधना यादव की उपस्थिति हमारी पूरी पीढ़ी के लिए अविस्मरणीय है। इस क्रम में बाद में 'कारी' की शैलजा ठाकुर का भी नाम स्मरणीय है।

यह मात्र संयोग नहीं कि मैं रामहृदय तिवारी जी के बारे में पिछले कुछ सालों में ही जान पाया। इस पूरी श्रृंखला की महत्वपूर्ण कड़ी होने के बावजूद भी लोक रचनाकार की तरह उनका नाम अनजाना-सा ही रहा है। इसलिए आज न सिर्फ यह उनका सम्मान है बल्कि पूरे निर्णायक मंडल, कलाप्रेमी बिरादरी और हर छत्तीसगढ़िया के सम्मान का विषय है।

रामहृदय तिवारी जी ने 18 वीं सदी के अंग्रेज यात्री लेकी के उद्धरण - 'यहां के लागों में धार्मिक भावना की प्रबलता है। यहां की संस्कृति बड़ी सहिष्णु है। लोगों में परस्पर बंधुता की भावना है। आपसी सहयोग की भावना यहां के लोगों का मूलमंत्र है।' पर टिप्पणी की है- लेकिन मेरा कहना अब यह है कि अपनी समृद्ध संस्कृति की श्रेष्ठ विरासत का बखान बार-बार करने का फायदा ही क्या, जब आज उसकी कोई भी झलक हमारे आचरण, व्यवहार और दिनचर्या में मुश्किल से दिखाई दे।

दक्षिण भारतीय एक परिचित ने मुझे यह कहकर चौंका दिया कि लगभग साल भर यहां रहते हुए उनका छत्तीसगढ़ी से परिचय मोबाइल के रिकार्डेड संदेश और रेल्वे प्लेटफार्म की उद्‌घोषणा के माध्यम से सुना हुआ जितना ही है।

अस्मिता को जगाए-बनाए रखने के लिए गोहार और हांक लगाने का काम- अवसरवादी स्तुति-बधाई गाने वालों, माइक पा कर छत्तीसगढ़ी की धारा प्रवाहित करने वालों और उसे छौंक की तरह, टेस्ट मेकर की तरह इस्तेमाल करने वालों से संभव नहीं है।

तसल्ली इस बात की है कि छत्तीसगढ़ के लोक और उसकी अस्मिता के असली झण्डाबरदार रामहृदय तिवारी जी की तरह ज्यादातर ओझल-से जरूर है लेकिन अब भी बहुमत में हैं। छत्तीसगढ़ की अस्मिता उन्हीं से सम्मानित होकर कायम है और रहेगी।

रामचन्द्र देशमुख बहुमत सम्मान (भिलाई, 14 जनवरी 2010) के लिए रामहृदय तिवारी जी का नाम तय हुआ, विनोद मिश्र जी का आमंत्रण संदेश मिला, इस अवसर पर उपस्थित होने के लिए जाते हुए जो कुछ मन में चल रहा था, नोट कर लिया और वहां अवसर मिला तो सब से यही बांट भी लिया।

Tuesday, July 12, 2016

बलौदा और डीह


o बलौदा बाजार-भाटापारा जिले के अधिकृत पेज पर उल्लेख है कि बलौदा बाजार नामकरण के संबंध में प्रचलित किवदंती अनुसार पूर्व में यहां गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बरार आदि प्रांतों के व्यापारी बैल, भैंसा (बोदा) का क्रय विक्रय करने नगर के भैंसा पसरा में एकत्र होते थे जिसके फलस्वरूप इसका नाम बैलबोदा बाजार तथा कालांतर में बलौदा बाजार के रूप में प्रचलित हुआ। रायबहादुर हीरालाल ने इसे 'कदाचित् बलि+उद = बल्-युद से इसका नाम बलौदा हो गया हो', कहते हुए पानी न निकलने पर नरबलि का संकेत लिया था। इसी तरह उन्होंने बालोद को बाल बच्चा और उद पानी से बना मानते हुए तालाब बनाते समय बालक की बलि का अनुमान किया है।

छत्तीसगढ़ के विभिन्न मवेशी बाजारों में बलौदा बाजार महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है, इस तरह उपर्युक्त अंश के पहले हिस्से में कोई संदेह नहीं, किन्तु किंवदंती (या मान्य‍ता), कि फलस्वरूप नाम बैलबोदा बाजार फिर बलौदा बाजार हुआ, सामान्यतः और उच्चारण की दृष्टि से भी उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। वैसे बोदा का अर्थ मूर्ख, गावदी या सुस्त होता है और कमअक्ल को बैल कह दिया जाता है। अनपढ़-नासमझ के लिए 'काला अक्षर भैंस बराबर' प्रचलित है। इस तरह बैल और भैंस-बोदा दोनों शब्द आम रूप से मवेशी की तरह मठ्ठर-ठस बुद्धि वाले व्यक्ति के लिए भी इस्तेमाल होता है। उल्लेखनीय यह भी कि ठस के निकट का शब्द शठ है, जिसका अर्थ मूढ़, बुद्धू, सुस्त या आलसी है, लेकिन अन्य अर्थ चालाक, धूर्त और मक्कार भी है।

बोदा शब्द भैंसा के अर्थ में यहां अपरिचित तो नहीं लेकिन प्रचलन में आम भी नहीं है। साथ ही बोदा शब्द‍ मवेशी बाजार और उसमें आए भैंस के लिए खास तौर पर प्रयुक्त होने की जानकारी मिलती है। यह ध्यान देना होगा कि छत्तीसगढ़ में एकाधिक बलौदा हैं साथ ही बलौदी, बालोद, संजारी बालोद, बालोदगहन, बेलोंदा, बेलोंदी, बोदा, बोंदा और समानार्थी ग्राम नाम भैंसा भी है। क्या इन सभी मिलते-जुलते नामों की व्युत्पत्ति समान है? यह भी विचारणीय है कि छत्तीसगढ़ में जल सूचक उद, उदा, दा जुड़कर बने ग्राम नाम बहुतायत में हैं, जैसे- बछौद, मरौद, लाहौद, चरौदा, कोहरौदा, मालखरौदा, चिखलदा, रिस्दा, परसदा। क्या बलौदा भी 'उदा' जुड़कर बना शब्द है?

इस संयोग का उल्लेख प्रासंगिक और संधान-सहायक हो सकता है कि यहां ग्राम की बसाहट और तालाब खुदवाने के साथ मवेशी व्यापारी नायक-बंजारों की कहानियां जुड़ी हैं। बलौदा को ऐसे संदर्भों के साथ जोड़ कर देखना निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए मददगार हो सकता है। मवेशी व्यापारी बंजारों ने देश को पैदल नापा है, विभिन्न स्थानों पर भरने वाले मवेशी बाजार का क्रम, साप्ताहिक कैलेंडर तथा प्रयुक्त रास्ते पुराने व्यापारिक पथ के अन्वेषण में सहायक हो सकते हैं और बोदा शब्द ने इन बंजारों के साथ चलते हुए लंबा सफर तय किया होगा इसलिए मत-भिन्नता के साथ बलौदा बाजार नाम, इस यात्रा का पड़ाव तथा नाम-व्युत्पत्ति पर विचार का भी ठौर जरूर है।

o 'डीह' का तात्पर्य 'लोगों के बसने का ठौर-ठिकाना' जैसा कुछ होना चाहिए, लेकिन कुछ प्रयोगों में थोड़ी उत्तल (खास कर पुरानी बस्ती के उजड़ जाने के कारण) भूमि, देवस्थान, पुरानी बसाहट का स्थान जैसा भी अर्थ ध्वनित होता है। डीह से डिहरी (ऑन सोन) - डेहरी (छत्तीसगढ़ी सीढ़ी) - देहरी मिलते-जुलते शब्द हैं, जिन्हें खींचतान कर पास लाया जा सकता है, लेकिन अर्थ एक-सा नहीं। सरगुजा में कोरवा जनजाति के दो वर्ग कहे जाते हैं- डिहरिया (गांववासी) और पहाड़िया (पहाड़वासी)। सरगुजा के प्रसिद्ध पुरातात्विक स्थल डीपाडीह में डीह के साथ डीपा, संस्कृत के डीप्र (छत्तीसगढ़ी 'डिपरा') यानि ऊंचाई का समानार्थी हो सकता है। सरगुजा अंचल तथा झारखंड-उड़ीसा संलग्न क्षेत्र में भी कई ग्राम डीपा शब्दयुक्त हैं। छत्तीसगढ़ में एक अन्य प्रयोग है- डहरिया (ठाकुर), जिसका तात्पर्य संभवतः प्राचीन डाहल मंडल, गंगा और नर्मदा के बीच के क्षेत्र का अथवा कलचुरि राजवंश शासित त्रिपुरी (जबलपुर) के मैदानी प्रदेश, के निवासी है। छत्तीसगढ़ में कलचुरियों के प्रवेश का ऐतिहासिक क्रम भी तुमान होते हुए रतनपुर-रायपुर अर्थात् पहाडि़यों के रास्ते मैदान रहा है।

Monday, July 4, 2016

धरोहर और गफलत

पिछले दिनों प्रधानमंत्री जी के अमरीका प्रवास के दौरान लगभग 10 करोड़ मूल्य की कलाकृति-संपदा भारत को वापस सौंपे जाने पर, समाचारों के अनुसार, ब्लेयर हाउस में, अमेरिका सरकार और ओबामा को प्रधानमंत्री जी ने धन्यवाद दिया है, आदि। यहां स्पष्ट करना आवश्यक है कि यह धन्यवाद, हमारी औपचारिक सौजन्यता है और उदार बनते दिखने वाले उन देशों को अपराध-बोध होना चाहिए, क्योंकि उनका ऐसा करना हम पर उपकार नहीं, उनकी बाध्यता है। इस संदर्भ में यूनेस्को के ‘कन्वेन्शन आन द मीन्स आफ प्राहिबिटिंग एंड प्रिवेंटिंग द इल्लिसिट इम्पोर्ट, एक्सपोर्ट एंड ट्रान्सफर आफ ओनरशिप आफ कल्चरल प्रापर्टी 1970‘ का स्मरण आवश्यक है। इस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले दुनिया के सभी प्रमुख देशों के साथ भारत भी है।

इस कन्वेन्शन के क्रम में आगे चलकर हमारे देश में 'पुरावशेष और बहुमूल्य कलाकृति अधिनियम 1972' आया। जैसाकि इस अधिनियम के आरंभ में स्पष्ट किया गया है कि यह अधिनियम पुरावशेष तथा बहुमूल्य कलाकृतियों का निर्यात-व्यापार विनियमित करने, पुरावशेषों की तस्करी तथा उनमें कपटपूर्ण संव्यवहार के निवारण आदि अन्य विषयों के बारे में उपबन्ध करने के लिए है। पुरावशेषों के विधिवत पंजीकरण की आवश्यकता को देखते हुए 1974-75 में पूरे देश में ‘रजिस्ट्रीकरण अधिकारियों’ की नियुक्ति हुई। तत्कालीन मध्यप्रदेश के संभागीय मुख्यालयों में रायपुर और बिलासपुर सहित 10 रजिस्ट्रीकरण कार्यालय खोले गए। इन कार्यालयों के माध्यम से छत्तीमसगढ़ में लगभग 20 वर्षों तक पुरावशेषों का राज्यव्यापी नियमित सर्वेक्षण और पंजीयन का महत्वपूर्ण कार्य हुआ। फिर रजिस्ट्रीकरण कार्यालयों की भूमिका के साथ क्रमशः कार्यालय भी सीमित होते गए, लेकिन अब भी इस अधिनियम के तहत कार्यवाही की जाती है।

रजिस्ट्रीकरण कार्यक्रम के बाद प्राचीन कलाकृतियों की चोरी, तस्करी की घटनाएं नियंत्रित हुई हैं, क्योंकि यह साबित किया जा सका कि कोई पुरावस्तु हमारे देश की विरासत है और अवैध रूप से, चोरी-तस्करी से विदेश पहुंची है तो वह हमारे देश को वापस करनी होगी। ऐसे कई उदाहरणों में से एक धुबेला संग्रहालय, छतरपुर, मध्यप्रदेश से चोरी हुई ‘कृष्ण जन्म’ प्रतिमा है। धुबेला संग्रहालय के सूचीपत्र में सचित्र प्रकाशित यह प्रतिमा चोरी के लगभग 30 साल बाद न्यूयार्क गैलरी से सन 1999 में वापस लौटी। एक अन्य मामले में मंदसौर जिले के कंवला गांव से फरवरी 2000 में चोरी हुई वराह प्रतिमा न्यूयार्क में बरामद हुई और अगस्त 2006 में वापस लाई गई। इस सब के चलते अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ऐसी पुरावस्तु का कोई मूल्य नहीं, जिसका पंजीयन-अभिलेखन हो। अब स्मारकों के संरक्षण-अभिलेखन तथा पंजीकरण के बाद मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि महत्वपूर्ण पुरावशेषों का पर्याप्त अभिलेखन हो चुका है और चोरी-तस्करी होने पर उसके अपने आधिपत्य में होने के प्रमाण प्रस्तुत कर सकते हैं। लेकिन ऐसी अफवाहों और फिल्मों से बने माहौल में तस्करी से रातों-रात मालामाल हो जाने की झूठी उम्मीद से चोरी और ठगी का व्यवसाय फला-फूला है। कानून की नजरों में जो हो, लेकिन सामान्यतः ठगी भी जेबकटी की तरह मामूली अपराध माना जाता है, एक कारण शायद यह कि इसका सबूत जुटाना, साबित करना आसान नहीं होता और अक्सर कार्यवाही-सजा भी मामूली ही होती है।

लेकिन इस पृष्ठभूमि में खबर-प्रपोगेंडा से बनने वाला जनमानस, ठगी के छोटे कारोबारियों के लिए मनचाही मुराद है। हर साल 'चमत्कारी' सिक्के, मूर्ति-चोरी, ठगी, तस्करी के तीन-चार आपराधिक प्रकरण, जांच के लिए पुलिस के माध्यम से पुरातत्व विभाग में आते हैं। आम तौर पर जो सिक्के चर्चा में आते हैं उनमें हनुमान छाप, राम दरबार, धनद यंत्र अंकित, सच बोलो सच तोलो सिक्का, इस्ट इंडिया कंपनी का सन 1818 (कभी 1616, 1717 या 1919 भी) वाला, चावल को खींच कर चिपका लेने वाला, जैसे विलक्षण, चमत्कारी गुणों वाले बताये जाते हैं। ठगी करने वालों ने ऐसी संख्याओं, खासकर 1818 को 'आइएसआइ' मार्का की तरह प्राचीनता की गारंटी वाला अंक प्रचारित कर, जनमानस में स्थापित कर दिया है। पढ़े-लिखे लोग भी बातचीत में कहते हैं, 'दुर्लभ, अनूठा, बहुत पुराना इस्ट इंडिया कंपनी के जमाने का 1818 का है।' इसी तरह इनमें 'रोने वाली', 'पसीना निकलने वाली' और स्वर्णयुक्त अष्टधातु की दुर्लभ कही जाने वाली अधिकतर बौद्ध मूर्तियां होती हैं। ऐसी धातु मूर्तियां भी देखने में आई हैं, जिनकी पीठ पर 1818 खुदा होता है। ऐसी ठगी और उसकी तरकीबों पर सरसरी निगाह डालते चलें।

आमतौर पर रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, कोर्ट-कचहरी के आसपास नग, अंगूठियों के साथ ऐसे सिक्के बेचने वाले दिख जाते हैं। इन सिक्कों के माध्य‍म से ठगी करने वाले अपना जाल फैलाने के लिए देहाती-अंदरूनी इलाकों में पहले ऐसे सिक्के की तलाश करते घूमते हैं कि अमुक सिक्का किसी के पास हो तो वह उसकी मुंहमांगी कीमत देगा। थोड़े दिन बाद उसका दूसरा साथी उस इलाके में ऐसे सिक्के ले कर, चमत्कारी गुणों का बखान करते हुए ग्राहक खोजता है। सिक्के में चुम्बकीय गुण लाना तो आसान होता है, लेकिन इन्हें खींचने वाले चावल की व्यवस्था खास होती है, इसके लिए उबले चावल के दानों पर लोहे का बारीक चूर्ण चिपका कर सुखा लिया जाता है। इसी तरह मूर्तियों को भारी बनाने के लिए उसमें सीसा मिलाया जाता है और 'रोने', 'पसीने' के लिए उनमें बारीक सुराख कर मोम पिला दिया जाता है साथ ही मूर्ति की गहरी रेखाओं वाले स्थाानों पर भी मोम की पतली परत होती है। यह भी बताया जाता है कि कई बार ठगों का कोई साथी जान-बूझकर पुलिस के हत्थे चढ़ जाता है ताकि उसकी खबरों के साथ बाजार और माहौल गरम हो। विशेषज्ञों के परीक्षण से जालसाजी उजागर हो जाने पर कभी यह पैंतरा भी होता है कि पुरातत्व विभाग को लपेटते हुए इसे मिली-भगत से रफा-दफा करने का प्रयास बता दिया जाय।

पुरावस्तुओं की तस्करी और उनकी कीमत का सच उजागर करने के लिए एक उदाहरण पर्याप्त होगा। सन 1991 में छत्तीसगढ़ के प्रमुख पुरातात्विक स्थल मल्हार से डिडिनेश्वरी प्रतिमा की चोरी हुई, खबरों में कहा गया कि 'अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इसकी कीमत 12 करोड़ रुपए बताई जाती है' लेकिन इन समाचारों में यह नहीं बताया गया कि यह कीमत किसने तय की है। आपसी बातचीत में मीडिया परिचितों ने खुलासा किया कि ऐसा करना मीडिया और पुलिस दोनों के लिए माकूल होता है। बड़ी रकम यानि मीडिया के लिए बड़ी खबर और पुलिस के लिए बड़ा प्रकरण। इसका दूसरा पहलू कि यह प्रतिमा चोरी के 45 दिनों बाद बरामद कर ली गई। बरामदगी से संबंधितों के अनुसार मूर्ति बेच पाने में असफल चोरों ने अंततः इसकी कीमत 50000 रुपए, जितनी रकम वे अपने इस अभियान के लिए खर्च कर चुके थे, तय की थी, लेकिन इस कीमत पर भी कोई ग्राहक नहीं मिल सका। वांछित कीमत न मिल पाने से यह बिक नहीं सकी और पकड़ी गई।

निष्कर्षतः, कलाकृतियों की देश वापसी पर औपचारिक आभार के साथ अन्य ऐसे पुरावशेष, जिनसे संबंधित हमारे आधिपत्य अभिलेख हैं, वापस लाने का उद्यम और पुरावशेषों के मूल्य का अनधिकृत निर्धारण/घोषणा और इस संबंधी अफवाहों पर कठोर नियंत्रण आवश्यक है।

इस लेख का एक अंश
इस तरह प्रकाशित हुआ था।







Sunday, June 26, 2016

अस्सी जिज्ञासा

जिज्ञासा, मौलिक हो तो निदान के लिए किसी और की मदद ही ली जा सकती है, क्योंकि समाधान तो तभी होता है, जब जवाब खुद के मन में आए। इसीलिए प्रश्नों के उत्तर तो दूसरा कोई दे सकता है, लेकिन जिज्ञासा शांत नहीं कर पाता। संस्कृत का किम् या हिन्दी ‘ककारषष्ठी’ यानि कौन, कब, कहां, क्या, कैसे, किस इन सभी प्रश्नों का उत्तर मिल जाने पर भी जानना बाकी रहे, वही जिज्ञासा है। फिर भी प्रश्नोत्तरी होती है, कभी स्वाभाविक, लेकिन अक्सर गढ़ी हुई। नचिकेता, यक्ष-प्रश्न, मिलिन्द पन्ह, विक्रम-वेताल, जेन गुरु-शिष्य वार्तालाप से हिन्द स्वराज तक। सवाल का जवाब न हो फिर भी उसका चिंतन-सुख समाधान से कम नहीं। गुड़ गूंगे का और जुगाली चुइंगम सी। यह हुआ विषय प्रवेश, अब प्रसंग...

पिछले दिनों बनारस-प्रवास का एक सबेरा अस्सी घाट पर बीतना था, बीता। गंगाजी और काशी। प्रकृति और संस्कृति का प्रच्छन्न, सभ्यता-प्रपंच के लिए अब भी सघन है, सब कुछ अपने में समोया, आत्मसात किया हुआ। मन-प्राण सहज, स्व-भाव में हो तो यहां माहौल में घुल कर, सराबोर होते देर नहीं लगती। अनादि-अनंत संपूर्ण। समग्र ऐसा कि कुछ जुड़े, कुछ घटे, फर्क नहीं, उतना का उतना। बदली से सूर्योदय नहीं दिख रहा, बस हो रहा है, रोज की तरह, रोज से अलग, सुबहे-बनारस का अनूठा रंग। कहा जाता है, अवध-नवाब के सूबेदार मीर रुस्तम अली बनारस आए और अलस्सुबह जो महसूस किया वह लौट कर नवाब सादात खां को बयां किया। अब की नवाब साहब बनारस आए, सुबह हुई और बस, नवाब साहब फिदा-फिदा। उन्हीं की ख्वाहिश से शामे-अवध के साथ सुबहे-बनारस जुड़ गया। इस बीच शबे-मालवा छूटा रह जाता है, लेकिन इस भोर में महाकाल का अहर्निश है, सब समाहित, घनीभूत लेकिन तरल, प्रवहमान। और यहां घाट पर नित्य सूर्योदय-पूर्व से आरंभ। संगीत, योग, आरती-हवन।

मंच के बगल में मेज पर कुछ पुस्तकें लेकर युवक बैठा है। मैं किताबें अलट-पलट रहा हूं। ग्राहक हूं या दर्शक, वह निरपेक्ष। संगीत सम्पन्न हुआ और योग आरंभ। अनुलोम-विलोम और भस्त्रिका के बीच वह युवक मेरे सवालों का जवाब भी दे रहा है। कुछ किताबें छांट लेता हूं, वह प्राणायाम अभ्यास करते बिल बनाता है। व्यवधान, मेरे-उसके न लेन में, न देन में। सहज जीवन-व्यापार। और खरीदी किताबों के साथ में ‘बुढ़वा मंगल 2016, वाराणसी का अप्रतिम जलोत्सव’ स्मारिका मिल जाती है, 'कम्प्लीमेंट्री'।

स्मारिका में 'अज्ञ-विज्ञ संवादः' है, जिसे ‘बुढ़वा मंगल पर आम आदमी से बातचीत’ कहा गया है। कुछ अलग तरह की प्रश्नोत्तरी, उलटबासी। इसमें विज्ञ प्रश्नकर्ता है, अज्ञ जवाब दे रहा है। विज्ञ, हर सवाल के जवाब में तात्कालिक-कामचलाऊ निष्कर्ष निकालता है और अज्ञ उसे खारिज-सा करता आगे बढ़ता है। आखिर बुढ़वा मंगल की रस सराबोर, इतिहास-निरपेक्ष लंबी सांस्कृतिक परंपरा को शब्दों से मूर्त कर किसी विज्ञ (अरसिक प्रश्नकर्ता) को समझाना कैसे संभव हो। वार्तालाप में अज्ञ, बुढ़वा मंगल में क्या-क्या होता था गिनाते हुए यह भी कहता है, 'जाने क्या-क्या होता था।' फिर विज्ञ पूछता है 'इसके अलावा भी कुछ होता था?', अज्ञ जवाब देता है- 'अरे भाई, असली चीज तो वही 'कुछ' है।' आखिरी सवाल के बाद अज्ञ को इतनी बातें बताने के लिए विज्ञ धन्यवाद देता है, इस पर अज्ञ जवाब देता है- 'अरे हम क्या बतायेंगे, आप पत्रकार, पूछकार से ज्यादा जानते हैं क्या?, खैर चलते हैं' ...। चलन यही हो गया है, स्थानीय जानकार सूचक-अज्ञ है और चार लोगों से पूछ, इकट्ठा कर सजाई सूचना को परोस देने वाला विज्ञ-विशेषज्ञ। एक सूचना अपनी तरफ से जोड़ते चलें, बनारसियों को शायद खबर न हो कि रीवांराज-बघेलखंड में भी बुढ़वा मंगल का उत्साह कम नहीं होता।

अस्सी पर औचक मिली इस स्मारिका को तीर्थ का दैवीय-प्रसाद मान, जिज्ञासा ले कर लौटा हूं। विषय-क्रम में इस ‘अज्ञ-विज्ञ संवादः’ के साथ किसी का नाम नहीं दिया गया है। जिज्ञासा हुई, यह संवाद किसने रचा है, किसका कमाल है, ऐसी योजनाबद्ध बनारसी बारीकी और सूझ का छोटा-सा, लेकिन चकित कर देने वाला नमूना, बतर्ज होली प्रसंग पर भारतेन्दु रचित 'संडभंडयोः संवादः'। संपादक-मंडल से संपर्क का प्रयास किया, जवाब गोल-मोल मिला। अनुमान हुआ कि यह भंगिमा डा. भानुशंकर मेहता जैसी है, लेकिन वे तो अब रहे नहीं, किसी ने सुझाया राजेश्वर आचार्य हो सकते हैं या कोई और शायद अजय मिश्र या धर्मशील चतुर्वेदी या...। मनो-व्यापार इसी तरह भटकता चलता है, चल रहा है। अमूर्त दैवीय जिज्ञासा, जिसमें ठीक-ठीक यह भी पता न हो कि जानना क्या है- इस संवाद का रचयिता? बुढ़वा मंगल? या अस्सी घाट पर काशी-भोर की बदराई धुंधलकी स्मृति से झरते रस और उसमें डूबते-उतराते अहम् को? चुइंगम-जुगाली, गूंगे का गुड़। यथावत कायम जिज्ञासा। दुहरा कर पढ़ता हूं आंवला चबाए जैसा, और चिंतन-सुख, बार-बार पानी की घूंट की तरह, फिर समाधान की परवाह किसे।

लौटकर आया तो किसी ने पूछा, कैसा है मोदी जी का बनारस?, क्या जवाब दूं, इस नजर से देखना तो रह गया, ऐसे सवाल के जवाब के लिए अगली बार चक्कर लगा तो भी बात शायद ही बन पाए।

सूझ, नासमझी की उपज है और सूझ जाए तो अपनी नासमझी पर हंसी आती है, लेकिन ज्यों ही माना कि सूझ गया, बस और कुछ समझने की गुजाइश खत्म... ... ... यह जिज्ञासा, मेरी समझी नासमझी का लेखा।

यों ही सा-
बनारस निवासी एक परिचित मुझसे पूछ रहे हैं कि मेरा शहर बनारस से कितनी दूर है। समझ नहीं पाया कि वह मुझसे क्यों पूछ रहे हैं, क्योंकि ठीक यही सवाल उनसे मेरा भी हो सकता है, या मेरा सीधा जवाब, जो उन्हें आहत कर सकता है, कि बनारस से मेरा शहर उतनी ही दूर है, जितना मेरे शहर से बनारस। मजे की बात, यह जानते हुए कि हम बस फोन पर बात कर रहे हैं, करते रहेंगे, हम दोनों को कहीं आना-जाना नहीं है। फिर भी सोचता हूं कि बनारसी बंधु इस तरह सवाल क्यों कर रहे हैं, शायद यह सोचते कि तथ्य-आंकड़े ही सब कुछ नहीं होते, या ऐसा भी नहीं कि गूगल का भरोसा कर कभी कोई रास्ता न भटका हो। यह भी याद आता है कि मैंने कभी उस इलाके में किसी स्थान की दूरी पूछी थी, तो बताया गया था- बत्तीस रुपिया टिकट, मानों दूरी की इकाई रुपिया हो। तो शायद बंधु पूछ रहे हैं कि रास्ता कैसा है। ट्रेन सुविधाजनक होगा या बस। सड़क की हालत कैसी है और लूटमार वाली खबरें आती रहती हैं, वह क्या है। कितना समय लगेगा और टिकट कितना। या फिर बनारस को वे अपना 'शून्य मील का पत्थर', जो लोक निर्माण विभाग के विश्राम गृह के सामने लगा होता है, क्योंकि दूरियों का विस्तार-संकोच, सड़कों की रचना, यहीं से शुरू होती है। इसी पर 'तीर्थ नहीं है केवल यात्रा...।' मानों सृष्टि का आरंभ बनारस से, प्रत्येक जीव का विश्राम गृह।

Monday, June 20, 2016

देश, पात्र और काल


देश- अकलतरा, छत्तीसगढ़, अक्षांश- 22.0244638 उत्तर, देशांतर- 82.42381219999993 पूर्व, जो पात्र- राहुल कुमार सिंह (जैसा कहने का चलन है, इस नाचीज बन्दे) का गृहग्राम है और काल- सन 2016 का जून माह, इन दिनों।

'अकलतराहुल', अकलतरा और राहुल की संधि-सा, लेकिन यहां 'अकल-त-राहुल', आशय 'राहुल की समझ' है और गढ़ा इसलिए गया कि विशिष्ट शब्द होने के कारण गूगल खोज में आसानी से मिल जाए।

देश-पात्र-काल, जातक की जन्म-कुंडली, कभी कहानी, कभी इतिहास, लेकिन इरादा कि यह सब गड्ड-मड्ड करते अकलतरावासी राहुल का पढ़ा-देखा-सुना, समझा-बूझा महीने-महीने यहां आता रहे। वैसे कुल-जमा मन में तो बस सुमिरन है, लेकिन...

माला तो कर में फिरै, जीभि फिरै मुख माहिं।
मनवा तो चहुं दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहीं।।

o वर्णमाला का ''आरंभ - अ'' से और लगभग ''समापन - स'' से।
मेरी मां के नाम का आद्याक्षर 'अ' और पिता का 'स'।
मेरे आत्मीेय अशोक, अनूप, अनुज, आशुतोष, अनुभव, अपूर्व, अनंत, अनुपम, अभिषेक, अनिल, अमित, अजीत, आनंद, अंबुज, अखिलेश, असीम, आगत, अमितेश, आलोक, अरविंद आदि और सम्माननीय अधिकतर महिलाओं के आद्याक्षर 'स या श'।
आकस्मिक या संयोग मात्र।
इनमें जो शामिल नहीं वे आत्मीय अधिकतर में नहीं या इस संयोग के अपवाद हैं।

o खुद चाहे भटकते रहें और अपनी राह न सूझती हो, न खोज पाएं, लेकिन कई बार लगता है कि ऐसी बातों से किसी को राह मिल सकती है। इस 'चिंतन-संधान' से जग वंचित न रह जाए (स्माइली)। 'सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई।'

किसी की बराबरी का प्रयास न किया कभी, न अपने बराबर माना किसी को। यह किसी को विनम्रता लगती है, किसी को अभिमान। लेकिन चाहता हूं ऐसा सहज निभता चले।

पचपन पार करने के बाद 35-40 वाला तो गबरू जवान लगता है, तो कभी लगता है कि सठिया तो नहीं रहे हें, लेकिन देना-पावना का हिसाब लगाने की उम्र तो हो ही गई है और अब अपने बारे में कई धारणाएं पक्की होने लगती हैं, अब वह मान लेने में हर्ज नहीं, संकोच नहीं होता, जिससे पहले मन ही मन लुका-छिपी होती रहती थी। और सोच की पारदर्शिता जब स्व से सार्वजनिक होने लगे तो थोड़ा सेंसर जरूरी हो जाता है, लेकिन उसमें अपनी दृष्टि, महसूसियत और अभिव्यक्ति के स्तर पर ताजगी हो, हां! वह सप्रयास क्रांति वाली न हो।

याददाश्तत बहुत अच्छी हो तो संस्मरण लिखना कितना मुश्किल होगा। रचना-रस और शायद सार्थकता भी तभी, जब यह 'क्या‍ भूला, क्या याद किया' के असमंजस सहित हो।

o नारायण दत्त, (पूरा नाम- होलेनर्सीपुर योगनरसिम्हम् नारायण दत्त), पठन-पाठन में मुझे प्रभावित करने वाले, विचार-व्यवहार और तालमेल वालों में पहला नाम है, नवनीत हिन्दी डाइजेस्‍ट के संपादक और उनके कुछ लेखों के माध्यम से परिचित हूं। फिर लेखक-साहित्यकारों में हिन्दी को खास ढंग से समृद्ध करने वाले कुबेरनाथ राय, हजारी प्रसाद द्विवेदी, मनोहर श्याम जोशी, विद्यानिवास मिश्र, शिवप्रसाद मिश्र रुद्र काशिकेय, रेणु, कृष्ण बलदेव वैद, निर्मल वर्मा ... ... ... बौद्ध पढ़ना हो तो भदंत आनंद कौसल्यायन और जैन के लिए नाथूराम प्रेमी...

o इस महीने नारायणपुर-नवागढ़ मार्ग पर गांव संबलपुर (जिला बेमेतरा, छत्तीेसगढ़) से गुजरते हुए श्रीमती कदमबाई बंजारे से मुलाकात हुई, उन्होंने बताया कि पिछले बारह वर्षों से रहंस का ग्यारह दिवसीय आयोजन, चैत्र नवरात्रि में यहां कराती हैं। समाज की सहमति-असहमति के बीच पूरे गांव से सहयोग ले कर। मूर्तिकार खम्हइया, ग्वालपुर आदि से आते हैं और व्यास महराज तोताकांपा के श्री मिलू, दर्रा के श्री बैदनाथ, और भी कई हैं। रहंस के बाद गणेश मूर्ति ठंडा कर दी जाती है, बाकी अपने-आप घुरती है, अभी बची हैं इसलिए यहां, चौक के पास कुंदरा छा लिया है, घर के काम निपटा कर यहां आ जाती हैं।

o विशेषज्ञ, किसी वस्तु/विषय को देखते ही निष्कर्ष पर पहुंच जाता है, यों कहें कि गणित की कोई पहेली हो औैर गणितज्ञ को उसे- जबकि, तो, इसलिए, माना कि... जैसे चरणवार बढ़ते-सुलझाते और उसे अभिव्यक्त करने के बजाय सीधे हल पर पहुंच जाए, विशेषज्ञ के लिए आसान होता है, लेकिन यह औरों के लिए पहेली में चमत्कार जैसा हो जाता है।

अनाड़ी, कदम-दर-कदम ठिठकते-भटकते, असमंजस सहित आगे बढ़ता है, सभी सीखे तौर-तरीकों को आजमाते और उसके बरत सकने की खुद की काबिलियत को जांचते, एक से दूसरे उपाय पर जाते, कांट-छांट, यानि पूरी चीर-फाड़, विश्लेषण सामने प्रकट रखते।

अनाड़ी-नौसिखुआ के हाथों पड़कर कोई वस्तु/विषय बेहतर खुल सकता है। अनाड़ी के हल में अन्य का प्रवेश-निकास आसानी से हो सकता है, विशेषज्ञ का हल कवचयुक्त, व्याख्या-आश्रित होता है।

Thursday, March 17, 2016

सोनाखान, सोनचिरइया और सुनहला छत्तीसगढ़

'अमीर धरती के गरीब लोग' जुमला वाले छत्तीसगढ़ का सोनाखान, अब तक मिथक-सा माना जा रहा, सचमुच सोने की खान साबित हुआ है। पिछले दिनों सोनाखान के बाघमड़ा (या बाघमारा) क्षेत्र की सफल ई-नीलामी से छत्तीसगढ़, गोल्ड कंपोजिट लाइसेंस की नीलामी करने वाला पहला राज्य बन गया है। बलौदाबाजार जिले के सोने की खान, बाघमड़ा क्षेत्र 608 हेक्टेयर में फैला है और आंकलन है कि यहां लगभग 2700 किलो स्वर्ण भंडार है। इस क्षेत्र का एक्सप्लोरेशन 1981 में आरंभ किया गया था और मध्य भारत के इस महत्वपूर्ण और पुराने पूर्वेक्षित क्षेत्र के साथ, अधिकृत जानकारी के अनुसार, रोचक यह भी कि इस क्षेत्र में प्राचीन खनन के चिह्न पाए गए हैं। इसके अलावा मुख्यतः कांकेर, महासमुंद और राजनांदगांव जिला भी स्वर्ण संभावनायुक्त है।
बाघमड़ा (या बाघमारा) गांव के पास की पहाड़ी की वह छोटी गुफा,
जिसे स्‍थानीय लोग बाघ बिला यानि बाघ का बिल या निवास कहते है,
माना जाता है कि इसी के आधार पर गांव का नाम बाघमड़ा पड़ा है.
चित्र सौजन्‍य- डॉ. के पी वर्मा
इस सिलसिले में छत्तीसगढ़ के कुछ महत्वपूर्ण स्वर्ण-संदर्भों को याद करें। मल्हार में ढाई दिन तक हुई सोने की बरसात से ले कर बालपुर में पूरी दुनिया के ढाई दिन के राशन खर्च के बराबर सोना भू-गर्भ में होने की कहानियां हैं। दुर्ग जिले में एक गांव सोनचिरइया है तो सोन, सोनसरी, सोनादुला, सोनाडीह, सोनसिल्ली, सोनभट्ठा, सोनतरई, सोनबरसा जैसे एक या एकाधिक और करीब एक-एक दर्जन सोनपुर और सोनपुरी नाम वाले गांव राज्य में हैं। कुछ अन्य नाम सोनसरार, सोनक्यारी हैं, जिनसे स्वर्ण-कणों की उपलब्धता वाली पट्‌टी का अर्थ ध्वनित होता है और दुर्गुकोंदल का गांव सोनझरियापारा भी है, जिसका स्पष्ट आशय सोनझरा समुदाय की बसाहट का है।

छत्तीसगढ़ के सोनझरा, अपने सूत्र बालाघाट और उड़ीसा से जोड़ते हैं। एक दंतकथा प्रचलित है, जिसमें कहा जाता है कि पार्वती के मुकुट का सोना, इन सोनझरों के कारण नदी में गिर गया था, फलस्वरूप इनकी नियति उसी सोने को खोजते जीवन-यापन की है। जोशुआ प्रोजेक्ट ने छत्तीसगढ़ निवासियों को कुल 465 जाति-वर्ग में बांटा है। इसी स्रोत में देश की कुल सोनझरा जनसंख्या 17000 में से सर्वाधिक उड़ीसा में 14000, महाराष्ट्र। में 1500, मध्यप्रदेश में 400 और छत्तीसगढ़ में 700 बताई गई है।
सुनहली महानदी 
चित्र सौजन्‍य- श्री अमर मुलवानी
मुख्यतः रायगढ़ और जशपुर के रहवासी इन सोनझरों का काम रेत से तेल निकालने सा असंभव नहीं तो नदी-नालों और उसके आसपास की रेतीली मिट्‌टी को धो-धो कर सोने के कण निकाल लेने वाला श्रमसाध्य जरूर है। इन्हें महानदी के किनारे खास कर मांद संगम चन्दरपुर और महानदी की सहायक ईब और मैनी, सोनझरी जैसी जलधाराओं के किनारे अपने काम में तल्लीन देखा जा सकता है। बस्तर की कोटरी, शबरी और इन्द्रावती नदी में बाढ़ का पानी उतरने के बाद झिलमिल सुनहरी रेत देख कर इनकी आंखों में चमक आ जाती है। इन्हें शहरी और कस्बाई सराफा इलाकों की नाली में भी अपने काम में जुटे देखा जा सकता है।
सोनझरा महिला के कठौते में सोने के चमकते कण
चित्र सौजन्‍य- श्री जे आर भगत
सोना झारने यानि धोने के लिए सोनझरा छिछला, अवतल अलग-अलग आकार का कठौता इस्तेमाल करते हैं। इनका पारंपरिक तरीका है कि जलधाराओं के आसपास की तीन कठौता मिट्‌टी ले कर स्वर्ण-कण मिलने की संभावना तलाश करते हैं, इस क्रम में सुनहरी-पट्‌टी मिलते ही सोना झारते, रास्ते में आने वाली मुश्किलों को नजरअंदाज करते, आगे बढ़ने लगते हैं। ऐसी मिट्‌टी को पानी से धोते-धोते मिट्‌टी घुल कर बहती जाती है और यह प्रक्रिया दुहराते हुए अंत में सोने के चमकीले कण अलग हो जाते हैं।

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मिथक-कथाएं, अक्सर बेहतर हकीकत बयां करती हैं, कभी सच बोलने के लिए मददगार बनती हैं, सच के पहलुओं को खोलने में सहायक तो सदैव होती हैं। वैदिक-पौराणिक एक कथा है राजा पृथु वाली और दूसरी, मयूरध्वज की। पृथु को प्रथम अभिषिक्त राजा कहा गया है, यह भी उल्लेख मिलता है कि इसका अभिषेक दंडकारण्य में हुआ था। यह पारम्परिक लोकगाथाओं से भी प्रमाण-पुष्ट हो कर सच बन जाता है, जब देवार गायक गीत गाते हैं- ''रइया के सिरजे रइया रतनपुर। राजा बेनू के सिरजे मलार।'' यानि राजा (आदि राजा- पृथु?) ने रतनपुर राज्य की स्थापना की, लेकिन मल्हार उससे भी पुराना उसके पूर्वज राजा वेन द्वारा सिरजा गया है।

पृथु की कथा से पता लगता है कि उसने भूमि को कन्या मानकर उसका पोषण (दोहन) किया, इसी से हमारे ग्रह का नाम पृथ्वी हुआ। वह भूमि को समतल करने वाला पहला व्यक्ति था, उसने कृषि, अन्नादि उपजाने की शुरूआत करा कर संस्कृति और सभ्यता के नये युग का सूत्रपात किया। इसी दौर में जंगल कटवाये गए। कहा जाता है कि सभ्यता का आरंभ उस दिन हुआ, जिस दिन पहला पेड़ कटा (छत्तीसगढ़ी में बसाहट की शुरुआत के लिए 'भरुहा काटना' मुहावरा है, बनारस के बनकटी महाबीरजी और गोरखपुर में बनकटा ग्राम नाम जैसे कई उदाहरण हैं।) और यह भी कहा जाता है कि पर्यावरण का संकट आरे के इस्तेमाल के साथ शुरू हुआ।

बहरहाल, एक कथा में गाय रूप धारण की हुई पृथ्वी की प्रार्थना मान कर, उसके शिकार के बजाय पृथु ने उसका दोहन किया, (मानों मुर्गी के बजाय अंडों से काम चलाने को राजी हुआ)। भागवत की कथा में पृथु ने पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुई सकल औषधि, धान्य, रस, रत्न सहित स्वर्णादि धातु प्राप्त करने की कला का बोध कराया। राजकाज के रूपक की सर्वकालिक संभावना वाली इस कथा पर जगदीशचन्द्र माथुर ने 'पहला राजा' नाटक रचा है।

मयूरध्वज की कथा जैमिनी अश्वइमेध के अलावा अन्य ग्रंथों में भी थोड़े फेरबदल से आई है। कथा की राजधानी का नाम साम्य, छत्तीसगढ़ यानि प्राचीन दक्षिण कोसल की राजधानी रत्नपुर से है और अश्वमेध के कृष्णार्जुन के युद्ध प्रसंग की स्मृति भी वर्तमान रतनपुर के कन्हारजुनी नामक तालाब के साथ जुड़ती है। कथा में राजा द्वारा आरे से चीर कर आधा अंग दान देने का प्रसंग है। रेखांकन कि पृथु और मयूरध्वज की इन दोनों कथाओं का ताल्लुक छत्तीसगढ़ से है।

मयूरध्वज की कथा का असर यहां डेढ़ सौ साल पुराने इतिहास में देखा जा सकता है। पहले बंदोबस्त अधिकारी मि. चीजम ने दर्ज किया है कि अंचल में लगभग निषिद्ध आरे का प्रचलन मराठा शासक बिम्बाजी भोंसले के काल से हुआ और तब तक की पुरानी इमारतों में लकड़ी की धरन, बसूले से चौपहल कर इस्तेमाल हुई है। परम्परा में अब तक बस्तर के प्रसिद्ध दशहरे के लिए रथ निर्माण में केवल बसूले का प्रयोग किया जाता है। अंचल में आरे का प्रयोग और आरा चलाने वाले पेशेवर को, लकड़ी का सामान्य काम करने वाले को बढ़ई से अलग कर, 'अंरकसहा' नाम दिया गया है और निकट अतीत तक आवश्यकता के कारण, उनकी पूछ-परख तो थी, लेकिन समाज में उनका स्थान सम्मानजनक नहीं था।

कपोल-कल्पना लगने वाली कथा में संभवतः यह दृष्टि है कि आरे का निषेध वन-पर्यावरण की रक्षा का सर्वप्रमुख कारण होता है। टंगिया और बसूले से दैनंदिन आवश्ययकता-पूर्ति हो जाती है, लेकिन आरा वनों के असंतुलित दोहन और अक्सर अंधाधुंध कटाई का साधन बनने लगता है। यह कथा छत्तीसगढ़ में पर्यावरण चेतना के बीज के रूप में भी देखी जा सकती है।

सोनझरा की परंपरा और पृथु, मयूरध्वज की कथाभूमि छत्तीसगढ़, स्वर्ण नीलामी वाला पहला राज्य है। पहल करने में श्रेय होता है तो लीक तय करने का अनकहा दायित्व भी। इन कथा-परंपराओं के बीच सुनहरे सच की पतली सी लीक है- सस्टेनेबल डेवलपमेंट (संवहनीय सह्‌य या संपोषणीय विकास) की, जिसकी अवधारणा और सजगता यहां प्राचीन काल से सतत रही है। हमने परंपरा में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को आवश्यक माना है लेकिन इसके साथ ''समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले। विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे॥'' भूमि पर पैर रखते हुए, पाद-स्पर्श के लिए क्षमा मांगते हैं। अब सोने की खान नीलामी के बाद उत्पादन का दौर शुरू होने के साथ याद रखना होगा कि संसाधन-दोहन का नियमन-संतुलन आवश्यक है, क्योंकि मौन और सहनशील परिवेश ही इस लाभ और विकास का पहला-सच्चा हकदार है, लाभांश के बंटवारे में उसका समावेश कर उसका सम्मान बनाए रखना होगा और यही इस नीलामी की सच्ची सफलता होगी।

पुछल्‍ला- सोनाखान के साथ वीर नारायणसिंह, बार-नवापारा, तुरतुरिया, गुरु घासीदास और गिरौदपुरी, महानदी-शिवनाथ और जोंक की त्रिवेणी को तो जोड़ना ही चाहता था, विनोद कुमार शुक्‍ल के 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' की सोना छानती बूढ़ी अम्‍मां भी याद आ रही है और छत्‍तीसगढ़ की पड़ोसी सुवर्णरेखा नदी भी। लेकिन इन सब को जोड़ कर बात कहने की कोशिश में अलग कहानी बनने लगी, इसलिए फिलहाल बस यहीं तक।