‘पुलिस की न दोस्ती अच्छी, न दुश्मनी‘ कहावत अक्सर कही जाती रहती है। कोई कथन, कहावत-रूढ़ हो जाए तो उस पर विचार भी कम होता है, तैयारशुदा, एकदम रेडीमेड जुमला जो मिल जाता है, और बात समयसिद्ध, अनुभवसिद्ध, परखी-आजमायी हुई मानी जाती है। लेकिन ‘मितान पुलिस‘ जैसे शब्द का प्रयोग हो तो इस पर फिर गौर करने की जरूरत महसूस होती है।
कहावत नसीहत के अंदाज में है, दोस्ती और दुश्मनी के लिए। किसी पुलिस वाले से दोस्ती न करें, नुकसान हो सकता है, परेशानी हो सकती है या पुलिस, दोस्ती के उपयुक्त नहीं होते और दुश्मनी भी न करें। खैर, दुश्मनी तो किसी की अच्छी नहीं, बावजूद इसके कि दुश्मन भी नादान दोस्त से बेहतर कहा जाता है, बशर्ते समझदार हो और कभी-कभी ‘प्यारा दुश्मन‘ भी होता है। यों भी किसी संस्था, जो समाज-हित के उद्देश्य से काम करती हो, से दुश्मनी कतई उचित नहीं, न इसमें कोई समझदारी है।
यानि दुश्मनी तो किसी अच्छी नहीं लेकिन दोस्ती क्यों नहीं, याद करने की कोशिश करता हूं ऐसे दोस्त-दुश्मनों को जो अब ‘पुलिस‘ हैं और उन पुलिस वालों को जिनसे दोस्ती-दुश्मनी बनी। तो क्या दोस्ती न करने की सीख इसलिए है कि हम उसका अनुचित लाभ लेंगे। कुछ लोग तो इसी बात से ही खुश रहते हैं, धाक बनी रहती है कि उनके घर के सामने पुलिस की रौब वाली, बत्ती वाली गाड़ी खड़ी होती है। कुछ को फख्र होता है कि पुलिस महकमे में उनकी आमद-रफ्त, दुआ-सलाम है।
पुलिस सेवा से जुड़े किसी व्यक्ति का व्यवहार कर्तव्यनिष्ठा का हो, अनुशासनपूर्ण हो या कठोरता का, यदि किसी के हितों के अनुकूल नहीं बैठ रहा हो तो दुहरा दिया जाता है- पुलिस की न दोस्ती अच्छी, न दुश्मनी। यह कहते हुए भाव कुछ इस तरह का होता है कि पुलिस के लोग किसी अलग दुनिया के या कुछ अलग किस्म के इन्सान होते हैं। किसी पुलिस परिवार को याद कीजिए, परिवार के लिए समय न देने की शिकायत परिवार-जन को भी बनी रहती है, न दिन-रात, न होली-दीवाली। दरअसल, किसी सार्वजनिक जिम्मेदारी की भूमिका के साथ पद-प्रतिष्ठा मिलती है तो इसकी कुछ सीमाएं और बंदिशें भी हो जाती हैं।
अमन-चैन किसे पसंद नहीं, लेकिन मानव कभी प्रवृत्तिवश तो कभी परिस्थितिवश, नियम विरुद्ध काम करता है, कानून हाथ में ले लेता है। पुलिस की छवि का एक महत्वपूर्ण उल्लेखनीय कारक यह भी है, कि ला एंड आर्डर, कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए लगातार सक्रिय रहते प्रयास-परिश्रम करना होता है, जो आमतौर पर नजरअंदाज हो जाता है और हमें अक्सर यही याद रह जाता है कि कहां चालान हुआ, लाठी लहराई, गोली बरसी।
निष्पक्ष और तटस्थ एजेंसी को निष्ठुर ठहराया जाना स्वाभाविक है, (परेशान हाल इंसान, उपर वाले को भी नहीं बख्शता, निष्ठुर-निर्मम ठहरा देता है) बल्कि उस एजेंसी की कर्तव्य-निष्ठा का प्रमाण भी है। इन सब बातों और उसके विभिन्न पक्षों पर विचार करें तो लगता है कि पुलिस, सच्चे अर्थों में अपनी भूमिका और जिम्मेदारी का निर्वाह तभी कर सकती है, जब वह किसी से दोस्ती-दुश्मनी के बिना, सबकी खैरियत के लिए काम करे, यानि वह कबीर की तरह हो- ‘कबीरा खड़ा बाजार में, सबकी मांगे खैर। ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।‘
मेरा यह लेख रायपुर से प्रकाशित ‘मितान पुलिस टाईम्स‘ पत्रिका के प्रवेशांक जनवरी-मार्च 2014 में छपा।