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Sunday, July 24, 2016

पुलिस मितानी


‘पुलिस की न दोस्ती अच्छी, न दुश्मनी‘ कहावत अक्सर कही जाती रहती है। कोई कथन, कहावत-रूढ़ हो जाए तो उस पर विचार भी कम होता है, तैयारशुदा, एकदम रेडीमेड जुमला जो मिल जाता है, और बात समयसिद्ध, अनुभवसिद्ध, परखी-आजमायी हुई मानी जाती है। लेकिन ‘मितान पुलिस‘ जैसे शब्द का प्रयोग हो तो इस पर फिर गौर करने की जरूरत महसूस होती है।

कहावत नसीहत के अंदाज में है, दोस्ती और दुश्मनी के लिए। किसी पुलिस वाले से दोस्ती न करें, नुकसान हो सकता है, परेशानी हो सकती है या पुलिस, दोस्ती के उपयुक्त नहीं होते और दुश्मनी भी न करें। खैर, दुश्मनी तो किसी की अच्छी नहीं, बावजूद इसके कि दुश्मन भी नादान दोस्त से बेहतर कहा जाता है, बशर्ते समझदार हो और कभी-कभी ‘प्यारा दुश्मन‘ भी होता है। यों भी किसी संस्था, जो समाज-हित के उद्देश्य से काम करती हो, से दुश्मनी कतई उचित नहीं, न इसमें कोई समझदारी है।

यानि दुश्मनी तो किसी अच्छी नहीं लेकिन दोस्ती क्यों नहीं, याद करने की कोशिश करता हूं ऐसे दोस्त-दुश्मनों को जो अब ‘पुलिस‘ हैं और उन पुलिस वालों को जिनसे दोस्ती-दुश्मनी बनी। तो क्या दोस्ती न करने की सीख इसलिए है कि हम उसका अनुचित लाभ लेंगे। कुछ लोग तो इसी बात से ही खुश रहते हैं, धाक बनी रहती है कि उनके घर के सामने पुलिस की रौब वाली, बत्ती वाली गाड़ी खड़ी होती है। कुछ को फख्र होता है कि पुलिस महकमे में उनकी आमद-रफ्त, दुआ-सलाम है।

पुलिस सेवा से जुड़े किसी व्यक्ति का व्यवहार कर्तव्यनिष्ठा का हो, अनुशासनपूर्ण हो या कठोरता का, यदि किसी के हितों के अनुकूल नहीं बैठ रहा हो तो दुहरा दिया जाता है- पुलिस की न दोस्ती अच्छी, न दुश्मनी। यह कहते हुए भाव कुछ इस तरह का होता है कि पुलिस के लोग किसी अलग दुनिया के या कुछ अलग किस्म के इन्सान होते हैं। किसी पुलिस परिवार को याद कीजिए, परिवार के लिए समय न देने की शिकायत परिवार-जन को भी बनी रहती है, न दिन-रात, न होली-दीवाली। दरअसल, किसी सार्वजनिक जिम्मेदारी की भूमिका के साथ पद-प्रतिष्ठा मिलती है तो इसकी कुछ सीमाएं और बंदिशें भी हो जाती हैं।

अमन-चैन किसे पसंद नहीं, लेकिन मानव कभी प्रवृत्तिवश तो कभी परिस्थितिवश, नियम विरुद्ध काम करता है, कानून हाथ में ले लेता है। पुलिस की छवि का एक महत्वपूर्ण उल्लेखनीय कारक यह भी है, कि ला एंड आर्डर, कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए लगातार सक्रिय रहते प्रयास-परिश्रम करना होता है, जो आमतौर पर नजरअंदाज हो जाता है और हमें अक्सर यही याद रह जाता है कि कहां चालान हुआ, लाठी लहराई, गोली बरसी।

निष्पक्ष और तटस्थ एजेंसी को निष्ठुर ठहराया जाना स्वाभाविक है, (परेशान हाल इंसान, उपर वाले को भी नहीं बख्शता, निष्ठुर-निर्मम ठहरा देता है) बल्कि उस एजेंसी की कर्तव्य-निष्ठा का प्रमाण भी है। इन सब बातों और उसके विभिन्न पक्षों पर विचार करें तो लगता है कि पुलिस, सच्चे अर्थों में अपनी भूमिका और जिम्मेदारी का निर्वाह तभी कर सकती है, जब वह किसी से दोस्ती-दुश्मनी के बिना, सबकी खैरियत के लिए काम करे, यानि वह कबीर की तरह हो- ‘कबीरा खड़ा बाजार में, सबकी मांगे खैर। ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।‘

मेरा यह लेख रायपुर से प्रकाशित ‘मितान पुलिस टाईम्स‘ पत्रिका के प्रवेशांक जनवरी-मार्च 2014 में छपा।

Monday, July 18, 2016

रामचन्द्र-रामहृदय


दुर्ग, भिलाई की छाती में तो लोहा पनीला होकर बहने लगता है फिर कला-संस्कृति की सतत्‌ प्रवाहित रसधार का उद्‌गम कैसे न हो। रामचन्द्र देशमुख और रामहृदय तिवारी, ऐसी ही दो धाराएं हैं।

रामचन्द्र देशमुख जी का 'छत्तीसगढ़ देहाती कला विकास मंडल', नाम से ही स्पष्ट है कि लोककला के विकास की मंडली थी लेकिन राष्ट्रवाद और आदर्शवाद के साथ उनकी यह पीड़ा कि 'छत्तीसगढ़ विश्व के उपेक्षित अंचलों का प्रतीक है', ने छत्तीसगढ़ के 'लोकमंचों' का स्वरूप निर्धारित किया। प्रस्तुति को उन्होंने 'नसीहत की नसीहत और तमाशे का तमाशा' कहा।

मैंने 'देवार डेरा' की पहली प्रस्तुति, तीसेक साल पहले, बघेरा में देखी थी, इसके पहले सत्तरादि दशक के शुरुआत में पामगढ़ और बलौदा में 'चंदैनी गोंदा' देखने का अवसर मिला था। भैयालाल हेड़उ का गाना 'बधिया के तेल' और दृश्य अब भी याद आता है। 'चंदैनी गोंदा फुल गे' के साथ खुमान साव का संगीत और लक्ष्मण मस्तुरिया, केदार यादव, साधना यादव की उपस्थिति हमारी पूरी पीढ़ी के लिए अविस्मरणीय है। इस क्रम में बाद में 'कारी' की शैलजा ठाकुर का भी नाम स्मरणीय है।

यह मात्र संयोग नहीं कि मैं रामहृदय तिवारी जी के बारे में पिछले कुछ सालों में ही जान पाया। इस पूरी श्रृंखला की महत्वपूर्ण कड़ी होने के बावजूद भी लोक रचनाकार की तरह उनका नाम अनजाना-सा ही रहा है। इसलिए आज न सिर्फ यह उनका सम्मान है बल्कि पूरे निर्णायक मंडल, कलाप्रेमी बिरादरी और हर छत्तीसगढ़िया के सम्मान का विषय है।

रामहृदय तिवारी जी ने 18 वीं सदी के अंग्रेज यात्री लेकी के उद्धरण - 'यहां के लागों में धार्मिक भावना की प्रबलता है। यहां की संस्कृति बड़ी सहिष्णु है। लोगों में परस्पर बंधुता की भावना है। आपसी सहयोग की भावना यहां के लोगों का मूलमंत्र है।' पर टिप्पणी की है- लेकिन मेरा कहना अब यह है कि अपनी समृद्ध संस्कृति की श्रेष्ठ विरासत का बखान बार-बार करने का फायदा ही क्या, जब आज उसकी कोई भी झलक हमारे आचरण, व्यवहार और दिनचर्या में मुश्किल से दिखाई दे।

दक्षिण भारतीय एक परिचित ने मुझे यह कहकर चौंका दिया कि लगभग साल भर यहां रहते हुए उनका छत्तीसगढ़ी से परिचय मोबाइल के रिकार्डेड संदेश और रेल्वे प्लेटफार्म की उद्‌घोषणा के माध्यम से सुना हुआ जितना ही है।

अस्मिता को जगाए-बनाए रखने के लिए गोहार और हांक लगाने का काम- अवसरवादी स्तुति-बधाई गाने वालों, माइक पा कर छत्तीसगढ़ी की धारा प्रवाहित करने वालों और उसे छौंक की तरह, टेस्ट मेकर की तरह इस्तेमाल करने वालों से संभव नहीं है।

तसल्ली इस बात की है कि छत्तीसगढ़ के लोक और उसकी अस्मिता के असली झण्डाबरदार रामहृदय तिवारी जी की तरह ज्यादातर ओझल-से जरूर है लेकिन अब भी बहुमत में हैं। छत्तीसगढ़ की अस्मिता उन्हीं से सम्मानित होकर कायम है और रहेगी।

रामचन्द्र देशमुख बहुमत सम्मान (भिलाई, 14 जनवरी 2010) के लिए रामहृदय तिवारी जी का नाम तय हुआ, विनोद मिश्र जी का आमंत्रण संदेश मिला, इस अवसर पर उपस्थित होने के लिए जाते हुए जो कुछ मन में चल रहा था, नोट कर लिया और वहां अवसर मिला तो सब से यही बांट भी लिया।

Tuesday, July 12, 2016

बलौदा और डीह


o बलौदा बाजार-भाटापारा जिले के अधिकृत पेज पर उल्लेख है कि बलौदा बाजार नामकरण के संबंध में प्रचलित किवदंती अनुसार पूर्व में यहां गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बरार आदि प्रांतों के व्यापारी बैल, भैंसा (बोदा) का क्रय विक्रय करने नगर के भैंसा पसरा में एकत्र होते थे जिसके फलस्वरूप इसका नाम बैलबोदा बाजार तथा कालांतर में बलौदा बाजार के रूप में प्रचलित हुआ। रायबहादुर हीरालाल ने इसे 'कदाचित् बलि+उद = बल्-युद से इसका नाम बलौदा हो गया हो', कहते हुए पानी न निकलने पर नरबलि का संकेत लिया था। इसी तरह उन्होंने बालोद को बाल बच्चा और उद पानी से बना मानते हुए तालाब बनाते समय बालक की बलि का अनुमान किया है।

छत्तीसगढ़ के विभिन्न मवेशी बाजारों में बलौदा बाजार महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है, इस तरह उपर्युक्त अंश के पहले हिस्से में कोई संदेह नहीं, किन्तु किंवदंती (या मान्य‍ता), कि फलस्वरूप नाम बैलबोदा बाजार फिर बलौदा बाजार हुआ, सामान्यतः और उच्चारण की दृष्टि से भी उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। वैसे बोदा का अर्थ मूर्ख, गावदी या सुस्त होता है और कमअक्ल को बैल कह दिया जाता है। अनपढ़-नासमझ के लिए 'काला अक्षर भैंस बराबर' प्रचलित है। इस तरह बैल और भैंस-बोदा दोनों शब्द आम रूप से मवेशी की तरह मठ्ठर-ठस बुद्धि वाले व्यक्ति के लिए भी इस्तेमाल होता है। उल्लेखनीय यह भी कि ठस के निकट का शब्द शठ है, जिसका अर्थ मूढ़, बुद्धू, सुस्त या आलसी है, लेकिन अन्य अर्थ चालाक, धूर्त और मक्कार भी है।

बोदा शब्द भैंसा के अर्थ में यहां अपरिचित तो नहीं लेकिन प्रचलन में आम भी नहीं है। साथ ही बोदा शब्द‍ मवेशी बाजार और उसमें आए भैंस के लिए खास तौर पर प्रयुक्त होने की जानकारी मिलती है। यह ध्यान देना होगा कि छत्तीसगढ़ में एकाधिक बलौदा हैं साथ ही बलौदी, बालोद, संजारी बालोद, बालोदगहन, बेलोंदा, बेलोंदी, बोदा, बोंदा और समानार्थी ग्राम नाम भैंसा भी है। क्या इन सभी मिलते-जुलते नामों की व्युत्पत्ति समान है? यह भी विचारणीय है कि छत्तीसगढ़ में जल सूचक उद, उदा, दा जुड़कर बने ग्राम नाम बहुतायत में हैं, जैसे- बछौद, मरौद, लाहौद, चरौदा, कोहरौदा, मालखरौदा, चिखलदा, रिस्दा, परसदा। क्या बलौदा भी 'उदा' जुड़कर बना शब्द है?

इस संयोग का उल्लेख प्रासंगिक और संधान-सहायक हो सकता है कि यहां ग्राम की बसाहट और तालाब खुदवाने के साथ मवेशी व्यापारी नायक-बंजारों की कहानियां जुड़ी हैं। बलौदा को ऐसे संदर्भों के साथ जोड़ कर देखना निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए मददगार हो सकता है। मवेशी व्यापारी बंजारों ने देश को पैदल नापा है, विभिन्न स्थानों पर भरने वाले मवेशी बाजार का क्रम, साप्ताहिक कैलेंडर तथा प्रयुक्त रास्ते पुराने व्यापारिक पथ के अन्वेषण में सहायक हो सकते हैं और बोदा शब्द ने इन बंजारों के साथ चलते हुए लंबा सफर तय किया होगा इसलिए मत-भिन्नता के साथ बलौदा बाजार नाम, इस यात्रा का पड़ाव तथा नाम-व्युत्पत्ति पर विचार का भी ठौर जरूर है।

o 'डीह' का तात्पर्य 'लोगों के बसने का ठौर-ठिकाना' जैसा कुछ होना चाहिए, लेकिन कुछ प्रयोगों में थोड़ी उत्तल (खास कर पुरानी बस्ती के उजड़ जाने के कारण) भूमि, देवस्थान, पुरानी बसाहट का स्थान जैसा भी अर्थ ध्वनित होता है। डीह से डिहरी (ऑन सोन) - डेहरी (छत्तीसगढ़ी सीढ़ी) - देहरी मिलते-जुलते शब्द हैं, जिन्हें खींचतान कर पास लाया जा सकता है, लेकिन अर्थ एक-सा नहीं। सरगुजा में कोरवा जनजाति के दो वर्ग कहे जाते हैं- डिहरिया (गांववासी) और पहाड़िया (पहाड़वासी)। सरगुजा के प्रसिद्ध पुरातात्विक स्थल डीपाडीह में डीह के साथ डीपा, संस्कृत के डीप्र (छत्तीसगढ़ी 'डिपरा') यानि ऊंचाई का समानार्थी हो सकता है। सरगुजा अंचल तथा झारखंड-उड़ीसा संलग्न क्षेत्र में भी कई ग्राम डीपा शब्दयुक्त हैं। छत्तीसगढ़ में एक अन्य प्रयोग है- डहरिया (ठाकुर), जिसका तात्पर्य संभवतः प्राचीन डाहल मंडल, गंगा और नर्मदा के बीच के क्षेत्र का अथवा कलचुरि राजवंश शासित त्रिपुरी (जबलपुर) के मैदानी प्रदेश, के निवासी है। छत्तीसगढ़ में कलचुरियों के प्रवेश का ऐतिहासिक क्रम भी तुमान होते हुए रतनपुर-रायपुर अर्थात् पहाडि़यों के रास्ते मैदान रहा है।

Monday, July 4, 2016

धरोहर और गफलत

पिछले दिनों प्रधानमंत्री जी के अमरीका प्रवास के दौरान लगभग 10 करोड़ मूल्य की कलाकृति-संपदा भारत को वापस सौंपे जाने पर, समाचारों के अनुसार, ब्लेयर हाउस में, अमेरिका सरकार और ओबामा को प्रधानमंत्री जी ने धन्यवाद दिया है, आदि। यहां स्पष्ट करना आवश्यक है कि यह धन्यवाद, हमारी औपचारिक सौजन्यता है और उदार बनते दिखने वाले उन देशों को अपराध-बोध होना चाहिए, क्योंकि उनका ऐसा करना हम पर उपकार नहीं, उनकी बाध्यता है। इस संदर्भ में यूनेस्को के ‘कन्वेन्शन आन द मीन्स आफ प्राहिबिटिंग एंड प्रिवेंटिंग द इल्लिसिट इम्पोर्ट, एक्सपोर्ट एंड ट्रान्सफर आफ ओनरशिप आफ कल्चरल प्रापर्टी 1970‘ का स्मरण आवश्यक है। इस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले दुनिया के सभी प्रमुख देशों के साथ भारत भी है।

इस कन्वेन्शन के क्रम में आगे चलकर हमारे देश में 'पुरावशेष और बहुमूल्य कलाकृति अधिनियम 1972' आया। जैसाकि इस अधिनियम के आरंभ में स्पष्ट किया गया है कि यह अधिनियम पुरावशेष तथा बहुमूल्य कलाकृतियों का निर्यात-व्यापार विनियमित करने, पुरावशेषों की तस्करी तथा उनमें कपटपूर्ण संव्यवहार के निवारण आदि अन्य विषयों के बारे में उपबन्ध करने के लिए है। पुरावशेषों के विधिवत पंजीकरण की आवश्यकता को देखते हुए 1974-75 में पूरे देश में ‘रजिस्ट्रीकरण अधिकारियों’ की नियुक्ति हुई। तत्कालीन मध्यप्रदेश के संभागीय मुख्यालयों में रायपुर और बिलासपुर सहित 10 रजिस्ट्रीकरण कार्यालय खोले गए। इन कार्यालयों के माध्यम से छत्तीमसगढ़ में लगभग 20 वर्षों तक पुरावशेषों का राज्यव्यापी नियमित सर्वेक्षण और पंजीयन का महत्वपूर्ण कार्य हुआ। फिर रजिस्ट्रीकरण कार्यालयों की भूमिका के साथ क्रमशः कार्यालय भी सीमित होते गए, लेकिन अब भी इस अधिनियम के तहत कार्यवाही की जाती है।

रजिस्ट्रीकरण कार्यक्रम के बाद प्राचीन कलाकृतियों की चोरी, तस्करी की घटनाएं नियंत्रित हुई हैं, क्योंकि यह साबित किया जा सका कि कोई पुरावस्तु हमारे देश की विरासत है और अवैध रूप से, चोरी-तस्करी से विदेश पहुंची है तो वह हमारे देश को वापस करनी होगी। ऐसे कई उदाहरणों में से एक धुबेला संग्रहालय, छतरपुर, मध्यप्रदेश से चोरी हुई ‘कृष्ण जन्म’ प्रतिमा है। धुबेला संग्रहालय के सूचीपत्र में सचित्र प्रकाशित यह प्रतिमा चोरी के लगभग 30 साल बाद न्यूयार्क गैलरी से सन 1999 में वापस लौटी। एक अन्य मामले में मंदसौर जिले के कंवला गांव से फरवरी 2000 में चोरी हुई वराह प्रतिमा न्यूयार्क में बरामद हुई और अगस्त 2006 में वापस लाई गई। इस सब के चलते अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ऐसी पुरावस्तु का कोई मूल्य नहीं, जिसका पंजीयन-अभिलेखन हो। अब स्मारकों के संरक्षण-अभिलेखन तथा पंजीकरण के बाद मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि महत्वपूर्ण पुरावशेषों का पर्याप्त अभिलेखन हो चुका है और चोरी-तस्करी होने पर उसके अपने आधिपत्य में होने के प्रमाण प्रस्तुत कर सकते हैं। लेकिन ऐसी अफवाहों और फिल्मों से बने माहौल में तस्करी से रातों-रात मालामाल हो जाने की झूठी उम्मीद से चोरी और ठगी का व्यवसाय फला-फूला है। कानून की नजरों में जो हो, लेकिन सामान्यतः ठगी भी जेबकटी की तरह मामूली अपराध माना जाता है, एक कारण शायद यह कि इसका सबूत जुटाना, साबित करना आसान नहीं होता और अक्सर कार्यवाही-सजा भी मामूली ही होती है।

लेकिन इस पृष्ठभूमि में खबर-प्रपोगेंडा से बनने वाला जनमानस, ठगी के छोटे कारोबारियों के लिए मनचाही मुराद है। हर साल 'चमत्कारी' सिक्के, मूर्ति-चोरी, ठगी, तस्करी के तीन-चार आपराधिक प्रकरण, जांच के लिए पुलिस के माध्यम से पुरातत्व विभाग में आते हैं। आम तौर पर जो सिक्के चर्चा में आते हैं उनमें हनुमान छाप, राम दरबार, धनद यंत्र अंकित, सच बोलो सच तोलो सिक्का, इस्ट इंडिया कंपनी का सन 1818 (कभी 1616, 1717 या 1919 भी) वाला, चावल को खींच कर चिपका लेने वाला, जैसे विलक्षण, चमत्कारी गुणों वाले बताये जाते हैं। ठगी करने वालों ने ऐसी संख्याओं, खासकर 1818 को 'आइएसआइ' मार्का की तरह प्राचीनता की गारंटी वाला अंक प्रचारित कर, जनमानस में स्थापित कर दिया है। पढ़े-लिखे लोग भी बातचीत में कहते हैं, 'दुर्लभ, अनूठा, बहुत पुराना इस्ट इंडिया कंपनी के जमाने का 1818 का है।' इसी तरह इनमें 'रोने वाली', 'पसीना निकलने वाली' और स्वर्णयुक्त अष्टधातु की दुर्लभ कही जाने वाली अधिकतर बौद्ध मूर्तियां होती हैं। ऐसी धातु मूर्तियां भी देखने में आई हैं, जिनकी पीठ पर 1818 खुदा होता है। ऐसी ठगी और उसकी तरकीबों पर सरसरी निगाह डालते चलें।

आमतौर पर रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, कोर्ट-कचहरी के आसपास नग, अंगूठियों के साथ ऐसे सिक्के बेचने वाले दिख जाते हैं। इन सिक्कों के माध्य‍म से ठगी करने वाले अपना जाल फैलाने के लिए देहाती-अंदरूनी इलाकों में पहले ऐसे सिक्के की तलाश करते घूमते हैं कि अमुक सिक्का किसी के पास हो तो वह उसकी मुंहमांगी कीमत देगा। थोड़े दिन बाद उसका दूसरा साथी उस इलाके में ऐसे सिक्के ले कर, चमत्कारी गुणों का बखान करते हुए ग्राहक खोजता है। सिक्के में चुम्बकीय गुण लाना तो आसान होता है, लेकिन इन्हें खींचने वाले चावल की व्यवस्था खास होती है, इसके लिए उबले चावल के दानों पर लोहे का बारीक चूर्ण चिपका कर सुखा लिया जाता है। इसी तरह मूर्तियों को भारी बनाने के लिए उसमें सीसा मिलाया जाता है और 'रोने', 'पसीने' के लिए उनमें बारीक सुराख कर मोम पिला दिया जाता है साथ ही मूर्ति की गहरी रेखाओं वाले स्थाानों पर भी मोम की पतली परत होती है। यह भी बताया जाता है कि कई बार ठगों का कोई साथी जान-बूझकर पुलिस के हत्थे चढ़ जाता है ताकि उसकी खबरों के साथ बाजार और माहौल गरम हो। विशेषज्ञों के परीक्षण से जालसाजी उजागर हो जाने पर कभी यह पैंतरा भी होता है कि पुरातत्व विभाग को लपेटते हुए इसे मिली-भगत से रफा-दफा करने का प्रयास बता दिया जाय।

पुरावस्तुओं की तस्करी और उनकी कीमत का सच उजागर करने के लिए एक उदाहरण पर्याप्त होगा। सन 1991 में छत्तीसगढ़ के प्रमुख पुरातात्विक स्थल मल्हार से डिडिनेश्वरी प्रतिमा की चोरी हुई, खबरों में कहा गया कि 'अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इसकी कीमत 12 करोड़ रुपए बताई जाती है' लेकिन इन समाचारों में यह नहीं बताया गया कि यह कीमत किसने तय की है। आपसी बातचीत में मीडिया परिचितों ने खुलासा किया कि ऐसा करना मीडिया और पुलिस दोनों के लिए माकूल होता है। बड़ी रकम यानि मीडिया के लिए बड़ी खबर और पुलिस के लिए बड़ा प्रकरण। इसका दूसरा पहलू कि यह प्रतिमा चोरी के 45 दिनों बाद बरामद कर ली गई। बरामदगी से संबंधितों के अनुसार मूर्ति बेच पाने में असफल चोरों ने अंततः इसकी कीमत 50000 रुपए, जितनी रकम वे अपने इस अभियान के लिए खर्च कर चुके थे, तय की थी, लेकिन इस कीमत पर भी कोई ग्राहक नहीं मिल सका। वांछित कीमत न मिल पाने से यह बिक नहीं सकी और पकड़ी गई।

निष्कर्षतः, कलाकृतियों की देश वापसी पर औपचारिक आभार के साथ अन्य ऐसे पुरावशेष, जिनसे संबंधित हमारे आधिपत्य अभिलेख हैं, वापस लाने का उद्यम और पुरावशेषों के मूल्य का अनधिकृत निर्धारण/घोषणा और इस संबंधी अफवाहों पर कठोर नियंत्रण आवश्यक है।

इस लेख का एक अंश
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