जिज्ञासा, मौलिक हो तो निदान के लिए किसी और की मदद ही ली जा सकती है, क्योंकि समाधान तो तभी होता है, जब जवाब खुद के मन में आए। इसीलिए प्रश्नों के उत्तर तो दूसरा कोई दे सकता है, लेकिन जिज्ञासा शांत नहीं कर पाता। संस्कृत का किम् या हिन्दी ‘ककारषष्ठी’ यानि कौन, कब, कहां, क्या, कैसे, किस इन सभी प्रश्नों का उत्तर मिल जाने पर भी जानना बाकी रहे, वही जिज्ञासा है। फिर भी प्रश्नोत्तरी होती है, कभी स्वाभाविक, लेकिन अक्सर गढ़ी हुई। नचिकेता, यक्ष-प्रश्न, मिलिन्द पन्ह, विक्रम-वेताल, जेन गुरु-शिष्य वार्तालाप से हिन्द स्वराज तक। सवाल का जवाब न हो फिर भी उसका चिंतन-सुख समाधान से कम नहीं। गुड़ गूंगे का और जुगाली चुइंगम सी। यह हुआ विषय प्रवेश, अब प्रसंग...
पिछले दिनों बनारस-प्रवास का एक सबेरा अस्सी घाट पर बीतना था, बीता। गंगाजी और काशी। प्रकृति और संस्कृति का प्रच्छन्न, सभ्यता-प्रपंच के लिए अब भी सघन है, सब कुछ अपने में समोया, आत्मसात किया हुआ। मन-प्राण सहज, स्व-भाव में हो तो यहां माहौल में घुल कर, सराबोर होते देर नहीं लगती। अनादि-अनंत संपूर्ण। समग्र ऐसा कि कुछ जुड़े, कुछ घटे, फर्क नहीं, उतना का उतना। बदली से सूर्योदय नहीं दिख रहा, बस हो रहा है, रोज की तरह, रोज से अलग, सुबहे-बनारस का अनूठा रंग। कहा जाता है, अवध-नवाब के सूबेदार मीर रुस्तम अली बनारस आए और अलस्सुबह जो महसूस किया वह लौट कर नवाब सादात खां को बयां किया। अब की नवाब साहब बनारस आए, सुबह हुई और बस, नवाब साहब फिदा-फिदा। उन्हीं की ख्वाहिश से शामे-अवध के साथ सुबहे-बनारस जुड़ गया। इस बीच शबे-मालवा छूटा रह जाता है, लेकिन इस भोर में महाकाल का अहर्निश है, सब समाहित, घनीभूत लेकिन तरल, प्रवहमान। और यहां घाट पर नित्य सूर्योदय-पूर्व से आरंभ। संगीत, योग, आरती-हवन।
मंच के बगल में मेज पर कुछ पुस्तकें लेकर युवक बैठा है। मैं किताबें अलट-पलट रहा हूं। ग्राहक हूं या दर्शक, वह निरपेक्ष। संगीत सम्पन्न हुआ और योग आरंभ। अनुलोम-विलोम और भस्त्रिका के बीच वह युवक मेरे सवालों का जवाब भी दे रहा है। कुछ किताबें छांट लेता हूं, वह प्राणायाम अभ्यास करते बिल बनाता है। व्यवधान, मेरे-उसके न लेन में, न देन में। सहज जीवन-व्यापार। और खरीदी किताबों के साथ में ‘बुढ़वा मंगल 2016, वाराणसी का अप्रतिम जलोत्सव’ स्मारिका मिल जाती है, 'कम्प्लीमेंट्री'।
बनारस निवासी एक परिचित मुझसे पूछ रहे हैं कि मेरा शहर बनारस से कितनी दूर है। समझ नहीं पाया कि वह मुझसे क्यों पूछ रहे हैं, क्योंकि ठीक यही सवाल उनसे मेरा भी हो सकता है, या मेरा सीधा जवाब, जो उन्हें आहत कर सकता है, कि बनारस से मेरा शहर उतनी ही दूर है, जितना मेरे शहर से बनारस। मजे की बात, यह जानते हुए कि हम बस फोन पर बात कर रहे हैं, करते रहेंगे, हम दोनों को कहीं आना-जाना नहीं है। फिर भी सोचता हूं कि बनारसी बंधु इस तरह सवाल क्यों कर रहे हैं, शायद यह सोचते कि तथ्य-आंकड़े ही सब कुछ नहीं होते, या ऐसा भी नहीं कि गूगल का भरोसा कर कभी कोई रास्ता न भटका हो। यह भी याद आता है कि मैंने कभी उस इलाके में किसी स्थान की दूरी पूछी थी, तो बताया गया था- बत्तीस रुपिया टिकट, मानों दूरी की इकाई रुपिया हो। तो शायद बंधु पूछ रहे हैं कि रास्ता कैसा है। ट्रेन सुविधाजनक होगा या बस। सड़क की हालत कैसी है और लूटमार वाली खबरें आती रहती हैं, वह क्या है। कितना समय लगेगा और टिकट कितना। या फिर बनारस को वे अपना 'शून्य मील का पत्थर', जो लोक निर्माण विभाग के विश्राम गृह के सामने लगा होता है, क्योंकि दूरियों का विस्तार-संकोच, सड़कों की रचना, यहीं से शुरू होती है। इसी पर 'तीर्थ नहीं है केवल यात्रा...।' मानों सृष्टि का आरंभ बनारस से, प्रत्येक जीव का विश्राम गृह।
स्मारिका में 'अज्ञ-विज्ञ संवादः' है, जिसे ‘बुढ़वा मंगल पर आम आदमी से बातचीत’ कहा गया है। कुछ अलग तरह की प्रश्नोत्तरी, उलटबासी। इसमें विज्ञ प्रश्नकर्ता है, अज्ञ जवाब दे रहा है। विज्ञ, हर सवाल के जवाब में तात्कालिक-कामचलाऊ निष्कर्ष निकालता है और अज्ञ उसे खारिज-सा करता आगे बढ़ता है। आखिर बुढ़वा मंगल की रस सराबोर, इतिहास-निरपेक्ष लंबी सांस्कृतिक परंपरा को शब्दों से मूर्त कर किसी विज्ञ (अरसिक प्रश्नकर्ता) को समझाना कैसे संभव हो। वार्तालाप में अज्ञ, बुढ़वा मंगल में क्या-क्या होता था गिनाते हुए यह भी कहता है, 'जाने क्या-क्या होता था।' फिर विज्ञ पूछता है 'इसके अलावा भी कुछ होता था?', अज्ञ जवाब देता है- 'अरे भाई, असली चीज तो वही 'कुछ' है।' आखिरी सवाल के बाद अज्ञ को इतनी बातें बताने के लिए विज्ञ धन्यवाद देता है, इस पर अज्ञ जवाब देता है- 'अरे हम क्या बतायेंगे, आप पत्रकार, पूछकार से ज्यादा जानते हैं क्या?, खैर चलते हैं' ...। चलन यही हो गया है, स्थानीय जानकार सूचक-अज्ञ है और चार लोगों से पूछ, इकट्ठा कर सजाई सूचना को परोस देने वाला विज्ञ-विशेषज्ञ। एक सूचना अपनी तरफ से जोड़ते चलें, बनारसियों को शायद खबर न हो कि रीवांराज-बघेलखंड में भी बुढ़वा मंगल का उत्साह कम नहीं होता।
यों ही सा-
अस्सी पर औचक मिली इस स्मारिका को तीर्थ का दैवीय-प्रसाद मान, जिज्ञासा ले कर लौटा हूं। विषय-क्रम में इस ‘अज्ञ-विज्ञ संवादः’ के साथ किसी का नाम नहीं दिया गया है। जिज्ञासा हुई, यह संवाद किसने रचा है, किसका कमाल है, ऐसी योजनाबद्ध बनारसी बारीकी और सूझ का छोटा-सा, लेकिन चकित कर देने वाला नमूना, बतर्ज होली प्रसंग पर भारतेन्दु रचित 'संडभंडयोः संवादः'। संपादक-मंडल से संपर्क का प्रयास किया, जवाब गोल-मोल मिला। अनुमान हुआ कि यह भंगिमा डा. भानुशंकर मेहता जैसी है, लेकिन वे तो अब रहे नहीं, किसी ने सुझाया राजेश्वर आचार्य हो सकते हैं या कोई और शायद अजय मिश्र या धर्मशील चतुर्वेदी या...। मनो-व्यापार इसी तरह भटकता चलता है, चल रहा है। अमूर्त दैवीय जिज्ञासा, जिसमें ठीक-ठीक यह भी पता न हो कि जानना क्या है- इस संवाद का रचयिता? बुढ़वा मंगल? या अस्सी घाट पर काशी-भोर की बदराई धुंधलकी स्मृति से झरते रस और उसमें डूबते-उतराते अहम् को? चुइंगम-जुगाली, गूंगे का गुड़। यथावत कायम जिज्ञासा। दुहरा कर पढ़ता हूं आंवला चबाए जैसा, और चिंतन-सुख, बार-बार पानी की घूंट की तरह, फिर समाधान की परवाह किसे।
लौटकर आया तो किसी ने पूछा, कैसा है मोदी जी का बनारस?, क्या जवाब दूं, इस नजर से देखना तो रह गया, ऐसे सवाल के जवाब के लिए अगली बार चक्कर लगा तो भी बात शायद ही बन पाए।
सूझ, नासमझी की उपज है और सूझ जाए तो अपनी नासमझी पर हंसी आती है, लेकिन ज्यों ही माना कि सूझ गया, बस और कुछ समझने की गुजाइश खत्म... ... ... यह जिज्ञासा, मेरी समझी नासमझी का लेखा।
सूझ, नासमझी की उपज है और सूझ जाए तो अपनी नासमझी पर हंसी आती है, लेकिन ज्यों ही माना कि सूझ गया, बस और कुछ समझने की गुजाइश खत्म... ... ... यह जिज्ञासा, मेरी समझी नासमझी का लेखा।
बनारस निवासी एक परिचित मुझसे पूछ रहे हैं कि मेरा शहर बनारस से कितनी दूर है। समझ नहीं पाया कि वह मुझसे क्यों पूछ रहे हैं, क्योंकि ठीक यही सवाल उनसे मेरा भी हो सकता है, या मेरा सीधा जवाब, जो उन्हें आहत कर सकता है, कि बनारस से मेरा शहर उतनी ही दूर है, जितना मेरे शहर से बनारस। मजे की बात, यह जानते हुए कि हम बस फोन पर बात कर रहे हैं, करते रहेंगे, हम दोनों को कहीं आना-जाना नहीं है। फिर भी सोचता हूं कि बनारसी बंधु इस तरह सवाल क्यों कर रहे हैं, शायद यह सोचते कि तथ्य-आंकड़े ही सब कुछ नहीं होते, या ऐसा भी नहीं कि गूगल का भरोसा कर कभी कोई रास्ता न भटका हो। यह भी याद आता है कि मैंने कभी उस इलाके में किसी स्थान की दूरी पूछी थी, तो बताया गया था- बत्तीस रुपिया टिकट, मानों दूरी की इकाई रुपिया हो। तो शायद बंधु पूछ रहे हैं कि रास्ता कैसा है। ट्रेन सुविधाजनक होगा या बस। सड़क की हालत कैसी है और लूटमार वाली खबरें आती रहती हैं, वह क्या है। कितना समय लगेगा और टिकट कितना। या फिर बनारस को वे अपना 'शून्य मील का पत्थर', जो लोक निर्माण विभाग के विश्राम गृह के सामने लगा होता है, क्योंकि दूरियों का विस्तार-संकोच, सड़कों की रचना, यहीं से शुरू होती है। इसी पर 'तीर्थ नहीं है केवल यात्रा...।' मानों सृष्टि का आरंभ बनारस से, प्रत्येक जीव का विश्राम गृह।