Wednesday, July 21, 2010

पीपली में छत्तीसगढ़

''आपने लोक गीत गायकों से इतने अलग ढंग का गाना रिकॉर्ड कराया। आप हमेशा कुछ नया और अलग प्रयोग करते हैं।'' लता मंगेशकर ने आमिर खान को शुभकामनाएं तो दी ही हैं मुझे लगता है कि वे इस ट्‌वीट में फिल्म 'पीपली लाइव' के छत्तीसगढ़ी गीत 'चोला माटी के' (और बुंदेली रामसत्ता जैसा गीत 'मंहगाई डायन') गीत को बरबस गुनगुना भी रही हैं।

13 अगस्त को रिलीज होने वाली इस फिल्म का नायक 'नत्था' छत्तीसगढ़ के कलाकार ओंकार दास मानिकपुरी हैं इसके साथ छत्तीसगढ़वासी (नया थियेटर के) कलाकारों की लगभग पूरी टीम, चैतराम यादव, उदयराम श्रीवास, रविलाल सांगड़े, रामशरण वैष्णव, मनहरण गंधर्व, और लता खापर्डे फिल्म में हैं। अनूप रंजन पांडे के फोटो वाली होर्डिंग तो पूरी फिल्म में छाई है।

पीपली, वस्तुतः मध्यप्रदेश के रायसेन जिले का गांव बड़वई बताया जाता है। फिल्म के निर्देशक दम्पति अनुशा रिजवी और दास्तांगो महमूद फारूकी, नया थियेटर और हबीब जी से जुड़े रहे हैं, इससे कलाकारों के अलावा फिल्म का छत्तीसगढ़ से और कुछ रिश्ता फिल्म आने के बाद पता लगेगा। फिलहाल यहां बात 'चोला माटी के हे राम' गीत की। छत्तीसगढ़ के 'सास गारी देवे' के बाद अब यह गीत चर्चा में है। यह वास्तव में प्रायोगिक लोक गीत ही है, जो अब इस फिल्म के गीत के रूप में जाना जाने लगा, लेकिन इसकी और चर्चा से पहले यह गीत देखें-
हबीब जी की झलक के साथ नगीन तनवीर

यह गीत अब यू-ट्‌यूब पर है, लेकिन मैंने काफी पहले से सुनते आए इस गीत की पंक्तियां नगीन जी के गाये हबीब जी के जीवन-काल में रिकॉर्ड हो चुके गीतों की सीडी से ली है, जिसे आप यहां से सुन सकते हैं। दोनों में कोई खास फर्क नहीं है।

चोला माटी के हे राम
एकर का भरोसा, चोला माटी के हे रे।
द्रोणा जइसे गुरू चले गे, करन जइसे दानी
संगी करन जइसे दानी
बाली जइसे बीर चले गे, रावन कस अभिमानी
चोला माटी के हे राम
एकर का भरोसा.....
कोनो रिहिस ना कोनो रहय भई आही सब के पारी
एक दिन आही सब के पारी
काल कोनो ल छोंड़े नहीं राजा रंक भिखारी
चोला माटी के हे राम
एकर का भरोसा.....
भव से पार लगे बर हे तैं हरि के नाम सुमर ले संगी
हरि के नाम सुमर ले
ए दुनिया माया के रे पगला जीवन मुक्ती कर ले
चोला माटी के हे राम
एकर का भरोसा.....

बात आगे बढ़ाएं। यह गीत छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती मंडलाही झूमर करमा धुन में है, जिसका भाव छत्तीसगढ़ के पारम्परिक कायाखंडी भजन (निर्गुण की भांति) अथवा पंथी गीत की तरह (देवदास बेजारे का प्रसिद्ध पंथी गीत- माटी के काया, माटी के चोला, कै दिन रहिबे, बता ना मो ला) है। इसी तरह का यह गीत देखें -

हाय रे हाय रे चंदा चार घरी के ना
बादर मं छुप जाही चंदा चार घरी के ना
जस पानी कस फोटका संगी
जस घाम अउ छइंहा
एहू चोला मं का धरे हे
रटहा हे तोर बइंहा रे संगी चार घरी के ना।

अगर हवाला न हो कि यह गीत खटोला, अकलतरा के एक अन्जान से गायक-कवि दूजराम यादव की (लगभग सन 1990 की) रचना है तो आसानी से झूमर करमा का पारंपरिक लोक गीत मान लिया जावेगा। यह चर्चा का एक अलग विषय है, जिसके साथ पारंपरिक पंक्तियों को लेकर नये गीत रचे जाने के ढेरों उदाहरण भी याद किए जा सकते हैं।

एक और तह पर चलें- छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले का एक बड़ा भाग प्राचीन महाश्मीय (मेगालिथिक) प्रमाण युक्त है। यहां सोरर-चिरचारी गांव में 'बहादुर कलारिन की माची' नाम से प्रसिद्ध स्थल है और इस लोक नायिका की कथा प्रचलित है। हबीब जी ने इसे आधार बनाकर सन 1978 में 'बहादुर कलारिन' नाटक रचा, जिसमें प्रमुख भूमिका फिदाबाई (अपने साथियों में फीताबाई भी पुकारी जाती थीं।) निभाया करती थीं।
बहादुर कलारिन के एक दृश्य में हबीब जी और फिदाबाई
फिदाबाई मरकाम की प्रतिभा को दाऊ मंदराजी ने पहचाना था। छत्तीसगढ़ी नाचा में नजरिया या परी पुरुष होते थे लेकिन नाचा में महिला कलाकार की पहली-पहल उल्लेखनीय उपस्थिति फिदाबाई की ही थी। वह नया थियेटर से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पहुंचीं। तुलसी सम्मान, संगीत नाटक अकादेमी सम्मान प्राप्त कलाकार चरनदास चोर की रानी के रूप में अधिक पहचानी गईं फिदाबाई के पुत्र मुरली का विवाह धनवाही, मंडला की श्यामाबाई से हुआ था। पारंपरिक गीत 'चोला माटी के हे राम' का मुखड़ा हबीब जी ने श्यामाबाई की टोली से सुना और इसका आधार लेकर उनके मार्गदर्शन में गंगाराम शिवारे (जिन्हें लोग गंगाराम सिकेत भी और हबीब जी सकेत पुकारा करते थे) ने यह पूरा गीत रचा, जो बहादुर कलारिन नाटक में गाया जाता था।
बहादुर कलारिन का नृत्य दृश्य

दहरा :

13 जुलाई को पीपली लाइव के ऑडियो रिलीज के बाद से हेमंत वैष्णव (फोन +919424276385), नीरज पाल (फोन +919711271596), संजीत त्रिपाठी (फोन +919302403242), गोविंद ठाकरे (फोन +919424765282)जैसे परिचितों ने इसकी चर्चा में मुझे भी शामिल किया।

करमा प्रस्तुति और परम्परा की विस्तृत चर्चा की कमान राकेश तिवारी (फोन +919425510768) के हाथों रही। करमा लोक नृत्य, पाठ्‌यक्रम में शामिल होकर पद चलन, भंगिमा और मुद्रा के आधार पर (झूमर, लहकी, लंगड़ा, ठाढ़ा), जाति के आधार पर (गोंड, बइगानी, देवार, भूमिहार) तथा भौगोलिक आधार पर (मंडलाही, सरगुजिया, जशपुरिया, बस्तरिहा) वर्गीकृत किया जाने लगा है। अंचल में व्यापक प्रचलित नृत्य करमा के लिए छत्तीसगढ़ के नक्शे की सीमाएं लचीली हैं।

छत्तीसगढ़ की प्राचीन मूर्तिकला की विशिष्टताओं के साथ लगभग 13 वीं सदी के गण्डई मंदिर के करमा नृत्य शिल्प की चर्चा रायकवार जी (फोन +919406366532) लंबे समय से करते रहे हैं।

ओंगना, रायगढ़ जैसे आदिम शैलचित्रों में नृत्य अंकन की ओर भी उन्होंने ध्यान दिलाया। यहां फिलहाल करमा नृत्य की प्राचीनता को आदिम युग से जोड़ने की कवायद नहीं है। यह उल्लेख सहज प्रथम दृष्टि के साम्य से प्रासंगिक और रोचक होने के कारण किया गया है।

'बस्तर बैण्ड' और 'तारे-नारे' वाले अनूप रंजन (फोन +919425501514) ऊपर आए संदर्भों और पीपली लाइव फिल्म के साथ तो जुड़े ही हैं उनके पास हबीब जी और नया थियेटर से जुड़े तथ्यों और संस्मरणों का भी खजाना है। छत्तीसगढ़ की लोक कला के ऐसे पक्ष, जो बाहर भी जाने जाते हैं या चर्चा में रहे हैं, उनमें कई-एक हबीब जी से जुड़े हैं।

कहा जाता है 'दू ठन कोतरी दे दय, फेर दहरा ल झन बताय' कुछेक की विद्वता का यही बिजनेस सीक्रेट होता है। लेकिन मेरे दहरा का पता बताने में आपकी सहमति होगी, मानते हुए पोस्ट में आए सभी नामों के प्रति आदर और आभार।

पुनश्‍चः कुछ विस्‍तार और परिवर्तन सहित यह उदंती.com में प्रकाशित हुआ है।


म्‍यूजिक लांचिंग से लौटे कोल्हियापुरी, राजनांदगांव के श्री अमरदास मानिकपुरी से बात हुई. उन्‍होंने बताया कि यह गीत पहली बार पारागांव महासमुंद के वर्कशाप में तैयार हुआ था. शुरुआती दौर में इसे टोली के फिदाबाई, मालाबाई, भुलवाराम, बृजलाल आदि गाया करते थे लेकिन तब से लेकर फिल्‍म के लिए हुई रिकार्डिंग में मांदर की थाप उन्‍हीं की है.

23 जुलाई को शाम 6.30 बजे इस पर विशेष लाइव कार्यक्रम के लिए अनूप रंजन जी के साथ मुझे सहारा के रायपुर स्‍टूडियो में आमंत्रित किया गया. कुछ और चैनलों पर यह समाचार बना है. दैनिक भास्‍कर के बिलासपुर संस्‍करण में यह खबर छपने की जानकारी मिली है और 29 जुलाई को दैनिक भास्‍कर, रायपुर में इस ब्‍लॉग के उल्‍लेख सहित समाचार प्रकाशित हुआ है. आभार.

Monday, July 12, 2010

दीक्षांत में पगड़ी

'दीक्षांत समारोह में गाउन तथा हुड उतार कर दासता की औपनिवेशिक परम्परा से छुटकारा पाना चाहिए।' केन्द्रीय वन और पर्यावरण मंत्री जी के ऐसे कथन के बाद दीक्षांत में धारण किए जाने वाले पारंपरिक पोशाक को केंचुल भी कहा गया। यह भी कि ज्यादा जरूरी है गुलामी की मानसिकता को बदलना। अलग-अलग तथ्य, जानकारियां और दृष्टिकोण सामने आए। विभिन्न पक्षों पर ढेरों बातें हुईं।

अप्रैल 2010 के अंतिम सप्ताह में बिलासपुर के गुरु घासीदास विश्वविद्यालय का सातवां, लेकिन केन्द्रीय विश्वविद्यालय बनने और इस वक्तव्य के बाद आयोजित पहले दीक्षांत समारोह की खबरें छपी- 'यह देश का ऐसा पहला विश्वविद्यालय बन गया जिसने अपने दीक्षांत समारोह से औपनिवेशिक चोला उतार कर स्थानीय संस्कृति के अनुरूप परिधान के बीच उपाधियां वितरित कीं।' (यह जिज्ञासा भी है कि पिछले अकादमिक सत्रों की उपलब्धि-उपाधि अब वितरित होकर केन्‍द्रीय स्‍वरूप की मानी जायेंगी?)

बिलासपुर में आयोजित इस समारोह का सचित्र समाचार, अखबारी संस्‍करण सीमाओं के बावजूद, रायपुर में भी छपा। चित्र में अतिथि व अन्‍य मंचस्‍थ, पगड़ी धारण किए दिखे।

पगड़ी यहां हुड का स्थानापन्न है तो हमारी परम्परा में सिर्फ शिरोभूषा नहीं बल्कि गरिमा का परिचायक, सम्मान का पर्याय और वरिष्ठता का प्रतीक भी है। वैसे पगड़ी अब आमतौर पर पोशाक का हिस्सा नहीं, बल्कि परम्परा के हाशिये (शो केस) में सुरक्षित है।

फैशन शो के दौर में ड्रेस डिजाइनरों को सेलिब्रिटी दरजा हासिल है, भानु अथैया पारंपरिक वेशभूषा डिजाइन कर ऑस्कर पा चुकी हैं। इसलिए भी कि खबरों में हम अपनी खास रुचि की पंक्तियां तलाशते हैं, खोजने और सोचने लगा 'इतनी सुंदर पगड़ियां बांधी किसने?', जिनसे यह शान बनी है, उस परम्परा की रक्षा की पगड़ी आज भी किसने संभाली है? तब एक बार फिर मुलाकात हुई बद्रीसिंह कटहरिया जी (मो.+919425223659) से।

राज्य के वरिष्ठ रंगकर्मी, अभिनेता, गायक, मंच नेपथ्य में मेकअप और वेशभूषा के विशेषज्ञ, साहित्यकार, लोक परम्पराओं के जानकार, बिलासपुर निवासी सेवानिवृत्त व्याख्‍याता बद्रीसिंह जी की चर्चा फिलहाल इस पगड़ी तक। वे विभिन्न पारम्परिक वस्त्र आभूषण शौकिया तौर पर तैयार करते हैं, कौड़ी के काम में उन्‍हें विशेष दक्षता हासिल है।

नाटक और मंचीय प्रस्तुति की आवश्यकताओं पूर्ति के लिए उन्होंने पगड़ी बांधना भी सीखा और विकसित किया। वे विभिन्न प्रकार की पगड़ियां बांध सकते हैं। इस आयोजन के लिए उन्होंने लगभग हफ्ते भर जुटकर 50 पगड़ियां तैयार कीं।

यह खबरों का जरूरी हिस्सा न माना गया हो, लेकिन लगा कि यह औरों को भी पता होना चाहिए, शायद तभी परम्पराओं की पगड़ी 'जतनी' जा सकेगी।

और यह भी, पारंपरिक लोक विद्याओं- झाड़-फूंक, देवारी (सरगुजा) का दीक्षांत, नागपंचमी पर होता है, इस पर कुछ विस्‍तार से फिर कभी बात होगी।