Sunday, December 1, 2024

बैरागी मन का राग

यही कोई आधी सदी पहले। मंचीय कवि-सम्मेलन के दौर में काका हाथरसी के बाद नाम आता था, बालकवि बैरागी का, मगर यह भी कोई नाम हुआ, खैर। मालवी बैरागी जी कवि के अलावे मध्यप्रदेश में मंत्री भी रहे, 1969 में। उनकी आत्म-कथा ‘मंगते से मिनिस्टर‘ शायद अब भी अप्रकाशित है और दूसरा खंड, जिसकी योजना थी और शीर्षक तय था, मगर यह शायद लिखी ही नहीं गई- ‘मंत्री से मनुष्य‘। उनकी आत्म-कथा का एक अंश याद आता है- ‘मेरी माँ ने मुझे सबसे पहला खिलौना दिया, वह था- भीख मांगने का कटोरा, जो हमारे परिवार की आजीविका का साधन था।‘ ‘ईदगाह‘ का चिमटा बरबस याद आता है। उनके भाई विष्णु बैरागी रतलाम निवासी हैं, अपना घर बनाने के लिए बेहिचक मित्रों से आर्थिक सहयोग के आग्रह का पत्र लिखा, आशा से अधिक सहयोग मिला, अधिक को लौटा दिया और घर बन गया तो नाम रखा- ‘मित्र-धन‘।

1973, अकलतरा। गणेशोत्सव पर स्कूल में आयोजित कवि-सम्मेलन में शैल चतुर्वेदी आए थे, अकलतरा के अपने सहपाठी प्रताप सिंह जी को याद किया, गले मिले। माणिक वर्मा थे, सुनाया- ‘जिस शाम को तुम मिलती हो वो शाम हरी हो जाती है, जिस ठूंठ को छू देती हो, वो ठूंठ हरी हो जाती है‘, आदि। परंपरा थी कि मंच पर एक-दो स्थानीय कवियों से भी कविता पढ़वाई जाए। ऐसे एक कवि ने कविता पढ़ना शुरू किया, लोग बार-बार वही कविता सुनते रहे थे, हूटिंग होने लगी। बालकवि माइक पर आए और कहा कि जो घर-आंगन की तुलसी को नहीं पूज सकता वह वट-पीपल को क्या पूजेगा, बस सन्नाटा खिंच गया।

आज मैंने सूर्य से बस यूँ कहा, 
आपके साम्राज्य में इतना अँधेरा क्यूँ रहा? 
तमतमाकर वो दहाड़ा, मैं अकेला क्या करूँ? 
तुम-निकम्मों के लिए मैं ही भला कब तक मरूँ? 
आकाश की आराधना के चक्करों में मत पड़ो। 
संग्राम ये घनघोर है, कुछ मैं लड़ूँ, कुछ तुम लड़ो। 
उनकी ऐसी रचनाओं के साथ बांग्लादेश युद्ध की स्मृति तब एकदम ताजा थी, बैरागी जी ने ‘लगे हाथ निपटा ही देते पिंडी और लाहौर को‘ सुनाया। बाद में उनकी ‘पनिहारी‘ की बारी आई। इसके पहले वे कुछ पंक्तियों से माहौल बनाते, जैसे- ‘मैं मरूंगा नहीं, क्योंकि ऐसा कोई काम करूंगा नहीं‘ और ‘मुझे सपने नहीं आते, क्योंकि मैं बुझकर नहीं थककर सोता हूं- ताली वाली ऐसी बातें। फिर पनिहारी, मगर उसके पहले चार पंक्तियां सुनाते, डिस्क्लेमर सहित कि नोट मत कर लेना, कुछ कर-करा लिया तो जिम्मेदार ठहराया जाऊंगा, वह पंक्तियां थीं- 

आज भले ही पत्थर बनकर तू मुझको ठुकराएगी, 
मुझे छोड़कर किसी और के नैनों में बस जाएगी, 
तुझसे जितना हो तू कर ले लेकिन ये भी सुन लेना, 
मैं तो पनघट तक आया था तू मरघट तक आएगी। 
हमने बैरागी जी की बात मानी, नोट नहीं किया, मगर दूसरी सुबह मिल जुलकर याद कर लिया, याद भी रखा, और संदेश की तरह नहीं, कविता की तरह यहां-वहां अपने काव्य-प्रेम और रसिकता के बतौर प्रमाण कहते-सुनाते रहे। फिर शुरू हुआ, पनिहारी। नवी उमारिया नवी डगरिया नवा पिया की नवी प्यारी (राम) नवी नगरी मैं नवी गगरी ले पनघट जईरी ओ पनिहारी। मालवी शब्दों को बीच-बीच में समझाते चलते, मगर रसिक श्रोता शब्दों के पार जा चुके होते, आह-वाह होता रहता।

बैरागी जी के इस राग-विराग, नींद और सपने पर अर्ली टु बेड ... के साथ कुछ अपनी बात। जल्दी नींद तभी आ सकती है, जब संतोष हो कि आज भर के लिए कुछ कमाई कर ली है और जल्दी नींद तभी खुलती है, जब फिर से नया कुछ करने का उत्साह हो, और कुछ नहीं तो सुबह जल्दी उठकर घंटे भर का योग-ध्यान, व्यायाम, पैदल-कसरत जैसा कुछ कर लिया जाए, लगे कि इतनी तो कमाई कर ही ली। जहां तक सपनों की बात है, सपने तो मन की चुगली हैं। मन से दोस्ती रखें, कुछ उसकी मान लें, कभी अपनी के लिए उसे मना लें। हर बार मनाही-मना ही न हो, न ही हमेशा मनमानी। चंचल मन दुश्मन नहीं बच्चा है, जिद करता है, शैतान है, मगर उसका साथ मौज है, वह आपको आड़े-टेढ़े वक्त पर बहलाता भी है। मन के गुलाम न हों, न ही लगाम कसे रहें। उससे दोस्ती करें, मन से अच्छा मीत और कोई नहीं।

Wednesday, November 6, 2024

नदी के द्वीप

अज्ञेय की ‘नदी के द्वीप‘ चालीसेक साल पहले पढ़ चुका हूं, यह याद आया जहां तथ्य-सत्य या आंख मूंद कर दाढ़ी बनाने वाले जैसे प्रसंग आए। तब भी यह त्याग-बलिदान वाली भावुकता और आदर्श रूमानियत की प्रेमकथा ही समझ में आई थी। अब दुहराने पर जिन बातों की ओर ध्यान गया, उनमें कुछ शब्द थे, जैसे- ‘मुकुर‘, जिसका प्रयोग हिंदी साहित्य में कम ही होता है। ‘असूर्यम्पश्या‘ का प्रयोग मैंने शायद ही कहीं और देखा हो, अनुमान हो गया कि आशय ओट या परदा जैसा है- अ, सूर्य और पश्य, मिलकर बना है, यानि जिस पर सूर्य की नजर न पड़े। स्वैरिणी और पुंश्चली, शब्द के साथ याद आए मनोहर श्याम जोशी, भला हो कुरु कुरु स्वाहा की मुख्य पात्र- पहुची हुई चीज, यानी ‘पहुंचेली‘ यानी पुंश्चली। फिर ऐसे और कई शब्द आते गए, जिनके लिए अपने अनुमान पर संदेह हुआ और शब्दकोश खोलना पड़ा- विभ्राट, पलातक, कबरी, प्रत्याख्याता, ब्रीडा, धृष्णु, शबीह, जिघांसु, सीमन्त, म्रियमाण, रौंस, सरु, मालंच, तितीर्षु, प्राणोद्रेक, गोप्ता, उद्भ्रांत, कलौंस, अनाद्यन्त, बनौकस। 

आवश्यकीय जैसे कुछ अलग-से प्रयोग मिले। स्प्रिंग के लिए लचकीला तार मिला। तिरस्करणीय का प्रयोग हुआ है, जो नाटकों में यदा-कदा होता है, वहां भी यवनिका से काम चल जाता है। कुछ विशिष्ट वाक्यांश, जहां ठिठक जाना होता है- ‘सम्वेदना की झिलमिल छायित-द्योतित पन-चादर‘ या ‘चीड़ की कुकड़ियों की हल्की चटपट और विस्फूर्जित वाष्पों की फुरफुराहट जैसे स्वर-पृष्ठिका बन‘ और ‘मदालस भाव प्रतिकर्षित भाव और विस्फूर्जित भाव‘ आदि। युयुत्सा, शुभाशंसा, अनझिप जैसे शब्द, संभवतः यहां प्रयोग के बाद अधिक अपनाए जाने लगे। बताया जाता है कि कुछ शब्द अज्ञेय ने दुरुस्त कराया, जैसे- ‘पूर्वग्रह‘ न कि पूर्वाग्रह और ‘लोकार्पण‘ न कि विमोचन। 

कहानी भुवन, रेखा और गौरा के प्रेम त्रिकोण, बल्कि त्रिभुज या शंकु की है, अज्ञेय के ही एक शीर्षक को लेकर कह सकते हैं- त्रिशंकु। इसके पात्र दोराहे पर खड़े होते हैं- भुवन रेखा के रास्ते चलकर गौरा की ओर जाता है। चन्द्रमाधव, हमसफर पत्नी से छिटककर रेखा-गौरा के रास्ते चलने की कोशिश करता है और चन्द्रलेखा की राह पकड़ लेता है। रेखा के हेमेन्द्र से होते रमेशचन्द्र तक पहुंचने का पड़ाव भुवन है और यही पूरी कहानी का सूत्र है। 

भुवन को आदर्श और पूजनीय पात्र बनाया गया है, इस पर रचनाकार की छाया दिखती है। रेखा और गौरा, दोनों पात्रों का भुवन और चन्द्रमाधव के प्रति व्यवहार लगभग एक जैसा होना, रचनाकार की कमजोरी लगता है। दोनों में एक तरफ नारीसुलभ व्यावहार-कुशलता है और वहीं दोनों संस्कार, स्वेच्छा और कर्तव्य-भाव से पुरुष के प्रति ससम्मान समर्पण करती हुई हैं। 

यों यह आज की भी सचाई हो, मगर इस दौर में कितना अजीब लग सकता है, जब बार-बार ऐसी बातें आती हैं, जिनमें नारी पात्र पुरुष के पैरों की धूल लेती है, मेरे मालिक कहती है, चरण गोद में लेकर माथे से लगाती है। कहती है- सचमुच तुम्हारे पैर चूम सकती हूं ... चाहती हूं, झुक कर एक बार तुम्हारे चरणों की धूल ले लूं ... आपके पैरों से लिपट जाना चाहती हूं ... अपने को उत्सर्ग कर के आप के ये घाव भर सकती-तो अपना जीवन सफल मानती। स्त्री का पुरुष के प्रति सहयोग ‘रामजी की गिलहरी‘ वाला कहलाया गया है। पत्नी पति के जूते-मोजे खोलती है, आदि। 

वैश्विक परिस्थितियां, युद्ध, मानवीय भावनाएं व चिंतन, कहानी के दौरान वैचारिक निबंध का आकार ले लेते हैं। बड़ा अंश पत्राचार और उसका मजमून देते हुए है, पात्र-नामों के अलावा पचासेक पेज का ‘अन्तराल‘ शीर्षक अध्याय पूरा ही पत्रों का है। इसे पत्र-निबंध शैली का रूमानी उपन्यास कहा जा सकता है, जो अपने समय के मनस को बारीकी और गहराई से दर्ज करता है।

Sunday, September 29, 2024

परिन्दे

‘जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै।‘ निर्मल वर्मा को एक बार पढ़ने के बाद वहां फिर-फिर आना होता है। पिछले दिनों ‘परिन्दे‘, कव्वे और काला पानी‘ और ‘एक चिथड़ा सुख‘ पर फिर से लौटा। वैसे उन तक पहुंचने का मेरा रास्ता, उनके निबंधों से होकर जाता है। उन्हें पढ़कर भूल जाने से ऐसा अच्छी तरह हो पाता है, क्योंकि फिर जहाज पर तभी आएंगे जब जहाज छोड़कर जाएं, जाने-अनजाने भूले-भटके ठिकानों पर, एक बार, बार-बार।

पूरा पद है- मेरो मन अनत कहां सुख पावै। जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै। निर्मल वर्मा का मन-परिन्दा नदी-समुद्र का नहीं पहाड़ का है। उनके पात्र उनकी ही तरह प्रवास के परिन्दों के मानिंद हैं, लगभग एकाकी। आप जितने अकेले होते हैं, अधूरे-से होते हैं, आसपास के अनजाने भी जाने-पहचाने लगने लगते हैं। जड़ों से दूर हों तब अपनी जड़ों से जुड़ाव अधिक महसूस होता है। जैसा वे कहते हैं- ‘होम-सिक्नेस ही एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज किसी डॉक्टर के पास नहीं है।

परिंदों में ठहराव नहीं होता, गति, प्रवास और विस्थापन होता रहता है, इस हलचल का अपना लय होता है, कुछ-कुछ वैसा ही, जैसा वातावरण वे अपने लेखन में, खासकर परिन्दे कहानी में रचते हैं। भिन्न दृष्टिकोण और मनोमुद्रा, लीक से हटकर, प्रवास-विस्थापन में अधिक सक्रिय होती है, जिसके धुंघलके को वे अपने काव्यात्मक शब्दों में पकड़ते हैं।

विस्थापन से महसूस होने वाले खालीपन, रिक्ति की पूर्ति के लिए नये संबंध बनते हैं, उनके आपसी रिश्तों में यह बार-बार उभरता है। इस तरह उसके लिए दोनों दुनिया, माया-आभासी हो जाती है। अपनी जड़ों में जहां वह नहीं है, स्मृति में वहीं टिका हुआ है और जहां सशरीर है, वहां मन भटका हुआ है। संभवतः इसी दशा में मन की झलकियां कुछ-कुछ स्पष्ट होती हैं, जिसे वे पकड़ते हैं। शीर्षक याद आते हैं- ‘आंगन का पंछी और बनजारा मन‘, ‘बसेरे से दूर‘ आदि।

मनुष्य के आपसी संबंधों को अंतिम रूप से तय कर देना शायद कभी संभव नहीं। और वह स्त्री-पुरुष के बीच हो तो और भी अनिश्चित हो जाता है। वे संबंधों को यथातथ्य रखते हैं और दिखाते हैं कि नर-नारी के बीच के संबंधों के कितने आयाम हो सकते हैं। ‘परिन्दे‘ संग्रह की संग्रह की कहानियों में ‘डायरी का खेल‘ में भाई-चचेरी बहन, ‘माया का मर्म‘ में बच्ची और युवा हैं, जिसमें ‘मैं‘ कहता है- ‘वह मेरे लिए महज़ बच्ची न रहकर लता माथुर बन गई।‘ ‘तीसरा गवाह‘ में विवाहोत्सुक स्त्री पुरुष, ‘अँधेरे में‘ के माता-पिता और बीरेन चाचा, ('फ्लाबेज लेटर्स टु जॉर्ज सां‘ से जो परिचित नहीं, वह ठगा सा महसूस करेगा।) ‘पिक्चर पोस्टकार्ड‘ के कॉलेज सहपाठी, सितम्बर की एक शाम‘ का 27 वर्ष आयु का युवक और बहिन पात्र और इनके बीच राग के विभिन्न पहलू उभरते हैं।

परिन्दे

संग्रह की पहली कहानी ‘डायरी का खेल‘, जैसा खेल वे अक्सर खेलते हैं, उनके कहानीकार में चिंतक की झलक शुरु में ही मिल जाती है- ‘अतीत समय के संग जुड़ा है, इसलिए चेतना नहीं देता, केवल कुछ क्षणों के लिए सेंटीमेंटल बनाता है। जो चेतना देता है वह कालातीत है...‘। कहानी ‘माया का मर्म‘ जिस वाक्य पर पूरी होती है- "यहाँ से बहुत दूर, सात समुन्दर पार एक छोटा-सा देश है..." फिर कहानी शुरू हो जाती है... और मैं सुनने लगता हूँ।

‘तीसरा गवाह‘ की कहानी के लिए भूमिका बनाते हैं और उसमें लपेट कर पात्र रोहतगी साहब की जबानी कहानी कहते हैं, जिसमें कहानी, अपने मर्म के साथ आती है, पात्र कहता है- ‘प्रेम-अगर ऐसी कोई चीज है तो-बहुत महत्वहीन और आकस्मिक परिस्थितियों में आरम्भ होता है और उसका अन्त भी शायद बहुत ही छोटे और अर्थहीन कारणों से हो जाता है।‘ और कहानी के अंत में पहुंचकर लगता है कि फिल्म ‘तनु वेड्स मनु‘ इसी कहानी से प्रेरित है। इस कहानी का एक अंश- ‘जब तक कमरे में अँधेरा था, ठीक था, औपचारिकता के बन्धन दब गए थे। बत्ती जलते ही अन्धकार का मौन परिचय तीखी रोशनी में डूब गया और हम नये सिरे से अजनबी हो गए।‘ एक अन्य अंश के शायद पर ध्यान जाता है- ‘वह शायद ख़ुद भी नहीं दीखती, वह शायद ख़ुद भी नहीं देख पाती। भीतर कमरे से अम्मा की आवाज़ सुनाई दी। वह शायद जाग गई थीं।‘

‘पिक्चर पोस्टकार्ड‘ कहानी का अधिकतर वार्तालाप में है। इसमें कहानियों के लिए पात्र कहता है- ‘जब तक कहने के लिए कुछ सिग्नीफिकेंट (महत्वपूर्ण) चीज़ न हो, तब तक लिखने के क्या मानी रह जाते हैं?‘ उनके स्त्री-पुरुष पात्रों में भाई-बहन भी होते हैं, जैसे ‘सितंबर की एक शाम में‘, और उनमें संवेदना के सहज-जटिल आवेगों को वे उभारते हैं, इस कहानी में भाई बहन से कता है- ‘बच्ची, तुम इतनी बुजुर्ग कब से बन गई।‘ यह भी ‘घर छोड़कर भागने, घर वापस लौटने‘ की कहानी है।

‘परिन्दे‘ में प्रवास-विस्थापन के साथ रिश्तों और उम्र का संयोग है, मन की मनमौजी गति आसानी से पठनीय बन जाए, वैसा असंभव सा सहज निर्वाह है। मुख्य पात्र लतिका याद करते मानों कहानी का सार बता रही है- ‘हर साल सर्दियों की छुट्टियों से पहले ये परिन्दे मैदानों की ओर उड़ते हैं, कुछ दिनों के लिए बीच के इस पहाड़ी स्टेशन पर बसेरा करते हैं, प्रतीक्षा करते हैं बर्फ़ के दिनों की, जब वे नीचे अजनबी, अनजाने देशों में उड़ जाएँगे...‘ या डॉक्टर कहता है- ‘मैं कभी कभी सोचता हूं इनसान जिन्दा किसलिए रहता है- ... हजारों मील अपने मुल्क से दूर मैं यहाँ पड़ा हूँ-‘ या ‘अपने देश का सुख कहीं और नहीं मिलता। यहाँ तुम चाहे कितने वर्ष रह लो, अपने को हमेशा अजनबी पाओगे।‘

विस्थापन की यह भी अभिव्यक्ति है- ‘जिस स्थान पर खिलौना रखा होता, जान-बूझकर उसे छोड़कर घर के दूसरे कोने में उसे खोजने का उपक्रम करती। तब खोई चीज याद रहती, इसलिए भूलने का भय नहीं रहता था...‘बार-बार अलग-अलग यही बात उभरती रहती है। औ पात्रों के आपसी संबंधों के ताने-बाने- लतिका-ह्यूबर्ट लतिका-डॉक्टर मुखर्जी लतिका-मेजर गिरीश नेगी। प्रिंसिपल मिस वुड, जूली-कुमाऊँ रेजीमेंट का मिलिटरी अफसर, क्या वे सब भी प्रतीक्षा कर रहे हैं? वह, डॉक्टर मुकर्जी, मि. ह्यूबर्ट-लेकिन कहाँ के लिए, हम कहाँ जाएँगे?


कव्वे और काला पानी

कहानी ‘धूप का एक टुकड़ा‘ एकालाप है। किस्से गढ़ना बात बनाना ही तो है। यहां उस तरह से बनी भी है। वे जादूई वाक्य वे गढ़ते हैं, जैसे- ‘नाम वहीं लिखे जाते हैं, जहाँ आदमी टिककर रहे-तभी घरों के नाम होते हैं, या फिर कब्रों के हालाँकि कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि कब्रों पर नाम भी न रहें, तो भी खास अन्तर नहीं पड़ता। कोई जीता-जागता आदमी जान-बूझकर दूसरे की कब्र में घुसना पसन्द नहीं करेगा!‘ या कहानी ‘दूसरी दुनिया‘ में- ‘यह नहीं कि कमरे में हीटर नहीं था, किन्तु उसे जलाने के लिए उसके भीतर एक शिलिंग डालना पड़ता था। पहली रात जब मैं उस कमरे में सोया था, तो रात-भर उस हीटर को पैसे खिलाता रहा-हर आध घंटे बाद उसकी जठराग्नि शान्त करनी पड़ती थी। दूसरे दिन, मेरे पास नाश्ते के पैसे भी नहीं बचे थे। उसके बाद मैंने हीटर को अलग छोड़ दिया। मैं रात-भर ठंड से काँपता रहता, लेकिन यह तसल्ली रहती कि वह भी भूखा पड़ा है। वह मेज पर ठंडा पड़ा रहता- मैं बिस्तर पर और इस तरह हम दोनों के बीच शीत युद्ध जारी रहता।

कहानी ‘ज़िन्दगी यहाँ और वहाँ‘ में नायिका इरा यानी बिट्टी का मैं, नायक फैटी का मैं और कथाकार की आंख-मिचौली चलती रहती है। यहां भी यात्रा-प्रवास होता रहता है- ‘फिर गर्मियां आयीं और लोग बाहर जाने लगे-नैनीताल, मसूरी, शिमला-उन मौसमी परिन्दों की तरह...‘। पात्र बाइबल का एक वाक्य दुहराता है- ‘ जिसके पास है और ...जिसके पास नहीं है। अकेलेपन की जान-पहचान अनजाने जड़-चेतन से मैत्री व्यक्ति बच्चों से तो बच्चे खिलौनों-पेड़ पौधों, प्रकृति से जुड़ने लगते हैं। जो अपनी जिंदगी को ही कहानी की तरह रचता होता है, उसके साथ ऐसा होता है कि ‘सत्तानबे पृष्ठ पर सारा पन्ना खाली पड़ा था, सिर्फ ऊपर लिखा था-लाइफ हियर-ऐंड आफ्टर! और कैसी व्यथा है- ‘बैंक के जिस खाते मेंहमने अपना प्रेम जमा किया था,क्या उसमें से मैं एक पाई विश्वास नहीं भुना सकता?‘ दूसरी तरफ- ‘उन्होंने एक दोपहर एक-दूसरे से मुक्ति पाने की प्रार्थना की थी।‘ घर और घर छोड़ना यहां भी है।

‘सुबह की सैर‘ निहालचन्द्र का मौन एकालाप, जिसे कथाकार देख-सुन रहा है, बता रहा है। प्रवासी निहालचंद्र को ग्वालियर के जंगल याद आते हैं, लद्दाख की पोस्टिंग याद आती है। या ‘यह बहुत बड़ी सांत्वना थी। निहालचन्द्र सचमुच ही कहीं नहीं जा सकते थे। सिर्फ लौट सकते थे-हर दोपहर साल में तीन सौ पैंसठ बार। बेनागा, उम्र के आखिरी दिन तक। कथाकार बताता है- ‘फिर एक लंबी साँस खींची, जो ‘आह‘ और ‘हे ईश्वर‘ के बीच जैसी कराहट में बुझ गई। एक और अंश- ‘पता नहीं, यह बात वे अपने बेटे से कहते, जो विदेश में था, या अपनी पत्नी से, जो परलोक में थी या सचमुच प्रभु से, जो कहीं न था।‘

कहानी ‘आदमी और लड़की‘ में कहन का एक ढंग यह- ‘कमरे में अंधेरा उतना नहीं था, जितना रोशनी का अभाव...‘ या एक और ‘किताब का टाइटल पढ़ती, फिर डस्टर से उसे झाड़-पोंछकर दूसरी किताबों के सिरहाने टिका देती।‘ या ‘सफेद कुँआरा हाथ, जिसने अभी तक केवल सेकेंड-हैंड किताबों को छुआ था...‘रिश्तों का उलझाव यहां भी है- ‘लोग मुझे उसकी बेटी समझते हैं, उसने सोचा ... मुझे कभी उम्र याद नहीं आती ... मुझे पता भी नहीं चलता कि वह मुझसे कितना बड़ा है। उम्र के बारे में क्या सोचना?‘ लड़की सोचती है।‘

कहानी ‘कव्वे ...‘ के प्रवाह में पाठक इस तरह डूब सकता है कि कहानी का ओझल-सा सूत्र, इस तरह अनावश्यक हो जाता है कि वह न भी रहे तो कहानी रहेगी। कहानी का सूत्र, कागज में दस्तखत का है, कहानी में जिसे महत्व नहीं दिया गया है, यो ही सा उल्लेख आता है। और कव्वे ...! आधी कहानी हो जाने पर पहली बार आते हैं, पुरखों-पितरों की तरह? फिर वही टेक, दूसरों और अपनों का फर्क समझते विस्थापन का दर्शन है। अनजानी जगह आना, भुवाली लौटना और पात्रों का एकाकीपन बना रहता है। अकेलेपन की एक अभिव्यक्ति- 'उनके स्वर में कुछ ऐसी उदास निस्संगता थी, जो हमें आदमियों में नहीं-पेड़ और पत्थरों और पानी में मिलती है जो रिश्तों की लहूलुहान पीड़ा से बाहर जान पड़ती है-क्या यह निस्संगता उन्होंने पिछले वर्षों के अकेलेपन में अर्जित की थी?'

‘एक दिन का मेहमान‘ कहानी का मेहमान और कोई नहीं घर में रह रही महिला सदस्यों मां-बेटी का पति-पिता है। आना-जाना इस तरह है कि- ‘यू आर ए कमिंग मैन एंड ए गोइंग मैन।‘ स्त्री-पुरुष संबंधों का उलझाव और द्वंद्व यहां भी है और प्रवास भी- ‘सुनो, मैं अगली छुट्टियों में इंडिया आऊँगी-इस बार पक्का है।‘

किताब के कवर पर लेखक स्वयं चित्र चस्पां है, जिसमें वह कबूतरों, (न कि कव्वे) को दाना चुगा रहा है, चित्र का मेल संग्रह की कहानी ‘दूसरी दुनिया‘ से है, जिसमें कबूतर और दाना डालने का उल्लेख है। बताया गया है कि लेखक का यह चित्र, सौजन्य: गगन गिल, सेंट मार्क, वेनिस, 1991 का है। यह संस्करण 2017 का है, यह सुरुचिपूर्ण नहीं लगता।

एक चिथड़ा सुख

पसंदीदा किताबों का मसौदा भूल जाना ही बेहतर। ऐसा शायद तब होता है जब वह अच्छी तरह जज्ब हो जाए, स्मृति में बस ‘एक चिथड़ा सुख‘ की तरह अटका रहे। ‘थिगलियां‘ से निर्मल वर्मा को पढ़ने का मन न भरा, संयोग कि ‘एक चिथड़ा सुख‘ भी साथ था। उसका बस यही टूटा-फूटा याद था- दिल्ली, इलाहाबाद, नाटक, अकेलापन, आकस्मिक पात्रों और तरल बहते काल का असमंजस, डायरी-‘शब्द और स्मृति‘।

अब देख रहा हूं कि अनायास आते पात्र, कभी स्मृति में, कभी रूपक में, कभी कहानी के सच में। पात्रों का चरित्र और व्यवहार टूटा-बिखरा, अप्रत्याशित-सा। उनका ‘अस्तित्व‘ नाम में नहीं बंधा रहता, वे अधिकतर सर्वनाम- प्रथम, मध्यम और अन्य पुरुष होते ‘उसे, वह, मैं, उसका, उससे, कौन, किसे‘ में विचरते हैं, मानो पात्र तो मनोभावों को प्रकट करने के साधन-मात्र है। 

उपन्यास के आरंभ में ही- ’यह उसे अच्छा लगता। वह अपने कपड़े उतार देता ... वह रात को देर से लौटती थी। ‘... उसका ‘वह‘ धीरे-धीरे उसके ‘मैं‘ में बदलने लगता है (पेज-124)। ’उसे नहीं मालूम, वह उससे क्या चाहती थी? फोन पर उसने कुछ नहीं बताया (पेज-193)। ’मैं भविष्य से लौट आता हूं, पुनर्जीवित हो जाता हूं, अब मैं ‘वह‘ हूं ... (पेज-199)। ’उसने कागज को लपेटकर उसके हाथ में रख दिया-उसकी गीली हथेलियों के बीच, और वह उसे पकड़े रहा। उसने पूछा नहीं, कौन, किसे देना होगा? (पेज- 206-207)। ’वहां अब कोई नहीं था। कोई नहीं था। सिर्फ वह था जो अब ‘मैं‘ हूं ... (पेज-228)

कुछ अभिव्यक्तियां, खास निर्मल वर्मा वाली- ’लम्बी-लम्बी सांसें खींचने लगता। हवा उसके फेफड़ों में घूमने लगती। रात की बची-खुची नींद उन सांसों में बह जाती (पेज-9)। ’कुत्ते सहसा शान्त हो गए थे, हवा में झरती बारिश की अफवाह को उन्होंने भी सूंघ लिया था (पेज-32)। ’बार-बार अपने को समझाने लगा कि यह सिर्फ ड्रामा है, असली ड्रामा भी नहीं, सिर्फ एक खाली दुपहर का रिहर्सल (पेज-71)। ’दाढ़ी बढ़ी थी, वैसे नही, जिसे बढ़ाया जाता है, जैसे डैरी की दाढ़ी थी, बल्कि जिसे देख कर लगता था, जैसे वह शेव करना भूल गए हों (पेज-82)। ’भय नहीं, लेकिन भयभीत, खुशी नहीं, लेकिन भयभीत-सी खुशी, एक उज्ज्वल-सा विस्मय, जिसके हाशिये पर स्याही पुती रहती है। (पेज-128)

प्रवास औैर विस्थापन की फांक से वे सारे दृश्य रचते हैं। यहां घटनाएं न-सी हैं, और जितनी होती हैं वे भी सहज तारतम्यता के बजाय औचक रहस्यात्मकता वाली होती है। निर्मल वर्मा की तरह मचल कर लिखना फिर भी लिखे को संभाले रहना, उन्हीं के बस का हो सकता है। लिखावट में वे कहानी, उपन्यास, निबंध, यात्रा-संस्मरण वाले गद्यकार हैं, अपनी बनावट में कवि-चिंतक।