किस्सागोई के लिए हमारी प्रसिद्धि यों ही नहीं है। हुआ कुछ यूं कि विलियम डेलरिम्पल ने अपनी किताब ‘सिटी ऑफ जिन्नस्‘ किताब के लिए महाभारत की ऐतिहासिकता के बारे में जानना चाहा और इसके लिए इंद्रप्रस्थ-हस्तिनापुर के उत्खननकर्ता पुराविद प्रो. बी.बी. लाल से मिलने का प्रयास किया। संयोगवश प्रो. लाल पुराना किला, दिल्ली के विश्राम गृह में रुके थे लेकिन उत्खनन प्रतिवेदन पूरा करने में व्यस्त थे, इसलिए समय न दे सके। फिर एक दोपहर फोन आया कि डेलरिम्पल, तुरंत पुराना किला पहुंच सकें तो प्रो. लाल कुछ मिनट का समय दे सकते हैं।
डेलरिम्पल, प्रो. लाल के सामने पहुंच कर समय-सीमा के कारण सीधे सवाल करते हैं- आपके विचार से महाभारत कितना ऐतिहासिक है? इसका सीधा जवाब देने के बजाय प्रो. लाल ने किस्से से बात शुरू की। यों कि, चालीसेक साल पहले 1955 में कलकत्ता से दिल्ली सफर कर रहा था। कुंभ मेला के दिन थे, इलाहाबाद स्टेशन पर अफरा-तफरी मची थी, पुलिस तैनात। पता लगा कि नागा साधु का हाथी बिगड़ गया, भगदड़ मच गई। सैकड़ों लोग कुचल कर मर गए। कई साल बाद इलाहाबाद के पास उत्खनन कराते हुए कैम्प की सांगीतिक संध्या में एक श्रमिक ने गाथा सुनाई, जिसमें 1955 वाली उस घटना का भी समावेश था, मिर्च-मसाला, अतिरंजना सहित। इस गाथा के दो अन्य स्वरूप प्रचलित मिले, किंतु मूल कथ्य में भगदड़ वाली घटना थी। इस तरह कुंभ मेला की कहानी चालीस साल में इतने रूप धर सकती है फिर महाभारत तो मोटे तौर पर घटना के 1300 साल बाद वर्तमान स्वरूप में आया है। यानि कुंभ मेला की घटना-गाथा की तरह महाभारत भी, ऐतिहासिक घटना का मसालेदार किस्सा है।
डेलरिम्पल-लाल संवाद में आया किस्सा, भूमिका है, यहां आगे आने वाले किस्से के लिए। लेकिन उस किस्से के पहले कुछ और बातें। खस की टट्टी, सुन कर लगता कि पानी डालने पर कैसी ठंडी-भीनी सुगंध आती है पर नाम टट्टी? तो याद किया कि टाट, टट्टा या टटरा जैसे शब्द भी प्रचलित हैं, जिनका आशय परदा, ओट है। बांस की खपच्चियों या अरहर के सूखे पौधों से बनी, कामचलाऊ दीवार, आड़ की तरह खड़ा कर दिया जाय या पटसन से बना मोटे कपड़े का बिछावन या डोरी से बुनी बिछाने वाली चटाई, परदे के लिए ऐसे मिलते-जुलते शब्द प्रयोग में आते हैं। तो फिर यह यानि टट्टी क्योंकर पाखाना का पर्याय हो गया। यह भी पता लगता है कि इस शब्द का एक पर्याय पाखाना/मल-त्याग, भाषा-बोली का अंतर लांघते पूरे देश में एक ही है।
अब किस्सा। हमारे एक परिचित ने बताया कि कभी रेल यात्रा में इलाहाबाद से गुजरते हुए उनकी जानकारी में अनूठा इजाफा हुआ था। इतिहास अपने को दुहरा रहा था, लेकिन इस बार कोई अफरा-तफरी नहीं थी। गाड़ी, किनारे वाले प्लेटफार्म पर खड़ी हुई और इस तरह रुकी रह गई थी, मानों यही उसका ठिकाना हो। सब कुछ ठहरा-ठहरा सा था। सहयात्री, हुलिये में ऐसा कुछ कि अपनी अधेड़ उम्र से बहुत आगे निकल चुके जान पड़ते थे, समय बिताने के लिए करना है कुछ काम, की तरह शुरू हुए, बताने लगे- पुराने जमाने में कुंभ के दौरान देश भर से जुटने वाले विशाल जन समुदाय के अनुरूप व्यवस्थाएं नहीं होती थीं, फिर भी भगवान भरोसे सब निपट ही जाता था। सन 1906 में हैजा का प्रकोप हुआ। बतकही कि हैजा के लिए कहा जाता था ‘है-जा‘, यानि जिसे यह रोग हुआ है, उसे तो बस जाना है, इसके लिए छत्तीसगढ़ी शब्द है, तलाव-उछाल यानि टट्टी-उल्टी।
इसके बाद 1918 में अंगरेज सरकार ने मेले की सारी व्यवस्था अपने हाथ में ले ली। सरकार ने पुरानी जानकारियों के आधार पर पाया कि मेले में सफाई-व्यवस्था का आलम बहुत बुरा होता है। खासकर मल-त्याग की कोई व्यवस्था न होने के कारण गंदगी और बीमारियां फैलती हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए सरकार ने बड़ी संख्या में अस्थायी शौचालयों की व्यवस्था कराई। इसके लिए चार बांस गाड़ कर उसे टट्टी से घेर कर, परदा कर दिया जाता था और उसकी नियमित साफ-सफाई होती रहे, इसका ध्यान रखा जाता था। तो होता यह था कि व्यक्ति मल-त्याग के लिए कहता कि वह टट्टी में जा रहा है, या टट्टी जा रहा है। कुंभ मेले में पूरे देश के कोने-कोने से लोग आते हैं। बस फिर क्या था, इस तरह कुंभ-1918 के बाद से टट्टी, इस अर्थ में एक साथ पूरे देश की जबान पर आ गया। इसी के साथ एक अन्य शब्द भी जुड़ा, लेकिन उसने अलग अर्थ पा लिया, वह शब्द था- ‘बमपुलिस या बंपुलिस‘ (बैम्बू पोल्स) यानि बांस के बड़े डंडे से बना सार्वजनिक शौचालय। यह सफाई कामगार, जिसके हाथ में बांस के डंडे वाला झाड़ू होता है, के अर्थ में भी प्रयोग होने लगा। बैठै-ठाले विचार के लिए, दूर की कौड़ी सही, लेकिन ‘ब्रह्मपुरीष‘ भी बमपुलिस के पास बैठता है, ब्रह्म-मुहूर्त या प्रातःकाल मल-विसर्जन।
यों तो किस्से को भी मौलिक कहना मुश्किल है फिर गूगल, विकीपीडिया के दौर में कुछ 'मौलिक' जानकारी वाली बात कहने की सोचना उसी के लिए संभव है, जो इन सबसे मुक्त है। इसलिए अब कोई सुना-गुना किस्सा भी मन में उपजे और अपनी जबान में कहना हो तो, कुछ कहने के पहले गूगल टटोल लेना होता है, कि काश! वहां न हो, तब मंगलाचरण किया जाए। जिज्ञासा हुई कि क्या ऐसा कुछ गूगल बता पा रहा है। वहां ऐसा कुछ न मिला, इसलिए किसी से किसी का सुनाया-सुना यह किस्सा। मगर फिर तलाशने लगा कि क्या 1918 के पहले टट्टी इस अर्थ में प्रयुक्त नहीं होता था। इसके लिए पुराने शब्दकोश देखने पर पता लगा कि-
सन 1884 में प्रकाशित जान टी प्लेट्स की डिक्शनरी में टट्टी के अन्य अर्थों के अलावा एक अर्थ, लैट्रिन, सामान्यतः बांस खपच्ची की चटाई से आड़ कर बनाया हो, दिया गया है। सन 1895 में बनारस से ई.जे. लजारस एंड कंपनी द्वारा प्रकाशित 'स्टूडेन्ट्स हिंदी-इंग्लिश डिक्शनरी' में टट्टी का अर्थ स्क्रीन, नेसेसरी, दिया है, वहां पाखाना या इसका समानार्थी कोई शब्द नहीं है। नागरीप्रचारिणी सभा के सन 1929 में प्रकाशित हिंदी शब्दसागर के परिवर्धित, संशोधित, सन 1995 के नवीन संस्करण में टट्टी का अर्थ 1. बांस की फट्टियों, सरकंडों आदि को परस्पर जोड़कर बनाया हुआ ढांचा... के पश्चात् टट्टी शब्द वाले मुहावरे दिए गए हैं। इस सब के बाद बहुत दूर जा कर, देर से अर्थ आते हैं- 2. चिक। चिलमन। 3. पतली दीवार जो परदे के लिये खड़ी की जाती है। के बाद 4. पाखाना तथा 5 व 6 भी तख्ता, फट्टी, छाजन आदि से संबंधित है। नागरीप्रचारिणी सभा के संवत 2008 में प्रकाशित संक्षिप्त हिंदी शब्द सागर में भी इसी तरह विभिन्न अर्थों के साथ एक अर्थ पाखाना भी आया है।
सन 1950 में प्रकाशित डेढ़ लाख शब्द संख्या वाले ‘नालन्दा विशाल शब्द सागर‘ में टट्टी का पर्याय बांस की फट्टियों का पल्ला, परदा, चिक, छाजन, आड़ जैसे समानार्थी शब्दों के बीच, (मानों ओट लिए हुए) एक अर्थ पाखाना भी है। इसी तरह इंडियन प्रेस लिमिटेड, प्रयाग से सन 1952 में प्रकाशित हिन्दी राष्ट्रभाषा कोश में चिक, चिलमन आदि समानार्थी के साथ बीच में (यहां भी मानों आड़ में) पाखाना आया है। ज्ञानमण्डल लिमिटेड, बनारस के 1952-53 में प्रकाशित ‘बृहत् हिन्दी कोश‘ में टट्टी का अर्थ इस प्रकार दिया गया है- छोटा टट्टर या पल्ला; पतला शीशा; ओट, परदा; पल्लेकी दीवार; अंगूर चढ़ानेके काम आनेवाली बांसकी फट्टियोंकी दीवार; शिकार खेलनेकी आड़; पाखाना; बारातमें निकाली जानेवाली फुलवारीका तख्ता।
कुछ अन्य स्थानों पर, यथा- 2009 में प्रकाशित प्रो. वी.रा. जगन्नाथन के जनेपा ‘छात्रकोश‘ में टट्टी जाना का अर्थ टट्टी की आड़ में मलत्याग करना दिया है, साथ ही नोट है कि- ‘अब टट्टी जाना ग्राम्य/अशिष्ट प्रयोग है, पाख़ाना ज्यादा शिष्ट प्रयोग है। 2010 में प्रकाशित प्रभात ‘बृहत् हिन्दी शब्दकोश‘ में पर्दा या बाड़ अर्थ वाले इस शब्द का प्राकृत मूल टट्टइआ, तट्टी या संस्कृत तटिका दिया गया है और अन्य अर्थों के साथ ‘शौच करने के लिए लगाया गया पर्दा (या की गई आड़) अथवा दीवारों से घिरा शौच-स्थान। शौचालय।‘ बताया गया है। 2011 में प्रकाशित ‘हिंदी पर्यायवाची कोश‘ में अन्य अर्थों के साथ गुह, गूँ, गू, गोबर, छी-छी (बच्चों के लिए), पाखाना, पुरीष, मल; ट्वाॅयलेट, जनसुविधा, पाखाना, बाथरूम, शौचालय, संडास अर्थ दिया गया है।
इससे कुछ और पीछे जाने पर संदर्भ मिला कि वैष्णव कृष्ण भक्ति के 16 वीं सदी के द्वैताद्वैतवादी संत स्वामी हरिदास थे, जिन्हें बैजू बावरा और तानसेन का गुरू माना जाता है। उनके द्वारा टट्टी संप्रदाय स्थापित किया गया था, यह संभवतः संतों-भक्तों द्वारा मोटा-झोंटा टाट वस्त्र धारण करने के कारण लोगों का दिया हुआ नाम था और समय के साथ टट्टी शब्द का ‘पाखाना‘ अर्थ प्रचलन में आ जाने के कारण इस संप्रदाय का नाम ‘सखी संप्रदाय‘ हो गया होगा।
इस तरह अनुमान होता है कि टट्टी शब्द का एक अर्थ प्रयाग कुंभ 1918 के पहले भी यदा-कदा ‘पाखाना‘ होता रहा है किंतु व्यापक प्रचलन में संभवतः किस्सागो मित्र की स्थापना के अनुरूप उसके बाद ही आया। यह भी स्पष्ट हुआ कि टट्टी ने पाखाना अर्थ ओट में जाने, किए जाने के कारण पाया। फिर भी यह नहीं पता लग सका कि इस अर्थ में पहली बार कहां और किस तरह, किसने प्रयोग किया। हां, 1988 में प्रकाशित भोलानाथ तिवारी और रिसाल सिंह द्वारा 11वीं से 16वीं सदी तक के आधार-साहित्य वाले ‘आदिकालीन हिन्दी शब्दकोश‘ में यह शब्द नहीं है।
इस किस्से की तरह यह शब्द और क्रिया ‘दस्त, पेश-आब‘ और 'चने के खेत में...' जैसी शायरी करने वाले 19वीं सदी के लखनवी शायर शेख बाकर अली ‘चिरकिन‘ का सहारा बना था। बहरहाल, इस्तेमाल के साथ शब्द, शायद इसी तरह नये-पुराने अर्थ ग्रहण करते रहते हैंं, प्रचलन में आते-जाते रहते हैं। जैसे यह शब्द टट्टी, जिसके लिए नंबर दो, मल-त्याग, दिशा-मैदान, तालाब, संडास, बाहर, हाजत-फरागत, जो अब लैट्रिन, पाखाना, बाथरूम, टायलेट होते हुए पाॅटी तक आ गई है, कारण साफ है कि अन्य अनेकों शब्दों की तरह, विशेषकर इस तरह की संज्ञा-क्रिया, नेचरकाॅल, नित्य-कर्म के लिए सभ्य जबान नये-नये शब्दों और शब्दों के अलग आशय-अभिप्राय विकसित-ग्रहण करती रहती है।
पुनश्च-
जानदार तो वही किस्सा, जो फले-फूले और जिसकी जड़ भी निकल आए। तो जिस तरह हाथी भगदड़ घटना के कई कथा-रूप बने, इस किस्से में एक और हिस्सा जोड़ा, हमलोगों के गंवई गूगल बबा, रिश्ते में मेरे पितामह, अकलतरावासी रवीन्द्र सिसौदिया यानि रवि बबा ने। वह इस तरह। बात उन्नीस सौ बासठ-पैंसठ की है। एक थे पंडित माधव प्रसाद चतुर्वेदी। किस्सा नहीं हकीकत। रायपुर के पुराने से पुराने कालेज, छत्तीसगढ़ महाविद्यालय से प्रथम श्रेणी में बी.ए. पास किया। दर्शन शास्त्र और अंगरेजी के जैसे तेज विद्यार्थी, इन परचों में वैसे ही बहुत अच्छे अंक भी आए। प्राचार्य जे. योगानंदम का आशीर्वाद मिला और आगे की पढ़ाई के लिए सागर जाने का परवाना, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के लिए। चतुर्वेदी जी अंगरेजी छोड़ हिंदी शरणागत हुए। चतुर्वेदी जी, सर से भैयाजी फिर अंतिम दिनों में बाबाजी बने, अविवाहित रहे, उनका उत्तरार्द्ध खरौद-शिवरीनारायण में बीता। भैयाजी द्वारा सिसौदिया जी को सुनाया किस्सा, जो सिसौदिया जी से मैंने सुना, वह कुछ ऐसा ही था, जिसे भैयाजी ने आचार्य नंददुलारे वाजपेयी और रामविलास शर्मा की बातचीत में सुना था।
इस तरह किस्से पर अब कइयों, बड़े-बड़ों की मुहर भी लग गई। रवि बबा ने यह भी बताया कि ब्रह्मपुरीष, दूर की कौड़ी नहीं, हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसका प्रयोग किया है, कब, कहा?, इसका जवाब फिर कभी, फिर कहीं।
फिर हाजिर-
1977-78 में प्रकाशित, ‘नाच्यौ बहुत गोपाल‘ अमृतलाल नागर का प्रसिद्ध उपन्यास है। पुस्तक के आरंभ में नागर बताते हैं कि झाड़ा, पोखरा, बहरी अलंग आदि प्रचलित शब्द हमारी प्राकृतिक आवश्यकता की पूर्ति की जगहों का इशारा करते हैं। और सार्वजनिक शौचालय के अर्थ में प्रयुक्त होने वाले शब्द के रूप में ‘बम्पुलिस‘ का उल्लेख है। आगे हजारी प्रसाद द्विवेदी का संदर्भ है कि बम्पुलिस का शुद्ध रूप ‘ब्रह्म पुरीष‘ है, यज्ञकर्ता ब्राह्मणों के सार्वजनिक उपयोग के लिए बनाए जाने वाले शौचालय। लेकिन नागर संदेह करते हैं कि ब्रह्म, बरम बनता है न कि बम। फिर वे रामविलास शर्मा से पतासाजी करते हैं, तब शर्मा कुंभ मेले में ‘बैम्बू पोल्स‘, शौचालय और टट्टी का खुलासा करते हैं।
अपनराम ब्रह्म को आजमाएं तो, ब्रह्म में ह का अ होते हुए लोप होना सहज है और ब्र, बर बन जाता है, इससे ब्रह्म का बरम बनता है, लेकिन यह ब्रम की तरह भी उच्चारित होता है। इसकी अधिक घिसाई हो तो र भी ह की तरह अ होते लुप्त हो सकता है, खासकर तब, जब प यानि पुरीष या पोल्स वाले शब्द से इसकी संधि होनी हो। ह और र के लोप के बाद बचे ब-म ध्वनि की संधि प से हो तो (प, ब और म एक ही वर्ग के वर्ण हैं।) बम्प या बपं बनने की संभावना बराबर की दिखती है और पुरीष, पुलिस से करीब है ही, पोल्स भी बहुत दूर नहीं। नागर ने यहां मल-त्याग के लिए ‘प्राकृतिक आवश्यकता की पूर्ति‘ शब्द प्रयोग किया गया है, यह वैसा ही है, जैसे नित्य-कर्म या हस्बेमामूल या हाजत, जो सीधे समानार्थी नहीं, बल्कि इस अर्थ में रूढ़ हो गए हैं।
पढ़ा-सुना-गुना, न तेरा न मेरा, कच्चा-पक्का पेश कर अब फारिग होता हूं।