Sunday, September 30, 2012

अक्षय विरासत

साहित्य और पत्रकारिता विरासत में प्राप्त लेखक डा. सुशील त्रिवेदी द्वारा पिता पं. स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी की स्मृति को सादर समर्पित 'अक्षय विरासत' शीर्षक के साथ साहित्य और संस्कृति भी है। नामानुरूप संग्रह इसी प्रकार नियोजित है। प्रकाशकीय से यह स्पष्ट नहीं होता, जैसाकि लेखकीय प्राक्कथन में कहा गया है- ''इस ग्रंथ में उन लेखों का संग्रह प्रस्तुत है, जो साहित्य और कला के अंतर्संबंध को उजागर करते हैं।'' लेकिन यहां भी संग्रह के लेखों का पूर्व प्रकाशित, प्रकाशन संदर्भ और तिथि उल्लेख की दृष्टि से सूचना अधूरी है।

संग्रह के पहले हिस्से के 11 लेख साहित्य के हैं और बाद के 9 संस्कृति की विरासत पर हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से गहरे प्रभावित पहला लेख, साहित्य और संस्कृति के समन्वय पर है, उद्धरण है- ''रचनाकारों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे दिक्‌ और काल में होने वाले घटनाओं और द्वन्द्वात्मकता को जानें और इसे जानने के दौरान वे इतिहास, संस्कृति, कला, रचना और भाषा के आधार बिन्दुओं को जानने की कोशिश करें।'' लगता है कि यह किसी कार्यशाला में दिया गया सूचनात्मक निर्देश है या इन पंक्तियों का लेखक स्वयं के रचनाकार को चेता रहा है। बहरहाल यह अंश लेख के और इस संग्रह के भी आशय को रेखांकित करता है।

इसके बाद पुस्तक के 54 पेज यानि लगभग एक तिहाई में तीन लेख, डा. त्रिवेदी की शोध-उपाधि और विशेषज्ञता-क्षेत्र यानि जगन्नाथ प्रसाद भानु के व्यक्तित्व और कृतित्व पर हैं। इनमें भानु जी के सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ छन्दः प्रभाकर का विस्तार से परिचय है। साहित्यशास्त्र पर हिन्दी में कम सामग्री मिलती है, बातें भी कम ही होती हैं, लेकिन इस पक्ष पर 'काव्य प्रभाकर' भानु जी की महत्वपूर्ण और विशिष्ट रचना है, संग्रह में पूरी गंभीरता और गरिमा के साथ यह प्रस्तुति स्तुत्य है। ऐसा लगता है कि भानु जी पर ये लेख अलग-अलग समय पर लिखे और प्रकाशित हुए, क्योंकि इनमें कहीं-कहीं दुहराव है। वैसे इन्हीं विषयों पर दो अन्य स्वतंत्र पुस्तकें, भानु जी की जीवनी और ''छन्दः प्रभाकर'' का नया संस्करण भी लेखक ने तैयार किया है।

हिन्दी के प्रथम साहित्यशास्त्री भानु जी पर लेखों के बाद हिन्दी साहित्य के कुछ अन्य 'पहले-पहल' हैं। ठाकुर जगमोहन सिंह हिन्दी रचना में फैंटेसी विधि के आविष्कर्ता के रूप में दर्ज हैं। भानु जी की तरह ठाकुर साहब की भी रचना भूमि भी छत्तीसगढ़ रही है। इस लेख में पृष्ठ 77 और 79 पर अशोक बाजपेयी के 'फैंटेसी' कथन का उद्धरण दुहराव लगता है। हिन्दी समालोचना के प्रवर्तक और हिन्दी के पहले कहानीकार माधवराव सप्रे की कहानी के लिए पृष्ठ 82 पर ''एक टोकरी मिट्टी'' नाम बताया गया है, यही कहानी देवीप्रसाद वर्मा संपादित पुस्तक में ''टोकरी भर मिट्टी'' शीर्षक से प्रकाशित है, जबकि पं. माधवराव सप्रे साहित्य शोध केन्द्र-समिति के प्रकाशनों में उल्लेख मिलता है कि 'छत्तीसगढ़ मित्र' के अप्रैल 1901 के अंक में छपी कहानी का शीर्षक ''एक टोकरी भर मिट्टी'' है। दो और 'पहले पहल' हिन्दी के पहले मौलिक नाटक 'आनंद रघुनंदन' के कुंवर विश्वनाथ सिंह पर तथा हिन्दी के पहले मौलिक उपन्यासकार बाबू देवकीनंदन खत्री पर लेख भी महत्वपूर्ण हैं।

संस्मरण के रूप में 'मास्टर जी' पदुमलाल पुन्नालाल बख्‍शी पर लेख में छायावाद के उद्‌भावक माने जाने वाले पं. मुकुटधर पांडेय और छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के अग्रदूत कहे गए पं. स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी के उल्लेख से रेखांकित होता है कि इस संग्रह की योजना में ठोस उदाहरणों सहित, हिन्दी साहित्य के आरंभिक काल में छत्तीसगढ़ का अद्वितीय अवदान, अघोषित लेकिन विद्यमान है। संग्रह के एक अन्य लेख में भारत में नवजागरण के साथ हिन्दी की स्थिति का विवेचन महावीर प्रसाद द्विवेदी को केन्द्र में रख कर किया गया है, यह संक्षिप्त सा लेख देश और हिन्दी के साथ साहित्य पर युग-दृष्टि का जैसा नमूना है, वह सहज उपलब्ध नहीं होता।

संग्रह के दूसरे हिस्से के 9 लेखों में संस्कृति के सभी पक्षों को गहरी समझ लेकिन सहज अभिव्यक्ति सहित स्पर्श किया गया है। इस क्रम में ऋग्‍वेद, गांधी, नेहरू, गोविंदचन्द्र पांडे, रमेशचंद्र शाह, अमर्त्य सेन, भगवत शरण उपाध्याय, महर्षि अरविन्द, हर्मन गूज आदि के कथनों से अपनी स्थापनाओं को स्पष्ट और पुष्ट करते हुए डा. त्रिवेदी लिखते हैं- ''संस्कृति का स्वभाव आदान-प्रदान है। जो जाति केवल देना ही जानती है, लेना नहीं, तो उसकी संस्कृति समाप्त हो जाती है। इसके विपरीत जो संस्कृति दूसरों से ग्रहण करती है, वह सदा फलती-फूलती रहती है। (पृष्ठ-118)''

संस्कृति संबंधी अन्य लेखों में लोक और शास्त्रीय संगीत पर विचार करते हुए स्पष्ट किया गया है कि- ''शास्त्रीय संगीत अपना जीवन रस सदैव लोक संगीत से ही लेता आया है। लोक में प्रचलित संगीत जब संस्कार और परिष्कार की प्रक्रिया के द्वारा प्रतिष्ठित होता है, जब उसका अनुसंधान सुसंस्कृत व्यक्ति करते हैं, जब उसका अपना व्याकरण बन जाता है, तब वह शास्त्रीय संगीत का पद प्राप्त करता है।'' इसके साथ एक स्थान पर लेखकीय व्यथा है कि- ''यह दुःख की बात है कि लोक का उपयोग कुछ कम सम्मानजनक ही होता है।'' लेखक, हिन्दुस्तानी संगीत और कर्नाटक संगीत के मिश्रण की जरूरत पर प्रश्न उठाता है लेकिन दोनों ही शैलियों को उनके मौलिक रूप के अनुसार विकसित होने में अपने किसी सुझाव या स्थापना के बजाय प्रबुद्ध और मननशील संगीतकार और संगीतज्ञों की भूमिका को आवश्यक मानता है। 'साहित्य और कलानुशासनों की अंतर्निर्भरता' लेख में चित्रकला, संगीत, नृत्य, उपसंहार उपशीर्षकों और भूमिका के साथ कला के स्वरूप पर समग्र दृष्टि से विचार किया गया है। लेख 'भारतीय शास्त्रीय नृत्यः प्राचीन से समकालीन तक' पढ़कर लगता है कि कलाप्रेमी सजग पाठक अपनी समझ और अनुभूतियों को वैचारिक क्रम देते हुए उसकी व्यवस्थित प्रस्तुति कर दे तो वह अन्य के लिए भी किस तरह पठनीय सामग्री और आम पाठक के लिए विषय की प्राथमिक समझ बनाने में भी मददगार हो जाता है।

आकाशवाणी भोपाल के लिए श्रीमती रूक्मिणी अरूंडेल तथा हबीब तनवीर जी के साक्षात्कार के अवसर को दो लेखों में संस्मरण के रूप में प्रस्तुत करते हुए इन व्यक्तित्वों की कला साधना और विशिष्ट पहलुओं को उजागर किया गया है। संग्रह के अंतिम लेख में लोक कला को मानों परिभाषित करते हुए कहा गया है- ''लोक परंपरा में मानव की सौंदर्यमूलक, सृजनशीलता अलग-अलग रूपों में और अलग-अलग माध्यमों में होने वाली अभिव्यक्ति लोक कला है।'' इस पीठिका पर लोक कलाओं की मंचीय प्रस्तुति तथा श्री झाड़ूराम देवांगन से हुई विस्तृत चर्चा में लेखक पंडवानी के अनगढ़ व्याकरण के साथ कापालिक और वेदमती शाखाओं का अंतर बताते हुए असमंजस में जान पड़ता है, लेकिन पूरे प्रसंग को विचार मंथन की तरह प्रस्तुत करते हुए निष्कर्ष पर पहुंचता है- ''यह एक सच्चाई है कि न केवल पंडवानी वरन अन्य कला रूपों का भी स्वरूप अपना मूल ऐन्द्रिय आकर्षण खो रहा है। शायद यह हमारे आर्थिक विकास और सामाजिक बदलाव की एक कीमत है।''

पत्रकारिता-मीडिया का शास्त्र रच रहे सूचना-समृद्ध सर्जक डा. त्रिवेदी की सजग-स्मृति, संदर्भ-सूत्रों का समग्र या समन्वित नहीं बल्कि आधुनिक प्रवृत्ति का 'समावेशी' (उन्हीं के शब्दों में) प्रयोग करने के लिए सदैव तत्पर रहती है और इसके चलते वे समयबद्ध-नियमित बहुविध लेखन कर पाते हैं। वे राय बनाने में समय लगाते हैं, लेकिन प्रकट करने में नहीं और अपनी राय भी फैसले की तरह सुनाते हैं, इस मामले में उनकी बेबाकी और तेवर उन्हें प्रखर समीक्षक की प्रतिष्ठा दिलाती है। कई बार उनकी तटस्थ टिप्पणियां तल्ख हो जाती है और कभी विनम्रता, व्यंग्यात्मक भी। उन्हें विरासत में मिली पत्रकार दृष्टि विषय को सहज और आम रुचि के पाठकों के लिए भी उपयोगी बनाने में सहायक हो जाती है वहीं विश्लेषण और मूल्यांकन करते हुए वे गणितीय पद्धति का इस्तेमाल करते दिखते हैं। कहीं यह भी लगता है कि किसी घटना या दौर के उल्लेख बिना लिखी गई 'संपादकीय' पढ़ रहे हों।

प्रसंगवश, कला समीक्षक डा. त्रिवेदी मूलतः जनसंपर्क विभाग के, फिर भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे हैं और सुदीर्घ प्रेस-प्रशासनिक अनुभव सहित अब भी महती कार्य-दायित्व के साथ व्यस्त हैं। मध्यप्रदेश में संभागीय उत्सवों के आरंभ 1973 से भारत भवन की स्थापना 1982 तक का दौर रहा, जब वे भोपाल के कलाधानी बनने के साक्षी ही नहीं, अभिलेखक भी रहे और यह क्रम इसके पूर्वापर निरंतर रहा है। कलारूपों पर उनका इतना और ऐसा लेखन चकित करने वाला है। उल्लेखनीय यह भी है कि वे ऐसे दुर्लभ प्रशासनिक अधिकारी हैं, जो कला समीक्षक कहलाना न सिर्फ पसंद करते हैं, बल्कि इस पहचान से सम्मानित भी महसूस करते हैं, उनका यह स्वभाव कला, परम्परा और विरासत के सम्मान का अपना ढंग माना जा सकता है।

संपादन-मुद्रण में प्रभावी कवर वाली इस पुस्तक में पृष्ठ 32 के आरंभ में भगीरथ प्रसाद, नाम के साथ पहले 'डॉ.' फिर इसी पेज के अगले पैरा में 'डाक्टर' है, पुस्तक में 'हिन्दी' कहीं 'हिंदी' भी छपा है, प्रूफ की कुछ अन्य भूलें खटकने वाली हैं। लेख-6 की छपाई में पंक्तियों के बीच का अंतर सामान्य से कम है तो लेख-8 का फान्ट कुछ बड़ा है।

पुस्‍तक विमोचन, 29 सितम्‍बर 2012, रायपुर
कृति, प्रकाशन और विमोचन के बीच पढ़नी हो, जैसा इस पुस्तक के लिए हो रहा है, तो उसके साथ नाजुक बर्ताव करना होता है, फिर यदि पढ़ते हुए उस पर लिखने की बात ध्यान में रहे तो सहज पाठकीय रसास्वादन भी मुश्किल होता है, पढ़ने का सहज आनंद जाता रहता है सो, मेरे लिए यह पुस्तक कुछ समय बाद दुबारा और शायद बार-बार पढ़नी जरूरी होगी, संदेह नहीं कि ऐसा उनके साथ भी होगा, जिनके हाथ यह कृति विमोचन के बाद पहुंचेगी।

इस 'अक्षय विरासत' के लगभग आधे लेख 2011 में प्रकाशित
लेखक की पुस्‍तक 'छत्‍तीसगढ़ और उसकी अनन्‍यता'
में भी शामिल हैं.
यह पोस्‍ट रायपुर से प्रकाशित पत्रिका 'इतवारी अखबार' के 21 अक्‍टूबर 2012 के अंक में प्रकाशित।

Thursday, September 27, 2012

एकताल

केलो-कूल पर कला की कलदार चमक रही है। यह आदिम कूंची की चित्रकारी के नमूनों, कोसा और कत्थक के लिए जाना गया है। यहां रायगढ़ जिले की छत्तीसगढ़-उड़ीसा सीमा से लगा गांव है- एकताल। इस नाम का कारण जो हो, पूरे गांव की लय, सुर और ताल एक ही है। यहां के झारा या झोरका कहे जाने वाले धातु-शिल्पियों की कृतियों में मानों सदियां घनीभूत होती हैं, प्रवहमान काल-परम्परा ठोस आकार धरती है। इनमें श्रम, कौशल, तकनीक और कला का सुसंहत रूप मूर्तमान होता है।

एकताल, जिला मुख्‍यालय रायगढ़ से आवाजाही के लिए नवापाली हो कर 15 किलोमीटर लंबा रास्ता है, लेकिन नियमित चलता रास्ता 20 किलोमीटर और उड़ीसा के कनकतुरा गांव हो कर जाता है। लगभग 700 जनसंख्‍या वाला यह अकेला गांव होगा, जहां के 7 शिल्पी, यानि आबादी का 1 प्रतिशत, राष्ट्रपति पुरस्कृत हैं। झारा, पारम्परिक रूप से आनुष्ठानिक कृतियां और आभूषण बनाया करते थे, जिनमें कान का गहना मुंदरा और फंसिया, बच्चों के लिए पैर की पैरी, पैसा रखने का मुर्गी अंडा आकार का जालीदार कराट, आभूषण रखने के लिए ढक्कनदार कलात्मक नारियल, पोरा बैल, दिया-जागर, नपना मान और अगहन पूजा के लिए लक्ष्मी होती। ये कृतियां धातु शिल्प की प्राचीनतम ज्ञात मोमउच्छिष्ट प्रणाली (Lost-wax process) से बनती हैं। 10 किलो की कलाकृति बनाने में लगभग 7 किलो पीतल और 700 ग्राम छना-साफ किया हुआ मएन-वैक्स की आवश्यकता होती है, जिसमें धूप और तेल मिलाया जाता है। पहले वैक्स सुलभ न होने के कारण सरई धूप (साल वृक्ष के गोंद-राल) में तेल मिलाया जाता था।

शिल्पी झारा समुदाय के विशाल देवकुल में धरती माता, बूढ़ी दाई, चेचक माता, गुड़ी माता, सेन्दरी देवी, कलारी देवी, काली माई, चंडी देवी, रापेन देवी, बोन्डो देवी, चारमाता, अंधारी देवी, सिसरिंगा पाट, सारंगढ़िन देवी, चंद्रसेनी देवी, नाथलदाई, मरही देवी, खल्लारी माता, बमलेश्वरी, घाटेसरी देवी, घंटेसरी देवी, मन्सा देवी, समलाई देवी, दुर्गा, भवानी, कालरात्रि, कंकालिन, खप्परधारी और न जाने कितनी देवियां है, लेकिन करमसैनी देवी का मान सबसे अधिक है। क्वांर नवरात्रि में पहले मंगलवार को, (दशहरा के समय) करमा वृक्ष में करमसैनी की पूजा करते हैं। गीत गाते हैं- ''जोहार मांगो करमसैनी, अपुत्र के पुत्र दानी, निधन के धन दानी, अंधा ल चक्खु दान दे मां करमसैनी।''

इन कल्पनाशील शिल्पियों में से गोविन्दराम ने अपने समुदाय की गाथा, मान्यता, धारणा, आस्था और विश्वास को कृतियों में ढालना आरंभ किया और करमसैनी के करमा वृक्ष को मूर्त कलाकृति का रूप दे कर 1984-85 का शिखर सम्मान प्राप्त किया। गौरांगो तथा श्यामघन ने गढ़ी राकस-चुरैल (राक्षस-चुड़ैल) की आकृति, जिस पर वे दोनों 1986 में राष्ट्रपति से पुरस्कृत हुए। इसे और सुघड़ रूप दे कर गोविन्दराम भी 1987 में राष्ट्रपति पुरस्कार के हकदार बने, उन्हें 2005 का दाउ मंदराजी सम्मान भी मिला है। गोविन्दराम के बाद एकताल के धनीराम को 1997 में, रामलाल को 1998 में, उदेराम को 2002 में और धनमती को 2003 में राष्ट्रपति पुरस्कार मिला है।

उधर बस्तर में सुखचंद (घड़वा) पोयाम को 1970 में, जयदेव बघेल को 1977 में, राजेन्द्र बघेल को 1996 में और पंचूराम सागर को 1999 में राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त हुआ है। छत्तीसगढ़ से जयदेव बघेल और रजवार कला की सोनाबाई को (नवंबर 2012 में गोविन्दराम को भी) शिल्प गुरु सम्मान भी मिला है तो बस्‍तर के सुशील सखूजा जैसे नवाचारी ढोकरा-ढलाई कलाकार ने इस शिल्‍प को देश के बाहर भी एक अलग पहचान दिलाई है।

इन बरसों में इनकी बनाई कलाकृतियों की मांग वैसी नहीं रही। समय के साथ झारा शिल्पियों ने सीखा कि कृतियों के साथ कहानी जरूरी है और यह भी कि सरकार से मिलने वाले सम्मान की बात ही कुछ अलग है। अब उनकी कृतियां आज के दौर का भी अभिलेखन कर रही हैं।
भीमो बताते हैं- पत्नी के साथ मिल कर 15 किलो की 3 फीट की कलाकृति बनाने में 2 महीना लगा। चित्र में साथ 'कहानी'। शिल्प पर लेख है- छत्तीसगढ़ शासन कि उचित मुल्य कि दूकान। रू 2 रू चावल किलो का काहनी
प्रमाण पत्र के साथ श्री भीमो झारा

समय की नब्‍ज समझते, नए प्रतिमान गढ़ते ढोकरा शिल्‍पी परम्‍परा के साथ प्रासंगिक हैं

Sunday, September 23, 2012

पद्म पुरस्कार

सितम्बर का महीना, खासकर आखिरी सप्ताह में पद्म पुरस्कारों के लिए सक्रियता बढ़ जाती है, भारत सरकार के गृह मंत्रालय में प्रविष्टि पहुंचने की तारीख 1 अक्टूबर तय हुआ करती है। 25 जनवरी निर्धारित होती है, पद्म पुरस्कारों की घोषणा के लिए और इन्हीं दो तारीखों के बीच पुरस्कार समारोह होता है।
पद्मश्री पुरस्‍कार के प्रमाण पत्र और पदक
इसी बीच छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा लिए गए निर्णय की खबरें अखबारों में आईं- 18 अप्रैल 2012, बुधवार को दैनिक भास्कर, रायपुर के मुखपृष्ठ पर समाचार छपा कि ''पद्म पुरस्कारों से सम्मानित लोगों को मासिक सम्मान निधि देने वाला छत्तीसगढ़ देश का पहला राज्य बनने जा रहा है। यह निधि 5 हजार रुपए होगी। राज्य कैबिनेट की मंगलवार को हुई बैठक में यह निर्णय लिया गया। ... राज्य में दस पद्म पुरस्कार प्राप्त हस्तियां हैं। इनलोगों ने राज्य का गौरव बढ़ाया है इसलिए सरकार ने उन्हें मासिक सम्मान देने का फैसला किया है।''
18 अप्रैल के दैनिक नवभारत, रायपुर के पृष्ठ-6 पर समाचार के अनुसार ''कैबिनेट के इस फैसले से राज्य के 17 पद्म पुरस्कार विजेताओं को लाभ मिलेगा। ... इसके लिए पद्म पुरस्कार विजेताओं को कोई आवेदन देने की आवश्यकता नहीं होगी।''
19 अप्रैल के दैनिक देशबन्धु, रायपुर के कैपिटल जोन संपादकीय में इस फैसले पर कई सवाल उठाते हुए कहा गया कि ''बेहतर हो कि शासन इन निर्णय पर पुनर्विचार करे। अगर नहीं तो जो सक्षम विभूतियां हैं उन्हें स्वयं इस सम्मान राशि लेने से सविनय इंकार कर देना चाहिए।''
पद्म पुरस्‍कार 2010 समारोह का समूह चित्र
इस सिलसिले में पद्म पुरस्कारों और छत्तीसगढ़ से संबंधित कुछ पक्षों पर ध्यान गया, उसमें सबसे खास तो यह कि पद्म पुरस्कारों की सूची में किसी वर्ष में एक राज्य से जितने व्यक्ति सम्मानित हो जाते हैं, छत्तीसगढ़ के हिस्से आए अब तक के कुल पुरस्कारों की संख्‍या भी इससे कम है। यह भी लगता है कि किसी वर्ष के लिए छत्तीसगढ़ से जाने वाली कुल प्रविष्टियां भी बमुश्किल उतनी होती है, जितनी किसी अन्य राज्य के पुरस्कृतों की संख्‍या। संभवतः इसके पीछे सबसे बड़ा कारण शायद जानकारी का अभाव है। इस हेतु निर्धारित प्रक्रिया और प्रपत्रों सहित समय पर प्रविष्टि की प्रस्तुति आवश्यक होती है। सम्मान/पुरस्कार के लिए प्रतिभा और योग्यता के साथ जागरुकता और उद्यम भी जरूरी होता है। 

पद्म पुरस्कारों के लिए प्रविष्टियों के लिए प्रोफार्मा इंटरनेट पर उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त 1954 से 2011 तक के पद्म पुरस्कृतों की वर्षवार सूची तथा खोज सुविधा भी है। निजी स्तर पर जुटाई जानकारी के साथ नेट पर मिली वर्षवार सूची की मदद से छत्तीसगढ़ से संबंधित, जिनकी जन्‍मभूमि/कर्मभूमि या गहरा जुड़ाव छत्‍तीसगढ़ से रहा, पुरस्कृतों की सूची बनाने का प्रयास किया, इसमें वर्षवार सूची का सरल क्रमांक और राज्य का नाम दर्शाया गया है, वह इस प्रकार है-

डा. दि्वजेन्‍द्र नाथ मुखर्जी -1965–पद्मश्री 46 पश्चिम बंगाल
पं. मुकुटधर पाण्डेय -1976–पद्मश्री 58 छत्‍तीसगढ़
श्री हबीब तनवीर -1983-पद्मश्री, 2002-पद्मभूषण 65 दिल्‍ली 22 मप्र
श्रीमती तीजनबाई -1988-पद्मश्री, 2003–पद्मभूषण 19 मप्र, 1 छत्‍तीसगढ़
श्रीमती राजमोहिनी देवी -1989–पद्मश्री 20 मप्र
श्री धरमपाल सैनी -1992–पद्मश्री 91 मप्र
डा. अरुण त्र्यंबक दाबके -2004–पद्मश्री 23 छत्‍तीसगढ़
सुश्री मेहरुन्निसा परवेज -2005–पद्मश्री 68 मप्र
श्री पुनाराम निषाद -2005–पद्मश्री 67 छत्‍तीसगढ़
डा. महादेव प्रसाद पाण्डेय -2007–पद्मश्री 81 छत्‍तीसगढ़
श्री जॉन मार्टिन नेल्सन -2008–पद्मश्री 82 छत्‍तीसगढ़
श्री गोविंदराम निर्मलकर -2009–पद्मश्री 90 छत्‍तीसगढ़
डा. सुरेन्द्र दुबे -2010–पद्मश्री 62 छत्‍तीसगढ़
श्री सत्यदेव दुबे -2011–पद्मभूषण 11 महाराष्‍ट्र
डा. पुखराज बाफना -2011–पद्मश्री 43 छत्‍तीसगढ़

डा. दि्वजेन्‍द्रनाथ मुखर्जी का बैरन बाजार, रायपुर का बंगला।
बताया जाता है कि बागवानी के शौकीन डा. मुखर्जी ने
सेवानिवृत्ति के बाद संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ जेनेवा में नियुक्ति के
प्रस्ताव को बगीचे के मोह में ठुकराया था।
डा. मुखर्जी को टेनिस, फोटोग्राफी, शिकार, चित्रकारी तथा
वन और पशु-पक्षियों सहित कुत्तों का शौक रहा।
कविता करने वाले डा. मुखर्जी ने बच्चों के लिए बांग्ला में
पुस्तक 'मोनेर कोथा' - मन की कथा भी लिखी।
इस सूची में छत्तीसगढ़ के दो और नाम जुड़ जाएंगे-
श्रीमती शमशाद बेगम- 2012-पद्मश्री छत्तीसगढ़
श्रीमती फुलबासन बाई यादव– 2012-पद्मश्री छत्तीसगढ़
श्रीमती शमशाद बेगम -  श्रीमती फुलबासन बाई यादव
इस प्रकार अधिकृत सूची के अनुसार 1954 से 2011 तक छत्तीसगढ़ से 9 व्यक्ति तथा इसके अतिरिक्‍त 2012 के 2, यानि कुल 11 व्यक्तियों के नाम छत्‍तीसगढ़ के पद्म पुरस्कृत सूची में हैं।

यहां उल्‍लेख है कि विभिन्‍न क्षेत्रों में असाधारण योगदान के लिए विभिन्‍न राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार से सम्‍मानित व्‍यक्तियों के बारे में खोजना भ्रामक और समय लगाने वाला कार्य है। भारतीय राष्‍ट्रीय पोर्टल अंतनिर्मित खोज सुविधा के साथ विभिन्‍न प्रतिष्ठित पुरस्‍कारों को प्राप्‍त करने वाले व्‍यक्तियों पर सत्‍यापित जानकारी प्रदान करता है, लेकिन इस सूची में श्री नेलसन का नाम 2008 व 2009, दो बार है, जबकि डा. पुखराज बाफना का नाम नहीं है।
मीडिया/कैमरा उन्‍मुखता में समय के साथ अंतर आया है?
इस वर्ष की प्रविष्टियों के लिए शुभकामनाओं सहित आशा है कि छत्‍तीसगढ़ की पद्म सूची में कई नए नाम जुडेंगे।

पुनश्‍चः 25 जनवरी 2013 को हुई घोषणा से पद्मश्री सूची में छत्तीसगढ़ से कला क्षेत्र में स्‍वामी जी.सी.डी. भारती उर्फ भारती बंधु का, 2014 में कला-प्रदर्शनकारी कला क्षेत्र में अनुज (रामानुज) शर्मा का, 2015 में खेल क्षेत्र में सुश्री सबा अंजुम का, 2016 में कला-लोक संगीत क्षेत्र में श्रीमती ममता चन्‍द्राकर का, 2017 में अन्य (पुरातत्व‍) क्षेत्र में श्री अरुण कुमार शर्मा का नाम जुड़ गया है।

संबंधित एक अन्‍य पोस्‍ट - छत्‍तीसगढ़ पद्म

Tuesday, September 4, 2012

राम-रहीम

''बेगम साहिबा की छींक का कारण था, उनकी जूती के नीचे आ गया मुआ नीबू का छिलका।'' यह भी कहा जाता है कि सर्दी-जुकाम ऐरे गैरों को होता है, लखनवी तहजीब वालों को सीधे नजला होता है। मुस्लिमों के साथ नजाकत-तहजीब, शेरो-शायरी, बिरयानी और जिक्र आता है ताजमहल का। वैसे कई-एक की नजर में ''ताजमहल प्रारम्भ से ही बेगम मुमताज का मकबरा न होकर, प्राचीन शिव मन्दिर है जिसे तेजो महालय कहा जाता था।'' चलिए, इसी बहाने हमारी श्रद्धा बनी रहे मानव कौशल के इस नायाब नमूने पर। वैसे भी संरचनाओं का शैलीगत वर्गीकरण हो सकता है, लेकिन ईंट-पत्‍थर को उससे जुड़ी आस्‍था ही हिन्‍दू या मुस्लिम बनाती है और ऐसे दरगाह कम नहीं जो हिन्‍दू श्रद्धा के भी केन्‍द्र हैं।

गुजरात के हजरत सैयद अली मीराँ दातार की दरगाह से पं. जागेश्‍वर प्रसाद तिवारी, चिल्‍ला के साथ ईंट ले कर आए थे और 2 दिसंबर 1967 को शंकर नगर, रायपुर में मीरा दातार स्‍थापित किया। मीरा दातार बाबा के इस स्‍थान पर मूर्ति नहीं है लेकिन हनुमान जी और शंकर जी हैं। तब से यह रायपुर का एक प्रमुख निदान केन्‍द्र रहा, सोमवार और गुरुवार को मुरादियों का मेला लग जाता। 30 अगस्‍त 1990 को पं. तिवारी के निधन के बाद, 10 सितंबर 2010 को श्रीमती महालक्ष्‍मी तिवारी के निधन तक इसका महत्‍व बना रहा।
अब रायपुर में इसके अलावा मीरा दातार का एक अन्‍य दरबार समता कालोनी में है, जहां प्रमुख मुस्लिम महिला हैं, लेकिन महादेव घाट वाला मीरा दातार तिवारी जी के शिष्‍य भोलासिंह ठाकुर के निवास 'मन्‍नत' में है। यहां भी शंकर नगर दरबार की तरह त्रिशूल लगा है। उर्स मुबारक के फ्लैक्‍स में यहां कुरान खानी आदि का उल्‍लेख, गुरुदेव श्री मंशाराम शर्मा जी, चिश्‍ती दादा रमेश वाल्‍यानी जी, सरकार बी.एस. ठाकुर और चन्‍दु देवांगन के नाम सहित है।

रायपुर में अनुपम नगर गणेश मंदिर का निर्माण 
के.ए. अंसारी ने 1985 में कराया और इसके बाद 
श्रीराम नगर फेज-I और II विकसित किया।

रायपुर से 20 किलोमीटर दूर गांव चरौदा-धरसीवां का शिव मंदिर सरपंच बाबू खान साहब की पहल और अगुवाई में, गांव और इलाके भर के श्रमदान से 1970 में बना। धरसीवां से थोड़ी दूर कूंरा उर्फ कुंवरगढ़ गांव में दो संरचनाएं मां कंकालिन मंदिर और मस्जिद एक ही चबूतरे पर साथ-साथ हैं।

कुंवरगढ़ के ही श्री अमीनुल्‍लाह खां लम्‍बे समय से श्री रामलीला मंडली के कर्ता-धर्ता हैं। वे मानस गायन के साथ लीला में मेघनाथ और दशरथ की भूमिका निभाते हैं। धरसीवां और कुंवरगढ़ में हिन्‍दू-मुस्लिम मितानी के भी कई उदाहरण हैं।

कुरुद-धमतरी में स्‍कूली दिनों से मानस की लगन लगाए रामायणी दाउद खान गुरुजी हैं। आपका जन्‍म 25 जुलाई 1923 को हुआ। आपको सालिकराम द्विेदी और पदुमलाल पुन्‍नालाल बख्‍शी का सानिध्‍य प्राप्‍त हुआ। आपके मानस प्रवचन का सिलसिला 1947 से आरंभ हुआ। वे कहते हैं कि नैतिक संस्‍कारों के विकास के लिए रामचरित मानस का अध्‍ययन जरूरी है और ''सियाराम मय सब जग जानी, करहुं प्रणाम जोर जुग पानी' मानस का प्रमुख संदेश है।

• कवर्धा-गंडई के साईं फिर्रू खां पुश्‍तैनी भजन गायक हैं।
• हडुवा-घुमका, राजनांदगांव के गीतकार-रामायणी रहीम खां अन्‍जाना जीवन-पर्यन्‍त नाचा, हरि-कीर्तन से जुड़े रहे।
• केनापारा, बैकुंठपुर निवासी बिस्मिल्‍ला खान बचपन से ही रामायण गाते थे। मानस मर्मज्ञ खान साहब ने गांव के बच्‍चों की रामायण मंडली भी बनाई थी और शारदा मानस मंडली से जुड़े रहे। आपका निधन 17 सितंबर 2010 को बनारस में हुआ।
• लाखागढ़, पिथौरा के करीम खान लंबे समय से दशहरा पर रामलीला का संचालन करते आ रहे हैं। नवापारा-राजिम के इकबाल खां युवा पीढ़ी के रामायणी हैं। बैजनाथपारा, रायपुर के एक पुराने कव्‍वाल जनाब सईद की पंक्ति 'श्रीराम जी आ के रावन को मारो' लोग अब भी याद करते हैं और दूसरी तरफ गुढि़यारी के गायक गजानंद तिवारी, छत्‍तीसगढ़ी गीतों को, कव्‍वाली तर्ज में ही गाने के लिए मशहूर रहे हैं।

कंडरका-कुम्‍हारी, दुर्ग के लोकधारा सांस्‍कृतिक मंच के प्रमुख
शेर अली को रामायण गाने की प्रेरणा,
हरि कीर्तन गायक पिता रज्‍जाक अली से मिली।

होठों से फुसफुसाहट, जबान से बोली, कंठ से सुर निकलते हैं,
लेकिन रायपुर आकाशवाणी के लोकप्रिय उद्घोषक मिर्जा मसूद
 ''ॐ'' उचारते तो लगता कि नाभि से निकलने वाली घोष ध्‍वनि है
और जिसे सुनने वाले के दिल की धड़कन बढ़ जाती।

कवर्धा-खरोरा के कवि मीर अली मीर से उनकी चर्चित पंक्तियां
 'जंजीर बोलती थी वंदेमारतम, शमशीर बोलती थी वंदेमातरम्,
कश्‍मीर बोलता है वंदेमातरम्' सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

बिलासपुर के हिदायत अली कमलाकर 
की कृति 'समर्थ राम' और उनका सौहार्द, 
अपने आप में मिसाल है।
 

मोहम्मद खलील अहमद 1974 में बाराबंकी से फरसगांव आए,
सिलाई का काम करते रहे और पूरे इलाके के खलील खालू बन गए।
वे हर उस जगह होते जहां मानस पाठ होता,
खुद मानस गान करने के अलावा हारमोनियम भी बहुत अच्छा बजाते थे।
उन्हें लगभग पूरा मानस कंठस्थ था।
बढ़ी हुई उम्र में अब वे तो मानस पाठ में शामिल नहीं हो पाते
पर स्मृतियों से अब भी भाव-विभोर हो जाते हैं।
(जानकारी के लिए पीयूष कुमार जी का आभार)
 






• छत्‍तीसगढ़ हज कमेटी के चेयनमैन डॉ. सलीम राज ने अयोध्‍या विवाद पर कहा कि 'मुस्लिम समुदाय के पक्ष में भी निर्णय आने पर उस स्‍थल को राम मंदिर के निर्माण के लिए सहृदयतापूर्वक दे देना चाहिए।' हबीब तनवीर के नया थियेटर का अभिवादन 'जय शंकर' तो प्रसिद्ध है ही। होली, दीवाली मनाने वाले मुसलमान मिल ही जाते हैं, नवरात्रि का विधि-विधान पूर्वक कठोर व्रत रखने वाली मुस्लिम महिलाएं भी हैं तो धरसीवां जैसे गांव में रोजा रखने वाले हिन्‍दू भी हैं। मोहर्रम पर ताजिएदारी निभाते हुए बच्‍चों को ताजिए के नीचे से गुजारा जाना आम है, लेकिन अकलतरा में मोहर्रम पर हर साल दुलदुल घोड़े की नाल हमारे घर के पुराने हिस्‍से से निकलती थी।

नारों और नसीहतों से अधिक असरदार, ज्‍यादा जीवंत, सौहार्द-सद्भाव का रस यहां इतनी सहजता से प्रवाहित है कि नजरअंदाज होता रहता है।


  • यह पोस्‍ट रायपुर से प्रकाशित पत्रिका 'इतवारी अखबार' के 23 सितम्‍बर 2012 के अंक में प्रकाशित।