साहित्य और पत्रकारिता विरासत में प्राप्त लेखक डा. सुशील त्रिवेदी द्वारा पिता पं. स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी की स्मृति को सादर समर्पित 'अक्षय विरासत' शीर्षक के साथ साहित्य और संस्कृति भी है। नामानुरूप संग्रह इसी प्रकार नियोजित है। प्रकाशकीय से यह स्पष्ट नहीं होता, जैसाकि लेखकीय प्राक्कथन में कहा गया है- ''इस ग्रंथ में उन लेखों का संग्रह प्रस्तुत है, जो साहित्य और कला के अंतर्संबंध को उजागर करते हैं।'' लेकिन यहां भी संग्रह के लेखों का पूर्व प्रकाशित, प्रकाशन संदर्भ और तिथि उल्लेख की दृष्टि से सूचना अधूरी है।
संग्रह के पहले हिस्से के 11 लेख साहित्य के हैं और बाद के 9 संस्कृति की विरासत पर हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से गहरे प्रभावित पहला लेख, साहित्य और संस्कृति के समन्वय पर है, उद्धरण है- ''रचनाकारों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे दिक् और काल में होने वाले घटनाओं और द्वन्द्वात्मकता को जानें और इसे जानने के दौरान वे इतिहास, संस्कृति, कला, रचना और भाषा के आधार बिन्दुओं को जानने की कोशिश करें।'' लगता है कि यह किसी कार्यशाला में दिया गया सूचनात्मक निर्देश है या इन पंक्तियों का लेखक स्वयं के रचनाकार को चेता रहा है। बहरहाल यह अंश लेख के और इस संग्रह के भी आशय को रेखांकित करता है।
इसके बाद पुस्तक के 54 पेज यानि लगभग एक तिहाई में तीन लेख, डा. त्रिवेदी की शोध-उपाधि और विशेषज्ञता-क्षेत्र यानि जगन्नाथ प्रसाद भानु के व्यक्तित्व और कृतित्व पर हैं। इनमें भानु जी के सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ छन्दः प्रभाकर का विस्तार से परिचय है। साहित्यशास्त्र पर हिन्दी में कम सामग्री मिलती है, बातें भी कम ही होती हैं, लेकिन इस पक्ष पर 'काव्य प्रभाकर' भानु जी की महत्वपूर्ण और विशिष्ट रचना है, संग्रह में पूरी गंभीरता और गरिमा के साथ यह प्रस्तुति स्तुत्य है। ऐसा लगता है कि भानु जी पर ये लेख अलग-अलग समय पर लिखे और प्रकाशित हुए, क्योंकि इनमें कहीं-कहीं दुहराव है। वैसे इन्हीं विषयों पर दो अन्य स्वतंत्र पुस्तकें, भानु जी की जीवनी और ''छन्दः प्रभाकर'' का नया संस्करण भी लेखक ने तैयार किया है।
हिन्दी के प्रथम साहित्यशास्त्री भानु जी पर लेखों के बाद हिन्दी साहित्य के कुछ अन्य 'पहले-पहल' हैं। ठाकुर जगमोहन सिंह हिन्दी रचना में फैंटेसी विधि के आविष्कर्ता के रूप में दर्ज हैं। भानु जी की तरह ठाकुर साहब की भी रचना भूमि भी छत्तीसगढ़ रही है। इस लेख में पृष्ठ 77 और 79 पर अशोक बाजपेयी के 'फैंटेसी' कथन का उद्धरण दुहराव लगता है। हिन्दी समालोचना के प्रवर्तक और हिन्दी के पहले कहानीकार माधवराव सप्रे की कहानी के लिए पृष्ठ 82 पर ''एक टोकरी मिट्टी'' नाम बताया गया है, यही कहानी देवीप्रसाद वर्मा संपादित पुस्तक में ''टोकरी भर मिट्टी'' शीर्षक से प्रकाशित है, जबकि पं. माधवराव सप्रे साहित्य शोध केन्द्र-समिति के प्रकाशनों में उल्लेख मिलता है कि 'छत्तीसगढ़ मित्र' के अप्रैल 1901 के अंक में छपी कहानी का शीर्षक ''एक टोकरी भर मिट्टी'' है। दो और 'पहले पहल' हिन्दी के पहले मौलिक नाटक 'आनंद रघुनंदन' के कुंवर विश्वनाथ सिंह पर तथा हिन्दी के पहले मौलिक उपन्यासकार बाबू देवकीनंदन खत्री पर लेख भी महत्वपूर्ण हैं।
संस्मरण के रूप में 'मास्टर जी' पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पर लेख में छायावाद के उद्भावक माने जाने वाले पं. मुकुटधर पांडेय और छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के अग्रदूत कहे गए पं. स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी के उल्लेख से रेखांकित होता है कि इस संग्रह की योजना में ठोस उदाहरणों सहित, हिन्दी साहित्य के आरंभिक काल में छत्तीसगढ़ का अद्वितीय अवदान, अघोषित लेकिन विद्यमान है। संग्रह के एक अन्य लेख में भारत में नवजागरण के साथ हिन्दी की स्थिति का विवेचन महावीर प्रसाद द्विवेदी को केन्द्र में रख कर किया गया है, यह संक्षिप्त सा लेख देश और हिन्दी के साथ साहित्य पर युग-दृष्टि का जैसा नमूना है, वह सहज उपलब्ध नहीं होता।
संग्रह के दूसरे हिस्से के 9 लेखों में संस्कृति के सभी पक्षों को गहरी समझ लेकिन सहज अभिव्यक्ति सहित स्पर्श किया गया है। इस क्रम में ऋग्वेद, गांधी, नेहरू, गोविंदचन्द्र पांडे, रमेशचंद्र शाह, अमर्त्य सेन, भगवत शरण उपाध्याय, महर्षि अरविन्द, हर्मन गूज आदि के कथनों से अपनी स्थापनाओं को स्पष्ट और पुष्ट करते हुए डा. त्रिवेदी लिखते हैं- ''संस्कृति का स्वभाव आदान-प्रदान है। जो जाति केवल देना ही जानती है, लेना नहीं, तो उसकी संस्कृति समाप्त हो जाती है। इसके विपरीत जो संस्कृति दूसरों से ग्रहण करती है, वह सदा फलती-फूलती रहती है। (पृष्ठ-118)''
संस्कृति संबंधी अन्य लेखों में लोक और शास्त्रीय संगीत पर विचार करते हुए स्पष्ट किया गया है कि- ''शास्त्रीय संगीत अपना जीवन रस सदैव लोक संगीत से ही लेता आया है। लोक में प्रचलित संगीत जब संस्कार और परिष्कार की प्रक्रिया के द्वारा प्रतिष्ठित होता है, जब उसका अनुसंधान सुसंस्कृत व्यक्ति करते हैं, जब उसका अपना व्याकरण बन जाता है, तब वह शास्त्रीय संगीत का पद प्राप्त करता है।'' इसके साथ एक स्थान पर लेखकीय व्यथा है कि- ''यह दुःख की बात है कि लोक का उपयोग कुछ कम सम्मानजनक ही होता है।'' लेखक, हिन्दुस्तानी संगीत और कर्नाटक संगीत के मिश्रण की जरूरत पर प्रश्न उठाता है लेकिन दोनों ही शैलियों को उनके मौलिक रूप के अनुसार विकसित होने में अपने किसी सुझाव या स्थापना के बजाय प्रबुद्ध और मननशील संगीतकार और संगीतज्ञों की भूमिका को आवश्यक मानता है। 'साहित्य और कलानुशासनों की अंतर्निर्भरता' लेख में चित्रकला, संगीत, नृत्य, उपसंहार उपशीर्षकों और भूमिका के साथ कला के स्वरूप पर समग्र दृष्टि से विचार किया गया है। लेख 'भारतीय शास्त्रीय नृत्यः प्राचीन से समकालीन तक' पढ़कर लगता है कि कलाप्रेमी सजग पाठक अपनी समझ और अनुभूतियों को वैचारिक क्रम देते हुए उसकी व्यवस्थित प्रस्तुति कर दे तो वह अन्य के लिए भी किस तरह पठनीय सामग्री और आम पाठक के लिए विषय की प्राथमिक समझ बनाने में भी मददगार हो जाता है।
आकाशवाणी भोपाल के लिए श्रीमती रूक्मिणी अरूंडेल तथा हबीब तनवीर जी के साक्षात्कार के अवसर को दो लेखों में संस्मरण के रूप में प्रस्तुत करते हुए इन व्यक्तित्वों की कला साधना और विशिष्ट पहलुओं को उजागर किया गया है। संग्रह के अंतिम लेख में लोक कला को मानों परिभाषित करते हुए कहा गया है- ''लोक परंपरा में मानव की सौंदर्यमूलक, सृजनशीलता अलग-अलग रूपों में और अलग-अलग माध्यमों में होने वाली अभिव्यक्ति लोक कला है।'' इस पीठिका पर लोक कलाओं की मंचीय प्रस्तुति तथा श्री झाड़ूराम देवांगन से हुई विस्तृत चर्चा में लेखक पंडवानी के अनगढ़ व्याकरण के साथ कापालिक और वेदमती शाखाओं का अंतर बताते हुए असमंजस में जान पड़ता है, लेकिन पूरे प्रसंग को विचार मंथन की तरह प्रस्तुत करते हुए निष्कर्ष पर पहुंचता है- ''यह एक सच्चाई है कि न केवल पंडवानी वरन अन्य कला रूपों का भी स्वरूप अपना मूल ऐन्द्रिय आकर्षण खो रहा है। शायद यह हमारे आर्थिक विकास और सामाजिक बदलाव की एक कीमत है।''
पत्रकारिता-मीडिया का शास्त्र रच रहे सूचना-समृद्ध सर्जक डा. त्रिवेदी की सजग-स्मृति, संदर्भ-सूत्रों का समग्र या समन्वित नहीं बल्कि आधुनिक प्रवृत्ति का 'समावेशी' (उन्हीं के शब्दों में) प्रयोग करने के लिए सदैव तत्पर रहती है और इसके चलते वे समयबद्ध-नियमित बहुविध लेखन कर पाते हैं। वे राय बनाने में समय लगाते हैं, लेकिन प्रकट करने में नहीं और अपनी राय भी फैसले की तरह सुनाते हैं, इस मामले में उनकी बेबाकी और तेवर उन्हें प्रखर समीक्षक की प्रतिष्ठा दिलाती है। कई बार उनकी तटस्थ टिप्पणियां तल्ख हो जाती है और कभी विनम्रता, व्यंग्यात्मक भी। उन्हें विरासत में मिली पत्रकार दृष्टि विषय को सहज और आम रुचि के पाठकों के लिए भी उपयोगी बनाने में सहायक हो जाती है वहीं विश्लेषण और मूल्यांकन करते हुए वे गणितीय पद्धति का इस्तेमाल करते दिखते हैं। कहीं यह भी लगता है कि किसी घटना या दौर के उल्लेख बिना लिखी गई 'संपादकीय' पढ़ रहे हों।
प्रसंगवश, कला समीक्षक डा. त्रिवेदी मूलतः जनसंपर्क विभाग के, फिर भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे हैं और सुदीर्घ प्रेस-प्रशासनिक अनुभव सहित अब भी महती कार्य-दायित्व के साथ व्यस्त हैं। मध्यप्रदेश में संभागीय उत्सवों के आरंभ 1973 से भारत भवन की स्थापना 1982 तक का दौर रहा, जब वे भोपाल के कलाधानी बनने के साक्षी ही नहीं, अभिलेखक भी रहे और यह क्रम इसके पूर्वापर निरंतर रहा है। कलारूपों पर उनका इतना और ऐसा लेखन चकित करने वाला है। उल्लेखनीय यह भी है कि वे ऐसे दुर्लभ प्रशासनिक अधिकारी हैं, जो कला समीक्षक कहलाना न सिर्फ पसंद करते हैं, बल्कि इस पहचान से सम्मानित भी महसूस करते हैं, उनका यह स्वभाव कला, परम्परा और विरासत के सम्मान का अपना ढंग माना जा सकता है।
संपादन-मुद्रण में प्रभावी कवर वाली इस पुस्तक में पृष्ठ 32 के आरंभ में भगीरथ प्रसाद, नाम के साथ पहले 'डॉ.' फिर इसी पेज के अगले पैरा में 'डाक्टर' है, पुस्तक में 'हिन्दी' कहीं 'हिंदी' भी छपा है, प्रूफ की कुछ अन्य भूलें खटकने वाली हैं। लेख-6 की छपाई में पंक्तियों के बीच का अंतर सामान्य से कम है तो लेख-8 का फान्ट कुछ बड़ा है।
पुस्तक विमोचन, 29 सितम्बर 2012, रायपुर |
कृति, प्रकाशन और विमोचन के बीच पढ़नी हो, जैसा इस पुस्तक के लिए हो रहा है, तो उसके साथ नाजुक बर्ताव करना होता है, फिर यदि पढ़ते हुए उस पर लिखने की बात ध्यान में रहे तो सहज पाठकीय रसास्वादन भी मुश्किल होता है, पढ़ने का सहज आनंद जाता रहता है सो, मेरे लिए यह पुस्तक कुछ समय बाद दुबारा और शायद बार-बार पढ़नी जरूरी होगी, संदेह नहीं कि ऐसा उनके साथ भी होगा, जिनके हाथ यह कृति विमोचन के बाद पहुंचेगी।
इस 'अक्षय विरासत' के लगभग आधे लेख 2011 में प्रकाशित
लेखक की पुस्तक 'छत्तीसगढ़ और उसकी अनन्यता' में भी शामिल हैं. |