12 जून 2020 की वार्ता पर आधारित।
यश पब्लिकेशंस, दिल्ली के फेसबुक लाइव पर मैं राहुल सिंह, रायपुर, छत्तीसगढ़ से उपस्थित हूं। आप मुझे देख-सुन पा रहे होंगे। मुझे इस दौर में पढ़ी पुस्तकों पर बात करनी है। ऐसे लाइव में अक्सर कहा जाता है, थोड़ा इंतजार करें, कुछ लोग और आ जाएं, यह बात ठीक नहीं लगती, क्योंकि जो समय पर आ गए हैं उनका समय क्यों खराब हो। तो मैं अपनी बात शुरू कर रहा हूं।
थोड़ी सी पृष्ठभूमि रख देना चाहूंगा। याद कर रहा हूं पंडित माधवराव सप्रे को, उनकी ‘एक टोकरी भर मिट्टी‘ हिन्दी की पहली कहानी के रूप में जानी जाती है। पत्रकारिता और स्वतंत्रता संग्राम में भी उनका नाम है। सन 1905 में उनकी पुस्तक आई थी ‘स्वदेशी आंदोलन और बायकाट‘। यह छोटी सी, लेकिन बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक है। यहां उनकी चर्चा एक अलग संदर्भ में कर रहा हूं। 1901 में उनके पास समीक्षा के लिए पुस्तक आई, ‘ढोरों का इलाज‘। नाम से स्पष्ट है कि पशु चिकित्सा की पुस्तक थी, किसी अंगरेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद। उन्होंने इस पर टिप्पणी की है कि- डॉक्टर, दवाइयां या इस तरह की पुस्तकें, समालोचना के लिए भेजी जाती हैं। जिस विषय की जानकारी नहीं, उसमें क्या समालोचना कर सकते हैं और संपादक महोदय भी हमको ऐसी पुस्तकें दे देते हैं। उन्होंने चुटकी लेते हुए आखिर में यह भी लिखा है कि- यह विषय मुझे आता नहीं तो आप मान सकते हैं कि एक तरह से इस पुस्तक का यहां विज्ञापन है। यह छपा तो संपादक की नजरों से गुजरा ही होगा।
इसी में एक शब्द आया है- सालोतरी। मेरे लिए यह नया शब्द था। संभव है, आपमें से भी कुछ के लिए यह नया हो। अंग्रेजी और हिंदी के आम शब्दकोशों में यह शब्द नहीं मिलता। गूगल करेंगे तो जरूर मिल जाएगा। यह, पशु चिकित्सक या घोड़ों का इलाज करने वाले डॉक्टरों के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द है। घोड़ों का सामरिक और सफर, यातायात के साधन के रूप में उपयोग था, इसलिए घोड़ों का इलाज करने वाले महत्वपूर्ण होते थे, और इस खास शब्द सालोतरी से जाने जाते थे। सालोतरी की तलाश करते हुए ध्यान, अश्विनी कुमारों की ओर गया। वहां से नकुल और सहदेव तक, जो माद्री के जुड़वा पुत्र थे। माद्री, अश्विनी कुमार का ध्यान करती हैं और नकुल-सहदेव पैदा होते हैं। महाभारत की कथा में पांडव, अज्ञातवास के लिए विराट देश में जाते हैं तो वहां नकुल-सहदेव अश्वशाला का काम देखते हैं, पशुओं के चिकित्सक होते हैं। उन्हें इसका ज्ञान, उनकी विशिष्टता होती है (नाम में ही अश्व है)। अश्विनी कुमार, वैदिक देवता हैं, उनकी भी प्रतिष्ठा इस रूप में रही है। उल्लेख मिलता है कि वे यौवन के लिए भी दवाएं दिया करते थे। आंखों का इलाज करते थे, और बनावटी हाथ-पैर का उल्लेख मिलता है, जिसमें उन्होंने किसी के लिए लोहे का पैर बनाया था।
कोरोना के दौर में लाइव आने लगे, वेबिनार होने लगे। बच्चों की ऑनलाइन क्लास होने लगी मैंने पता करने की कोशिश की, कुछ पैरेंट्स से, बच्चों से, कि यह कैसा अनुभव है। उनमें किसी की मजेदार किंतु तात्विक टिप्पणी थी कि बच्चे को क्लास की पढ़ाई में तो समझ में नहीं आता, मन नहीं लगता तो इस तरह में कितनी पढ़ाई कर पाएंगे। ठीक उसी तरह वेबिनार की बात है कि सेमिनार में, पोस्ट लंच सेशन में लोग झपकी लेते हुए दिख जाते हैं। फिर भी यह परिवर्तन का दौर है जब धीरे-धीरे हम उस काल की ओर बढ़ रहे हैं। जैसे परिवर्तन की संभावनाएं भविष्य में हैं, उसको इस कोरोना संकट ने कुछ करीब ला दिया है। इस माध्यम से अभ्यस्त होने में थोड़ा समय लगेगा, लेकिन यह भविष्य की झांकी है इससे कहीं, किसी को इंकार नहीं हो सकता।
अपनी पढ़ाई की बात पर आते हैं। यश, छत्तीसगढ से जुड़े साहित्य और लेखकों की किताबें छापते रहे हैं। मैं भी जुड़ा रहा, बात हुई तो शर्त रख कर बचना चाहा कि संभव है इसमें आपके द्वारा प्रकाशित किसी पुस्तक, अपनी भी पुस्तक का नाम न लूं, फिर भी वे तैयार हो गए। वार्ता के विषय की बातें होने लगी तो एक बात आई, कि अब पढ़ने के लिए अधिक समय है और इसमें क्या पढ़ रहा हूं। निसंदेह यह दौर अलग किस्म से बीत रहा है। दिनचर्या बदल गई है, यह फर्क समय दे रहा है, आपके पास समय होता है। अन्य दिनों की तुलना में मुझे भी खाली समय अधिक मिला, लेकिन कुछ न कुछ गतिविधियां दूसरे तरह की, कुछ कोरोना रिलीफ के कामों से जुड़ी, कुछ अपने छूटे और नियमित काम, यानि खालीपन नहीं रहा।
यह भी लगता है कि समय निकलना, मानसिक होता है। मैंने महसूस किया कि साढ़े चार-पांच सौ पेज वाली किताब शुरू नहीं कर पाता था, अब ऐसा मौका मिला, खाली समय को अपने ढंग से इस्तेमाल की अधिक संभावना बनी तो मनोहर श्याम जोशी की पुस्तक ‘कौन हूं मैं‘, हाथ में ली। ज्यादातर लोग परिचित होंगे, बहुत प्रसिद्ध केस था बंगाल का भवाल संन्यासी प्रकरण। ‘कौन हूं मैं‘ शीर्षक दिखता है कि सेल्फ एक्सप्लोरेशन, आत्म संधान है। पुस्तक का प्रारंभिक परिचय का हिस्सा देखते ही बनता है कि वे किस आध्यात्मिक, साहित्यिक ऊंचाई तक उसे ले गए हैं। कोऽअहं की बात हमारी परंपरा में, शास्त्रों में है, वह किस तरह यहां घट रही है। भवाल संन्यासी पर अलग-अलग, संन्यासी राजा, एक जे छिलो राजा, फिल्में भी बन चुकी हैं, बांग्ला में कई पुस्तकें लिखी गई हैं। फिर भी यह एक भारी भरकम किताब आई, जिसे शायद जोशी जी पूरी नहीं कर पाए थे। यह उनके अंतिम दिनों की, शायद छपकर निधन के बाद आई थी। लगता है कि उन्होंने ढेर सारे नोट लिए थे और इस स्वरूप के बजाए कुछ और काम करना चाहते, लेकिन स्वास्थ्यगत या जो भी परिस्थितियां रही हों, यह स्वरूप बना। बहरहाल, पुस्तक की पृष्ठभूमि का, उसी बीज का विस्तार, भवाल राजा का आधार ले कर किया गया है, वह अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण और अनूठा है।
इस बीच पढ़ी पुस्तकों को एक साथ मिला कर याद करता हूं तो इसमें दो तरह की किताबें हैं। एक सेल्फ एक्सप्लोरेशन की, स्वयं की तलाश वाली और दूसरी, यात्रा-वृत्तांत, खासकर नदियों के यात्रा-वृतांत। इस संयोग में देख सकते हैं कि घुमक्कड़ी में देश को एक्सप्लोर करते हुए, भूगोल को एक्सप्लोर करते हुए, अपनी तलाश भी होती है। अपने संदर्भों से अलग हो कर, यात्रा में, अनजान जगहों पर, अपने तलाश की बेहतर संभावना होती है। अपने संदर्भों में रहते हुए, हमारे संदर्भ ही हावी हो जाते हैं।
क्षेपक- इस दौर में खोजा-पाया करते हुए मियां की मस्जिद, गूगल है। इसलिए वास्तविक खोज तो वही है, जो गूगल से संभव न हो। गूगल करते हुए हम कितनी भी गहराई में उतर जाने की सोचें वह वस्तुतः सतही विस्तार ही होता है। पैरोडीनुमा बात कुछ यूं हो सकती है- जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। मैं नादां देखूं इंटरनेट, लिए लैपटाप बैठ।। इसलिए लगता है कि अब कुछ खोजना-पाना रह गया है तो वह है, खोजी-जानी वस्तुओं और शब्दों का स्वयं अनुभूत बोध और इस रास्ते आत्मबोध।
इस क्रम में अमृतलाल बेगड़ को छिटपुट पढ़ता रहा था। बेगड़ जी ने नर्मदा पर किताब लिखी है, ज्यादातर लोग उससे परिचित हैं। अब एक जिल्द में आ गई है ‘तीरे तीरे नर्मदा‘, तो इस दौर में वह सिलसिलेवार पढ़ने का मौका मिला। इसका तो कहना ही क्या, बहुत सारी अनूठी और रोचक बातें हैं। नर्मदा की परिकम्मा, परिक्रमा करने वालों में एक ऐसा भी है, जो कहता है कि मैंने अपनी गाय के साथ परिक्रमा शुरू की थी। गाय का नाम नर्मदा है, रास्ते में उसकी बछिया पैदा होती है, उसका नाम रेवा है और वह बहुत भाव से बताता है कि परिक्रमा का संकल्प तो इस नर्मदा का, गाय का है। मैं इसके साथ परिक्रमा कर रहा हूं। हां! संकल्प जरूर इसके लिए मैंने किया था। नदी के साथ आस्था के रंग हैं, हमारा जीवन है और इस क्रम में आत्म-संधान है, नदी की जीवंत धारा के साथ बहते हुए जिस तरह खुद को देख पाते हैं, वह यों संभव नहीं होता।
एक तरफ इस तरह की आस्था है उससे कुछ अलग ढंग की पुस्तक अभय मिश्र और रामेंदु जी की गंगा यात्रा की है ‘दर दर गंगे‘। पूरी पुस्तक पत्रकार नजरिए से लिखी गई है। एक तरफ जहां तीरे तीरे नर्मदा में आस्था का भाव है, वहां भी यह बात तो बार-बार आती है कि समय बदल रहा है, परिस्थितियां बदल रही हैं, बांध बन रहे हैं, प्रोजेक्ट्स आ रहे हैं तो भविष्य किस तरह का होगा, लेकिन फिर भी उसमें बहुत मजबूत आस्था है। वही यहां टूटते हुए दिखती है, गंगा जैसी आस्था की नदी के साथ यात्रा करते हुए लिखी ‘दर-दर गंगे‘ का, एक तो स्वरुप बहुत अच्छा है। अलग-अलग जगहों की बातें हैं, वहां अलग-अलग पात्र हैं, और उन पात्रों के साथ जो कहानियां कही गई हैं वह मूलतः रिपोर्ताज है। पत्रकारिता का शब्द ‘स्टोरी फाइल करना‘, यानि जो खबरों से आगे की बात होती है, खबरों से ज्यादा गहरी बात, यहां उस तरह की कहानियां है।
नदी यात्रा संस्मरणों में बहुत पहले पढ़ी किताब है देव कुमार मिश्र की ‘सोन के पानी का रंग‘। नदियों पर लिखी गई किताबें और यात्रा संस्मरण में सोन, जो सिंधु या ब्रह्मपुत्र की तरह नद माना गया है, उसकी परिक्रमा उन्होंने की थी। परिक्रमा का हाल-अहवाल इस किताब में जिस तरह से वे कहते हैं, अपने आप में ऐसा सांस्कृतिक दस्तावेज है, मुझे लगता है कि नदियों पर और यात्राओं पर लिखी गई पुस्तकों में जिसकी भी रुचि है अगर वह इस पुस्तक को नहीं पढ़ पाया है तो वह बहुत अमूल्य रीडिंग से वंचित है। इस पुस्तक को जरूर देखना चाहिए।
नदी यात्रा की एक और पुस्तक हमेशा याद आती है। यह बाकी से एकदम अलग ढंग की, राकेश तिवारी जी की लिखी पुस्तक है। और पुस्तक, वह तो कहने ही क्या, नाम है ‘सफर एक डोंगी में डगमग‘। वे भी गंगा यात्रा करते हैं मगर नदी-नदी, धारों-धार और मजे की बात कि डोंगी, चप्पू खुद चलाते हुए यात्रा करते हैं, इस संकल्प के साथ कि वे पूरा सफर, सफर के दौरान रात्रि विश्राम, डोंगी में ही करेंगे। शायद 62 दिन की वह यात्रा है और किस तरह से यात्रा होती है, अनूठा विवरण है। इस किताब की, इसके लेखन की, अभिव्यक्ति की खास बात यह है कि यों पुराविद राकेश जी, उस तरह साहित्यकार नहीं है। कई बार स्थापित साहित्यकारों में ताजगी का अभाव होता है। राकेश जी को जब पढ़ें, भाषा की, भाव की, अभिव्यक्ति की, दृष्टि की ताजगी और कितना ज्यादा वह इन चीजों में इन्वॉल्व हैं, मगर जितने ज्यादा शामिल, उतने ही तटस्थ हैं। उनका ‘मैं‘ कहीं भी लेखन में हावी नहीं होता और इस कारण उनके लिखे से आत्मीय होने में पाठक को देर नहीं लगती।
‘पवन ऐसा डोलै‘ उनकी दूसरी किताब है वह भी मैंने इस बीच पढ़ी, काफी समय से मेरे पास रखी थी। भाषा को ले कर, लोक को, पुरातत्व को, विभिन्न प्रकार के ऐसे क्षेत्रों को ले कर, एक अलग तरह की पुस्तक और जितने विषयों को, जितने क्षेत्रों को एक साथ और जिस क्रम से पिरोया गया है वह पूरी सभ्यता का उद्भव, गुफावासी मानव, आदिमानव, वहां से लेकर सभ्यता के विकास की भी कहानी है, लोक जीवन की भी कहानी है, पुरातत्व के खोज, शोध और उसके विकास की कहानी है तो कहीं न कहीं, जो सबसे कम दिखाई पड़ती है, अंतर्निहित है, वह पूरी पुस्तक राकेश जी के स्वयं की जीवन यात्रा भी है। बहुत महत्वपूर्ण है।
इस सफरनामे की दो पुस्तकें मैंने और पढ़ीं। एक अजय सोडाणी की, वे पेशे से डॉक्टर हैं। घूमने के शौकीन, वह अपने रोजमर्रा से इतर जिन चीजों को देखते हैं, संस्कृति के जिन पक्षों और आयामों को देखते हैं, उन्हें उनकी देख पाने की, पकड़ पाने की और उसे डॉक्यूमेंट करने की, अभिव्यक्त करने की, जैसी उनकी शैली है और उनके पास अपना, अपने पढ़े का, परंपराओं को, लोक को, जीवन को देखने का, अपना नजरिया है, अपनी शैली है। उसके साथ जब ‘दऱकते हिमालय पर दरबदर’ में अपनी बात कहते हैं तो वह कुछ अलग ही, कुछ खास बन जाती है। ठीक वैसी ही एक किताब मनीषा कुलश्रेष्ठ की है। वे जिस प्रोजेक्ट पर काम कर रही हैं, उससे जुड़ी ‘होना अतिथि कैलाश का‘ पुस्तक लिखी है। मनीषा जी जैसी लेखिका है, जैसी साहित्यकार हैं, वैसी ही घुमक्कड़ भी। प्रोजेक्ट का प्रतिवेदन लिखते हुए यह वृतांत, कहां तथ्यात्मक विवरण और कब साहित्य, कब यात्रा संस्मरण, चीजें इतने सुंदर ढंग से एक दूसरे में शामिल होती जाती हैं और वह पूरा का पूरा कैलाश मानसरोवर की उनकी यात्रा में जो भाव उभरा है, उन्होंने गढ़ा है, पढ़ने में रोमांच होता है और रोचक तो है ही।
युवा लेखकों में कुछ मुझे बहुत प्रिय हैं। सिर्फ मुझे प्रिय नहीं है वे इस दौर के गंभीर, उम्र के चौथे दशक वाले, 40 साल से कम उम्र के लेखक हैं, उनमें आशुतोष भारद्वाज हैं। उनकी पुस्तक ‘पितृ-वध‘ आई, वह इस बीच मुझे पढ़ने का मौका मिला। पुस्तक में जितने गंभीर ढंग से हिंदी साहित्य के अलग-अलग लेखकों की, विचारों की विवेचना है, इसे खास बनाती है और जरूरी भी। पितृ-वध शीर्षक ही अपने आप में बहुत रोचक है, उसे रूपक के बतौर देखें तो दरअसल अपनी ऐसी परंपराओं से मुक्त होने का प्रयास, जिससे कुछ नया-ताजा सृजन संभव होता है। यह पितृ वध कंसेप्ट है, चाहे वह अस्तित्ववाद हो, यह आरंभिक काल से चला आता है। हमारे शास्त्रों में भी दिखता है, आधुनिक लेखन में भी है। उसे पीढ़ियां अपने ढंग से अपनाती हैं।
दूसरे युवा व्योमेश शुक्ल हैं। बनारस को लेकर उन्होंने जो बातें कहीं हैं, रंगमंच पर तो वे हैं ही, कवि हैं, ‘काजल लगाना भूलना‘ और ‘कठिन का अखाड़ेबाज‘ उनकी दो पुस्तकें आई हैं। बनारस वाला अंश दोनों पुस्तकों में है। काजल लगाना भूलना, अपने आप में वह कविता है, गद्य है, गद्य-कविता है या पद्य-गद्य है, कुछ इस तरह की है, लेकिन है पठनीय, गंभीरता की मांग करती। उसमें आपको सोचने की खुराक मिलेगी, उसमें दृष्टि है। और तीसरे युवा लेखक सुशोभित, जिनको इस बीच पढ़ता रहा हूं, उनके लिखे गांधी से बहुत प्रभावित हुआ हूं। यह तीन ऐसे युवा लेखक हैं जिनके किसी भी लिखने पर नजर रहती है, प्रयास करता हूं कि इसमें से कुछ ना छूटे।
दो अनुवाद की चर्चा करूंगा। आप मानें कि नसीहत दे सकने जितना बुजुर्ग हो गया हूं तो खासकर युवा साथी अगर यहां है, यह देख सुन रहे हैं तो कहूंगा कि कोई न कोई एक क्लासिक, किसी विदेशी लेखकों की रचना, अन्य भाषाओं की रचना, कुछ पुराना साहित्य, पारंपरिक और समकालीन, इनका काम्बिनेशन अपने पढ़ने में जरूर रखिए। रस्किन बॉन्ड को, अंग्रेजी में छिटपुट पढ़ता रहा था लेकिन इस बीच स्वाति अर्जुन जी वाले हिंदी अनुवाद से जो रस्किन बॉन्ड आए हैं, मूल की तरह स्वाभाविक। उनका हास्य, आपने देखा होगा, अलग तरह का, बड़ा निर्मल हास्य होता है। हमारे भारतीय हास्य से अलग, पाश्चात्य हास्य है, जो मार्क ट्वेन में, जेम्स थर्बर में देख सकते हैं। इस बीच मैंने फकीर मोहन सेनापति को पढ़ा। उन्हें भी छिटपुट ही पढ़ा था, उनके अनुवाद का एक संग्रह मिला। पढ़ कर लगता है कि उस युग में साहित्यकार, अपने को कितना जिम्मेदार मानता था और रोचकता के साथ, समाज सुधार की भावना के साथ, जो बुराइयां है समाज की उसके साथ, वह किस सुंदर ढंग से बातें कहते हैं।
पुराने क्लासिक है भारतेंदु हरिश्चंद्र, गुलेरी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, कुबेरनाथ राय, यह कुछ ऐसे लेखक हैं जो हमेशा मेरे आस-पास अगल-बगल होते हैं और किसी भी संदर्भों के लिए मैं उन्हें देखता रहता हूं। अंत में युवा साथियों के लिए दुहरा कर कहूंगा कि पढ़ने में, अन्य भाषाओं की अनूदित चीज, अन्य भाषाओं का अभ्यास हो तो कोई विदेशी भाषा, देश की अन्य भाषा, कुछ क्लासिक, शास्त्रीय रचनाएं, पुराने लेखकों की रचनाएं, कुछ समकालीन, गद्य-पद्य, इस तरह काम्बिनेशन रखें। इस तरह पढ़ना मानसिक स्वास्थ्य के लिए मददगार होगा।
यह पढ़ाई, मैं कर इसलिए पाया क्योंकि मानसिक रूप से लगा कि इस बीच मेरे पास समय है, वरना जिंदगी तो इसी तरह होती है, बस लगता है कि समय नहीं है। आप सब, जो यहां देख रहे हैं, मुझे सुन रहे हैं, शुक्रिया और यश पब्लिकेशन, जिन्होंने मुझे अपने पेज पर जगह दी, उनका भी बहुत-बहुत आभार, धन्यवाद।