शाम ढल रही है। दिया-बत्ती की तैयारी होने लगी। अंधेरा घिरने लगा, लेकिन आंखों में नींद और नींद में सपने के लिए अभी देर है। एक बूढ़े ने जरूर खुली आंख का सपना बुनना शुरू कर दिया है। ओसारे में उकडू बैठा, अस्थितना, कृश देह पर आवरण जैसी चिपकी सलदार चमड़ी, उसके ऊपर फिर बन्डी और धोती। चिमनी की टिमटिमाती रोशनी में चेहरा साफ दिखाई नहीं पड़ रहा है। उसकी खनकती आवाज सुनाई पड़ रही है और दिख रही हैं, चमकती आंखें। शायद ये आंखें दिन भर उम्र से बुझी-बुझी रहती हों, लेकिन अंधेरा होते ही चमकने लगती हैं, सपने जो बुनती हैं। इन आंखों ने अतीत के इतने चेहरे, और चहेरों के इतने रंग देखे हैं कि वह सब आंखों में न झिलमिलाए तो आंखें पथरा ही जाएं।
सामने इक्का-दुक्का से शुरू होकर झुण्ड बढ़ने लगी है, जिसमें हर तरह के और हर उम्र के बच्चे हैं। बच्चों के साथ उनकी मासूमियत और जिज्ञासा भरी आंखें हैं, जिनमें थोड़ी-थोड़ी देर में झिलमिल परछाईं उभरती है। बच्चों के चेहरे साफ-साफ दिखाई पड़ रहे हैं, कोई आपकी तरह है, कोई मेरी तरह और कई बच्चे तो हमारे बुजर्गों-पीढ़ियों के हमशक्ल भी हैं।
बूढ़ा फन्तासी गढ़ रहा है, तिलस्म रच रहा है। गाछ-बिरिछ, नदी-नाले, पत्थर-लकड़ी में भी धड़कन होने लगी है। जान आ गई है। चमत्कार हो रहे हैं, और मानुस जात, चाहे राजा हो या रंक, साधु हो या संत, मछुआरा हो या लकड़हारा, लालसा की सभी पुतलियां कठुआ कर नाचने लगी हैं। रात गहराने लगी है और कथा सुनते-सुनते, आंखें उनींदी होने के बजाय खुलने लगीं या अंधेरे में देखने की अभ्यस्त हो गईं। अरे! यह तो बिज्जी है, विजयदान देथा, जो कहता है कि ''एक नैसर्गिक खासियत की बात बताऊं कि तिहत्तर बरस की उम्र में बुढ़ापे का असर देह और मन प्राण पर तो अवश्य पड़ा है, पर अध्ययन और सृजन के सीगे अब भी सोलह बरस का किशोर हूं।'' (पृ.- चौदह)
सृजन और अध्ययन की गति, साहित्य की प्रत्येक विधा के रचनाकार को किशोर बनाए रखती है। यों प्रासंगिक व अद्यतन बने रहने के लिए सतत् अध्ययन की सर्वाधिक आवश्यकता आलोचक को होती है, तो देथा की विधा के रचनाकार के लिए न्यूनतम आवश्यक है, किन्तु इस उम्र में भी उनके अध्ययन का क्रम किसी सजग आलोचक जैसा निरंतर है, इसीलिए वे अपनी रचनाओं में मग्न रहने के साथ अप-टू-डेट रचनाकार हैं। जहां तक सृजन का पक्ष है तो देथा ने जिस गति से और जितनी तादाद में रचना की है, उसका एक नमूना यह संग्रह भी है।
'सपनप्रिया' की बाइस कहानियां सन '97 के केवल पांच माह में लिखी गई हैं। दो कहानियां कुछ पुरानी हैं और दो पर भूमिका के बाद की तारीख पड़ी हैं, जिनमें से एक तो आधे पेज की रचना है और दूसरी, परिशिष्ट की कहानी 'सपने की राजकुंअरी' है। इस परिमाण में लेखन कैसे संभव होता है, यह देथा ने स्वयं भूमिका में स्पष्ट किया है- ''लिखने के पूर्व- चाहे किसी विधा में लिखूं- कविता, कहानी, गद्यगीत, निबंध या आलोचना- न कुछ सोचता था, लिखना शुरू करने के बाद न रूकता था न काट-छांट करता था और न लिखे हुए को फिर से पढ़ता था। (पृष्ठ - ग्यारह) देथा की रचना प्रक्रिया में लेखन की यह प्रवृत्ति उनके लिए अनुकूल हो सकती है लेकिन अनुकरणीय नहीं। वैसे पुस्तक की भूमिका, देथा की रचनाओं से बने उनके कद को कम ही करती है, अच्छा होता कि पूर्व की भांति वे भूमिका लिखने की जिम्मेदारी कोमल कोठारी पर डालकर स्वयं को कहानियां रचने के लिए स्वतंत्र रखते।
पहली और मुख्य कहानी 'सपनप्रिया' तथा परिशिष्ट 'सपने की राजकुंअरी' एक ही कथा का पुनर्लेखन है और लेखक के शब्दों में- ''मूलभूत कथानक की समानता के बावजूद (इनमें) फूल और इत्र सा वैविध्य है।'' लेखक ने यह भी कहा है कि- ''मेरी रचनाओं में गहरी रूचि रखने वाले परम हितैषी मुझे टोकते रहते हैं, कि मैं नये सृजन की कीमत पर राजस्थानी या हिन्दी में पुनर्लेखन न करूं। पर मुझे इसमें प्रजापति-सा आनंद आता है। साथ ही लेखक ने अपनी ओर से दोनों कहानियों की व्याख्या की जिम्मेदारी अनिल को सौंपी है जिन्हें भूमिका के रूप में लिखित 'इधर-उधर' शीर्षक का पत्र संबोधित है। लेखक ने इस प्रश्न के न्यायसंगत उत्तर की भी आशा की है कि- ''क्या 'सपने की राजकुंअरी' में दीवान की बेटी का हत्या से परम्परागत अन्त करके 'सपनप्रिया' में उसके प्राण बचाने की अनाधिकार चेष्टा तो नहीं की मैंने? कोई अपराध तो नहीं किया है?''
यह लेखक अपने लिखे को फिर से नहीं पढ़ता, लेकिन अपने लिखे पर न्यायसंगत उत्तर की आशा में स्वयं सवाल खड़े करता है, देथा से पाठक को जो उम्मीद है, वह इससे कायम रह जाती है। वैसे 'सपनप्रिया' में दीवान की बेटी की हत्या के बजाय उसके प्राण बचाना अपराध नहीं तो अनाधिकार चेष्टा अवश्य है। लोक स्वरूप की कथाओं में नैतिकता का किताबी आग्रह कभी इतना प्रबल नहीं होता, जितना दीवान की बेटी के प्राण बचाने में हो गया है। यहीं पर विचार कर लेना उपयुक्त होगा कि बोलियों में सुनाई जाने वाली मौखिक परम्परा के किस्से-कहानियां, गाथाएं, भाषा के चौखट में बंधकर, एक जिल्द में सिमटकर, अक्षरों में जम जाती है, तब उसके स्वरूप और प्रभाव में क्या और कितना अन्तर आ जाता है, किताब शुरू करने के साथ यह सवाल बना रहा। लोककथाएं, मुद्रित रूप में इससे पहले फुटकर, जब भी पढ़ा ऐसा कोई सवाल, इतने साफ तौर पर जेहन में नहीं था और संभवतः लेखक के प्रश्न में भी इसी के आसपास की पड़ताल का आग्रह है।
मोटे तौर पर लोककथाएं ऐसी कहानियां है जो शाश्वत, प्राकृतिक स्थितियों और भावों के बिंब पर विकसित होती हैं, अन्य कहानियों का मूल स्रोत भी इससे भिन्न नहीं होता, इसीलिए प्राचीन भारतीय 'वृहत्कथा' भण्डार के जातक, पंचतंत्र और नंदीसूत्र जैसे संग्रह की कहानियों में साम्य मिल जाता है और कुछेक वर्तमान लोककथाओं में भी उनकी छाप आसानी से देखी जा सकती है, लेकिन लोककथा का फलक सदैव अधिक विस्तृत और उदार-उन्मुक्त होता है, क्योंकि ये विशिष्ट देश, काल अथवा पात्र की सीमा में नहीं बंधती, स्थिति के अनुरूप अपना कलेवर बदलकर भी अपनी मौलिकता बनाए रखती हैं। लोककथाएं, सामाजिक मान्यताओं के बजाय मानवीय मूल्यों के प्रति अधिक सचेत रहती हैं और इसी दृष्टि से नीति कथाओं, बोध कथाओं जैसी अन्य कहानियों से अपनी भिन्नता बना लेती हैं। मौखिक परम्परा की लोककथाएं 'बारह कोस पर बानी' से कहीं आगे अपना बाना (शैली) हर कहने वाले के साथ और अर्थ प्रत्येक सुनने वाले के साथ बदलती हैं, पर यह परिवर्तन सिर्फ ऊपरी तौर पर होता है, मूल आत्मा तो सतत् प्रवहमान नदी की तरह एक-रूप अभिन्न होती है, इसीलिए लोककथाएं मुरदा रूढ़ियां और थोथे उपदेश नहीं बल्कि रोचक जीवन्त परम्परा है। 'अस्ति' का सत्य हैं, जो लगातार व्यवहृत रहकर 'भवति' में अपनी रसमय अर्थवत्ता बनाए रखती हैं।
कुछ नमूने देखें कि देथा ने इस बाने का इस्तेमाल किस तरह किया है- 'क्षितिज और चांदनी के सुरक्षित पार्श्व में एक राज्य था। सूर्योदय और सूर्यास्त की किरणों के पालने में झूलता हुआ। ऊषा और संध्या की लाली के बहाने मुस्कुराता हुआ (सपनप्रिया, पृ.-31)। कहानी 'भूल-चूक लेन-देन' की शुरूआत का उद्धरण है- ''समय के अनुकूल बदलती हैं बातें। मौसम के अनुरूप खनकती है रातें। बारह कोस पर बदले बोली। अक्ल की आमद किसने तोली।' तो परमेश्वर सुध-बुध का सार कभी नहीं बिसराये कि हवा, धूप और अंधियारों की शरण में तारों की छांह तले किसी एक गांव में.....।'' 'अस्ति' के रचनात्मक 'भवति' व्यवहार का रस-सौंदर्य इन उद्धरणों में निखरकर आया है।
'सपनप्रिया' की कहानियों में काल का हवाला देने के लिए देथा पारम्परिक 'बहुत पुरानी बात है' जैसे वाक्यों से बचते हैं और स्थान, व्यक्ति-नामों के लिए जातिवाचक संज्ञाओं का इस्तेमाल करते हैं। यह महज संयोग नहीं है, बल्कि यही उनकी शैली की विशेषता है, जिसमें अपने गांव बोरून्दा में सुनी लोककथाओं का बार-बार संदर्भ बदलकर भी वे अपनी कहानियों को लोककथा के करीब बनाए रखकर, मौलिक रचना करने में सफल होते हैं। उनके पात्र राजा, सेठ, दीवान, साधु, मछुआरा, शेर या आप-करनी राजकुमारी आदि हैं। वे व्यक्ति-नामों से बचते हैं और पात्रों को सर्वनाम या विशेषण के आरोपण से भी बचाए रखते हैं। जातिवाचक संज्ञाओं को पात्र बनाकर वे अपनी कहानियों को सर्वव्यापक बनाते हैं, क्योंकि इन संज्ञाओं की जाति का आधार न तो जन्मना होता है न ही कर्मणा, वह तो सुदीर्घ प्रचलित सामाजिक मान्यताओं का स्वीकृत बिंब होती है।
आर्थिक और सामाजिक समस्याएं, बहुत जल्द मुद्दे बन कर, जरूरतमंद धार्मिक-राजनैतिकों द्वारा अपना ली जाती हैं। ऐसी समस्याएं यदि मूल प्रवृत्तिजन्य हों और वह भी भूख जैसी व्यापक, तो वह लोककथा के विस्तृत फलक पर कितनी अर्थपूर्ण हो सकती है और हमारे समाज, परम्पराओं, मूल्य-मान्यताओं पर कितने सवाल खड़ा कर सकती है, यह संग्रह के 'खीर वाला राज्य' कहानी में देखा जा सकता है। कुछ उद्धरण सुनिए, अपच के मरीज राजा से पण्डित कहता है- ''राज्य करना तो आप जैसे उमरावों को ही शोभा देता है और खीर बेचारी की क्या बिसात, मुझ जैसे अभागे भी चट कर जाते हैं।'' प्रजा जोर-जोर से चिल्लाने लगी- ''राजा, सेना और दरबारी खीर खाएं तो भले ही खाएं, पर हमारे लिए नमक रोटी का इंतजाम तो होना ही चाहिए।'' और एक उद्धरण- ''खीर खाने से ही मुझे यह राज्य बकसीस में मिला और खीर खाते-खाते ही छिन जाए तो कोई परवाह नही। मैं तो खीर के अलावा कोई दूसरा प्रपंच जानता ही नहीं।'' यह कहानी लोक कथाओं के रूचि-व्यापकता की शर्त पूरा करती है, किन्तु महाकाव्यीय नियतिबद्ध परिणिति जैसी अन्य शर्तें आदिम भावों के साथ कुछ दूसरी कहानियों में अधिक उभरकर आती है।
संग्रह की एक और उल्लेखनीय कहानी 'मरीचिका' है, जिसमें एक शेर, पशु से धीरे-धीरे मनुष्य और मनुष्य से महामानव की प्रवृत्तियां अपना लेता है, अपनी सीधी और सपाट सोच के चलते, किन्तु इस सिलसिले में उसे 'सभ्य' समाज से दो-चार होना पड़ता है तो उसका गुजारा मुश्किल हो जाता है और वह इस जहरीले वातावरण से वापस लौट जाता है। शेर जिसे कहानी में कहीं सिंह और कहीं नाहर कहा गया है, कहता है- ''मैं फकत मौत ही का नहीं, समूची कुदरत का प्रतिरूप हूं, जिसे दुनिया भूल चुकी है।'' शेर यह भी कहता है कि अन्दरूनी इच्छा हो तो कुछ भी मुश्किल नहीं। मैने हजारों हजार पुरखों की बान छोड़ी ही है.... और अब चुपके-चुपके घास खाने का अभ्यास भी कर रहा हूं। दीवान की पत्नी को अपलक दृष्टि से देखकर शेर कहता है- ''आपका अनिन्द्य रूप निहार कर अब मैं सुख से मर सकता हूं। आपके बहाने समूची प्रकृति ही मेरे सामने झिलमिला रही है।'' और उसकी ''आंखों के सामने मेरी साथिन (शेरनी) और दीवान की पत्नी का चेहरा दोनों साथ-साथ ही चमक रहे थे।''
संग्रह की सभी कहानियों की चर्चा और उद्धरण संक्षेप में भी यहां संभव नहीं है, किन्तु कहानियों का मूड 'मायाजाल' तक अधिक सहज और इसके बाद का सायास जान पड़ता है। इसके बावजूद भी एक पाठक की हैसियत से, आजकल जो कहानियां चाल-चलन में हैं और जितना उनका आतंक है, उस माहौल में न सिर्फ 'सपनप्रिया' बल्कि देथा का पूरा रचना-संसार इतना रोचक और आकर्षक है, इतना तरल, सुकूनदेह है कि उसमें बार-बार डुबकी लगाई जा सकती है। यहां 'गिरवी जीवन' में लोकप्रिय देवता महादेव-पार्वती की उपस्थिति और गणेश को ब्याह की पहली कुंकुम-पत्रिका चढ़ाये जाने की परम्परा के लिए रची गई कथा तथा इसके साथ 'आसीस' के चापलूसी पसंद, महल तक सीमित रहने वाले राजा के राजकीय व्यवस्था पर रची कथा और 'मनुष्यों का गड़रिया' के खुदा की खुदाई का उल्लेख संकलन की अलग-अलग रंग-छटाओं की दृष्टि से आवश्यक है। कुल मिलाकर इस जिल्द में देथा, दर्शन के स्तर पर जड़-चेतन द्वैत के संदेह तक पाठक को पहुंचाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं तो अभिव्यक्ति के स्तर पर भाषा-बोली के द्वन्द्व के आगे-पीछे संगीत से लेकर बायनरी प्रणाली तक सोच की गुंजाइश बना देते हैं।
अन्ततः एक दीगर लघु कथा का स्मरण- 'इक्कीसवीं सदी में मृत्यु और जन्म, यानि पूरे जीवन पर विजय पा ली गई न कोई मरता, न कोई पैदा होता। कहीं कोई गड़बड़ हुई और एक बच्चा पैदा हो गया, उस बच्चे को लेकर उसके अभिभावक एक संगीत सभा में पहुंचे। सभा में थोड़ी देर बाद बच्चा रोने लगा और सभी श्रोता एक साथ सभा के लिए आयोजित संगीत को रूकवाकर इस बच्चे के अकस्मात् विलाप को सुनते रहे।' देथा का विलाप-संगीत, असंगत विविधताओं पर आधारित लय और मिठास का सहज रस है।
दसेक साल से अधिक अरसा बीता, बिलासपुर में 'पाठक मंच' पुनर्जीवित हुआ, मैंने औपचारिकतावश शुभकामनाएं दीं तो जवाब में यह पुस्तक 'सपनप्रिया' थमा दी गई, इस दबावपूर्ण अप्रत्याशित प्रस्ताव सहित कि अगली बैठक में इस पुस्तक की चर्चा मेरे आधार वक्तव्य पर होगी। संकोचवश और पुस्तक पढ़ने की चाह में ऐसा लेखन अभ्यास न होने के बावजूद, यह सोच कर रख लिया कि पढ़ने के बाद, मुझसे यह नहीं हो सकेगा, कह कर एकाध दिन में ही लौटा दूंगा। लेकिन पुस्तक पढ़ कर पूरे उत्साह से एक लंबा नोट सहजता से लिख लिया, उसका लगभग एक तिहाई हिस्सा यह है। वही हिस्सा, जो पाठक मंच में पढ़ा गया, बाकी का अब सिर्फ यादों में जुगाली के लिए। देथा जी पर कुछ लिखना 'दुविधा' छोड़ कर संभव हुआ। यह शायद अब तक अप्रकाशित भी रहा है।