वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी डा. के.के. चक्रवर्ती जी के साथ दसेक साल पहले रायपुर से कोरबा जाने का अवसर बना। रास्ते में तालाबों पर चर्चा होने लगी। अनुपम मिश्र की पुस्तकों का भी जिक्र आया। छत्तीसगढ़ में तालाबों के विभिन्न पक्षों पर मेरी बातों को वे ध्यान से सुनते रहे, फिर रास्ते में एक तालाब आया, वहां रुक कर उन्होंने तालाब के स्थापत्य पर सवाल किया और बातों का सार हुआ कि मैं जितनी बातें कह रहा हूं वह सब एक नोट बना कर उन्हें दिखाऊं, मैंने हामी भरी, लेकिन मुझे लगता रहा कि इसमें लिखने वाली क्या बात है, लिख कर क्या होगा। मेरी ओर से बात आई-गई हुई। कोरबा पहुंच कर उन्होंने फिर याद दिलाई, कहा रात को ही लिख लूं और दिखा दूं। बचने का कोई रास्ता नहीं रहा तो मैंने अगली सुबह तक मोहलत ली और कच्चा मसौदा, जो पिछली पोस्ट तालाब में आया है, उन्हें दिखाया, चक्रवर्ती जी ने इसमें रुचि ली। काफी समय बाद स्वयं इसे फिर से देखा तो लगा कि यह औरों की रुचि का भी हो सकता है। बहरहाल, इस तरह लगभग बिना सोचे शुरुआत हुई। अब सचेत समझ पाता हूं कि मेला, ग्राम देवता और तालाब तीन ऐसे क्षेत्र हैं, जिसमें निहित सामुदायिक-सांस्कृतिक जीवन लक्षण के प्रति मुझे आरंभ से आकर्षण रहा है। यहां तालाब पर कुछ और बातें-
• तालाबों के विवाह की परम्परा के साथ स्मरणीय है कि इस तरह का विवाह अनुष्ठान फलदार वृक्षों के लिए भी होता है, जिसके बाद विवाहित वृक्ष के फल का उपयोग आरंभ किया जाता है। तालाबों का विवाह, अवर्षा की स्थिति होने पर या जल-स्रोतों को सक्रिय करने के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान है। तालाबों के कुंवारे रह जाने की तरह एक उदाहरण जिला मुख्यालय धमतरी के पास करेठा का है, जहां के ग्राम देवी-देवता अविवाहित माने जाते हैं, इस गांव को कुंआरीडीह भी कहा जाता है। बहरहाल, सन 2011 में 12-13 जून को जांजगीर-चांपा जिले के केरा ग्रामवासियों द्वारा राजापारा के रनसगरा तालाब का विवाह विधि-विधानपूर्वक कराया गया, जिसमें वर, भगवान वरुण और वरुणीदेवी को वधू विराजित कराया गया। इस मौके पर लोगों ने अस्सी साल पहले गांव के ही 'बर तालाब' के विवाह आयोजन को भी याद किया।
• तालाबों के विवाह की परम्परा के साथ स्मरणीय है कि इस तरह का विवाह अनुष्ठान फलदार वृक्षों के लिए भी होता है, जिसके बाद विवाहित वृक्ष के फल का उपयोग आरंभ किया जाता है। तालाबों का विवाह, अवर्षा की स्थिति होने पर या जल-स्रोतों को सक्रिय करने के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान है। तालाबों के कुंवारे रह जाने की तरह एक उदाहरण जिला मुख्यालय धमतरी के पास करेठा का है, जहां के ग्राम देवी-देवता अविवाहित माने जाते हैं, इस गांव को कुंआरीडीह भी कहा जाता है। बहरहाल, सन 2011 में 12-13 जून को जांजगीर-चांपा जिले के केरा ग्रामवासियों द्वारा राजापारा के रनसगरा तालाब का विवाह विधि-विधानपूर्वक कराया गया, जिसमें वर, भगवान वरुण और वरुणीदेवी को वधू विराजित कराया गया। इस मौके पर लोगों ने अस्सी साल पहले गांव के ही 'बर तालाब' के विवाह आयोजन को भी याद किया।
• सन 1900 में पूरा छत्तीसगढ़ अकाल के चपेट में था। इसी साल रायपुर जिले के एक हजार से भी अधिक तालाबों को राहत कार्य में दुरुस्त कराया गया। रायपुर के पास स्थित ग्राम गिरोद में ऐसी सूचना वाला उत्कीर्ण शिलालेख सुरक्षित है।
• 18 मई 1790 को अंगरेज यात्री जी.एफ. लेकी रायपुर पहुंचा था। उसने यहां के विशाल, चारों ओर से पक्के बंधे तालाब (संभवतः खो-खो तालाब या आमा तालाब) का जिक्र करते हुए लिखा है कि तालाब का पानी खराब था। 'नागपुर डिवीजन का बस्ता', दस्तावेजों में रायपुर और रतनपुर के तालाबों का महत्वपूर्ण उल्लेख मिलता है। प्रसिद्ध यात्री बाबू साधुचरणप्रसाद, अब जिनका नाम शायद ही कोई लेता है, 1893 में छत्तीसगढ़ आए थे। उन्होंने रायपुर के कंकाली तालाब, बूढ़ा तालाब, महाराज तालाब, अंबातालाब, तेलीबांध, राजा तालाब और कोको तालाब का उल्लेख किया है। इसी प्रकार पं. लालाराम तिवारी और श्री बैजनाथ प्रसाद स्वर्णकार की रचना 'रतनपुर महात्म्य' में भी रतनपुर के तालाबों का रोचक उल्लेख है।
• छत्तीसगढ़ की प्रथम हिंदी मासिक पत्रिका 'छत्तीसगढ़ मित्र' के सन् 1900 के मार्च-अप्रैल अंक का उद्धरण है- ''रायपुर का आमा तलाव प्रसिद्ध है। यह तलाव श्रीयुत सोभाराम साव रायपुर निवासी के पूर्वजों ने बनवाया था। अब उसका पानी सूख कर खराब हो गया है। उपर्युक्त सावजी ने उसकी मरम्मत में 17000 रु. खर्च करने का निश्चय किया है। काम भी जोर शोर से जारी हो गया है। आपका औदार्य इस प्रदेश में चिरकाल से प्रसिद्ध है। सरकार को चाहिए कि इसकी ओर ध्यान देवे।''
• छत्तीसगढ़ की प्रथम हिंदी मासिक पत्रिका 'छत्तीसगढ़ मित्र' के सन् 1900 के मार्च-अप्रैल अंक का उद्धरण है- ''रायपुर का आमा तलाव प्रसिद्ध है। यह तलाव श्रीयुत सोभाराम साव रायपुर निवासी के पूर्वजों ने बनवाया था। अब उसका पानी सूख कर खराब हो गया है। उपर्युक्त सावजी ने उसकी मरम्मत में 17000 रु. खर्च करने का निश्चय किया है। काम भी जोर शोर से जारी हो गया है। आपका औदार्य इस प्रदेश में चिरकाल से प्रसिद्ध है। सरकार को चाहिए कि इसकी ओर ध्यान देवे।''
• शुकलाल प्रसाद पांडे की कविता 'तल्लाव के पानी' की पंक्तियां हैं -
''गनती गनही तब तो इहां ल छय सात तरैया हे,
फेर ओ सब मां बंधवा तरिया पानी एक पुरैया हे।
न्हावन छींचन भइंसा-मांजन, धोये ओढ़न चेंदरा के।
ते मा धोबनिन मन के मारे गत नइये ओ बपुरा के॥
पानी नीचट धोंघट धोंघा, मिले रबोदा जे मा हे।
पंडरा रंग, गैंधाइन महके, अउ धराउल ठोम्हा हे।
कम्हू जम्हू के साग अमटहा, झोरहातै लगबे रांधे,
तुरत गढ़ा जाही रे भाई रंहन बेसन नई लागे।''
• पानी-तालाब के वैदिक संदर्भ पर भी दृष्टिपात करते चलें। वैदिक साहित्य में छोटे गड्ढे का जल- स्रुत्य, नदी का जल- नादेय और तराई की नदियों का जल- नीप्य, कुएं का जल कूप्य तो छोटे कुएं का जल अवट्य कहा गया है। दलदली भूमि का जल सूद्य तो नहर का जल कुल्य है। अनूप्य और उत्स्य, जलीय स्थानों और जलस्रोतों से निकलने वाला जल है। बावड़ी का जल वैशंत, झील का जल हृदय तो तालाब के जल के लिए सरस्य शब्द प्रयुक्त हुआ है।
• तालाब, उनसे जुड़ी मान्यताएं और एक-एक शब्द के साथ पूरी कथा है, नमूने के लिए 'मामा-भांजा', ‘छै आगर छै कोरी‘, 'सागर', 'बालसमुंद' और 'सरगबुंदिया'। तालाब के 'मामा-भांजा' नामकरण का कारण बताया जाता है कि किसी भांजे ने अपने नाम से तालाब खुदवाने के लिए अपने मामा को विश्वासपूर्वक जिम्मा दिया था, मामा ने साथ-साथ अपने नाम से भी एक तालाब खुदवा लेने के लिए भांजे का सहयोग चाहा, भांजे ने इसके लिए हामी भरी, तब मामा ने छलपूर्वक तालाब खुदवाने के लिए निचले हिस्से में, जहां पानी की अधिक संभावना थी, अपने नाम से और भांजे के लिए उथले स्थान का निर्धारण कर लिया। मौके पर पहुंचने से भांजे को स्थिति का पता लगा, उसने इसे नियति मानकर स्वीकार कर लिया, लेकिन काम पूरा होने के बाद ऊंचाई पर खुदे 'भांजा' तालाब में लबालब पानी भरा, लेकिन निचले हिस्से के 'मामा' तालाब सूखा रह गया, क्योंकि इसमें कोई प्राकृतिक जल-स्रोत नहीं था। बिलासपुर के मामा-भांजा तालाब जोड़े के भांजा तालाब पर अब आबादी बस गई है और मामा तालाब को ही मामा-भांजा तालाब कहा जाने लगा है, जिसमें आसपास के घरों के निकास का गंदा पानी जमा होता है।साथ ही खल्लारी, महासमुंद के पास एक गांव का नाम ही मामा भांचा है। इस गांव के एक छोर पर अंगारमोती देवता वाला गधिया तरिया है, जिसके पास देवता मामा-भांचा की मान्यता वाला उकेरा जोड़ा-पत्थर है। बताया जाता है कि भूलवश मामा का बाण लग जाने से भांजे की मौत हो गई, ग्लानिवश मामा ने भी अपनी इहलीला समाप्त कर ली, वही मामा-भांचा देवता हुए, अब पूजित हैं।
‘छै आगर छै कोरी‘ की गिनती, एक सौ छब्बीस को भी बूझते चलें। यह पहेली जैसा कि सौ हो जाता है, एक सौ छब्बीस। इसका आधार पांच, बीस और सौ की गिनती है। पांच की गिनती एक हाथ की ऊंगली, और बीस दोनों हाथ और दोनों पैर की पांच-पांच, सारी उंगलियां मिलाकर हुईं बीस। या एक हाथ की पांच उंगलियों के तीन-तीन पोर और एक सिरा, इस तरह हर ऊंगली पर चार की गिनती और पांच उंगलियां पर मिल कर बीस हुईं। यही बीस हुआ कोरी और पांच कोरी हुआ सौ, मगर इसमें छठवां कोरी और उस पर भी छै आगर कहां से आ जाता है। वह ऐसे कि किसी वस्तु, फल आदि की खरीद-फरोख्त या लेन-देन में चलन रहा है पुरौनी का। पुरौनी इसलिए कि दी जा रही पांच वस्तुओं में एक खराब निकले, टूट-फूट हो तब भी संख्या पांच ही रहे, इस तरह हर पांच पर एक की पुरौनी से वह छै हो जाता है, तो हर बीस चौबीस हो जाता है। इस तरह आगे बढ़ते बीस पूरा होने की भी एक पुरौनी होती है, इससे चौबीस, पच्चीस हो जाता है। ऐसा पांच बार करते सौ पर पहुंचते हैं तो संख्या हो जाती है एक सौ पच्चीस अंत में यह पूरा होने पर फिर एक, इस तरह पूरे हुए एक सौ छब्बीस, ‘यानि छै आगर छै कोरी‘। तालाबों के लिए, सौ का संकल्प हो तो इस संभावना का ध्यान रखते हुए कि अगा सौ में से कुछ का काम पूरा न हो पाए, किसी में पानी न आए, इस तरह की और कोई अबड़चन आ जाने पर भी सौ का संकल्प प्रतीकात्मक न हो वास्तविक हो, इसलिए छै आगर छै कोरी तालाब की योजना-गणना होती थी और अधिकतर सभी सफल होते थे, ऐसा न होने पर और छै आगर छै कोरी रूढ़ हो जाने के कारण और भी अतिरिक्त तालाब खुदवाए जाते थे।
सागर, नरियरा ग्राम का विशाल तालाब है। इस तालाब में पारस पत्थर होने की किस्सा बताया जाता है- एक बरेठिन सागर तालाब में नहाने गई, वहां पैर के आभूषण, पैरी को दुरुस्त करने की जरूरत हुई, उसने घाट पर पड़ा पत्थर ले कर ठोंक-पीट किया और वापस घर आ गई। घर में ध्यान गया कि उस पैरी में सुनहरी चमक है। पूछताछ होने लगी। बरेठिन को तालाब वाली बात याद आई और यह बताते ही खबर जंगल की आग की तरह पूरे इलाके में फैल गई कि नरियरा के सागर तालाब में पारस पत्थर है, खोज होने लगी, लेकिन सब बेकार। बात अंगरेज सरकार तक पहुंची। कुछ ही दिनों में अंगरेज अधिकारी नरियरा आए, उनके साथ दो हाथी और तालाब की लंबाई की लोहे की जंजीर थी। हाथियों के पैर में जंजीर बांधी गई और दोनों हाथियों को तालाब के आर-पार जंजीर को डुबाते हुए, तालाब की परिक्रमा कराई गई। जंजीर बाहर आई तो उसकी ढाई कड़ी सोने की थी, लेकिन इसके बाद भी उस पारस पत्थर को नहीं मिलना था तो वह नहीं मिला और अब भी यह आस-विश्वास बना हुआ है। वैसे इस तालाब आबपाशी से खेतों से धान और बरछा से गन्ना, सब्जियां सोना ही उगलती हैं। पारस पत्थर की इससे मिलती-जुलती कहानी सिरपुर के रायकेरा तालाब के साथ और बड़े डोंगर (भंडारिन डोंगरी) के छिन्द तरई के साथ भी जुड़ी है।
पलारी का बालसमुंद देखकर, उसके नामकरण का स्वाभाविक अनुमान होता है कि तालाब का विशाल आकार इसका कारण है। लेकिन यहां एक रोचक किस्सा है कि इसे नायक सरदार ने छैमासी रात में शोध-विचार कर खुदवाया, परन्तु तालाब सूखा का सूखा रहा। नायक सरदार ने जानकारों से राय की और उनके बताये अनुसार लोक-मंगल की कामना करते अपने नवजात शिशु को सूखे खुदे तालाब में परात में रख कर छोड़ दिया। देखते ही देखते रात बीतते में तालाब लबालब हो गया और नवजात परात सहित पानी पर उतराने लगा। इसी वजह से तालाब का नाम बालसमुंद हुआ। प्रसंगवश, जल-स्रोत और उसके लोकोपयोग से जुड़ी एक वास्तविक प्रसंग है, बिलासपुर जिले के गनियारी का। इस गांव में पीने के पानी की कमी को देखकर गांव के प्रमुख दिघ्रस्कर-शास्त्री परिवार ने कुआं खुदवाया, इसी दौरान गांव की चर्चा उनके कान में पड़ी कि यह कुआं तो वे अपने लिए खुदवा रहे हैं और यश पाना चाह रहे हैं कि जन-कल्याण का काम कर रहे हैं। जिस दिन कुएं का पूजन-लोकार्पण हुआ, परिवार प्रमुख ने घोषणा कर दी कि अब वे इस कुएं का क्या, इस गांव का भी पानी नहीं पिएंगे, और दिघ्रस्कर परिवार के लोग आज भी गनियारी जाते हुए पीने का पानी अपने साथ ले जाते हैं।
अब सरगबुंदिया, यानि? मतलब एकदम साफ है, सरग+बुंदिया, सरग=स्वर्ग और बुंदिया=बूंदें, यानि स्वर्ग की बूंदें, अमृतोपम जल, ऐसा तालाब जिसका पानी साफ, मीठा हो। भाषाशास्त्र में हाथ आजमाते और तालाबों की खोज-खबर लेते यह मेरे लिए मुश्किल नहीं रह गया है। तालाबों की बात करते हुए अब मैं लोगों को अपनी इस स्थापना को मौका बना कर सगर्व बताता, सरगबुंदिया यानि पनपिया यानि जिस तालाब का पानी, पीने के लिए उपयोग होता है। एक दिन मेरी बातें सुनकर किसी बुजुर्ग ने धीरे से बात संभाली और मुझे बिना महसूस कराए सुधारा कि सरगबुंदिया में पानी का कोई सोता नहीं है, न भराव-ठहराव न रसन-आवक, बस स्वर्ग की बूंदों, बरसात के भरोसे है। देशज भाषा का सौंदर्य। जान गया कि अभी तालाबों पर जानकारियां ही जुटाना है, मेरी समझ इतनी नहीं बनी है कि उनकी साधिकार व्याख्या करने लगूं।
• 1909-10 के रायपुर जिला गजेटियर में, जिले की खास विशेषता यहां बड़ी संख्या में तालाबों का होना कहा गया है, जबकि बिलासपुर जिला गजेटियर में उल्लेख है कि छोटे गांवों में भी कम से कम एक और बड़े गांवों में पांच या छह तालाब होते हैं। रतनपुर में 150 तालाब हैं और जिले में छोटे-बड़े मिला कर कुल 7018 तालाब हैं। डॉ. महेश कुमार चंदेले ने रायपुर के नगरीय भूगोल के अपने अध्ययन में बताया है कि नगर के कुल क्षेत्रफल का 7.90 प्रतशित यानि 308.89 हेक्टेयर क्षेत्र तालाबों का है। रायपुर के भूगोलविद, प्रो. एन.के. बघमार के रायपुर जिले के जल-संसाधन पर शोध प्रबंध में तत्कालीन (1988) जिले में 25935 तालाब आंकड़ा है। वे स्पष्ट करते हैं कि छत्तीसगढ़ में 35000 तालाब बताए जाते हैं, जबकि रिमोट सेंसिंग से लगभग 64000 तालाबों का पता चलता है। उनके निर्देशन में श्री जितेन्द्र कुमार घृतलहरे ने 'रायपुर जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में तालाबों का भौगोलिक अध्ययन' शीर्षक से सन 2006 में शोध किया है।
• छत्तीसगढ़ लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग में रहे रामनिवास गुप्ता जी इन दिनों इंडियन वाटर वर्क्स एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं (मुझे अजीब लगा कि डा. बघमार और श्री गुप्ता की आपस में कोई मेल-मुलाकात नहीं है, दोनों रायपुर में ही रहते हुए, एक-दूसरे के काम से क्या नाम से भी परिचित नहीं), उन्होंने 'छत्तीसगढ़ में ताल-तलैये और देवालय, 21 वीं सदी में जल', ''कटघरे में हम'' शीर्षक से पुस्तिका सन 2005 में प्रकाशित कराई है। इस पुस्तिका में तत्कालीन बिलासपुर संभाग के तालाबों की जल संग्रहण क्षमता का अध्ययन के साथ मंदिर एवं वृक्षों की तालिका बनाई गई है, यद्यपि कई स्थानों पर आंकड़ों का जोड़ न होने और विसंगति से लगता है कि ये अनंतिम संख्या है, किन्तु अनुमान के लिए ये आंकड़े पर्याप्त हैं। पुस्तिका के अनुसार 7802 ग्रामों में निर्मित 13381 तालाबों के जल भराव में 30 से 45 प्रतिशत तक कमी आई है। पुनः 13662 तालाबों पर स्थित कुल 70964 वृक्षों में, आम-42916, पीपल-4200, बरगद-3539, नीम-3570, बबूल-3381, जामुन-589, खम्हार-400, सेमर-683, तेंदू-2775, महुआ-2929, अन्य-5982 हैं। 13662 तालाबों के पर स्थित कुल 6167 मंदिरों में 3791 शिव मंदिर, 1881 हनुमान मंदिर और 495 अन्य मंदिरों के तत्कालीन जिलेवार आंकड़े दिए गए हैं। श्री गुप्ता ने बताया कि उन्होंने पूरे छत्तीसगढ़ के तालाबों के आंकड़े भी इकट्ठे कराए हैं और रतनपुर के तालाबों का व्यापक सर्वेक्षण-अध्ययन किया है, यद्यपि यह अब तक कहीं प्रकाशित नहीं हुआ है।
• स्वच्छ जल के लिए निर्धारित मानक में पानी का रंग, कठोरता, अम्लता, घुलनशील ठोस के अलावा उसमें लौह, क्लोराइड, मैगनेशियम, मैगनीज, फ्लोराइड, मरकरी, जिंक की मात्रा आदि बिंदुओं पर परख की जाती है। अक्सर यह देखा गया है कि तालाबों का सौन्दर्यीकरण उनके लिए अनुकूल साबित नहीं होता और ऐसे प्रयासों में तालाब के स्थापत्य का ध्यान न रखा गया तो जल की शुद्धता और स्वच्छता का स्तर घटता जाता है। ऐसे उदाहरणों की भी चर्चा होती है, जिसमें सौन्दर्यीकरण के चलते निकास प्रभावित होने से अशुद्धि बढ़ी, तालाब का प्रयोग कम होने लगा, उपेक्षा हुई, साथ ही स्रोत प्रभावित होने के फलस्वरूप तालाब का अस्तित्व ही समाप्त हो गया। निसंदेह, नये तालाबों के निर्माण या तालाबों के मनमाने सौंदर्यीकरण की बजाय विद्यमान को यथावत बनाए रखना ही पर्याप्त होगा। ज्यों ज्यादातर कुएं उपयोग न होने से बड़े कूड़ादान बन जाते हैं, उसी तरह उपयोगिता और अनुशासन कायम न रहे तो तालाबों का अघोषित 'सालिड वेस्ट डंपिंग स्टेशन' बन कर, नई बसाहट के लिए प्लाट में तब्दील होते देर नहीं लगती। उदाहरण- रायपुर नगर के मध्य का पंडरी तरई अब घनी बसाहट वाला पंडरी रह गया है, लेंडी तालाब शास्त्री बाजार हो गया है और रजबंधा तालाब, जो कुछ दिन पहले तक रजबंधा मैदान रहा, अब यहां स्वतंत्रता सेनानियों का शहीद स्मारक भवन और प्रेस कॉम्प्लेक्स वाला रजबंधा व्यावसायिक परिसर है।
पारम्परिक सामुदायिक जीवन का केन्द्र और प्रतिबिम्ब तालाबों, उनकी पनीली यादों में अब आधुनिक जीवन-शैली की जरूरतें परिलक्षित होने लगी हैं।