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Wednesday, November 28, 2012

तालाब परिशिष्‍ट

वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी डा. के.के. चक्रवर्ती जी के साथ दसेक साल पहले रायपुर से कोरबा जाने का अवसर बना। रास्ते में तालाबों पर चर्चा होने लगी। अनुपम मिश्र की पुस्तकों का भी जिक्र आया। छत्तीसगढ़ में तालाबों के विभिन्न पक्षों पर मेरी बातों को वे ध्यान से सुनते रहे, फिर रास्ते में एक तालाब आया, वहां रुक कर उन्होंने तालाब के स्थापत्य पर सवाल किया और बातों का सार हुआ कि मैं जितनी बातें कह रहा हूं वह सब एक नोट बना कर उन्हें दिखाऊं, मैंने हामी भरी, लेकिन मुझे लगता रहा कि इसमें लिखने वाली क्या बात है, लिख कर क्या होगा। मेरी ओर से बात आई-गई हुई। कोरबा पहुंच कर उन्होंने फिर याद दिलाई, कहा रात को ही लिख लूं और दिखा दूं। बचने का कोई रास्ता नहीं रहा तो मैंने अगली सुबह तक मोहलत ली और कच्चा मसौदा, जो पिछली पोस्‍ट तालाब में आया है, उन्हें दिखाया, चक्रवर्ती जी ने इसमें रुचि ली। काफी समय बाद स्वयं इसे फिर से देखा तो लगा कि यह औरों की रुचि का भी हो सकता है। बहरहाल, इस तरह लगभग बिना सोचे शुरुआत हुई। अब सचेत समझ पाता हूं कि मेला, ग्राम देवता और तालाब तीन ऐसे क्षेत्र हैं, जिसमें निहित सामुदायिक-सांस्‍कृतिक जीवन लक्षण के प्रति मुझे आरंभ से आकर्षण रहा है। यहां तालाब पर कुछ और बातें-

• तालाबों के विवाह की परम्‍परा के साथ स्‍मरणीय है कि इस तरह का विवाह अनुष्‍ठान फलदार वृक्षों के लिए भी होता है, जिसके बाद विवाहित वृक्ष के फल का उपयोग आरंभ किया जाता है। तालाबों का विवाह, अवर्षा की स्थिति होने पर या जल-स्रोतों को सक्रिय करने के लिए किया जाने वाला अनुष्‍ठान है। तालाबों के कुंवारे रह जाने की तरह एक उदाहरण जिला मुख्‍यालय धमतरी के पास करेठा का है, जहां के ग्राम देवी-देवता अविवाहित माने जाते हैं, इस गांव को कुंआरीडीह भी कहा जाता है। बहरहाल, सन 2011 में 12-13 जून को जांजगीर-चांपा जिले के केरा ग्रामवासियों द्वारा राजापारा के रनसगरा तालाब का विवाह विधि-विधानपूर्वक कराया गया, जिसमें वर, भगवान वरुण और वरुणीदेवी को वधू विराजित कराया गया। इस मौके पर लोगों ने अस्सी साल पहले गांव के ही 'बर तालाब' के विवाह आयोजन को भी याद किया।




• सन 1900 में पूरा छत्तीसगढ़ अकाल के चपेट में था। इसी साल रायपुर जिले के एक हजार से भी अधिक तालाबों को राहत कार्य में दुरुस्त कराया गया। रायपुर के पास स्थित ग्राम गिरोद में ऐसी सूचना वाला उत्कीर्ण शिलालेख सुरक्षित है।




• 18 मई 1790 को अंगरेज यात्री जी.एफ. लेकी रायपुर पहुंचा था। उसने यहां के विशाल, चारों ओर से पक्‍के बंधे तालाब (संभवतः खो-खो तालाब या आमा तालाब) का जिक्र करते हुए लिखा है कि तालाब का पानी खराब था। 'नागपुर डिवीजन का बस्‍ता', दस्‍तावेजों में रायपुर और रतनपुर के तालाबों का महत्‍वपूर्ण उल्‍लेख मिलता है। प्रसिद्ध यात्री बाबू साधुचरणप्रसाद, अब जिनका नाम शायद ही कोई लेता है, 1893 में छत्‍तीसगढ़ आए थे। उन्‍होंने रायपुर के कंकाली तालाब, बूढ़ा तालाब, महाराज तालाब, अंबातालाब, तेलीबांध, राजा तालाब और कोको तालाब का उल्‍लेख किया है। इसी प्रकार पं. लालाराम तिवारी और श्री बैजनाथ प्रसाद स्‍वर्णकार की रचना 'रतनपुर महात्‍म्‍य' में भी रतनपुर के तालाबों का रोचक उल्‍लेख है।

• छत्तीसगढ़ की प्रथम हिंदी मासिक पत्रिका 'छत्तीसगढ़ मित्र' के सन्‌ 1900 के मार्च-अप्रैल अंक का उद्धरण है- ''रायपुर का आमा तलाव प्रसिद्ध है। यह तलाव श्रीयुत सोभाराम साव रायपुर निवासी के पूर्वजों ने बनवाया था। अब उसका पानी सूख कर खराब हो गया है। उपर्युक्त सावजी ने उसकी मरम्मत में 17000 रु. खर्च करने का निश्चय किया है। काम भी जोर शोर से जारी हो गया है। आपका औदार्य इस प्रदेश में चिरकाल से प्रसिद्ध है। सरकार को चाहिए कि इसकी ओर ध्यान देवे।''

• शुकलाल प्रसाद पांडे की कविता 'तल्लाव के पानी' की पंक्तियां हैं -
''गनती गनही तब तो इहां ल छय सात तरैया हे,
फेर ओ सब मां बंधवा तरिया पानी एक पुरैया हे।
न्हावन छींचन भइंसा-मांजन, धोये ओढ़न चेंदरा के।
ते मा धोबनिन मन के मारे गत नइये ओ बपुरा के॥
पानी नीचट धोंघट धोंघा, मिले रबोदा जे मा हे।
पंडरा रंग, गैंधाइन महके, अउ धराउल ठोम्हा हे।
कम्हू जम्हू के साग अमटहा, झोरहातै लगबे रांधे,
तुरत गढ़ा जाही रे भाई रंहन बेसन नई लागे।''

• पानी-तालाब के वैदिक संदर्भ पर भी दृष्टिपात करते चलें। वैदिक साहित्य में छोटे गड्‌ढे का जल- स्रुत्य, नदी का जल- नादेय और तराई की नदियों का जल- नीप्य, कुएं का जल कूप्य तो छोटे कुएं का जल अवट्‌य कहा गया है। दलदली भूमि का जल सूद्य तो नहर का जल कुल्य है। अनूप्य और उत्स्य, जलीय स्थानों और जलस्रोतों से निकलने वाला जल है। बावड़ी का जल वैशंत, झील का जल हृदय तो तालाब के जल के लिए सरस्य शब्द प्रयुक्त हुआ है।


• तालाब, उनसे जुड़ी मान्‍यताएं और एक-एक शब्‍द के साथ पूरी कथा है, नमूने के लिए 'मामा-भांजा', ‘छै आगर छै कोरी‘, 'सागर', 'बालसमुंद' और 'सरगबुंदिया'। तालाब के 'मामा-भांजा' नामकरण का कारण बताया जाता है कि किसी भांजे ने अपने नाम से तालाब खुदवाने के लिए अपने मामा को विश्‍वासपूर्वक जिम्मा दिया था, मामा ने साथ-साथ अपने नाम से भी एक तालाब खुदवा लेने के लिए भांजे का सहयोग चाहा, भांजे ने इसके लिए हामी भरी, तब मामा ने छलपूर्वक तालाब खुदवाने के लिए निचले हिस्से में, जहां पानी की अधिक संभावना थी, अपने नाम से और भांजे के लिए उथले स्थान का निर्धारण कर लिया। मौके पर पहुंचने से भांजे को स्थिति का पता लगा, उसने इसे नियति मानकर स्वीकार कर लिया, लेकिन काम पूरा होने के बाद ऊंचाई पर खुदे 'भांजा' तालाब में लबालब पानी भरा, लेकिन निचले हिस्से के 'मामा' तालाब सूखा रह गया, क्योंकि इसमें कोई प्राकृतिक जल-स्रोत नहीं था। बिलासपुर के मामा-भांजा तालाब जोड़े के भांजा तालाब पर अब आबादी बस गई है और मामा तालाब को ही मामा-भांजा तालाब कहा जाने लगा है, जिसमें आसपास के घरों के निकास का गंदा पानी जमा होता है।साथ ही खल्‍लारी, महासमुंद के पास एक गांव का नाम ही मामा भांचा है। इस गांव के एक छोर पर अंगारमोती देवता वाला गधिया तरिया है, जिसके पास देवता मामा-भांचा की मान्‍यता वाला उकेरा जोड़ा-पत्‍थर है। बताया जाता है कि भूलवश मामा का बाण लग जाने से भांजे की मौत हो गई, ग्‍लानिवश मामा ने भी अपनी इहलीला समाप्‍त कर ली, वही मामा-भांचा देवता हुए, अब पूजित हैं।

‘छै आगर छै कोरी‘ की गिनती, एक सौ छब्बीस को भी बूझते चलें। यह पहेली जैसा कि सौ हो जाता है, एक सौ छब्बीस। इसका आधार पांच, बीस और सौ की गिनती है। पांच की गिनती एक हाथ की ऊंगली, और बीस दोनों हाथ और दोनों  पैर की पांच-पांच, सारी उंगलियां मिलाकर हुईं बीस। या एक हाथ की पांच उंगलियों के तीन-तीन पोर और एक सिरा, इस तरह हर ऊंगली पर चार की गिनती और पांच उंगलियां पर मिल कर बीस हुईं। यही बीस हुआ कोरी और पांच कोरी हुआ सौ, मगर इसमें छठवां कोरी और उस पर भी छै आगर कहां से आ जाता है। वह ऐसे कि किसी वस्तु, फल आदि की खरीद-फरोख्त या लेन-देन में चलन रहा है पुरौनी का। पुरौनी इसलिए कि दी जा रही पांच वस्तुओं में एक खराब निकले, टूट-फूट हो तब भी संख्या पांच ही रहे, इस तरह हर पांच पर एक की पुरौनी से वह छै हो जाता है, तो हर बीस चौबीस हो जाता है। इस तरह आगे बढ़ते बीस पूरा होने की भी एक पुरौनी होती है, इससे चौबीस, पच्चीस हो जाता है। ऐसा पांच बार करते सौ पर पहुंचते हैं तो संख्या हो जाती है एक सौ पच्चीस अंत में यह पूरा होने पर फिर एक, इस तरह पूरे हुए एक सौ छब्बीस, ‘यानि छै आगर छै कोरी‘। तालाबों के लिए, सौ का संकल्प हो तो इस संभावना का ध्यान रखते हुए कि अगा सौ में से कुछ का काम पूरा न हो पाए, किसी में पानी न आए, इस तरह की और कोई अबड़चन आ जाने पर भी सौ का संकल्प प्रतीकात्मक न हो वास्तविक हो, इसलिए छै आगर छै कोरी तालाब की योजना-गणना होती थी और अधिकतर सभी सफल होते थे, ऐसा न होने पर और छै आगर छै कोरी रूढ़ हो जाने के कारण और भी अतिरिक्त तालाब खुदवाए जाते थे।

सागर, नरियरा ग्राम का विशाल तालाब है। इस तालाब में पारस पत्‍थर होने की किस्‍सा बताया जाता है- एक बरेठिन सागर तालाब में नहाने गई, वहां पैर के आभूषण, पैरी को दुरुस्‍त करने की जरूरत हुई, उसने घाट पर पड़ा पत्‍थर ले कर ठोंक-पीट किया और वापस घर आ गई। घर में ध्‍यान गया कि उस पैरी में सुनहरी चमक है। पूछताछ होने लगी। बरेठिन को तालाब वाली बात याद आई और यह बताते ही खबर जंगल की आग की तरह पूरे इलाके में फैल गई कि नरियरा के सागर तालाब में पारस पत्‍थर है, खोज होने लगी, लेकिन सब बेकार। बात अंगरेज सरकार तक पहुंची। कुछ ही दिनों में अंगरेज अधिकारी नरियरा आए, उनके साथ दो हाथी और तालाब की लंबाई की लोहे की जंजीर थी। हाथियों के पैर में जंजीर बांधी गई और दोनों हाथियों को तालाब के आर-पार जंजीर को डुबाते हुए, तालाब की परिक्रमा कराई गई। जंजीर बाहर आई तो उसकी ढाई कड़ी सोने की थी, लेकिन इसके बाद भी उस पारस पत्‍थर को नहीं मिलना था तो वह नहीं मिला और अब भी यह आस-विश्‍वास बना हुआ है। वैसे इस तालाब आबपाशी से खेतों से धान और बरछा से गन्‍ना, सब्जियां सोना ही उगलती हैं। पारस पत्‍थर की इससे मिलती-जुलती कहानी सिरपुर के रायकेरा तालाब के साथ और बड़े डोंगर (भंडारिन डोंगरी) के छिन्द तरई के साथ भी जुड़ी है।

पलारी का बालसमुंद देखकर, उसके नामकरण का स्‍वाभाविक अनुमान होता है कि तालाब का विशाल आकार इसका कारण है। लेकिन यहां एक रोचक किस्‍सा है कि इसे नायक सरदार ने छैमासी रात में शोध-विचार कर खुदवाया, परन्तु तालाब सूखा का सूखा रहा। नायक सरदार ने जानकारों से राय की और उनके बताये अनुसार लोक-मंगल की कामना करते अपने नवजात शिशु को सूखे खुदे तालाब में परात में रख कर छोड़ दिया। देखते ही देखते रात बीतते में तालाब लबालब हो गया और नवजात परात सहित पानी पर उतराने लगा। इसी वजह से तालाब का नाम बालसमुंद हुआ। प्रसंगवश, जल-स्रोत और उसके लोकोपयोग से जुड़ी एक वास्‍तविक प्रसंग है, बिलासपुर जिले के गनियारी का। इस गांव में पीने के पानी की कमी को देखकर गांव के प्रमुख दिघ्रस्‍कर-शास्‍त्री परिवार ने कुआं खुदवाया, इसी दौरान गांव की चर्चा उनके कान में पड़ी कि यह कुआं तो वे अपने लिए खुदवा रहे हैं और यश पाना चाह रहे हैं कि जन-कल्‍याण का काम कर रहे हैं। जिस दिन कुएं का पूजन-लोकार्पण हुआ, परिवार प्रमुख ने घोषणा कर दी कि अब वे इस कुएं का क्‍या, इस गांव का भी पानी नहीं पिएंगे, और दिघ्रस्‍कर परिवार के लोग आज भी गनियारी जाते हुए पीने का पानी अपने साथ ले जाते हैं।

अब सरगबुंदिया, यानि? मतलब एकदम साफ है, सरग+बुंदिया, सरग=स्‍वर्ग और बुंदिया=बूंदें, यानि स्‍वर्ग की बूंदें, अमृतोपम जल, ऐसा तालाब जिसका पानी साफ, मीठा हो। भाषाशास्‍त्र में हाथ आजमाते और तालाबों की खोज-खबर लेते यह मेरे लिए मुश्किल नहीं रह गया है। तालाबों की बात करते हुए अब मैं लोगों को अपनी इस स्‍थापना को मौका बना कर सगर्व बताता, सरगबुंदिया यानि पनपिया यानि जिस तालाब का पानी, पीने के लिए उपयोग होता है। एक दिन मेरी बातें सुनकर किसी बुजुर्ग ने धीरे से बात संभाली और मुझे बिना महसूस कराए सुधारा कि सरगबुंदिया में पानी का कोई सोता नहीं है, न भराव-ठहराव न रसन-आवक, बस स्‍वर्ग की बूंदों, बरसात के भरोसे है। देशज भाषा का सौंदर्य। जान गया कि अभी तालाबों पर जानकारियां ही जुटाना है, मेरी समझ इतनी नहीं बनी है कि उन‍की साधिकार व्‍याख्‍या करने लगूं।

• 1909-10 के रायपुर जिला गजेटियर में, जिले की खास विशेषता यहां बड़ी संख्या में तालाबों का होना कहा गया है, जबकि बिलासपुर जिला गजेटियर में उल्लेख है कि छोटे गांवों में भी कम से कम एक और बड़े गांवों में पांच या छह तालाब होते हैं। रतनपुर में 150 तालाब हैं और जिले में छोटे-बड़े मिला कर कुल 7018 तालाब हैं। डॉ. महेश कुमार चंदेले ने रायपुर के नगरीय भूगोल के अपने अध्‍ययन में बताया है कि नगर के कुल क्षेत्रफल का 7.90 प्रतशित यानि 308.89 हेक्‍टेयर क्षेत्र तालाबों का है। रायपुर के भूगोलविद, प्रो. एन.के. बघमार के रायपुर जिले के जल-संसाधन पर शोध प्रबंध में तत्‍कालीन (1988) जिले में 25935 तालाब आंकड़ा है। वे स्‍पष्‍ट करते हैं कि छत्‍तीसगढ़ में 35000 तालाब बताए जाते हैं, जबकि रिमोट सेंसिंग से लगभग 64000 तालाबों का पता चलता है। उनके निर्देशन में श्री जितेन्‍द्र कुमार घृतलहरे ने 'रायपुर जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में तालाबों का भौगोलिक अध्‍ययन' शीर्षक से सन 2006 में शोध किया है।

• छत्‍तीसगढ़ लोक स्‍वास्‍थ्‍य यांत्रिकी विभाग में रहे रामनिवास गुप्ता जी इन दिनों इंडियन वाटर वर्क्‍स एसोसिएशन के अध्‍यक्ष हैं (मुझे अजीब लगा कि डा. बघमार और श्री गुप्‍ता की आपस में कोई मेल-मुलाकात नहीं है, दोनों रायपुर में ही रहते हुए, एक-दूसरे के काम से क्‍या नाम से भी परिचित नहीं), उन्‍होंने 'छत्‍तीसगढ़ में ताल-तलैये और देवालय, 21 वीं सदी में जल', ''कटघरे में हम'' शीर्षक से पुस्तिका सन 2005 में प्रकाशित कराई है। इस पुस्तिका में तत्‍कालीन बिलासपुर संभाग के तालाबों की जल संग्रहण क्षमता का अध्‍ययन के साथ मंदिर एवं वृक्षों की तालिका बनाई गई है, यद्यपि कई स्‍थानों पर आंकड़ों का जोड़ न होने और विसंगति से लगता है कि ये अनंतिम संख्‍या है, किन्‍तु अनुमान के लिए ये आंकड़े पर्याप्‍त हैं। पुस्तिका के अनुसार 7802 ग्रामों में निर्मित 13381 तालाबों के जल भराव में 30 से 45 प्रतिशत तक कमी आई है। पुनः 13662 तालाबों पर स्थित कुल 70964 वृक्षों में, आम-42916, पीपल-4200, बरगद-3539, नीम-3570, बबूल-3381, जामुन-589, खम्‍हार-400, सेमर-683, तेंदू-2775, महुआ-2929, अन्‍य-5982 हैं। 13662 तालाबों के पर स्थित कुल 6167 मंदिरों में 3791 शिव मंदिर, 1881 हनुमान मंदिर और 495 अन्‍य मंदिरों के तत्‍कालीन जिलेवार आंकड़े दिए गए हैं। श्री गुप्‍ता ने बताया कि उन्‍होंने पूरे छत्‍तीसगढ़ के तालाबों के आंकड़े भी इकट्ठे कराए हैं और रतनपुर के तालाबों का व्‍यापक सर्वेक्षण-अध्‍ययन किया है, यद्यपि यह अब तक कहीं प्रकाशित नहीं हुआ है।

• स्वच्छ जल के लिए निर्धारित मानक में पानी का रंग, कठोरता, अम्लता, घुलनशील ठोस के अलावा उसमें लौह, क्लोराइड, मैगनेशियम, मैगनीज, फ्लोराइड, मरकरी, जिंक की मात्रा आदि बिंदुओं पर परख की जाती है। अक्‍सर यह देखा गया है कि तालाबों का सौन्दर्यीकरण उनके लिए अनुकूल साबित नहीं होता और ऐसे प्रयासों में तालाब के स्‍थापत्‍य का ध्‍यान न रखा गया तो जल की शुद्धता और स्‍वच्‍छता का स्तर घटता जाता है। ऐसे उदाहरणों की भी चर्चा होती है, जिसमें सौन्दर्यीकरण के चलते निकास प्रभावित होने से अशुद्धि बढ़ी, तालाब का प्रयोग कम होने लगा, उपेक्षा हुई, साथ ही स्रोत प्रभावित होने के फलस्‍वरूप तालाब का अस्तित्‍व ही समाप्‍त हो गया। निसंदेह, नये तालाबों के निर्माण या तालाबों के मनमाने सौंदर्यीकरण की बजाय विद्यमान को यथावत बनाए रखना ही पर्याप्‍त होगा। ज्‍यों ज्‍यादातर कुएं उपयोग न होने से बड़े कूड़ादान बन जाते हैं, उसी तरह उपयोगिता और अनुशासन कायम न रहे तो तालाबों का अघोषित 'सालिड वेस्‍ट डंपिंग स्‍टेशन' बन कर, नई बसाहट के लिए प्‍लाट में तब्‍दील होते देर नहीं लगती। उदाहरण- रायपुर नगर के मध्य का पंडरी तरई अब घनी बसाहट वाला पंडरी रह गया है, लेंडी तालाब शास्त्री बाजार हो गया है और रजबंधा तालाब, जो कुछ दिन पहले तक रजबंधा मैदान रहा, अब यहां स्वतंत्रता सेनानियों का शहीद स्मारक भवन और प्रेस कॉम्प्लेक्स वाला रजबंधा व्यावसायिक परिसर है।

पारम्‍परिक सामुदायिक जीवन का केन्‍द्र और प्रतिबिम्‍ब तालाबों, उनकी पनीली यादों में अब आधुनिक जीवन-शैली की जरूरतें परिलक्षित होने लगी हैं।

Wednesday, November 14, 2012

तालाब

छत्तीसगढ़ की सीमावर्ती पहाड़ियां उच्चता, प्राकृतिक संसाधनयुक्त रत्नगर्भा धरती सम्पन्नता, वन-कान्तार सघनता का परिचय देती हैं तो मैदानी भाग उदार विस्तार का परिचायक है। इस मैदानी हिस्से की जलराशि में सामुदायिक समन्वित संस्कृति के दर्शन होते हैं, जहां जल-संसाधन और प्रबंधन की समृद्ध परम्परा के प्रमाण, तालाबों के साथ विद्यमान है और इसलिए तालाब स्नान, पेयजल और अपासी (आबपाशी या सिंचाई) आवश्यकताओं की प्रत्यक्ष पूर्ति के साथ जन-जीवन और समुदाय के वृहत्तर सांस्कृतिक संदर्भयुक्त बिन्दु हैं।

अहिमन रानी और रेवा रानी की गाथा तालाब स्नान से आरंभ होती है। नौ लाख ओड़िया, नौ लाख ओड़निन के उल्लेख सहित दसमत कइना की गाथा में तालाब खुदता है और फुलबासन की गाथा में मायावी तालाब है। एक लाख मवेशियों का कारवां लेकर चलने वाला लाखा बंजारा और नायकों के स्वामिभक्त कुत्ते का कुकुरदेव मंदिर सहित उनके खुदवाए तालाब, लोक-स्मृति में खपरी, दुर्ग, मंदिर हसौद, पांडुका के पास, रतनपुर के पास करमा-बसहा, बलौदा के पास महुदा जैसे स्थानों में जीवन्त हैं।

गाया जाता है- 'राम कोड़ावय ताल सगुरिया, लछिमन बंधवाय पार।' खमरछठ (हल-षष्ठी) की पूजा में प्रतीकात्मक तालाब-रचना और संबंधित कथा में तथा बस्तर के लछमी जगार गाथा में तालाब खुदवाने संबंधी पारम्परिक मान्यता और सुदीर्घ परम्परा का संकेत है। रतनपुर का घी-कुडि़या तालाब राजा मोरध्‍वज के अश्‍वमेध यज्ञ आयोजन में घी से भरा गया था, माना जाता है। सरगुजा अंचल में कथा चलती है कि पछिमहा देव ने सात सौ तालाब खुदवाए थे और राजा बालंद, कर के रूप में खीना लोहा वसूलता और जोड़ा तालाब खुदवाता, जहां-जहां रात बासा, वहीं तालाब। उक्ति है- ''सात सौ फौज, जोड़ा तलवा; अइसन रहे बालंद रजवा।'' विशेषकर पटना (कोरिया) में कहा जाता है- सातए कोरी, सातए आगर। तेकर उपर बूढ़ा सागर॥

तालाबों की बहुलता इतनी कि 'छै आगर छै कोरी', यानि 126 तालाबों की मान्यता रतनपुर, मल्हार, खरौद, महन्त, नवागढ़, अड़भार, आरंग, धमधा जैसे कई गांवों के साथ सम्बद्ध है। सरगुजा के महेशपुर और पटना में तथा बस्तर अंचल के बारसूर, बड़े डोंगर, कुरुसपाल और बस्तर आदि ग्रामों में 'सात आगर सात कोरी'- 147 तालाबों की मान्यता है, इन गांवों में आज भी बड़ी संख्‍या में तालाब विद्यमान हैं। कहा जाता है कि दुर्गा देवी के आदेश से कुमडाकोटया राजा बड़े डोंगर में प्रतिदिन एक तालाब खुदवाते थे। इस तरह सात आगर सात कोड़ी यानि 147 तालाब, 147 दिनों में खुदवाए थे- 'सात कोड़ी, सात आगर। तीन बंधा, तीन सागर।' इनमें 147 तालाबों के अलावा बूढ़ा सागर, गंगा सागर और मांकदर सागर, ये तीन सागर हैं साथ ही संवसार बंधा, डंडई बंधा और पंडरा बंधा, से तीन बंधा हैं। 'लखनपुर में लाख पोखरा' यानि सरगुजा की लखनपुर जमींदारी में लाख तालाब कहे जाते थे, अब यह गिनती 360 तक पहुंचती है। छत्तीसगढ़ में छत्तीस से अधिक संख्‍या में परिखा युक्त मृत्तिका-दुर्ग यानि मिट्‌टी के किले या गढ़ जांजगीर-चांपा जिले में ही हैं, इन गढ़ों के साथ खाई, जल-संसाधन की दृष्टि से आज भी उपयोगी है। रायपुर और सारंगढ़ के श्रृंखलाबद्ध तालाब और उनकी आपसी सम्बद्धता के अवशेष स्मृति में और मौके पर अब भी विद्यमान है।

भीमादेव, बस्तर और जनजातीय मान्‍यताओं में पाण्डव नहीं, बल्कि पानी-कृषि के देवता हैं। जांजगीर और घिवरा ग्राम में भी भीमा नामक तालाब हैं। बस्तर में विवाह के कई नेग-चार पानी और तालाब से जुड़े हैं। कांकेर क्षेत्र में विवाह के अवसर पर वर-कन्या तालाब के सात भांवर घूमते हैं और परिवारजन सातों बार हल्दी चढ़ाते हैं। दूल्हा अपनी नव विवाहिता को पीठ पर लाद कर स्नान कराने जलाशय भी ले जाता है और पीठ पर लाद कर ही लौटता है।
यह रोचक है कि आमतौर पर समाज से दूरी बनाए रखने वाले नायक, सबरिया, भैना, लोनिया, मटकुड़ा, मटकुली, बेलदार और रामनामियों की भूमिका तालाब निर्माण में महत्वपूर्ण होती है और उनकी विशेषज्ञता तो काल-प्रमाणित है ही। छत्तीसगढ़ में पड़े भीषण अकाल के समय किसी अंग्रेज अधिकारी, संभवतः एग्रीकल्‍चर एंड हार्टिकल्‍चर सोसायटी आफ इंडिया के 19 वीं सदी के अंत में सचिव रहे जे. लेंकेस्‍टर, की पहल पर खुदवाए गए उसके नाम स्मारक बहुसंख्‍य 'लंकेटर तालाब' अब भी जल आवश्यकता की पूर्ति और राहत कार्य के संदर्भ सहित विद्यमान हैं।

छत्तीसगढ़ में तालाबों के विवाह की परम्परा भी है, जिस अनुष्ठान (लोकार्पण का एक स्वरूप) के बाद ही उसका सार्वजनिक उपयोग आरंभ होता था। विवाहित तालाब की पहचान सामान्यतः तालाब के बीच स्थित स्तंभ से होती है। लकड़ी के इन स्‍तंभों का स्‍थान अब सीमेंट लेने लगा है और सक्ती के महामाया तालाब में उल्‍लेखनीय लोहे का स्तंभ स्थापित है, स्तंभ से घटते-बढ़ते जल-स्तर की माप भी हो जाती है। किरारी, जांजगीर के हीराबंध तालाब से प्राप्त स्तंभ पर खुदे अक्षरों के आधार पर यह दो हजार साल पुराना प्रमाणित है। इस प्राचीनतम काष्ठ उत्कीर्ण लेख से तत्कालीन राज पदाधिकारियों की जानकारी मिलती है। कुछ तालाब अविवाहित भी रह जाते हैं, लेकिन चिन्त्य या पीढ़ी पूजा के लिए ऐसे तालाब का ही जल उपयोग में आता है।
बिलासपुर के पास बिरकोना का कपुरताल
सूखे तालाब में पुराने लकड़ी के स्‍तंभ का अंश
तथा बाद में बना सीमेंट का स्‍तंभ
तालाबों के स्थापत्य में कम से कम मछन्दर (पानी के सोते वाला तालाब का सबसे गहरा भाग), नक्खा या छलका (लबालब होने पर पानी निकलने का मार्ग), गांसा (तालाब का सबसे गहरा किनारा), पैठू (तालाब के बाहर अतिरिक्त पानी जमा होने का स्थान), पुंछा (पानी आने व निकासी का रास्ता) और मेढ़-पार होता है। तालाबों के प्रबंधक अघोषित-अलिखित लेकिन होते निश्चित हैं, जो सुबह पहले-पहल तालाब पहुंचकर घटते-बढ़ते जल-स्तर के अनुसार घाट-घठौंदा के पत्थरों को खिसकाते हैं, घाट की काई साफ करते हैं, दातौन की बिखरी चिरी को इकट्ठा कर हटाते हैं और इस्तेमाल के इस सामुदायिक केन्द्र के औघट (पैठू की दिशा में प्रक्षालन के लिए स्थान) आदि का अनुशासन कायम रखते हैं। घाट, सामान्‍यतः पुरुषों, महिलाओं के लिए अलग-अलग, धोबी घाट, मवेशी घाट (अब छठ घाट) और मरघट होता है। तालाबों के पारंपरिक प्रबंधक ही अधिकतर दाह-संस्कार में चिता की लकड़ी जमाने से लेकर शव के ठीक से जल जाने और अस्थि-संचय करा कर, उस स्थान की शांति- गोबर से लिपाई तक की निगरानी करते हुए सहयोग देता है और घंटहा पीपर (दाह-क्रिया के बाद जिस पीपल के वृक्ष पर घट-पात्र बांधा जाता है) के बने रहने और आवश्यक होने पर इस प्रयोजन के वृक्ष-रोपण की व्यवस्था भी वही करता है। अधिकतर ऐसे व्यक्ति मान्य उच्च वर्णों के होते हैं।

तालाबों का नामकरण सामान्यतः उसके आकार, उपयोग और विशिष्टता पर होता है, जैसे पनपिया या पनखत्‍ती, निस्तारी और अपासी (आबपाशी) और खइया, नइया, पंवसरा, पंवसरी, गधियाही, सोलाही या सोलहा, पचरिहा, सतखंडा, अड़बंधा, छुइखदान, डोंगिया, गोबरहा, खदुअन, पुरेनहा, देउरहा, नवा तलाव, पथर्रा, टेढ़ी, कारी, पंर्री, दर्री, नंगसगरा, बघबुड़ा, गिधवा, केंवासी (केंवाची)। बरात निकासी, आगमन व पड़ाव से सम्बद्ध तालाब का नाम दुलहरा पड़ जाता है। तालाब नामकरण उसके चरित्र-इतिहास और व्यक्ति नाम पर भी आधारित होता है, जैसे- फुटहा, दोखही, भुतही, करबिन, काना भैरा, छुइहा, टोनही डबरी, सोनईताल, फूलसागर, मोतीसागर, रानीसागर, राजा तालाब, रजबंधा, गोपिया आदि। जोड़ा नाम भी होते हैं, जैसे- भीमा-कीचक, सास-बहू, मामा-भांजा, सोनई-रूपई। 'पानी-पोखर' दिनचर्या का तो 'तलाव उछाल' जीवन-मरण का शब्‍द है।
रानी पोखर, डीपाडीह, सरगुजा
पानी और तालाब से संबंधित ग्राम-नामों की लंबी सूची हैं और उद, उदा, दा, सर (सरी भी), सरा, तरा (तरी भी), तराई, ताल, चुआं, बोड़, नार, मुड़ा, पानी आदि जलराशि-तालाब के समानार्थी शब्दों के मेल से बने हैं। उद, उदा, दा जुड़कर बने ग्राम नाम के कुछ उदाहरण बछौद, हसौद, तनौद, मरौद, रहौद, लाहौद, चरौदा, कोहरौदा, बलौदा, मालखरौदा, चिखलदा, बिठलदा, रिस्दा, परसदा, फरहदा हैं। सर, सरा, सरी, तरा, तरी, के मेल से बने ग्राम नाम के उदाहरण बेलसर, भड़ेसर, लाखासर, खोंगसरा, अकलसरा, तेलसरा, बोड़सरा, सोनसरी, बेमेतरा, बेलतरा, सिलतरा, भैंसतरा, अकलतरा, अकलतरी, धमतरी है। तरई या तराई तथा ताल के साथ ग्राम नामों की भी बहुलता है। कुछ नमूने डूमरतराई, शिवतराई, जोरातराई, पांडातराई, बीजातराई, सेमरताल, उड़नताल, सरिसताल, अमरताल हैं। चुआं, बोड़ और सीधे पानी जुड़कर बने गांवों के नाम बेंदरचुआं, घुंईचुआं, बेहरचुआं, जामचुआं, लाटाबोड़, नरइबोड़, घघराबोड़, कुकराबोड़, खोंगापानी, औंरापानी, छीरपानी, जूनापानी जैसे ढेरों उदाहरण हैं। स्थानों का नाम सागर, डबरा तथा बांधा आदि से मिल कर भी बनता है तो जलराशि सूचक बंद के मेल से बने कुछ ग्राम नाम ओटेबंद, उदेबंद, कन्हाइबंद, हाड़ाबंद, बिल्लीबंद जैसे हैं। ऐसा ही एक नाम अब रायपुर का मुहल्ला टाटीबंद है। वैसे टाटा और टाटी ग्राम नाम भी छत्तीसगढ़ में हैं, जिसका अर्थ छिछला तालाब जान पड़ता है।

संदर्भवश, छत्तीसगढ़ की प्रमुख नदी का नाम महानदी है तो सरगुजा में महान नदी और यहीं एक मछली नदी भी है, इसी तरह मेढकी नदी कांकेर में है। सरगुजा में ही सूरजपुर-प्रतापपुर के गोविंदपुर के पास नदी 'रजमेलान' के एक तट-स्थान को पद्मश्री राजमोहिनी देवी की ज्ञान-प्राप्ति का स्थाान माना जाता है, रोचक यह कि रजमेलान, वस्तुतः नदी नहीं बल्कि 'रज' नामक नदी में एक छोटी जलधारा 'सत्' के मिलान यानि संगम का स्थान है। इसी अंचल की साफ पानी वाली बारहमासी पिंगला नदी ने तमोर पहाड़ी के साथ 'तमोर पिंगला' अभयारण्य को नाम दिया है। कांकेर में दूध नदी, फिंगेश्‍वर में सूखा नदी और बीजापुर में मरी नदी है तो एक जिला मुख्‍यालय का नाम महासमुंद है और ग्राम नाम बालसमुंद (बेमेतरा) भी है लेकिन रायपुर बलौदा बाजार-पलारी का बालसमुंद, विशालकाय तालाब है। जगदलपुर का तालाब, समुद्र या भूपालताल बड़ा नामी है। बारसूर में चन्‍द्रादित्‍यसमुद्र नामक तालाब खुदवाए जाने के अभिलेखीय प्रमाण है। इसी तरह तालाबों और स्थानों का नाम सागर, डबरा तथा बांधा आदि से मिल कर भी बनता है। तालाब अथवा जल सूचक स्वतंत्र ग्राम-नाम तलवा, झिरिया, बंधवा, सागर, रानीसागर, डबरी, गुचकुलिया, कुंआ, बावली, पचरी, पंचधार, सरगबुंदिया, सेतगंगा, गंगाजल, नर्मदा और निपनिया भी हैं। जल-स्रोत या उससे हुए भराव को झिरिया कहा जाता है, इसके लिए झोड़ी या ढोढ़ी, डोल, दह, दहरा, दरहा और बहुअर्थी चितावर शब्द भी हैं।

कार्तिक-स्नान, ग्रहण-स्नान, भोजली, मृतक संस्कार के साथ नहावन और पितृ-पक्ष की मातृका नवमी के स्नान-अनुष्ठान, ग्राम-देवताओं की बीदर-पूजा, अक्षय-तृतीया पर बाउग (बीज बोना) और विसर्जन आदि के अलावा पानी कम होने जाने पर मतावल, तालाब से सम्बद्ध विशेष अवसर हैं। सावन अमावस्या पर हरेली की गेंड़ी, भाद्रपद अमावस्या पर पोरा के दिन, तालाब का तीन चक्कर लगाकर पउवा (पायदान) विसर्जन और चर्मरोग निदान के लिए तालाब-विशेष में स्‍नान, लोक विधान है। विसर्जित सामग्री के समान मात्रा की लद्‌दी (गाद) तालाब से निकालना पारम्परिक कर्तव्य माना जाता है। ग्रामवासियों द्वारा मिल-जुल कर, गांवजल्ला लद्‌दी निकालने के लिए गांसा काट कर तालाब खाली कर लिया जाता है। बरसात में, नदी-नाले का पुराना छूटा प्रवाह मार्ग-सरार, तालाब बन जाता है। गरमियों में पानी सूख जाने पर तालाब में पानी जमा करने के लिए छोटा गड्‌ढ़ा- झिरिया बना कर पझरा (पसीजे हुए) पानी से आवश्यकता पूर्ति होती है। खातू (खाद) पालने के लिए सूखे तालाब का राब और कांपू मिट्‌टी निकालने की होड़ लग जाती है।

तालाब की सत्ता, उसके पारिस्थितिकी-तंत्र के बिना अधूरी है जिसमें जलीय वनस्पति- गधिया, चीला, रतालू (कुमुदनी), खोखमा, उरई, कुस, खस, पसहर, पोखरा (कमल), पिकी, जलमोंगरा, ढेंस कांदा, कुकरी कांदा, सरपत, करमता, सुनसुनिया, कुथुआ, जलीय जन्तु सीप-घोंघी, जोंक, संधिपाद, चिड़िया (ऐरी), उभयचर आदि और कभी-कभार ऊद व मगर भी होते हैं। मछलियों के ये नाम छत्तीसगढ़ में सहज ज्ञात हैं- कतला, कोतरा-कोतरी, रोहू, मिरकल, सोढ़िहा या सोंढ़ुल, सिंगार, पढ़िना, भुंडी, सांवल, बामी, काराझिंया, बोलिया या लपची, केउ या रुखचग्घा, केवई, मोंगरी, खोखसी या खेकसी, टेंगना, सवांगी, सलांगी या सरांगी, तेलपिया, ग्रासकाल। तालाब जिनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं, उनकी जबान पर कटरंग, सिंगी-सिंघा-कटरा, कुसरा, कटही, केसरी, लुदू, झोरी, बंजू, भाखरी, भाकुर, गिवना, गुरदा, गुंगवारी, लुडुवा, डुडुंग, डंडवा-डंडिया, ढेंसरा, बिजरवा, खेगदा, रुदवा, कोकिया, रोहिछा, रेछा, खेंसरा, गिनवा, भेंड़ो, मोहराली, घंसरा, अइछा, पथर्री, चंदैनी, भेर्री, चिल्हाटी, फलिया, बामर, बूंच, मलाज जैसे मछलियों के नाम भी होते हैं।
बड़े कछुए और मछलियों वाला सरोना का तालाब
जलीय जन्तुओं को देवतुल्य सम्मान देते हुए सोने का नथ पहनी मछली और लिमान (कछुआ) का तथ्य और उससे सम्बद्ध विभिन्न मान्यताएं रायपुर के निकट ग्राम सरोना और कोटगढ़-अकलतरा के सतखंडा तालाब जैसे उदाहरणों में उसकी पारस्थितिकी, सत्ता की पवित्रता और निरंतरता की रक्षा करती हैं। इसी तरह 'तरिया गोसांइन' और 'अंगारमोती' जैसे ग्राम देवता खास तालाबों के देवता हैं, जो ग्राम के जल-आवश्यकता की पूर्ति का ध्यान रखते है, जिन तालाबों में ऐसे देवता वास हो, उनके जल का शौच के लिए इस्‍तेमाल नहीं किया जाता, कोई अन्‍जाने में ऐसा कर बैठे तो देवता उसे माफ तो करता है, लेकिन सचेत करते हुए आभास करा देता है कि भविष्‍य में भूल न हो, और फिर भी तालाब के पारम्परिक नियमों की उपेक्षा या लापरवाही हो तो सजा मिलती है।

सामुदायिक-सहकारी कृषि का क्षेत्र- बरछा, कुसियार (गन्ना) और साग-सब्जी की पैदावार के लिए नियत तालाब से लगी भूमि, पारंपरिक फसल चक्र परिवर्तन और समृद्ध-स्वावलंबी ग्राम की पहचान माना जा सकता है। बंधिया में अपाशी के लिए पानी रोका जाता है और सूख जाने पर उसका उपयोग चना, अलसी, मसूर, करायर उपजाने के लिए कर लिया जाता है। आम के पेड़ों की अमरइया, स्नान के बाद जल अर्पित करने के लिए शिवलिंग, देवी का स्थान- माताचौंरा या महामाया और शीतला या नीम के पेड़, अन्य वृक्षों में वट, पीपल (घंटहा पीपर) और आम के पेड़ों की अमरइया भी प्रमुख तालाबों के अभिन्न अंग हैं।

झिथरी, मिरचुक, तिरसाला, डोंगा, पारस-पत्थर, हंडा-गंगार, पूरी बरात तालाब में डूब जाना (नाउ बरात, बरतिया भांठा) या पथरा जाना जैसी मान्यता, तालाब के चरित्र को रहस्यमय और अलौकिक बनाती है तो पत्थर की पचरी, मामा-भांजा की कथा, राहगीरों के उपयोग के लिए तालाब से बर्तन निकलना और भैंसे के सींग में जलीय वनस्पति-चीला अटक जाने से किसी प्राचीन निर्मित या प्राकृतिक तालाब के पता लगने का विश्वास, जन-सामान्य के इतिहास-जिज्ञासा की पूर्ति करता है।

दसेक साल पहले वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी डा. के.के.चक्रवर्ती जी से हुई चर्चा के बाद उनके निर्देश पर मेरे द्वारा तैयार मूल नोट के आधार पर, बाकी कुछ बातें और चित्र अगली पोस्ट 'तालाब परिशिष्ट' में।

Sunday, November 11, 2012

गेदुर और अचानकमार

छत्‍तीसगढ़ में शिवनाथ नदी के किनारे नये जिले बलौदाबाजार के एक गांव में 'गेदुरपारा' यानि गेदुर मुहल्‍ला सुन कर इस शब्‍द 'गेदुर' के बारे में जानना चाहा, अर्थ बताया गया चमगादड़ या चमगीदड़ (चेहरा, गीदड़ की तरह होने के कारण? चम+गीदड़)। यह 'उड़ने वाली, लेकिन चिडि़या नहीं' स्‍तनधारी आम बोलचाल की छत्‍तीसगढ़ी में चमगिदरी, चमगेदरी या चमरगिदरी भी कही जाती है, तो स्‍पष्‍ट किया गया कि छोटे आकार की, जो आमतौर पर पुराने भवनों में रहती है वह चमगिदरी (या धनगिदरी भी, जिसे शुभ माना जाता है) और बड़े आकार की, जो पेड़ों पर उल्‍टे लटकती है, जिसके पीठ पर भूरे-सुनहरे रोएं होते हैं वह गेदुर है। आगे चर्चा में पता लगा कि छत्‍तीसगढ़ के मध्‍य-मैदानी क्षेत्र के लोग, अच्‍छे जानकार भी इस शब्‍द से एकदम अनभिज्ञ हैं, लेकिन बस्‍तर का हल्‍बी और उससे प्रभावित क्षेत्र, जशपुर सादरी क्षेत्र, पेन्‍ड्रा बघेली प्रभावित क्षेत्र (रीवां अंचल में गेदुरहट नामक गांव है) और जनजातीय समुदाय के लिए यह शब्‍द अपरिचित नहीं है। पट्ट (ठेठ) मैदानी छत्‍तीसगढ़ में 'गेदुर' शब्‍द से अनजान व्‍यक्ति इस शब्‍द को दुहराए तो कहेगा 'गेन्‍दुर'।

मंगत रवीन्‍द्र की छत्‍तीसगढ़ी कहानी अगोरा के आरंभ में- ''थुहा अउ पपरेल के बारी भीतर चर-चर ठन बिही के पेड़ ..... गेदुर तलक ल चाटन नई देय'' गेदुर शब्‍द इस तरह, बिही (अमरूद) के साथ प्रयुक्‍त हुआ है। इसका प्रिय खाद्य अमरूद और शरीफा है। आम मान्‍यता है कि इसके शरीर में मल-उत्‍सर्जन छिद्र नहीं होता और यह (शापग्रस्‍त होने के कारण) उत्‍सर्जन क्रिया मुंह के रास्‍ते करती है, 'गुह-गादर' इस तरह भी शब्‍द प्रयोग प्रचलित है। संभवतः ऐसी मान्‍यता के पीछे कारण यह है कि यह फल खाने के बाद रस चूसकर ठीक उसी तरह उगल देती है, जैसा हम गन्‍ने के लिए करते हैं। छत्‍तीसगढ़ी में अशुचिता, गलीचपन के लिए गिदरा-गिदरी शब्‍द प्रयुक्‍त होता है, स्‍वयं गंदा और गंदगी फैलाने वाला जैसा तात्‍पर्य होता है। यहां शब्‍द और अर्थ साम्‍य देखा जा सकता है। माना जाता है कि पेड़ से गिरे गेदुर को खाने वाले की आयु लंबी होती है और ऐसे व्‍यक्ति की जबान से निकली बात फलीभूत होती है। दमा, श्‍वास-रोगियों को भी गेदुर खिलाया जाता है साथ ही कुछ अन्‍य गुह्य उपयोग और मान्‍यताएं गेदुर के साथ जुड़ी हैं।

गेदुर शब्‍द के साथ मिलते-जुलते शब्‍द इंदूर और उंदुर यानि चूहा का ध्‍यान (बस तुक मिलाने को दादुर, मेढक सहित) आता है और बंदर शब्‍द भी अधिक दूर नहीं। प्रसंगवश, बानरो और उंदरा को जोड़ी बना कर 'बांदरो-उंदरो' बोल दिया जाता है। स्‍तनधारियों में सबसे छोटे, 2 ग्राम तक के जीव चमगादड़ों में ही होते हैं। गादर और गेदुर के चमड़े के डैने के कारण गादड़ में 'चम' जुड़ कर सीधा रिश्‍ता बनता दिखता है, लेकिन क्‍या यह बंदर (वानर, वा+नर में नर का अभिप्राय पुरुष नहीं, मानव है, जो चूहा या चमगादड़ की तरह स्‍तनधारी है) तक भी जाता है?

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बिलासपुर से अमरकंटक के रास्‍ते में है- 'अचानकमार'। इस शब्‍द के लिए पहले जितनी बातें सुनी थीं, उनसे खास अलग कुछ पता नहीं लगा। मुझे यह संतोषजनक नहीं लगता क्‍योंकि यह शब्‍द मूलतः छत्‍तीसगढ़ी, बइगानी या अन्‍य किसी जनजातीय जबान में इस्‍तेमाल होने की जानकारी नहीं मिलती फिर अचानक का अर्थ उसी तरह लिया जाय, जैसी हमारी रोजमर्रा की भाषा में हैं, तब मानना होगा कि यह नाम काफी बाद में आया है, और किसी पुराने नाम पर आरोपित हो गया है, यदि ऐसा हो तो इस नाम का अधिक महत्‍व नहीं रह जाता।

अचानकमार शब्‍द स्‍पष्‍टतः 'अचानक' और 'मार', इन दो शब्‍दों से मिल कर बना है। अचानक के साथ पुर जुड़कर छत्‍तीसगढ़ में जंगली इलाकों में ग्राम नाम बनते हैं- अचानकपुर। ऐसा ग्राम नाम कसडोल, सिरपुर और बलौदा के पास याद आता है। ध्‍यान देने योग्‍य है कि पुर शब्‍द भी यहां पुराने प्रचलन का नहीं है। अब दूसरे शब्‍द 'मार' के बारे में सोचें। मार या इससे जुड़े एकदम करीब के शब्‍द हैं- सुअरमार या सुअरमाल, बाघमड़ा, भालूमाड़ा, अबुझमाड़ (अबुझ भी अचानक की तरह ही अजनबी सा शब्‍द लगता है), जोगीमारा (सरगुजा), प्राचीन स्‍थल माड़ा (सीधी-सिंगरौली में कोरिया जिले की सीमा के पास)। इन पर विचार करने से स्‍पष्‍ट होता है कि 'मार' या इसके करीब के शब्‍द पहाड़, पहाड़ी गुफा, स्‍थान (जिसे ठांव, ठांह या ठिहां भी कहा जाता है) जैसा कुछ अर्थ होगा, मरने-मारने से खास कुछ लेना-देना नहीं है इस शब्‍द का। यह भी विचारणीय होगा कि कुछ लोग इसका उच्चारण अचान-कमार करते हैं लेकिन अचान शब्द का अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाता और कमार (गरियाबंद वाली जनजाति) का इस क्षेत्र से कोई सीधा तालमेल नहीं है।

भाषा विज्ञान की मदद लें तो र-ल-ळ-ड़-ड-द आसपास की ध्‍वनियां हैं। इस दृष्टि से 'शेर की मांद' और मराठी, तमिल-तेलुगु का मलै या माला (मराठी में फ्लोर या मंजिल के लिए माला शब्‍द या दक्षिण भारत में अन्‍नामलई, तिरुमलई) इसी तरह का अर्थ देने वाले शब्‍द हैं। माड़ना, मंडित करना, मड़ई जैसे शब्‍द भी इसके करीब जान पड़ते हैं। संभव है कि भाषा विज्ञान में इतनी खींचतान मंजूर न हो, लेकिन सहज बुद्धि, भटकती तब रास्‍ता पाती है।

इन शब्‍दों के लिए 'शब्‍द चर्चा' का विचार आया फिर अजीत वडनेरकर जी से फोन पर बात हुई, लगा कि भाषाई जोड़-तोड़ में आजमाया हाथ, पोस्‍ट क्‍यों न कर दिया जाय।

Tuesday, November 6, 2012

मौन रतनपुर

इतिहास का रास्ता भूल-भुलैया का होता है और किसी ऐसे स्थल से संबंधित इतिहास, जो सुदीर्घ अवधि तक राजसत्ता का मुख्‍य केन्द्र, प्रशासनिक मुख्‍यालय के साथ-साथ धार्मिक तीर्थस्थल भी हो तो वहां इतिहास-मार्ग और भी दुर्गम हो जाता है, रतनपुर की कहानी भी कुछ इसी तरह की है।

चतुर्युगों में राजधानी के गौरव से महिमामण्डित मान्यता, मूरतध्वज की नगरी और भगवान कृष्ण की पौराणिक कथाओं से रतनपुर को सम्बद्ध कर देखा गया। महामाया, भैरव और महादेव की उपासना का केन्द्र बना और शासकों की पीढ़ियां रतनपुर के अंक में पली-बढ़ी। कहा जाता है कि इतिहास घटित होते हुए उसकी रचना नहीं हो पाती और अगर होती भी है तो वह विषयगत हो जाती है। इतिहास संयोजन का आग्रह तभी तीव्र होता है जब वह मुट्ठी की रेत जैसा छीजता जा रहा हो। शायद उन्हीं स्थितियों में बाबू रेवाराम, पं. शिवदत्त शास्त्री ने उन बिखरते वैभव को कण-कण समेटने की कोशिश की। इस क्रम का अंतिम प्रयास, विक्रम संवत 2000 समाप्‍त होने के उपलक्ष में नियोजित श्री विष्णु महायज्ञ (रतनपुर) स्मारक ग्रंथ तथा यज्ञ आयोजन की प्रेरणा में देखा जा सकता है। इसके साथ गौरव गाथा गायक देवारों का स्मरण तो अपरिहार्य है ही।

तुमान खोल के प्राकृतिक सुरक्षा आवरण से सभ्यता के मैदानी विस्तार में आने की आकुलता का परिणाम रतनपुर है, जो आज लाचार सा इतिहास-पुरातत्व के अध्ययन के लिए विषय-वस्तु बना, निरपेक्ष सा है। घटनापूर्ण और सक्रिय आठ सौ सालों का लेखा, उसकी झलकियां मात्र हो सकती हैं, लेकिन रतनपुर की ऐसी एक झलक भी चकाचौंध कराने के लिए पर्याप्त है।

कहावत यह भी है कि जिस दिन पहला पेड़ कटा होगा सभ्यता का आरंभ उसी दिन हुआ होगा। मूरतध्वज और ब्राह्मण वेशधारी ईश्वर की कथा-भूमि मान कर इस क्षेत्र में आरे का प्रयोग निषिद्ध माना जाता है। इस पौराणिक कथा में तथ्य ढूंढना निरर्थक है, लेकिन उसकी सार्थकता इस दृष्टि से अवश्य है कि आरे का निषेध वन-पर्यावरण की रक्षा का सर्वप्रमुख कारण होता है। टंगिया और बसूले से दैनंदिन आवश्यकता-पूर्ति हो जाती है, लेकिन आरा वनों के व्यावसायिक दोहन का साधन बनता है। मुझे इस कथा में पर्यावरण चेतना के बीज दिखाई देते हैं।

रतनपुर राज की जमाबंदी, भू-व्यवस्थापन कलचुरि राजा कल्याणसाय के हवाले से ज्ञात होता है। मुगलकाल में राजा टोडरमल का भू-राजस्व व्यवस्थापन आरंभिक माना जाता है, लेकिन तत्कालीन छत्तीसगढ़ का खालसा हिस्सा दाऊ-दीवान-गौंटिया, मालगुजारी और रैयतवारी में विभाजित ऐसा व्यवस्थित प्रबंधन था, जिसे अंगरेज अधिकारियों ने लगभग यथावत स्वीकार कर उसी आधार पर राजस्व व्यवस्थापन पूर्ण किया।
1995/1998? में प्रकाशित पुस्‍तक
(चित्र पुस्‍तक के चौथे संस्‍करण के मुखपृष्‍ठ का है)
के प्राक्‍कथन में 'रतनपुर का गहराता मौन'
शीर्षक से मेरी यह टिप्‍पणी है.

रतनपुर, जो कभी दरबार हुआ करता था, आज मूक साक्षी है, उन ऐतिहासिक घटनाओं का। रतनपुर किसी अदालत में जा नहीं सकता और कोई सहृदय मजिस्ट्रेट उसकी गवाही नहीं लेता, इसलिए रतनपुर का मौन गहराता जा रहा है। उसके सन्नाटे के पहले, चुप्पी तोड़ने का कोई भी संवेदनशील प्रयास इतिहास-यज्ञ ही है, जिसमें यह पूरे मन से मेरी कामनाओं के लिए आहुति है, यज्ञ-फल शुभ होगा, अपनी कामनाओं पर विश्वास है।

आज भारत के राष्‍ट्रपति जी छत्‍तीसगढ़ में नया रायपुर के मंत्रालय भवन 'महानदी' का लोकार्पण करेंगे।

रायपुर से प्रकाशित पत्रिका 'दशहरा' के अक्‍टूबर 2012 अंक में भी प्रकाशित।