Thursday, July 28, 2011

डीपाडीह

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स्मरण सन 1988 का। मार्च का महीना, ठीक धूल पंचमी के दिन डीपाडीह के लिए रवाना हुए। पृष्ठभूमि में तीन खास स्थितियां। लगभग तीन माह पहले स्वयं का विवाह, डेढ़ माह पहले डाक्टर कक्का का निधन और लगभग पांच माह से चक्रवर्ती जी का बिलासपुर प्रवास। ताला में रूद्र शिव की प्रतिमा मिली, वहां के काम से पूरी तरह उबर नहीं पाए, नये काम की शुरूआत के लिए डीपाडीह के लिए प्रस्थान हो गया।

इसके पहले सरगुजा जिले में कुछ समय के लिए रामगढ़, उदयपुर तक ही गया था, जो बिलासपुर सीमा से अधिक दूर नहीं है लेकिन इस बार लक्ष्य था, सरगुजा जिले की दूसरी सीमा पर बिहार से लगा डीपाडीह। एक दिन अम्बिकापुर, एक दिन कुसमी और फिर एक सुबह चक्रवर्ती जी काम शुरू करने की शुभकामनाओं सहित छोड़कर वापस लौट गये। मेरी स्थिति पैराशूट से अन्जान भूगोल पर कहीं टपक पड़े जैसी थी। डीपाडीह से गुजरने में ही कन्हर नदी के किनारे गांव के छोर पर बना अकेला सा कच्चा घर, जो गांव की सबसे भव्य इमारत दिखती थी, बिना मालिक और उसके इजाजत की परवाह के तय कर लिया था, आते-जाते ही काम शुरू करने के लिए मजदूर और गांव के तिराहे-बस अड्‌डे के होटल वाले द्वारा विशेष रूप से मेरे लिए किये खाने का प्रबंध हो गया।

गोदामनुमा, बिना बिजली की सुविधा वाली उस इमारत के जिम्मेदार गांव के सेठ जी थे उन्होंने सहर्ष और निशर्त चाबी मुझे सौंप दी और मामूली साफ-सफाई का इन्तजाम भी करा दिया। सुबह से गांव के अंतिम छोर के टीले, उरांव टोली से काम शुरू हुआ। काम की शुरूआत में ही अकेला होने से पूरे समय मजदूरों के साथ फिरकी बन जाना और बीच के एक घंटे के भोजन अवकाश में उरांव टोली के बच्चों के साथ आसपास के दूसरे टीलों पर घूमना और शाम को दिन ढलते-ढलते वापसी। प्रतिदिन दस-बारह किलोमीटर पैदल चलना होता था। वापस आते हुए बस्ती में खाना खाने रूकता और फिर इकट्ठे डेरे पर लौटता, इस बीच कोई सहयोगी साफ-सफाई कर चिमनी जलाकर, पीने का पानी भरकर जा चुका होता था।

बस्ती से डेरे तक का लगभग एक किलोमीटर का रास्ता आगे बढ़ते हुए सूना होता जाता, बिजली भी आधे रास्‍ते तक ही थी। होश संभालने के बाद बिना बिजली के घर में एक-दो रात तुमान में काट चुका था, यह दूसरा लेकिन लम्बा, अवधि अनिश्चितता समेत अनुभव था। अंधेरा गहराते ही बस्ती के न जाने किस कोने से मानों मेरे लिए जादुई और रहस्यात्मक स्वर लहरी और ढोल-ढमाके की आवाज पूरे परिवेश से अभिन्न, उभरने लगती थी, जैसे उजली रात की चांदनी। इसी आवाज के साथ आगे बढ़ता था। यह तो शायद देर रात तक चलता हो लेकिन डेरा पास आते-आते कन्हर के प्रवाह का पथरीला, प्राकृतिक संगीत धीरे-धीरे बढ़ते हुए हावी होता जाता और घर पर पहुंचते तक सिर्फ यही आवाज रह जाती, जो सोते तक मेरे साथ सूनापन काटते बनी रहती। कैम्प में रोजमर्रा को कुछ बदल लेना मुझे हमेशा भाता रहा, जिसमें शेविंग और मांसाहार छोड़ना मुख्‍य होता। साथ ही ऐसे प्रवास में ट्रांजिस्टर और समाचार पत्र से अपने को बचा कर रखता, मुझे बड़ी राहत मिलती कि यों बिना खबर-अखबार के दिन शुरू नहीं होता, लेकिन कैम्प से वापस आ कर आजमाने का मौका होता कि दुनिया जस की तस है।

सुबह सूर्योदय के साथ उठकर कार्य स्थल पर जाने की तैयारी शुरू होती, नदी के सूने घाट में जाकर स्नानादि, फिर कैमरा, नोटबुक, टेप सहित उरांव टोली, बीच रास्ते में बस्ती से गुजरते हुए दोपहर के खाने जैसा नाश्ता कर रात तक के लिए फारिग होकर काम पर हाजिर। फिर वही क्रम दुहराते हुए वापसी, घर पहुंच, लगभग घंटे भर फील्ड डायरी लिखकर, काम पर जाने, खाना खाने जैसी प्रयास रहित निष्ठा से सो जाता।

यही क्रम चलता रहा, शायद चार या पांच दिन, फिर एक शाम घर लौटने की और अकेले रात गुजारने की याद आई, मशीनी ढंग से चल रही स्थिति में पहली बार संवेदनायुक्त यह सोच उपजी, लेकिन तत्काल चिमनी जलाने वाले से कमरे में एक लाठी रख देने को कहकर, निजात पा लिया। अगली सुबह कुछ अलग हुई। सिर पर बाल न होने से कंघी-शीशे का और इस बहाने अपना चेहरा देखने की स्थिति नहीं थी, नदी में मुंह धोते हुए बहते पानी में अपना प्रतिबिंब देखने की कोशिश करने लगा और शायद उसमें बिना कुछ देखे, काम बन गया की तसल्ली सहित फिर आगे की दिनचर्या शुरू हो गई, शाम वापस आने पर खाना खाते हुए क्षणिक विचार आया, बगल में ग्रामीण बैंक वालों के घर में आईना देख लूं, किन्तु हाथ धोते-धोते ही विचार भी धुल गया।

अगली शाम काम से वापस लौटते हुए अजीब अनुभूतियां हुई, जो अब याद आने पर रोमांचक सिहरन होती है। लेकिन बीच में कुछ और बातें- डीपाडीह चारों तरफ दूर पास पहाड़ियों से घिरा हुआ है, शाम होते-होते पास की पहाड़ियां गहरी हरी, उससे दूर की धूमिल और सबसे दूर की पहाड़ियां काली होने लगती थीं। इस क्षेत्र में अधिकतर लोग सफेद कपड़े पहनते हैं और आगे-पीछे पंक्तिबद्ध चलते हैं। पहाड़ियों की पृष्ठभूमि में पंक्तिबद्ध लोग सिर पर, कन्धे पर सामान लिये हुए लैण्ड मार्क बनकर चमकते, सरकते दिखते थे, घर वापसी की तैयारी में। आकाश पर चिड़ियां अपने ठिकानों की ओर उड़ान भरने लगती और सूर्य पहाड़ियों में छुप जाता। उस शाम मुझे लगने लगा कि मैं इस प्राकृतिक दृश्य से अभिन्न हूं, और इस विशाल दृश्य में समा कर खोता जा रहा हूं, अपने शरीर का और ठीक उस समय शायद अपने विचार क्रम का भी भान नहीं हो रहा था, पता नहीं कितनी देर, दो मिनट, तीन मिनट या पांच मिनट, अचानक सामने बिलासपुर से आया दफ्तर का एक कर्मचारी दिखा, जो अपने साथ ढेर सारी सरकारी, निजी डाक और भी कई जानकारियां लेकर आया था।

अगले दिन से ही मैंने जो अब तक गांव में कुछ भी न देखा-समझा था, सभी कुछ पहचाना सा लगने लगा। गांव के लोग, गलियां, घर, आने-जाने वाली बसें, बच्चे और मंदिरों के टीले सभी से अपनापन महसूस हुआ। बाद में तो गांव के भांजे-दामादों और समधियान को भी जानने लगा। वापस आने पर जब मित्रों से चर्चा हुई तो उन्होंने पहले डायरी लिख डालने को कहा और मुझमें अचानक उमड़े बागवानी-वनस्पति, पशु-पक्षी और प्रकृति प्रेम को इस घटना से जोड़ा, मित्रों ने अनुसार वह ऐसा बिन्दु था जहां या तो पूरी स्थितियों से स्थायी विराग हो सकता था या यह दूसरी स्थिति जिसमें सब कुछ आत्मीय और घनिष्ठ बन जाए। ... लिखने के क्रम में कई बात छूटी और विचार प्रवाह टूटा, फिर भी ...

बाद में स्वयं भी मैं काफी दिनों तक उधेड़बुन में पड़ा रहा। लगा कि मौन विकसित करके इस दुर्लभ स्थिति को शायद महसूस किया जा सके जो मुझे अनायास मिली। अपना अस्तित्व और 'मैं' की अस्मिता थोथे और निरर्थक संदर्भों से जुड़कर बनती है और निर्जीव वस्तुएं, घर की सीढ़ियों और फर्नीचर की जमावट में हम आंख मूंदकर चल सकते हैं उनसे अपनी अस्मिता अनुभूति के लिए। लेकिन सभी सुलभ संदर्भ- आपकी जानी-पहचानी जगह, जाने-पहचाने लोग, आपसी बातचीत-सम्भाषण, आपके जाने हुए या आपको जानने वाले सन्दर्भ, और उसमें सहायक खुद अपना चेहरा शीशे में देखना न हो सके तो हमारा मजबूत लेकिन नकली सन्दर्भ-अस्तित्व भरभराकर गिर सकता है, और वह बिन्दु अपनी पहचान करने का अवसर देता है तो व्यक्तित्व में स्थायी परिवर्तन ला सकता है।

डीपाडीह, सरगुजा 1988 से 1990 तक के तीन साल का जैसे पता-ठिकाना ही हो गया था। वहां हजार-एक साल की परतें उघारते हुए, उसे मन ही मन महसूस करते हुए हासिल, सामत सरना का टीला जिस रूप में उभरा-

बीतते दिनों के साथ धूमिल पड़ने के बजाय स्‍मृतियों में जिसके रंग और चटक होते जाते हैं-

सभ्‍य और सामाजिक आचरण के मूल में आदिम मन ही सक्रिय होता है।

तब तक मैं थोरो के 'वाल्‍डन' का नाम भी ठीक से नहीं जानता था, पढ़ा तो अब भी नहीं है।

संबंधित पोस्‍ट - टांगीनाथ

Friday, July 22, 2011

सूचना समर

सूचना का महत्व सदैव रहा है, किन्तु सूचना और सूचक की भूमिका ने जैसा रुख पिछले दशकों में अख्तियार कर लिया है, उसे सूचना समर कहा जाना ही उपयुक्त लगता है। सूचकों द्वारा बरते जा रहे शब्दों में यह पूरी तरह से साफ-साफ दिखाई पड़ता है। सद्‌भावना विकसित और स्थापित करने के उद्देश्य से आयोजित खेल की खबरों में पहले तो पहलवानी अखाड़े के मुहावरे इस्‍तेमाल होते रहे- दूसरे दल, विरोधी को पछाड़ा जाता, पटखनी दी जाती, चारों खाने चित्‍त कर धूल चटाया जाता। अब खेल-खबरों में दुश्‍मन को दांत खट्टे कर मजा तो चखाया ही जाता है, टांग और कमर तोड़ते हुए फतह भी होती है, रौंदकर मटियामेट किया जाता है, भारत और श्रीलंका के मैच राम-रावण युद्ध बन जाता है। इस दौर में संजय द्विवेदी का संकलन 'इस सूचना समर में' मीडिया की नब्ज पर रखी वह उंगली है, जो पाठक को सहज ही बीमार का हाल बता देती है। संकलन की सभी 66 टिप्पणियां, मूलतः 5-6 वर्षों में अलग-अलग लिखी गई सूचना की आवश्यकता-पूर्ति के लिए की गई रचनाएं हैं।
इस समर के और दो पहलुओं का उल्लेख प्रासंगिक होगा। कबीर कहते थे- 'तू कहता कागज की लेखी, मैं कहता आंखन की देखी'। ताल-ठोंक, ठेठ लहजे में कही गई बात अब उलटबांसी लगती है। कुछ वर्षों पूर्व समाचार के रूप में पढ़े और सुने जाने वाले शब्दों को विश्वसनीय बनाने के लिए तथ्य-सूचना एकत्र कर खबर गढ़ी जाती थी लेकिन अब, जब खबरों के दृश्य माध्यम का चलन बढ़ गया है, 'आंखन देखी' के लिए फाइल चित्र भी सहज-सच्चे बन जाते हैं या किसी घटना के दौरान संयोगवश विसंगत कोई दृश्य मिल जाने पर वह समाचार को एक्सक्लूसिव बना देता है और ऐसे दृश्य से बहुधा घटना की अविश्वसनीय व्याख्‍या भी हो जाती है। समाचार दर्शक को इस पर विश्वास करना ही पड़ता है, 'आंखन देखी' जो है।

विचारणीय पहलू यह भी है कि आतंक, हिंसा और दंगा क्षेत्रों से सनसनीखेज खबरें ही आती हैं, सौहार्द-प्रसंग नहीं, अगर आए तो समाचार का वैसा दर्जा उन्हें नहीं मिल पाता क्‍योंकि वह समाचार नहीं, साफ्ट स्टोरी है। रिपोर्टर भी क्या करे, कंपनी ने उसे खर्च कर मौके पर इसलिए तो भेजा नहीं है कि वह दंगा क्षेत्र से अमन का पैगाम ले कर आए, वह तो आया है अधिक से अधिक क्रूर और वीभत्स, उन्माद और हिंसा के जीवंत दृश्य के फुटेज इकट्ठा करने। अन्ततः, रोमांचक नजारों के साथ सनसनीखेज खबरें, साम्प्रदायिक खतरनाक स्थितियों सहित आशंकापूर्ण भविष्य की झांकी गढ़ डालती हैं और ऐसे परिणाम लाती हैं, जो लक्षित कतई नहीं होता।

पुस्तक के दो खण्डों में 'राजनीति' और 'लोग' हैं। 'राजनीति' में, तत्कालीन राजनैतिक स्थितियों और दलों पर न सिर्फ बेलाग टिप्पणी है, बल्कि सटीक विश्लेषण भी किया गया है। यह विश्लेषण अखबारी होते हुए भी तत्कालीन परिस्थितियों से उपजी प्रतिक्रिया का 'हॉट केक' नहीं है, इसलिए समय बीत जाने पर भी प्रासंगिक और पठनीय है। 'लोग' खण्ड विशेष उल्लेखनीय है, जिसमें राजनीतिज्ञों के साथ-साथ, सामाजिक सरोकार रखने वाले अन्य चरित्रों का भी चित्रण है। व्यक्तित्वों में सुभाषचंद्र बोस और राममनोहर लोहिया से लेकर निर्मल वर्मा और अरूंधती राय सहित टी.एन. शेषन और राष्ट्रीय प्रमुख नेताओं को एक साथ रखना अपने आप में उल्लेखनीय है। इन सभी व्यक्तित्वों के मूल्यांकन का आधार मुख्‍यतः उनकी कथनी नहीं, बल्कि उनकी करनी को बनाया गया है इसलिए यह न्यायोचित हो जाता है, विशेषकर इसलिए भी, जब उनके मानवीय सकारात्मक पक्षों पर अधिक बल देते हुए उस पर गंभीरता से विचार किया गया हो।

'राजनीति' खण्ड के कुछ शीर्षकों का उल्लेख आवश्यक है, जो आकर्षक तो हैं ही अर्थवत्ता और रचना की गहराई का आभास कराने में भी समर्थ हैं। यह एक ऐसा महत्वपूर्ण बिन्दु है जहां संजय की लेखनी पत्रकारिता और साहित्य की रूढ़ सीमा को झुठलाती हुई, पाठक को इस भेद के मात्र आभासी होने का विश्वास दिला देती है। इस खण्ड के कुछ शीर्षक हैं- लालकिला केसरिया होगा, सोनिया को सराहौं या सराहौं सीताराम को, कौरवों ने फिर किया अभिमन्यु वध या कौन काटेगा नफरत के ये जंगल; किन्तु एक संवेदनशील पत्रकार की उकताहट 'इस फिजूल बहस से फायदा क्या है ?' जैसे शीर्षक में झलक जाती है।

कुछ शब्द और जुमलों की आवृत्ति बार-बार हुई है। अलग-अलग प्रकाशित होने पर यह रचनाकार की शैली या उसे आकर्षित करने वाले शब्द माने जाते और खटकते भी नहीं, किन्तु संकलन में पढ़ते हुए, इनका दुहराया-तिहराया जाना, बाधा डालता है। संभवतः इन रचनाओं को संकलन के लिए संपादित करने के बजाय यथावत रखे जाने से ऐसा हुआ है।

संक्षेप में 'समर' के इस माहौल में भी टकसाली शब्दों के साथ संतुलित विश्लेषण और संयत रचनात्मक दृष्टि के कारण संकलन प्रभावित करता है। राष्ट्र और राजनीति के ऐसे 'टर्निंग प्वाइन्ट', जो सूचना समर में 'बैनर' न बनें, लेकिन दूरदर्शी के लिए विचारणीय बिन्दु होते हैं और उनका महत्व भी दीर्घकालिक होता है, ऐसी सामग्री का समावेश ही इस पुस्तक को पठनीय और संग्रहणीय बनाता है।

2003 में प्रकाशित इस पुस्तक को पढ़ कर, मेरे द्वारा उसी समय लिया गया नोट, जिसमें पुस्‍तक पर कम और पुस्‍तक के बहाने मीडिया पर अपनी सोच की बात अधिक है, मेरी जानकारी में अब तक अप्रकाशित भी है, इसकी प्रति संजय जी को दी थी या नहीं, याद नहीं।

Thursday, July 14, 2011

रायपुर में रजनीश

सन्‌ 1979 में दुर्गा महाविद्यालय से स्नातक हो कर, स्नातकोत्तर के लिए मैंने प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विषय का चयन किया। पुरातत्व में स्नातकोत्तर अध्ययन के लिए गुरूजी श्री डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर की प्रेरणा रही और फलस्वरूप न सिर्फ रायपुर बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ के अनूठे शिक्षण संस्थान शासकीय दूधाधारी श्रीवैष्णव स्नातकोत्तर संस्कृत महाविद्यालय में प्रवेश हुआ।

1979 से 1981, स्नातकोत्तर अध्ययन के दो साल, मेरे लिए स्मरणीय हैं और रहेंगे बल्कि यादों से कहीं अधिक इस अवधि का प्रभाव स्वयं पर महसूस करता हूं। इस संस्था के प्रति मेरा भाव, सहपाठियों की याद सहित महाविद्यालय और छात्रावास के भवन और गुरुजन की स्मृति के रूप में मेरे साथ जुड़ा है। सर्वप्रथम गुरू डॉं. लक्ष्मीशंकर निगम, प्राचार्य डॉं. रामनिहाल शर्मा, डॉ. राजेन्द्र मिश्र, डॉ. सुल्लेरे, डॉ. लक्ष्मीकांत शर्मा, डॉ. श्रीवास्तव/ पाठक, कान्हे और जैन मैडम/ स्‍वामी, नाग, पाण्‍डेय, चौधरी, सारस्वत, कान्हे, अग्रवाल सर और इन सब के साथ ग्रंथपाल श्रीमती छवि चटर्जी। संस्कृत अध्ययन के वातावरण में यहां अधिकतर विद्यार्थी आयुर्वेदिक कॉलेज में प्रवेश के इच्छुक होते थे। कुछ छात्रसंघ की राजनीति के लिए यहां आते, कुछ की रुचि संस्कृत में होती, तो कुछ को छात्रवृत्ति का आकर्षण होता, बहरहाल ये सब संस्कृत वाले होते थे लेकिन हम पुरातत्व के विद्यार्थी ऐसे होते थे जो संस्कृत महाविद्यालय के छात्र होकर भी संस्कृत को विषय के रूप में नहीं पढ़ते थे।

इस तरह संस्कृत महाविद्यालय में संस्कृत पढ़ने वालों और संस्कृत न पढ़ने-पढ़ाने वालों का अलग वर्ग था। बावजूद इसके कि संगत का लाभ सदैव और बराबर एक-दूसरे को मिलता था। अल्पमत में होने के बावजूद भी हमारी भिड़ंत अक्सर संस्कृत वालों से हो जाया करती थी। संस्कृत के लोग, उसे देवभाषा कहते तो हम उस की भाषा वैज्ञानिकता और व्याकरण नियम पर कुतर्कपूर्ण टिप्पणी करते कि इसमें कोट पहले सिल लिया जाता है और उसके अनुसार हाथ-पैर छिलकर फिटिंग लाई जाती है यानि संस्कृत में बोलने की स्वाभाविकता पर व्याकरण के कठोर नियम हावी रहते हैं। ऐसे सभी तर्क-वितर्क के बावजूद विद्यार्थियों के लिए शिक्षण का सौहार्दपूर्ण वातावरण कभी प्रभावित नहीं होता।

डॉ. राजेन्द्र मिश्र अपने व्यक्तित्व के चकाचौंध सहित आते तो हिन्दी के कम अंग्रेजी विभाग के अधिक लगते। कक्षाओं से कहीं अधिक समय चर्चाओं के लिए देते और कोई भी छात्र, जिसे साहित्य में रूचि हो, उसे बराबरी का अवसर देते हुए बात करने को हमेशा तैयार रहते। अच्छा साहित्य पढ़ने का संस्कार डालने के उनके निरन्तर उद्यम में उनका व्यक्तित्व और वक्तृत्व प्रभावी होता। अगर कोई एक ही खास बात इस संस्थान के लिए कहनी हो तो ''यह ऐसा शिक्षण संस्थान रहा कि यहां प्रत्येक व्यक्ति अपने ढ़ंग से ज्ञान-दान के लिए सदैव तत्पर रहता। प्राचार्य डॉ. शर्मा से लेकर ग्रंथपाल मैडम चटर्जी तक।'' मैडम चटर्जी अनुशासन की इतनी पक्की थीं कि शुरू में लाईब्रेरी में संभलकर प्रवेश करना होता लेकिन धीरे-धीरे जैसे ही वे भांप लेती कि विद्यार्थी वास्तव में अध्ययनशील है तो फिर उसके लिए किताबें खोजना, किताबों की जानकारी के साथ हरसंभव मदद के लिए तैयार रहतीं।

डॉं. सुल्लेरे पास ही विज्ञान महाविद्यालय के पीछे रहते और महाविद्यालय के अलावा घर पर भी, कभी भी, मार्गदर्शन के लिए तैयार रहते। डॉ. निगम क्लास की पढ़ाई के साथ-साथ चाय की कैन्टीन में भी गपशप के बहाने इतिहास और इतिहास अध्ययन की मनोरंजक बातें, घटनाएं, संदर्भ सुनाते और उच्चस्तरीय तथा ताजे शोध की जानकारी देकर पढ़ने को प्रेरित करते रहते। जेब खर्च न होने पर भरोसा रहता कि चाय तो निगम सर जरूर पिला देंगे यह भरोसा कभी नहीं टूटा, बल्कि रोड साइड क्लास अधिक लंबी खिंचने लगे तो मनी कैंटीन का समोसा भी हो जाता। निगम सर के हरे रंग की राजदूत मोटरसाईकिल बिना चाबी के स्टार्ट हो जाती लेकिन उसे चलाना मुश्किल होता। 'चला सको, तो ले जाओ' की अलिखित शर्त के साथ यह सबके लिए उपलब्ध रहती थी। हम कुछ लोग इस सुविधा का अक्सर लाभ लेते और वापस स्टॉफ रूम के सामने लाकर खड़ी कर देते। कई बार ऐसा भी होता कि इंतजार के बाद भी मोटरसाईकिल नहीं लौटती तब 'कल ले लेंगे' के सहज भाव सहित निगम सर, लिफ्ट लेकर या रिक्शे से वापस घर लौटते।

डॉ. रामनिहाल शर्मा और सारस्वत सर से उनके निधन-पूर्व तक सम्पर्क बना रहा और मैं हर मुलाकात में उनसे लाभान्वित होता रहा। डॉ. निगम, डॉ. राजेन्द्र मिश्र और अग्रवाल सर से उनकी थोड़ी बदली भूमिकाओं के बावजूद अभी भी सम्पर्क बना हुआ है और संस्कृत महाविद्यालय का विद्यार्थी होने का लाभ इन गुरुजनों से मुझे अब भी मिलता रहता है।

यहीं पढ़ाई के दौरान मुझे बोर्ड ऑफ स्टडीज और फिर विश्वविद्यालय के अकादमिक कौंसिल के छात्र प्रतिनिधि के रूप में सदस्य रहने का अवसर मिला और इसी महाविद्यालय की शिक्षा का परिणाम मेरे लिए एम.ए. में सर्वोच्च अंकों के लिए स्वर्ण पदक के रूप में सर्वाधिक उल्लेखनीय रहा। इसी पढ़ाई और परिणाम के बदौलत मेरा प्रवेश आगे की पढ़ाई के लिए बिरला इस्टीट्‌यूट, भोपाल में सहज ही हो गया और फिर यही मेरे पुरातत्व/संस्कृति विभाग की इस शासकीय सेवा की पृष्ठभूमि बना लेकिन इन सब उपलब्धियों की तुलना में यह महाविद्यालय गुरूकुलनुमा आत्मीय माहौल के साथ संस्कार केन्द्र के रूप में अधिक स्मरणीय है। वर्ष 2005 इस महाविद्यालय के लिए स्वर्ण जयंती का वर्ष मात्र नहीं विगत 50 स्वर्णिम वर्षों के गौरवशाली इतिहास का साक्षी वर्ष भी है।

2005 में महाविद्यालय की स्वर्ण जयंती वर्ष में प्रकाशित स्‍मारिका के लिए मेरा लिखा लेख, जो लगभग इसी तरह प्रकाशित हुआ है।

पूर्णिमा परिशिष्‍ट

आषाढ़ की पूर्णिमा, गुरु अथवा व्‍यास पूर्णिमा भी है। कहा जाता है कि व्‍यास का जन्‍म इसी तिथि को हुआ था, जिनका अधिक प्रचलित नाम वेदव्‍यास है। इन्‍हें 28 व्‍यासों की नामावलि में अंतिम, कृष्‍ण द्वैपायन कहा गया है। इनका एक अन्‍य नाम बादरायण भी है। इस अवसर पर गुरुओं और अपने बादरायण संबंधों के कुछ उल्‍लेख-

छात्रावास में रहते हुए हम सब अपने को इस पूरे परिसर के लिए जिम्‍मेदार मानते और मेरी अनुशासनप्रियता का एक ही उदाहरण काफी होगा, लगभग छः म‍हीने बाद एक दिन तबियत नरम-गरम होने के कारण मुझे पता चला कि छात्रावास में प्रतिदिन सन्‍ध्‍या प्रार्थना भी होती है, जो सबके लिए अनिवार्य है। तब दिन भर का तो अपना ठिकाना नहीं रहता था, लेकिन अपनी निशाचरी के कारण, रात की जिम्‍मेदारी चौकीदारों के साथ मैं अपनी भी मानता। रात चौकीदारी वाले साथियों सर्वश्री अंजोरदास, नरहर, कातिक और गुहाराम को भी गुरुओं के साथ स्‍मरण कर रहा हूं, गुरु शब्‍द की एक व्‍याख्‍या है- 'गरति सिञ्चति कर्णयोर्ज्ञानामृतम् इति गुरुः' अर्थात् गुरु, जो कानों में ज्ञानरूपी अमृत का सिंचन करे। उन दिनों के इन निशाचर साथियों से मैंने न जाने कितने किस्‍से सुने हैं भूत-परेत, धरम-करम-कुकरम, समाज-लोकाचार के और जीवन का पाठ पढ़ा है, वह सब मुझे अमृत सिंचन की तरह ही प्रिय होता था।

इसी संदर्भ में गुरु पदासीन महापुरुषों का स्‍मरण- कभी इस महाविद्यालय के विद्यार्थी रहे छत्‍तीसगढ़ के महान संत कवि श्री पवन दीवान जी, जिनके लिए नारा बना 'पवन नहीं ये आंधी है, छत्‍तीसगढ़ का गांधी है', जो राजनीति में सक्रिय रहते हुए कई पदों के साथ सांसद और कभी जेल मंत्री भी रहे, तब कहते, जिसका मंत्री हूं, वही दे सकता हूं।... इसी संस्‍था में छात्र रहे राजेश्री महंत रामसुंदरदास जी महाराज।... तीन विद्यार्थियों वाले कक्ष क्र. 12 में लगभग पूरे दो साल मैं अकेले रहा। कभी-कभार गालव साहू और तजेन्‍द्र शर्मा रूकते थे। तजेन्‍द्र के संदर्भ से छत्‍तीसगढ़ के पांडुका गांव में जन्‍म लिए महेश प्रसाद वर्मा यानि विश्‍व गुरु महर्षि महेश योगी से अपना जुड़ाव महसूस करता हूं। तजेन्‍द्र, पढ़ाई के बाद महर्षि जी की संस्‍था से संबद्ध हो गए थे।

अब क्‍लाइमेक्‍स, यानि आ जाएं रायपुर में रजनीश पर। छात्रावास का मुझे मिला कमरा खाली रहने से मुझे सुविधा ही थी। कुछ समय बाद पता चला कि छात्रावास में कई भूत हैं, उनकी चहलकदमी खाली पड़े मेस हॉल में, छत पर और इस कमरे क्र. 12 में रहती है। यह भी बताया गया कि इसी कमरे में कभी किसी छात्र ने आत्‍महत्‍या कर ली थी। (मन ही मन चाहता रहा कि इन किस्‍सों पर सबका भरोसा बना रहे और मैं अकेला इस कमरे में काबिज रहूं, लेकिन) इस बात की शिकायत ले कर पहले मैं वार्डन से मिला फिर प्राचार्य शर्मा जी से। उन्‍होंने धैर्य से मेरी बातें सुनी, फिर बताया कि तुम्‍हें तो वह खास कमरा दिया गया है, (संभव है मेरा मन रखने को, लेकिन मैं क्‍यों न मान लूं) जिसमें कभी रजनीश रहते थे। मैंने अविश्‍वासपूर्वक कहा, आचार्य रजनीश! यहां, रायपुर में। इस पर, शर्मा सर ने यह तस्‍वीर दिखाई-

आप भी देखिए, तब फोटो-वोटो अंगरेजी कारबार माना जाता था शायद, इसीलिए तो संस्‍कृत कालेज के इस समूह चित्र पर लेखी अंगरेजी में है और चित्र के साथ नाम का अनुमान आप लगा ही सकते हैं, Shri R. C. Mohan यानि श्री रजनीश चन्‍द्र मोहन, आचार्य रजनीश, भगवान रजनीश, ओशो।

Sunday, July 10, 2011

नायक

रात लगभग साढ़े दस बजे यों अनजान, ब्‍लाग-परिचित का फोन आया, मेरी आधी नींद में पूछा जा रहा था, 'नायक का भेद'। मामला समझने के बदले मेल करने की बात कह कर मेरी ओर से शुभ रात्रि हुई। सुबह सिस्‍टम खोला तो मानों सचमुच नींद से जागा, मेल था- ''वार्तानुसार, नायक भेद के बारे में थोड़ा आपसे जानने की इच्छा जाहिर कर रहा हूँ, ... नायकों का चरित्र, हाव भाव, प्रकृति कैसी होती है ... आशा है, आपका स्नेह भरा मार्गदर्शन प्राप्त होगा ...''

मेल पर औपचारिकतावश यह जरूर लिखा कि- नाटक और साहित्‍य, दोनों से मेरा कोई सीधा रिश्‍ता नहीं है (संस्‍कृत शास्‍त्रों से भी), इसलिए मुझे यह अब भी स्‍पष्‍ट न हो सका है कि इस चर्चा के लिए आपने मुझ असम्‍बद्ध को क्‍यों उपयुक्‍त माना, खैर...

लेकिन यह कह कर इस सुनहरे अवसर को खोना समझदारी तो नहीं होती, क्‍योंकि अपने अधिकार का विषय न हो तो हाथ आजमाना आसान हो जाता है, बात न बने तो कोई बात ही नहीं और बन पड़ी तो क्‍या कहने। जो जवाब तब सूझा, उसमें जोड़ दिया कि इरादा बना और समय निकाल पाया तो कुछ और तैयारी कर पोस्‍ट लगा दूंगा। आइये, चलें सीधे उसी नायक विमर्श पर-

नायकों के चार प्रकार में अनुकूल, दक्षिण, शठ और धृष्‍ट मिलता है। इनमें अनुकूल, निष्‍ठावान और धृष्‍ट उसके विपरीत गुणों वाला नायक है, जबकि दक्षिण की निष्‍ठा का आकलन प्रेयसी के विशेष संदर्भ में होता है और उसके विपरीत गुणों वाला शठ कहलाता है। ध्‍यान रहे कि नायक अगुवा तो है ही लेकिन इसका एक प्रचलित तथा मान्‍य अर्थ तब भी और अब भी हीरो के रूढ़ तात्‍पर्य, 'आशिक' का भी है। यानि ऐसा लगे कि इस प्राणी का अवतरण प्रेम करने के लिए ही हुआ है, चालू शब्‍दों में 'वाह रे मेरे छैला', 'जियो रे मजनूं'।

अधिक चर्चित नायक प्रकार- धीरोदात्‍त, धीरप्रशान्‍त, धीरललित और धीरोद्धत का उल्‍लेख मूलतः अग्निपुराण का बताया जाता है, भरत मुनि ने भी शायद चर्चा की हो, विशिष्‍ट प्रयोजन हेतु मूल ग्रंथों, उनकी प्रामाणिक टीका देखना होगा, लेकिन शब्‍दार्थ से कामचलाऊ बात कुछ इस तरह हो सकती है -
नायक का प्राथमिक गुण धीर है, जिसका अर्थ होगा शूरवीर या बहादुर, साहसी, दृढ़ आदि। नायक की शूरवीरता में और क्‍या जुड़ा होगा, इसी पर नायकों के चार प्रकार बनते हैं-
धीरोदात्‍त- सुविचारों वाला। सुनील दत्‍त, मनोज कुमार या राजेन्‍द्र कुमार जैसा। धीरप्रशांत- शांत। अशोक कुमार, बलराज साहनी, संजीव कुमार, गिरीश कर्नाड, बाबू मोशाय या फिल्‍म इम्तिहान के विनोद खन्‍ना, सदमा के कमल हसन जैसा। धीरललित- क्रीड़ाप्रिय, लापरवाह। धर्मेन्‍द्र, गोविंदा या फिल्‍म रंगीला के आमिर, दबंग के सलमान जैसा। धीरोद्धत - अभिमानी। राजकुमार, शत्रुघ्‍न सिन्‍हा, रजनीकांत जैसा।

उदाहरणों से फिल्‍मी नायकों की कुछ और कोटियां-
त्रिलोक कपूर, प्रेम अदीब, मनहर देसाई, अभिभट्टाचार्य, जीवन (नाटकीय नारद) जैसे धार्मिक स्‍पेशल/
सोहराब मोदी, पृथ्‍वीराज कपूर, पारसी थियेटर शैली के इतिहास-पुरुष/ रंजन, जान कवास, महिपाल, कामरान, चन्‍द्रशेखर, जयराज, तलवारबाज स्‍टंट हीरो/
देवदास वाले ट्रेजडी किंग पहले सहगल फिर दिलीप कुमार, बैजू बावरा के भारत भूषण, गुरुदत्‍त/
भोला हीरो वाले राजकपूर/
रंग-रंगीले सदाबहार देवानंद/
पहलवान हीरो दारासिंग, शेख मुख्‍तार/
कामेडियन हीरो अलबेले मास्‍टर भगवान, किशोर कुमार, जानीवाकर, जिनके नाम से फिल्‍म भी बनी और महमूद/
विश्‍वजीत, जाय मुखर्जी, ऋषि कपूर वाले चाकलेटी हीरो/
किंग खान टाइप संजय और फिरोज खान/
राजेश खन्‍ना जैसे रोमांटिक हीरो/
सचिन, रणधीर, वो सात दिन या बेटा वाला अनिल कपूर किस्‍म का देहाती हीरो/
शम्‍मी कपूर, जितेन्‍द्र, मिथुन जैसे डान्‍सर हीरो/
अमोल पालेकर, फारुख शेख जैसा पड़ोसी लड़का/
नान ग्‍लैमरस साधु मेहर, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, पंकज कपूर/
अभिताभ, शाहरुख, नाना पाटेकर जैसे एंग्री यंग मैन, एंटी हीरो से ले कर 'हीरो' जैकी श्राफ तक और 'नायक नहीं खलनायक' तक- भी बन सकती हैं।

दो नाम दुहराना है बहुरूपिए संजीव कुमार का नया दिन नई रात के लिए और कमल हसन का दशावतार के लिए, लेकिन मल्‍टी डायमेन्‍शनल हीरो के रूप में तो दिलीप कुमार और अमिताभ बच्‍चन का ही नाम दुहराना होगा। नये जमाने के उदाहरण नहीं हैं, क्‍योंकि वह तो आप सबको मालूम ही है और अगर नहीं तो 'हम साथ-साथ हैं।'

शास्‍त्रों की बात है यहां, इतने पर ही नहीं रुकती, कुछ अवान्‍तर से नायक के 40 भेद हो जाते हैं। बस, बस, होते रहें शास्‍त्रों में 40, यहां न तो उसका निरूपण है न सूचीकरण, बस मामूली सी एक ब्‍लाग पोस्‍ट। लेकिन इस शास्‍त्रीय सांचे में फिट होने को कई और नेता-अभिनेता, जननायक-राजनायक, योगी-भोगी नायक तैयार हैं, सबको दिमागी दरवाजे पर वेटिंग में रखा है हमने, किसी को एंट्री नहीं। अब आप चाहें तो खेलें जिग-सा पजल, और बिठाएं सबको उनके उपयुक्‍त खांचों में। हम अपनी पोस्‍ट पर विराम लगाते हैं।

Sunday, July 3, 2011

स्वामी विवेकानन्द

4 जुलाई की तारीख इस तरह कम याद की जाती है कि सन 1902 में स्वामी विवेकानन्द का निधन इसी दिन हुआ, यह और भी कम कि 12 जनवरी 1863 को जन्‍म लिए इस महामानव के डेढ़ साल रायपुर में बीते, जो कलकत्ता के बाद किसी अन्य स्‍थान में उनका बिताया सबसे अधिक समय है। रायपुर से कलकत्ता लौटकर उन्‍होंने 1879 में 16 वर्ष की आयु में एंट्रेंस परीक्षा पास की थी।

रायपुर का बुढ़ा तालाब/विवेकानंद सरोवर, जिसके पास उन्‍होंने निवास किया

छानबीन करते हुए स्वामी आत्मानंद जी का लेख मिल गया, जिसका कुछ हिस्सा मैंने उनसे प्रत्यक्ष चर्चा में और उनके उद्‌बोधन में भी सुना है। 'स्वामी विवेकानन्द और मध्यप्रदेश' शीर्षक से अबुझमाड़ ग्रामीण विकास प्रकल्प की स्मारिका 1987 में प्रकाशित इस लेख का रायपुर प्रवास से संबंधित अंश-

विवेकानन्द, जो नरेन्द्र नाथ दत्त के रूप में सन्‌ 1877 ई. में रायपुर आये। तब उनकी वय 14 वर्ष की थी और वे मेट्रोपोलिटन विद्यालय की तीसरी श्रेणी (आज की आठवीं कक्षा के समकक्ष) में पढ़ रहे थे। उनके पिता विश्वनाथ दत्त तब अपने पेशे के काम से रायपुर में रह रहे थे। जब उन्होंने देखा कि रायपुर में काफी समय रहना पड़ेगा, तब उन्होंने अपने परिवार के लोगों को भी रायपुर में बुला लिया। नरेन्द्र अपने छोटे भाई महेन्द्र, बहिन जोगेन्द्रबाला तथा माता भुवनेश्वरी देवी के साथ कलकत्ता से रायपुर के लिए रवाना हुए। तब रायपुर कलकत्ते से रेललाइन के द्वारा नहीं जुड़ा था। उस समय रेलगाड़ी कलकत्ता से इलाहाबाद, जबलपुर, भुसावल होते हुए बम्बई जाती थी। उधर नागपुर भुसावल से जुड़ा हुआ था, तब नागपुर से इटारसी होकर दिल्ली जानेवाली रेललाइन भी नहीं बनी थी। अतः बहुत सम्भव है, नरेन्द्र अपने परिवार के सदस्यों के साथ जबलपुर उतरे हों और वहां से रायपुर आने के लिए बैलगाड़ी की हो। उनके कुछ जीवनीकारों ने लिखा है कि नरेन्द्र एवं उनके घर के लोग नागपुर से बैलगाड़ी द्वारा रायपुर गये, पर नरेन्द्र को इस यात्रा में जो एक अलौकिक अनुभव हुआ, वह संकेत करता है कि वे लोग जबलपुर से ही बैलगाड़ी द्वारा मण्डला, कवर्धा होकर रायपुर गये हों। उनके कथनानुसार, इस यात्रा में उन्हें पन्द्रह दिनों से भी अधिक का समय लगा था। उस समय पथ की शोभा अत्यन्त मनोरम थी। रास्ते के दोनों किनारों पर पत्तों और फूलों से लदे हुए हरे हरे सघन वनवृक्ष होते। भले ही नरेन्द्र नाथ को इस यात्रा में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, तथापि, उनके ही शब्दों में, ''वनस्थली का अपूर्व सौन्दर्य देखकर वह क्लेश मुझे क्लेश ही नहीं प्रतीत होता था। अयाचित होकर भी जिन्होंने पृथ्वी को इस अनुपम वेशभूषा के द्वारा सजा रखा है, उनकी असीम शक्ति और अनन्त प्रेम का पहले-पहल साक्षात्‌ परिचय पाकर मेरा हृदय मुग्ध हो गया था।'' उन्होंने बताया था, ''वन के बीच से जाते हुए उस समय जो कुछ मैंने देखा या अनुभव किया, वह स्मृतिपटल पर सदैव के लिए दृढ़ रूप से अंकित हो गया है। विशेष रूप से एक दिन की बात उल्लेखनीय है। उस दिन हम उन्नत शिखर विन्ध्यपर्वत के निम्न भाग की राह से जा रहे थे। मार्ग के दोनों ओर बीहड़ पहाड़ की चोटियां आकाश को चूमती हुई खड़ी थीं। तरह तरह की वृक्ष-लताएं, फल और फूलों के भार से लदी हुई, पर्वतपृष्ठ को अपूर्व शोभा प्रदान कर रही थीं। अपनी मधुर कलरव से मस्त दिशाओं को गुंजाते हुए रंग-बिरंगे पक्षी कुंज कुंज में घूम रहे थे, या फिर कभी-कभी आहार की खोज में भूमि पर उतर रहे थे। इन दृश्यों को देखते हुए मैं मन में अपूर्व शान्ति का अनुभव कर रहा था। धीर मन्थर गति से चलती हुई बैलगाड़ियां एक ऐसे स्थान पर आ पहुंची, जहां पहाड़ की दो चोटियां मानों प्रेमवश आकृष्ट हो आपस में स्पर्श कर रही हैं। उस समय उन श्रृंगों का विशेष रूप से निरीक्षण करते हुए मैंने देखा कि पासवाले एक पहाड़ में नीचे से लेकर चोटी तक एक बड़ा भारी सुराख है और उस रिक्त स्थान को पूर्ण कर मधुमक्खियों के युग-युगान्तर के परिश्रम के प्रमाणस्वरूप एक प्रकाण्ड मधुचक्र लटक रहा है। उस समय विस्मय में मग्न होकर उस मक्षिकाराज्य के आदि एवं अन्त की बातें सोचते-सोचते मन तीनों जगत्‌ के नियन्ता ईश्वर की अनन्त उपलब्धि में इस प्रकार डूब गया कि थोड़ी देर के लिए मेरा सम्पूर्ण बाह्‌य ज्ञान लुप्त हो गया। कितनी देर तक इस भाव में मग्न होकर मैं बैलगाड़ी में पड़ा रहा, याद नहीं। जब पुनः होश में आया, तो देखा कि उस स्थान को छोड़ काफी दूर आगे बढ़ गया हूं। बैलगाड़ी में मैं अकेला ही था, इसलिए यह बात और कोई न जान सका।''14 (14- स्वामी सारदानन्दः'श्रीरामकृष्णलीलाप्रसंग', तृतीय खण्ड, द्वितीय संस्करण, नागपुर, पृ. 67-68) नरेन्द्र नाथ की यह रायपुर-यात्रा इसलिए भी विशेष महत्वपूर्ण हो जाती है कि इस यात्रा में उन्हें अपने जीवन में पहली भाव-समाधि का अनुभव हुआ था।

रायपुर में अच्छा विद्यालय नहीं था। इसलिए नरेन्द्र नाथ पिता से ही पढ़ा करते थे। यह शिक्षा केवल किताबी नहीं थी। पुत्र की बुद्धि के विकास के लिए पिता अनेक विषयों की चर्चा करते। यहां तक कि पुत्र के साथ तर्क में भी प्रवृत्त हो जाते और क्षेत्र विशेष में अपनी हार स्वीकार करने में कुण्ठित न होते। उन दिनों विश्वनाथ बाबू के घर में अनेक विद्वानों और बुद्धिमानों का समागम हुआ करता तथा विविध सांस्कृतिक विषयों पर चर्चाएं चला करतीं। नरेन्द्र नाथ बड़े ध्यान से सब कुछ सुना करते और अवसर पाकर किसी विषय पर अपना मन्तव्य भी प्रकाशित कर देते। उनकी बुद्धिमता तथा ज्ञान को देखकर बड़े-बूढ़े चमत्कृत हो उठते, इसलिए कोई भी उन्हें छोटा समझ उनकी अवहेलना नहीं करता था। एक दिन ऐसी ही चर्चा के दौरान नरेन्द्र ने बंगला के एक ख्‍यातनामा लेखक के गद्य-पद्य से अनेक उद्धरण देकर अपने पिता के एक सुपरिचित मित्र को इतना आश्चर्यचकित कर दिया कि वे प्रशंसा करते हुए बोल पड़े, ''बेटा, किसी न किसी दिन तुम्हारा नाम हम अवश्य सुनेंगे।'' कहना न होगा कि यह मात्र स्नेहसिक्त अत्युक्ति नहीं थी- वह तो एक अत्यन्त सत्य भविष्यवाणी थी। नरेन्द्र नाथ बंग-साहित्य में अपनी चिरस्थायी स्मृति रख गये।

बालक नरेन्द्र बालक होते हुए भी आत्मसम्मान की रक्षा करना जानते थे। अगर कोई उनकी आयु को देखकर अवहेलना करना चाहता, तो वे सह नहीं सकते थे। बुद्धि की दृष्टि से वे जितने बड़े थे, वे स्वयं को उससे छोटा या बड़ा समझने का कोई कारण नहीं खोज पाते थे तथा दूसरों को इस प्रकार सोचने का कोई अवसर भी नहीं देना चाहते थे। एक बार जब उनके पिता के एक मित्र बिना कारण उनकी अवज्ञा करने लगे, तो नरेन्द्र सोचने लगे, ''यह कैसा आश्चर्य है! मेरे पिता भी मुझे इतना तुच्छ नहीं समझते, और ये मुझे ऐसा कैसा समझते हैं।'' अतएव आहत मणिधर के समान सीधा होकर उन्होंने दृढ़ स्वरों में कहा, ''आपके समान ऐसे अनेक लोग हैं, जो यह सोचते हैं कि लड़कों में बुद्धि-विचार नहीं होता। किन्तु यह धारणा नितान्त गलत है।'' जब आगन्तुक सज्जन ने देखा कि नरेन्द्र अत्यन्त क्षुब्ध हो उठे हैं और वे उसके साथ बात करने के लिए भी तैयार नहीं हैं, तब उन्हें अपनी त्रुटि स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ा। कठोपनिषद्‌ में बालक नचिकेता में भी ऐसी ही आत्मश्रद्धा दिखाई देती है। उसने कहा था, ''बहुत से लोगों में मैं प्रथम श्रेणी का हूं और बहुतों में मध्यम श्रेणी का, पर मैं अधम कदापि नहीं हूं।''

नरेन्द्र में पहले से ही पाकविद्या के प्रति स्वाभाविक रूचि थी। रायपुर में हमेशा अपने परिवार में ही रहने के कारण तथा इस विषय में अपने पिता से सहायता प्राप्त करने तथा उनका अनुकरण करने से वे इस विद्या में और भी पटु हो गये। रायपुर में उन्होंने शतरंज खेलना भी सीख लिया तथा अच्छे खिलाड़ियों के साथ वे होड़ भी लगा सकते थे।15 (15- स्वामी गम्भीरानन्दः'युगनायक विवेकानन्द' (बंगला), प्रथम खण्ड, कलकत्ता, पृ. 55-57 (आगे युगनायक नाम से अभिहित)) फिर, रायपुर में ही विश्वनाथ बाबू ने नरेन्द्र को संगीत की पहली शिक्षा दी। विश्वनाथ स्वयं इस विद्या में पारंगत थे और उन्होंने इस विषय में नरेन्द्र की अभिरूचि ताड़ ली थी। नरेन्द्र का कण्ठ-स्वर बड़ा ही सुरीला था। वे आगे चलकर एक सिद्धहस्त गायक बने थे, पर उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष भी रायपुर में ही विकसित हुआ। 16 (16- 'दि लाइफ ऑफ स्वामी विवेकानन्द', अद्वैत आश्रम, मायावती, भाग 1, पांचवां संस्करण, पृ. 42-43 (आगे 'दि लाइफ' नाम से अभिहित))

डेढ़ वर्ष रायपुर में रहकर विश्वनाथ सपरिवार कलकत्ता लौट आये। तब नरेन्द्र का शरीर स्वस्थ, सबल और हृष्ट-पुष्ट हो गया और मन उन्नत। उनमें आत्मविश्वास भी जाग उठा था और वे ज्ञान में भी अपने समवयस्कों की तुलना में बहुत आगे बढ़ गये थे। किन्तु बहुत समय तक नियमित रूप से विद्यालय में न पढ़ने के कारण शिक्षकगण उन्हें ऊपर की (प्रवेशिका) कक्षा में भरती नहीं करना चाहते थे। बाद में विशेष अनुमति प्राप्त कर वे विद्यालय की इसी कक्षा में भरती हुए तथा अच्छी तरह से पढ़ाई कर सभी विषयों को थोड़े ही समय में तैयार करके उन्होंने 1879 में परीक्षा दी। यथासमय परीक्षा का परिणाम निकलने पर देखा गया कि वे केवल उत्तीर्ण ही नहीं हुए हैं, प्रत्युत उस वर्ष विद्यालय से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले वे एकमात्र विद्यार्थी हैं। यह सफलता अर्जित कर उन्होंने अपने पिता से उपहार स्वरूप चांदी की एक सुन्दर घड़ी प्राप्त की थी।

रायपुर में घटी और दो घटनाएं नरेन्द्र नाथ के व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण हैं। विश्वनाथ ने पुत्र को संगीत के साथ-साथ पौरुष की भी शिक्षा दी थी। एक समय नरेन्द्र नाथ पिता के पास गये और उनसे पूछ बैठे, ''आपने मेरे लिए क्या किया है?'' तुरन्त उत्तर मिला, ''जाओ दर्पण में अपना चेहरा देखो!'' पुत्र ने तुरन्त पिता के कथन का मर्म समझ लिया, वह जान गया कि उसके पिता मनुष्यों में राजा हैं।

एक दूसरे समय नरेन्द्र ने अपने पिता से पूछा था कि परिवार में किस प्रकार रहना चाहिए, अच्छी वर्तनी का माप-दण्ड क्या है? इस पर पिता ने उत्तर दिया था, ''कभी आश्चर्य व्यक्त मत करना!'' क्या यह वही सूत्र था, जिसने नरेन्द्र नाथ को विवेकानन्द के रूप में समदर्शी बनाकर, राजाओं के राजप्रासाद और निर्धनों की कुटिया में समान गरिमा के साथ जाने में समर्थ बनाया था।17 (17- वही, पृ. 44)

उपर्युक्त विवरण प्रदर्शित करते हैं कि नरेन्द्र के व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास में रायपुर का क्या योगदान रहा है।

बताया जाता है कि नरेन्‍द्र, पिता विश्‍वनाथ दत्‍त के साथ रायबहादुर भुतनाथ दे (1850-1903) के इसी ''दे भवन'' में रहे थे। भवन की वर्तमान तस्‍वीर, जिसमें भुतनाथ जी के पुत्र हरिनाथ दे का शिलालेख है कि उन्‍होंने अपने जीवन के 34 वर्षों में 36 भाषाएं सीखीं।


इस भवन में नरेन्‍द्र-विवेकानन्‍द के निवास का संदर्भ यहां लगे एक अन्‍य शिलालेख में था, जिसके सहित इस भवन की तस्‍वीर सन 2003 में स्‍वामी जी के रायपुर आगमन के 125 वर्ष पर छत्‍तीसगढ़ शासन, संस्‍कृति विभाग द्वारा प्रकाशित की गई थी। पता चला कि यह शिलालेख अब वहां नहीं है।


बूढ़ापारा का डे भवन, जिसमें स्वामी विवेकानंद के निवास 
की जानकारी का शिलालेख होता था।
सन 1995 का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज, जिसका आशय स्वयं स्पष्ट है।


स्‍वामी विवेकानन्‍द की 150 जयंती के आयोजन आरंभ हो रहे हैं। समय की पर्त कभी इतनी मोटी होती है कि कम समय में ही बड़ी घटना पर भी ओझल कर देने वाला परदा पड़ सकता है। इस अवसर पर उनके रायपुर आगमन व निवास के लिए कुछ ऐसी ही स्थिति बनती देखकर यह प्रस्‍तुत करना जरूरी लगा।