Saturday, January 14, 2023

भोरमदेव पुस्तिका

श्री अजय चंद्रवंशी ने ‘भोरमदेव क्षेत्र‘ पुस्तक तैयार की है। किसी प्राचीन स्मारक, पुरातात्विक स्थल की बेहतर समझ के लिए स्थानीय मान्यताओं, लोक विश्वास मूल्यवान और सहायक होते हैं। इसी क्रम में स्थल-स्मारक से संबंधित परचे, पुस्तिकाओं का भी महत्व होता है। भोरमदेव के विभिन्न पक्षों पर चर्चा के दौरान अजय जी ने इस पुस्तिका की जानकारी और साफ्ट कापी उपलब्ध कराई, उसका अंश यहां प्रस्तुत-

भोरमदेव का संक्षिप्त इतिहास
(पद्यों में) 

प्रस्तुत अंश किसी कवि ने भोरमदेव के सिलालेखों को देख कर सं. १९५९ (बीसवीं सदी का आरंभिक सन) में लिखी है। उस पुस्तक का सारांश यहाँ प्रस्तुत है। संग्रहकर्ता के अथक प्रयास से सं. २००५ (सन 1948?) में इस लघु कृति का संकलन हो सका।

संकलनकर्ता
स्व. रामसहाय पुजारी (भोरमदेव मन्दिर) 
मूल्य ५० पैसा)                                                                                   (द्वितीय वृत्ति १०००


भोरमदेव मन्दिर का ऐतिहासिक चित्रण

भोरमदेव मन्दिर एक अविस्मरणीय अद्वितीय एवं दार्शनिक ऐतिहासिक परम पूज्य स्थल है। जो कवर्धा से पश्चिम दिशा में १६ कि. मी. और बोड़ला से दक्षिण दिशा में ९ कि.मी की दूरी पर स्थित है, पास ही में एक छोटा सा ग्राम छपरी है। भोरमदेव एक अद्वितीय स्थान है जिसे छत्तीसगढ़ का खजुराहो कहा जा सकता है। भोरमदेव मन्दिर के कुछ स्थान - ‘मड़वा महल‘ यह पुराने जमाने का एक विचित्र महल है जिसमें उस युग के वैवाहिक जीवन का मनोरम चित्रणं शिल्प कलाओं द्वारा प्रदर्शित किया गया है। जिसे देखकर मनुष्य अति आनन्द विभोर हो जाता है। भोरमदेव के निवास स्थान अभी भी खडहर के रूप में मौजूद हैं। मन्दिर के पश्चिम दिशा में लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर यह स्थान है यहां अभी भी एक तालाब है, तालाब के किनारे एक किला है। जिसकी दीवाल अभी भी खंडहर रूप में मौजूद है यह किला करीब १५ एकड़ के क्षेत्रफल में है। मन्दिर के दरवाजे पर कभी २ सफेद माग भी दिखाई देते हैं, मंदिर के अंदर जहां शिवलिंग स्थापित है, उसके नीचे भी शिवलिंग है, तालाब के अंदर मी मन्दिर है, उसमे पारस पत्थर भी है। कुछ समय पहले तालाब से खाना पकाने के लिये बर्तन निकलते थे, आज मी ८ बजे सुबह व रात्रि को मनोरम ध्वनि होती हैं जिसे सुनकर अनुमान लगाया जा सकता है कि यह कई प्रकार के वाद्य यंत्रों से युक्त होती है, दो बार ऐसी आवाज भी हुई है मानो मन्दिर गिर गया मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं।

दक्षिण दिशा के द्वार पर कुंवार के महीने १५-२० दिन तक एक दो मुंह का नाग रहता है। वह नाग इतने दिन तक वहां से कहीं भी नहीं हटता।

दोहा - भोरमदेव प्रसिद्ध है शेषनाग को अंश।
यथा सुमरति सों बरनिहों, भयो जहां लों वंश।।

छप्पै - जातुकरन मुनि नाम रहत तेहि कानन माहि।
तेहके युगलकुमार एक कन्या छबि जाहीं।।
निरखत रूप लोभात उमर सुन्दर वारेशी।
रच विचार करतार मनहू सांचे ढारे सी।।
तेहि नाम कहत मिथला सुभगचन्द्र वदन गजगामिनी।
लोचन विशाल कंचन रचित चंवल छबि जनुदामिनी।।

सोरठा - तास बन्धू के नाम आदि सुसरमा जानिये।
दूसर शील सुभाव ताहिं देव सरमा कहत।। 
दूनौं बंधु चले जांय गिरी कन्दर तप करन हित। 
रहत कुटि के माह आपु अकेलो कन्य का। 
ताहि कुटी के पाहि रहो एक जल के गड्डा। 
निकसे कछु दिन मांहि तहां से सेवक शेष को।। 
निकसत देखी कुंवरि रूप सोने सो झलकै। 
बरत दीप से वदन लटक नागिन सो अलकै।।
... ... ...
... ... ...
... ... ...

सोरठा
दुर्गावती के माहिं छोटे से पर्वत सुघर।
अति रमणीक सुहाहिं उपर से झिरना झिरत।।
चली बहुरि होई धीर नाम ताहि सुरही नदी पावन।
कारीवारि नग्र कवर्धा होइ गई सुहावन।

समाप्त

प्रकाशक - राधेश्याम सोनी, ग्राम - चवरा
मुद्रक - दीपक प्रिंटिंग प्रेस, कवर्धा

Wednesday, January 4, 2023

किस्सा भोरमदेव

आस्था, विश्वास, मान्यता और उससे उपजी जिज्ञासा-पूर्ति कथाएं, इतिहास-पुरातत्व की पूरक हैं। पुरातात्विक-प्राप्तियों के साथ उनकी पृष्ठभूमि, परिवेश-संदर्भ जितना आवश्यक होता है, उतना ही आवश्यक किसी पुरातात्विक-ऐतिहासिक स्थल-स्मारक के साथ जुड़ी कथाओं को दर्ज किया जाना। इतिहास के ‘वैज्ञानिक‘ अध्ययन के साथ कथाएं, रिक्त स्थान की पूर्ति करती हैं और शोध के लिए अलग दृष्टि, नई संभावना का अवसर देती हैं।

अजय चंद्रवंशी ने अपनी पुस्तक ‘भोरमदेव क्षेत्र‘ पेज-18 पर उल्लेख किया है कि- अपने अध्ययन के दौरान हमें भोरमदेव की एक वृद्ध निरक्षर महिला, जो छेरकी महल में बैठती है, ने लगभग यही कहानी (मिथिला-शेषनाग का पुत्र अहिराज, फणिनागवंश का संस्थापक प्रथम शासक) सुनाई और बताया कि मिथिला के दोनों भाइयों को गर्भ के प्रति जो भरम (भ्रम) था उसी के कारण मंदिर का नाम भोरमदेव पड़ा। अजय जी ने वह किस्सा रिकॉर्ड भी किया है।

यहां भोरमदेव का वही किस्सा है, जिसे संस्कृति एवं पुरातत्व के विभागीय सहयोगी श्री रायकवार के साथ श्री जे.आर. भगत ने रिकॉर्ड किया और मेरे द्वारा श्री प्रभात सिंह की मदद से इसका लेख तैयार किया गया, यथासंभव, यथावत-

एखर ले बताहूं एही मेर ले - देवांसू राजा छेरिया राखे राहय ना त महल नई बनावय। बिना महल के राखय छेरिया ला देव ह, त छेरकिन कहिस, अतका तोर छेरि-बेड़ी ला चराएं देव, फेर एको ठन महल नई बनाये। अभी हमर देवता-देवता के पहर हावय कोई समय मनखे के पहर आहि, त देखे-घुमे ल आहि अइसे कहि के। त कस छेरकिन, महूं त एके झन हावंव, कइसे महल बनावंव कथे। चल त एकक कनि तोर छेरिया चराहूं, एकक कनि महल बनान लगहूं, बिन महल के राखथस। अभी हमर देव-देव के पहर हे, कोई समय मा मनखे के पहर आही, तेन देखे-घुमे ल आहि अइसे कइके। त छेरी चरात-चरात छेरकिन अउ देहंसू राजा बनाय हे एला। बन लिस त भीतरी म दे छेरिया ओल्हिआय हे। त आघू छेरि के लेड़ी रहय इंहा, भीतरी म। ए मडवा महल, भोरमदेव कस भूईयां म भूईयां गड्ढा रहिसे। त फर्रस जठ गे, माटी पर गे, छेरि लेड़ी मूंदा गे। अब पर्री परया अचानक भकरीन-भकरीन आथे, बकरा ओइले सहिं, तेखर सेती छेरकी महल आय एहर। 

अउ, भोरम राजा हर न भरमे-भरम में बने हे। देव मन ह, दू भाई एक बहिनी राहय। त देव के बहिनी गरभती म रई गे। त कइसे गरभती में भगवान। गांव-गोठन अदमी के तदमी हमर देव-देव के पहर भगवान कही, बड़े देव सोचे रोज कन। सोचते-सोचते एकात महीना सोचिस त छोटे देव ला सक करे अपने बहनीच संग, बड़े देव हर। ओ कथे - तोरो बहिनी मोरो बहिनी ए। अउ एके म खाना पिना होके रात बसे बर बहिनी के कुटिया मड़वा महल अतका रहय, दूनो भाई के कुटी छेरकी महल रहय। त तैं बहिनी ल परसों ले के देखबे देव। मोला झगरा झन कर देव रात म दूरिहा ले (अइसे कहिस)। त बहिनी के कुटिया रात बसे बर मड़वा महल अतका रहय। दूनो भाई के कुटी छेरकी महल रहय। त पचमुखी सेसनाग हर दिनमान सेसनाग बनय रात म राजकुमार बम्हन-रासपूत लड़का बनके फेर बहिनी के कुटिया म जावय। त परसों लिस त हिसाब जमीस ओला। अब बिहना होइस त देव पूछते - कइसे नोनी, हमर देवता-देवता के पहर तोर कुटिया म बम्हन-रासपूत लईका देखे हन अउ दिनमान नई देखउल दे हमर। कइसे भई कहिके। त ओ पचमुखी सेसनाग ए भईया। दिनमान सेसनाग बनथे, रात म राजकुमार बम्हन- रासपूत लड़का बन जाथे भई, अइसे कहिस, तउने मेर ले सोच-विचार लिस, देख-ताक लिस। त भोरमदेव ला न भरमाभूति में बनाए हे। तेखर सेती भोरमदेव कथे। नई त बहिनी संग भाई संग सक कर लिस, बहिनी ल। 

अब भोरमदेव ल बना के अपन मड़वा महल के सुरू करिस त देव के बहिनी फेर कथे - कइसे भईया अउ भउजी सब मंदिरे मूरति बनाथो। महूं जाहूं देखे-घूमे ला कहिके। त अनेक परकार के चीज बनाबो नोनी तोर भउजी संग, तोर जाय के नो हे। बन लिही त एके दारी भेजबो, हमन देखे बर तोला। तोर जाय के नो हे। मड़वा महल के सुरू करे हांव। तें आबेच झन कहे रहिस अउ आईच जाबे त बेगर घंटी बजाय मत खुसरबे, कहे रहिस देव ह। त देव के बहिनी, हरू करिन चुपे काल चल दिस, मड़वा महल देखे बर। ओमन ह जांवर-जोड़ी मूरति ल बनाय, बिना ओन्हा कपड़ा के। तो घंटी ला बजाय रतिस ओखर बहिनी, त ओमन कपड़ा पहिने रतिन। त देव रहाय तेन मूरति ल बनाते-बनाते रूख अन भाग गे। अउ बहिनी लजा गे, भाई लजा गे। त झन भाग भाई, झन भाग भाई, मोर से गलती होगे। भईया तैं झन आबे कहे रहे त आ पारें। भईया तैं घंटी बजाबे कहे त नइ बजाएं पाएं भईया लहुट जा भाई। लहुट कहिस त नइ लहुटिस। देव भागिस तेन ह त बहिनी लहुटाय ल गिस। तभो नइ लहुटिस। त भाई के कनिहा ला बहिनी पकड़े, भाई-बहिनी जंगल भाग गे। दूनो भाई-बहिनी तेन जाके पथरा लहुट गे, दूनो भाई-बहिन ह। 

देवता के मउर-मटुक, पर्रा-बिजना ओखर संग म भाग गे। सहसपुर ले आए रतिस मगरोहन मड़वा महल म। सुवासा-सुवासी मगरोहन बर रेंगे बर रेंग दिन, कुकरा ल नइ नेवतन पाइस। कुकरा ल नेवत दे रतिस आज राते के कि मगरोहन ल कुकरा ते झन पासबे न, त कुकरा नइ पासे रतिस। कुकरा राहय तेन भिनसरहा पहर रोज पासथों कहिके कुकरुस-कूं अइसे पास गे। त कुकरा के आवाज ल सुनके सुवासा-सुवासिन सहसपुर मनसफ होए हें। अउ देव मन के बनाय मगरोहन कुंदे-कुंदाय सहसपुर बांधा म पेनाय रतिस त मड़वा म सादी-बिहाव होय रतिस। त मगरोहन नइ आन पाय हे, सहसपुर बांधा ले। अइसे कहानी हे। ए चौरागांव ए अउ ए छेरकी कछार गांव ए, ए देवता सब चौरा खार ए, ओ चौरागांव ए, ओहिदे। अब अतके धुर ले कहानी ह।

Tuesday, January 3, 2023

भोरमदेव क्षेत्र

इंटैक INTACH रायपुर अध्याय द्वारा अजय चंद्रवंशी की पुस्तक ‘भोरमदेव क्षेत्र‘ का प्रकाशन किया गया है। अजय जी की समीक्षा दृष्टि से मैं प्रभावित रहा हूं और पुरातत्व-संस्कृति से जुड़े होने के कारण, इंटैक का सदस्य न होते हुए भी, उस परिवार का सदस्य रहा हूं। किसी विशेषज्ञ-दृष्टि और शास्त्रीय अध्ययन के साथ स्थानीय सूचना-संदर्भों का महत्व आवश्यक होता है, इसे यह पुस्तक भी प्रमाणित करने वाली है। इस पुस्तक के लिए अजय जी ने मुझे भूमिका लिखने को कहा, और समय की कुछ मोहलत भी दी, इसलिए इस संदर्भ में अपनी सोच-समझ को ‘भूमिका‘ के रूप में अभिव्यक्त करने का संयोग बना, वही यहां प्रस्तुत-

माना जाता है कि भारतीय धार्मिेक क्रिया-कलाप और मान्यताओं में पूजा-उपासना वैदिक यज्ञ-याग की परंपरा में बलि-आडंबर, कर्मकांड बढ़ता गया और छठीं शताब्दी ईस्वी पूर्व का बौद्ध-जैन काल इसकी परिणिति थी, जब लोग अन्य आचार-विचार की ओर आकृष्ट होने लगे। इधर उपनिषदों के बाद पुराणों में वैदिक इंद्र-वरुण और रूद्र-आदित्य का महात्म्य ब्रह्मा-विष्णु-महेश में बदलने लगा और शैव, वैष्णव, शाक्त, सौर और गाणपत्य संप्रदाय विकसित हुए। सनातन धर्म के मूल्य वही रहे, किंतु बदलती मान्यताओं के साथ वैदिक निर्गुण यज्ञ, सगुण मंदिर उपासना केंद्र का रूप लेने लगे। अवतार, स्वरूप, विग्रह और देवकुल की अवधारणा के विकास ने धर्म-आचरण को अलग रूप दे दिया। 

स्मरणीय कि वैदिक ब्रह्मोद्य यानि वाद-संवाद वाहक शास्त्रार्थ की ज्ञान परंपरा रही है। शंकराचार्य की तरह स्वामी दयानंद ने पूरे देश में शास्त्रार्थ किया था। वे शास्त्रार्थ के लिए चार वेद, चार उपवेद, छह वेदांग, छह उपांग और मनु स्मृति प्रामाणिक मानते थे, पुराणों के विरोधी थे, ‘पाखंड खंडन‘ जैसी पुस्तक उन्होंने प्रकाशित कराई थी। 16 नवंबर 1869 को आनंदबाग, काशी में मंदिर और मूर्ति-पूजा पर स्वामी दयानंद का शास्त्रार्थ प्रसिद्ध है, जिसमें प्रतिवादी स्वामी विशुद्धानंद सरस्वती थे। इतिहास और परंपरा में इसे कालगत स्थितियों के विभिन्न पक्षों के रूप में देखा जाना समीचीन होता है। 

इसके साथ वास्तु इतिहास पर नजर डालें तो हड़प्पायुगीन सभ्यता के बाद संरचनात्मक वास्तु प्रमाणों का लगभग अभाव रहा है। मौर्य काल और गुप्त काल के बीच की सदियां, इस्वी-पूर्व और पश्चात के लगभग 500 वर्षों में संरचनात्मक के बजाय शिलोत्खात वास्तु का प्रचलन रहा। गुप्त काल से संरचनात्मक मंदिर वास्तु का स्पष्ट और क्रमिक विकास देखा जा सकता है। यह भी अनुमान होता है कि शिलोत्खात चैत्य वास्तु और संरचनात्मक स्तूप वास्तु में धरन, चूल, कोष्ठक आदि काष्ठ-कारीगरी तकनीक के अनुकरण के कारण है। क्रमिक विकास में संरचनात्मक पाषाण वास्तु, जिसमें भार-संतुलन से और बाद में लोहे के क्लैम्प का प्रयोग होने लगा। 8 वीं से 12 सदी ईस्वी, मंदिर वास्तु का उच्चतम विकसित काल है। 

छत्तीसगढ़ में मंदिर वास्तु के उदाहरणों में 11-12 वीं सदी ईस्वी में कलचुरि और नागवंशी शासकों के अधीन उत्कृष्ट उदाहरण ज्ञात हैं। रतनपुर कलचुरियों का क्षेत्र व्यापक रहा और त्रिपुरी कलचुरियों की शैली का स्पष्ट प्रभाव उत्तरी छत्तीसगढ़ के डीपाडीह और महेशपुर जैसे स्थलों में है। इसी प्रकार नागवंशियों में चक्रकोट के छि़दक नागों का बारसूर और नारायणपुर जैसे केन्द्र हैं। दक्षिण कोसल के इतिहास के इस कालखंड में पश्चिमी-मध्य छत्तीसगढ़ में फणिनागवंशी काल मेें वास्तु कला के प्रतिमान रचे गए, उनका उत्कृष्ट नमूना भोरमदेव है। मालवा के परमारों की भूमिज शैली के अपवाद के रूप में भी आरंग के भांड देउल मंदिर के साथ भोरमदेव मंदिर का उल्लेख होता रहा है। भांड देउल, उंची जगती अर्थात चबूतरे पर निर्मित है, किंतु भोरमदेव का मंदिर पूरी तरह भूमिज शैली का उदाहरण है। आर्क्यालॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया रिपोर्ट, खंड 17, 1881-82 अलेक्जेंडर कनिंघम ने पर्याप्त विस्तार से इसका विवरण दिया है। यह भी एक अपवाद कहा जा सकता है कि कनिंघम रिपोर्ट में इसके पुरातात्विक और कलात्मक महत्व के बावजूद यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित नहीं हुआ था। संभवतः रियासत के अधीन क्षेत्र में होने अथवा अधिसूचना जारी होने के पूर्व आपत्ति किए जाने के कारण ऐसा हुआ। बाद के वर्षों में यह मंदिर राज्य शासन द्वारा संरक्षित किया गया। मिथुन मूर्तियों के कारण यह ‘छत्तीसगढ़ का खजुराहो‘ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। 1984 में संचालनालय पुरातत्व एवं संग्रहालय, मध्यप्रदेश से विभागीय अधिकारी डॉ. गजेन्द्र कुमार चन्द्रौल की पुस्तक ‘भोरमदेव प्रदर्शिका‘ आई। 1989 में इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ के डॉ. सीताराम शर्मा की पुस्तक ‘भोरमदेव‘ मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल से प्रकाशित हुई। 

मंदिर वास्तु के अध्ययन में पारिभाषिक शब्दों, अंग-प्रत्यंग का नामकरण और निर्देश वास्तुशास्त्रीय ग्रंथों में मिलते हैं। मोटे तौर पर दक्षिण भारतीय मंदिरों और उड़ीसा के मंदिरों के लिए प्रयुक्त शब्द उत्तर भारत के लिए भिन्न हो जाते हैं, जिसका उदाहरण मंडप के लिए उड़ीसा में प्रयुक्त शब्द ‘जगमोहन‘ है। इसी प्रकार भूमि-थर, अंग-रथ, अधिष्ठान-पीठ, अंतराल-कपिली, विमान-प्रासाद जैसे शब्दों का अर्थ और उपयुक्त प्रयोग के लिए विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है। यह भी उल्लेखनीय है कि वास्तुशास्त्रीय ग्रंथों की पांडुलिपियों की प्राप्ति और अध्ययन के पश्चात, भारतीय मंदिर स्थापत्य की शैली और पारिभाषिक शब्दों में परिवर्तन होता रहा है। 

प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि भारतीय मंदिर वास्तु के अध्ययन में पर्सी ब्राउन और स्टेला क्रैमरिश के प्रयासों को मूल स्रोत-ग्रंथों के आधार पर कृष्णदेव और मधुसूदन ढाकी जैसे मूर्धन्य विद्वानों ने परिष्कार किया। औैर उत्तर भारत के मंदिर निर्माण परंपरा में सोमपुरा कुल, पांडुलिपियों के अध्ययन, संपादन, प्रकाशन के द्वारा शास्त्र के साथ-साथ तकनीक और प्रयोग में भी सक्रिय है। 

प्राकृतिक परिवेश, उत्कृष्ट संरचना और धार्मिक आस्था का केंद्र होने के कारण भोरमदेव मंदिर पर्यटक आकर्षण के केंद्र के रूप में विकसित हुआ है। किंतु इसका एक पक्ष यह भी है कि पर्यटक सुविधाओं, आवश्यकताओं की पूर्ति और आधुनिक साज-सज्जा का प्रयास किया जाता रहा है, जो मंदिर के संरक्षण, प्राचीन मूल स्वरूप और पूरे परिवेश पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। यह ध्यान रखना होगा कि ऐसे किसी भी प्राचीन स्थल-स्मारक का आकर्षण उसके मूल स्वरूप के कारण ही होता है अतः पर्यटक-सुविधाओं की दृकष्ट से किए जाने वाले कार्यों और कथित विकास के दबाव पर नियंत्रण आवश्यक है और इस दृष्टि से मंदिर और उसके परिवेश के मूल स्वरूप को संरक्षित-सुरक्षित रखते हुए, अनुशंसित सीमा की दूरी पर विकास कार्य किए जाएं। 

अंगरेज अधिकारियों के बाद भोरमदेव मंदिर पर डॉ. सीताराम शर्मा और डॉ. गजेन्द्र कुमार चन्द्रौल जैसे विद्वानों ने विस्तार से अध्ययन किया है। इस क्रम में अजय चंद्रवंशी न सिर्फ क्षेत्रीय इतिहास, बल्कि फिल्म, साहित्य आदि के भी सजग अध्येता हैं और तथ्यों की प्रस्नुति में रोचकता और विश्वसनीयता का संतुलन बनाए रखते हैं। उनकी यह पुस्तक भोरमदेव से संबंधित अब तक प्रकाशित लगभग सभी महत्वपूर्ण प्रकाशन, स्रोत-सामग्री का उपयोग कर तैयार की गई है, जिसमें उनकी सजग मीमांसा-दृष्टि के भी दर्शन होते हैं। इसलिए यह प्रकाशन भोरमदेव, क्षेत्रीय इतिहास और कला परंपरा के दस्तावेज के रूप में उपयोगी प्रतिमान साबित होगी, मेरा ऐसा विश्वास और शुभकामनाएं हैं। 

पुनः हमारी सनातन परंपरा में उपासना ने वैदिक यज्ञ ने मंदिर-मूर्तियों का रूप ले लिया। समय के साथ बदलती स्थितियों और मान्यताओं का संदर्भ लेते हुए 'जानउँ नहिं कछु भजन उपाई।' या मार्कण्डेय पुराण के दुर्गा सप्तशती अंश में आया ‘आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् ...‘ का यहां उल्लेख प्रासंगिक होगा, अर्थात् ‘मैं आवाहन नहीं जानता, विसर्जन करना नहीं जानता तथा पूजा करने का ढंग भी नहीं जानता। क्षमा करो। मैंने जो मंत्रहीन, क्रियाहीन और भक्तिहीन पूजन किया है, वह सब आपकी कृपा से पूर्ण हो।‘