वह पहला ‘रविवार‘ था, किसी वर्ष-माह का नहीं, आनंद बाजार पत्रिका समूह के हिन्दी साप्ताहिक का अंक। ‘सतीश जायसवाल‘ नाम बिलासपुर के लिए घर का जोगी... था। चालीस-एक साल पुरानी बात। ‘दिनमान‘ ने जमीन बना दी थी कि यहां हिन्दी पाठकों के बीच भी समाचार पत्रिका के लिए गुंजाइश है और अब बात यहां तक आ पहुंची थी कि साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिकाओं के दिन लद रहे हैं। इस दौर के लिए मील का पत्थर बनी ‘रविवार‘।
सतीश जी कई मायनों में खुद रोचक मुसलसल कहानी की तरह हैं, इसलिए यह जो, जैसा याद है, वही लिखने का प्रयास है। पहले-पहल जब लिखने की बात आई तो हफ्ते भर यही लगता रहा कि खेद व्यक्त करना पड़ेगा, लेकिन सुधीर-सतीश जी ‘एस-द्वय‘ के लिहाजवश, अनिच्छापूर्वक नोट्स लेना शुरु किया, तो पता ही नहीं चला कि दिन कैसे बीते और यह लिखना मेरे लिए कितना मजेदार अनुभव रहा। अब जब समय-सीमा के कारण इस अधूरे को पूरा बनाकर प्रस्तुत कर रहा हूं, मानता हूं कि उन पर कभी शोध होगा तो मैं सबसे जरुरी रिसोर्स पर्सन्स में एक नाम मेरा भी होगा।
आमतौर पर कृतित्व-व्यक्तित्व वाला पत्रक साथ आ जाता है कुछ बचे तो गूगल-नेट किसी भी किस्से को इतिहास बनवा डालते हैं। इस अंक की तैयारी की जानकारी के साथ ऐसा कुछ नहीं आया, इसलिए भी लिखना मजेदार रहा। इस कहानी ‘सतीश जायसवाल‘ में तथ्य-इतिहास की अपेक्षा न करें, इसे संस्मरण भी न मानें। कहानी भी मानने लायक यह न हो तो इस लेखन को उद्देश्य में सफल मानूंगा। बहरहाल, शीर्षक सोचा है- एक अधूरी कहानी, असमाप्त कविता, ‘तीर्थ नहीं केवल यात्रा ...‘
इस प्रवेशांक में अधूरी आजादी जैसा एक लेख आया, लेखक का नाम था- सतीश जायसवाल। इसमें बात बिल्हा से संबंधित थी, इसलिए संदेह नहीं हुआ कि ये अपने ‘आन गांव के सिद्ध’ सतीश जायसवाल हैं। बाद में इसी पत्रिका में उनका एक लेख शीर्षक ‘काम की बात‘ जैसा कुछ था, छपा। इस दौरान मैं एक स्मारिका के संपादन से जुड़ा था। संयोग बना कि उनका लेख और स्मारिका का अंश, साथ-साथ कुछेक की राजनीतिक रोटी सेंकने का माध्यम बना। इस क्रम में रविवार के बप्पादित्य राय और संपादक एसपी यानि सुरेन्द्र प्रताप सिंह बिलासपुर आया करते और हम सबका दिन इकट्ठे, बिलासपुर न्यायालय में कोर्ट के सामने ढाई फुट उंची डेढ़ ईंट की दीवार पर बैठे हुए बीतता।
बिल्हा की कहानी छपी तो संदर्भ बना कि इस क्षेत्र के विधायक चित्रकांत जायसवाल उनके चाचा हैं। बिलासपुर के प्रमुख राजनीतिज्ञों मथुरा प्रसाद दुबे, श्रीधर मिश्रा, राजेन्द्र प्रसाद शुक्ला, रोहिणी प्रसाद बाजपेयी के बीच वे अकेले ‘जायसवाल‘ थे, चित्रकार तो थे ही, जोड़ा हंस वाला हिन्द प्रकाशन, जहां से बलदेव प्रसाद मिश्र की प्रसिद्ध पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ परिचय‘ छपी थी, वही उनका निवास था, शिक्षा मंत्री रहते हुए छात्रों के हड़ताल पर उनका गांधीवादी प्रतिरोध उनकी पहचान बन गया था। इन नेताओं का जन-सरोकार तो था ही, संगीत, साहित्य, विधि, विज्ञान, पुरातत्व, इतिहास की समझ भी कम न थी, उन्हें इस माहौल का लाभ मिला। उनके बौद्धिक व्यक्तित्व में अब भी देखा जा सकता है कि वे, विधा कोई भी हो, उसके व्याकरण पर कम ध्यान देते हैं, गोया, संवेदनात्मक ज्ञान और कई बार व्याकरण वे स्वयं विकसित कर लेते हैं। उनके लेखन में यही, संस्कृति-परम्परा के साथ उनकी मौलिकता का सहज समन्वय, अनूठा रस पैदा करता है। उन पर शोध होगा तो निष्कर्ष अध्याय का आशय इसके करीब ही होगा।
चित्रकांत जी से रिश्ते के सिलसिले में उनकी एक पुरस्कृत कहानी याद आती है, जो साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित हुई थी। कहानी के पात्रों को जानने वालों में से जिसने भी यह कहानी पढ़ी, उनके गले मुश्किल से उतरी। बिलासपुर के कुछ अन्य राजनैतिक व्यक्तियों और प्रतिष्ठित परिवारों के नाजुक-अंतरंग प्रसंगों में भी उन्हें कहानी दिखी और इस तरह की कहानियों लिखने-छपने के कारण वे खासे चर्चित होते रहे, जिसकी उन्होंने खुद शायद ही कभी परवाह की। इसी तरह संस्मरण-लेख के नारी पात्रों के रागात्मक विवरण उनके और अनजान पाठकों के लिए काव्यात्मक साहित्य, तो उन पात्रों के लिए असमंजस का कारण बनते रहे। वास्तविक व्यक्ति को पात्र बनाकर, उनके साथ अपने संस्मरण को कहानी बना देने का सफल प्रयोग उन्होंने ‘मछलियों के नींद का समय‘ में किया है, जिसमें डॉ. शंकर शेष, एक पात्र हैं और कहानी उनकी पत्नी के वाक्य से समाप्त होती है कि ‘‘यह मछलियों की नींद का समय है और लोग शिकार पर निकले हैं।‘‘
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद वे बख्शी सृजन पीठ के पहले अध्यक्ष नियुक्त हुए। मध्यप्रदेश में संस्कृति विभाग की लगभग सभी गतिविधियां विभिन्न परिषद, अकादमी, केन्द्र और पीठ के माध्यम से संचालित होती थीं, जिनका मुख्यालय भोपाल था। बख्शी सृजन पीठ, संभवतः भिलाई इस्पात संयंत्र के सहयोग और प्रथम अध्यक्ष डॉ. प्रमोद वर्मा की सुविधा अनुरूप भिलाई में था और बंटवारे में बस एक यही छत्तीसगढ़ के हिस्से आया। डॉ. प्रमोद वर्मा के बाद लंबे समय से खाली पड़े पीठ में उन्होंने नई जान फूंकी, नियमित गतिविधियां आरंभ हुई और संस्कृति विषयक कई क्षेत्रों यथा क्षेत्रीय सांस्कृतिक केन्द्र की दोहरी सदस्यता के लिए भी उन्होने पहल की।
कवि, कहानीकार वे हैं ही, यात्रा-संस्मरणों में उनकी दृष्टि, संवेदना और शैली का जवाब नहीं। उनके रिपोर्ताज संस्कृति के पक्षों को रेखांकित करने वाले हैं वहीं पत्रकारिता को भी उन्होंने आजमाया है। नरसिंहनाथ, बस्तर, चितेरे, रामनामी जैसे विषयों पर उनका लेखन, दस्तावेज की तरह है। लेकिन उनकी कलम में मुझे तलवार कभी नहीं दिखा, खासकर संस्मरणों और कहानियों में भी, वह छुरी-कटारी की तरह, बल्कि अक्सर नश्तर की तरह चलती है, नासूर पर चीरा लगाती है और परदानशीनी को तार-तार भी करती है। कील, कांटे और कमंद उनके उपकरण हैं, जिनका इस्तेमाल वे बड़ी चतुराई से और कई बार निर्ममतापूर्वक करते हैं।
उनके साथ का एक यादगार अभियान कोई बीस बरस पहले ‘सतगढ़ा राज‘ का था। आकाशवाणी वाले संजय रंजन भी साथ थे। छत्तीसगढ़ के इतिहास का हजार साल मानों हमलोगों के सामने खुल गया। सतगढ़ा राज की बैठक तुमान में हो रही थी, जो छत्तीसगढ़ में कलचुरियों की पहली राजधानी थी और यह वस्तुतः सात पुराने जमींदार प्रमुखों का अधिवेशन था, यही सात, कभी छत्तीस-अड़तालिस गढ़ों में भी शामिल थे और रतनपुर के कलचुरि शासकों का खालसा क्षेत्र पश्चिम, उत्तर और पूर्व में इनसे घिरा था। पूरे दिन की लंबी बातचीत और साक्षात्कार का सिलसिला हम सबके लिए अपनी समझ साफ करने का अवसर बना। इस दौरान उनकी योजना और कार्यशैली मेरे लिए सबक थी। उनके आयोजन-प्रभुत्व का एक प्रसंग ताला में किरातार्जुनीय नाटक का प्रदर्शन, जिसके किस्से मैंने सुने और एक अन्य, तत्कालीन बिलासपुर आयुक्त मदन मोहन उपाध्याय जी की अगुवाई और आपके संयोजकत्व में बिलासपुर में कहानी-99 का आयोजन था, जिसमें कमलेश्वर जी की विशेष उपस्थिति थी और मुझे उनसे लंबी बातचीत का अवसर मिला था।
खाने और पहनने में सलीका और तमीज, जिसके मानक कई बार उनके खुद के तय किए होते हैं, शास्त्रीय शैली में अनूठे मानक और व्याकरण निर्धारित करते हुए उनकी रचनात्मक प्रतिभा और सक्रिय-गति देखते ही बनती है। अपने तय तौर-तरीकों के प्रति वे बेहद आग्रही होते हैं। खाने-पहनने को ग्रहण-धारण करने, बरतने के अलावा इन विषयों के बतरस का भी आनंद लेते हैं, इसलिए, इस अवसर पर जाहिर कर रहा हूं कि पीठ पीछे मैं उन्हें सुरुचि भोजनालय, सुरुचि वस्त्रालय कहा करता हूं। मजेदार कि उन्हें जितना और जैसा ताल्लुक अपने रोटी-कपड़े के लिए है, मकान के लिए कतई नहीं। अब तक मेरी जानकारी में उनके ठिकाने किराये के मकान ही रहे हैं, उनके ये डेरे बेशक साफ, सुघड़ होते हैं।
वे जितने यात्रा-लोलुप हैं, उतना ही रेल स्टेशनों (और रेल अधिकारियों) को भी पसंद करते हैं, उनमें यह विशिष्ट रस-बोध है। छोटे-छोटे सूने से स्टेशन, रसमड़ा हो, पाराघाट से बदलकर जयरामनगर, उस्लापुर, खोड़री-खोंगसरा-भनवारटंक या फिर सिन्नी, इन सबके साथ आप उनका रोमांस पढ़-सुन सकते हैं और रोमांच महसूस कर सकते हैं। बिलासपुर स्टेशन का अंगरेजी तहजीब की याद दिला सकने वाला रेस्टोरेंट या एएचव्हीलर तो उनके ठिकाने रहे ही। दरअसल वे यात्रा के साथ पड़ाव, सांसारिकता और विरक्ति, वार्ता के दौरान मौन जैसे द्वैत को साध सकने में माहिर हैं। हर बार अगली मुलाकातों के लिए योजना बनाते, उनकी ‘आपस-दारियां‘ कब दूरियां बन जाए, वे भी नहीं जानते।
उन्हें ज्यादातर लोग, मेरी तरह ‘आगे नाथ न पीछे पगहा‘ जानते हैं, उनसे अपने परिवार, रिश्तेदार, विवाह-जन्म-मृत्यु की बातें शायद ही किसी ने सुनी हों, लेकिन कुछ, खासकर एक प्रसंग को बस ‘छू‘ रहा हूं कि वे विवाह कर रायपुर से लौटने वाले थे तब टिकरापारा के अभ्यंकर बाड़ा में मैं नवविवाहित दम्पति के स्वागत की प्रतीक्षा कर रहा था और बाद में श्रीमती जायसवाल के हाथों की चाय भी पी है। यहां चर्चा सिर्फ इसलिए कि वे अपने रागात्मक संबंधों को साहित्यिंक परदे और अतिशयोक्ति के साथ उजागर करने को जितने बेताब रहते हैं, अपने विवाह की चर्चा के प्रति उतने ही संकोची।
वे मदद-सहयोग तो ले सकते हैं, लेकिन स्वाभिमान बनाए रखते हुए। सहानुभूति उन्हें बरदाश्त नहीं। उनकी यह खुद्दारी और स्वयंभू-सा चरित्र। जब वे सेल्यूलाइटिस की चपेट में आए, तो इसकी खबर भी कम लोगों को होने दी, कोई उन्हें बेबस और लाचार समझ सहानुभूति प्रकट करे, यह उन्हें मंजूर नहीं होता। अपने इलाज के बाद वे मंगला में रहे, तब पता लगा कि बिलासपुर में उनके लिए एक ऐसा भी घर है। ठंड के दिन थे और वे खुद को घर से अलग, अधिकतर छत पर स्थापित रखते थे। उस दौरान प्रकट नहीं करें, पर सबसे मिलना-जुलना पसंद नहीं कर रहे थे। मेरी लगभग नियमित मुलाकात उनसे होती, हर मुलाकात पर अगला एजेंडा तय कर देते थे, शायद इसलिए कि मैं बेतकल्लुफ बना रहा, उनके सामने उनके तबियत की परवाह कभी नहीं की। स्वाभाविक-सहजता को इस तरह बेलाग स्वीकार कर सकने वाले वे दुर्लभ व्यक्तित्व हैं।
श्यामलाल चतुर्वेदी, श्रीकांत वर्मा, सत्यदेव दुबे, शंकर तिवारी और शंकर शेष, बिलासपुर के इन पांच ‘एस‘ के बाद यही नाम सतीश जायसवाल ध्यान में आता है। एक ऐसी खास बात जो शायद सिर्फ मेरे साथ है- उनकर कर बाता-चिती होथन, गोठ-बात होथे अउ कइ पइत नइ भी होवय, फेर जब भी होथे छत्तीसगढ़ी म ही होथे। उनसे जुड़े लोगों में मैं शायद एक अकेला हूं, कि हमारी बातचीत हमेशा छत्तीसगढ़ी में होती है, हिन्दी में एक बार भी, कभी भी नहीं। आत्मीयता महसूस कराने के लिए वे बहुत सजग और तत्पर रहते हैं, यथासंभव परिचितों को घरूनाम से याद करते और पुकारते हैं, मैं उनके लिए मुन्ना हूं।
पत्रिका का अंक, जिसमें यह लेख छपा है. |
आमतौर पर कृतित्व-व्यक्तित्व वाला पत्रक साथ आ जाता है कुछ बचे तो गूगल-नेट किसी भी किस्से को इतिहास बनवा डालते हैं। इस अंक की तैयारी की जानकारी के साथ ऐसा कुछ नहीं आया, इसलिए भी लिखना मजेदार रहा। इस कहानी ‘सतीश जायसवाल‘ में तथ्य-इतिहास की अपेक्षा न करें, इसे संस्मरण भी न मानें। कहानी भी मानने लायक यह न हो तो इस लेखन को उद्देश्य में सफल मानूंगा। बहरहाल, शीर्षक सोचा है- एक अधूरी कहानी, असमाप्त कविता, ‘तीर्थ नहीं केवल यात्रा ...‘