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Thursday, October 31, 2019

छत्तीसगढ़ की राजधानियां

छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास में गुहावासी पुरखों का सबसे महत्वपूर्ण केन्द्र रायगढ़ अंचल रहा, जहां सिंघनपुर, कबरा पहाड़, बसनाझर, ओंगना, करमागढ़, खैरपुर, छापामाड़ा, बोतलदा, भंवरखोल, अमरगुफा-छेरीगोडरी, सुतीघाट, टीपाखोल, नवागढ़ी, बेनीपाट, सिरोली डोंगरी, पोटिया, गीधा जैसे अनेक स्थल हैं। इस काल की गतिविधियों के प्रमाण कोरिया, बस्तर और दुर्ग-राजनांदगांव अंचल से भी चित्रित शैलाश्रयों के रूप में मिलते हैं। मौर्यकाल में सरगुजा के रामगढ़, शक-सातवाहनकाल में मल्हार और किरारी के पुरातात्विक प्रमाणों से अनुमान होता है कि ये स्थल तत्कालीन सत्ता के केन्द्र रहे होंगे।

नलों की राजधानी पुष्करी का समीकरण बस्तर के गढ़ धनोरा के साथ किया जाता है। श्रीपुर-सिरपुर शरभपुरियों के काल से प्रतिष्ठित होते हुए पांडु-सोमकाल में न सिर्फ राजधानी बल्कि छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण धार्मिक और आर्थिक केन्द्र रहा। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने दक्षिण कोसल की जिस भव्य राजधानी का बौद्ध केन्द्र के रूप में विवरण दिया है, उसका सबसे करीबी मेल सिरपुर से ही होता है। कलचुरियों ने तुमान के बाद रतनपुर को राजधानी बनाया तथा इसके साथ पाली, कोसगईं और चैतुरगढ़ भी महत्वपूर्ण केन्द्र रहे। बस्तर में छिंदक नागों की राजधानी बारसूर बना तो कांकेर परवर्ती सोमवंशियों की और 'बस्तर' (वर्तमान गांव) को काकतीयों की राजधानी का गौरव प्राप्त हुआ। कवर्धा-भोरमदेव फणिनागवंशियों की राजधानी रही और इस क्षेत्र का पचराही भी महत्वपूर्ण केन्द्र रहा।

इतिहास सम्मत जानकारी मिलती है कि कलचुरी राजा सिंघण के दो बेटे हुए, डंघीर और रामचन्द्र। डंघीर रतनपुर गद्दी पर रहे और उल्लेखनीय नाम संयोग कि ‘रामचन्द्र’ ने रायपुर नगर बसाकर इसे अपनी राजधानी बनाया। इस तरह कलचुरियों की ही एक शाखा ने चौदहवीं सदी के अंतिम चरण में रायपुर को पहली बार राजधानी बनाया। इस रामचन्द्र के पुत्र ब्रह्मदेव की राजधानी खल्वाटिका-खल्लारी का उल्लेख भी शिलालेखों में मिलता है। संवत 1470 यानि ईस्वी 1415 का लेख कलचुरि शासकों का अंतिम शिलालेख है। ब्रह्मदेव के लेखों से रामचन्द्र की फणिवंश के शासक भोणिंगदेव पर विजय, देवपाल द्वारा खल्वाटिका में मंदिर निर्माण तथा रायपुर में हाटकेश्वर महादेव मंदिर निर्माण का पता चलता है।

इतिहास का रास्ता भूल-भुलैया होता है अक्सर किसी ऐसे स्थल से संबंधित इतिहास, जो सुदीर्घ अवधि तक राजसत्ता का मुख्य केन्द्र, प्रशासनिक मुख्यालय के साथ-साथ धार्मिक तीर्थस्थल भी हो तो वहां इतिहास-मार्ग और भी दुर्गम हो जाता है, छत्तीसगढ़ की पुरानी राजधानियों की कहानी भी कुछ इसी तरह की है। चतुर्युगों में राजधानी के गौरव से महिमामण्डित मान्यता, मूरतध्वज की नगरी और भगवान कृष्ण की पौराणिक कथाओं से रतनपुर को सम्बद्ध कर देखा गया। सिरपुर की समृद्धि भी परत-दर-परत सामने आ कर, छत्तीसगढ़ के वैभव का इतिहास-प्रमाण बन रही है।

पुरातत्वीय वैभव से संपन्न सिरपुर में महानदी के सुरम्य तट पर कला-स्थापत्य उदाहरणों के साथ-साथ धार्मिक सौहार्द के प्रमाण सुरक्षित हैं, जिनमें ईंटों का प्रसिद्ध लक्ष्मण मंदिर और अन्य मंदिर, भव्य कलात्मकता तथा अलंकरण अभिप्रायों वाला अद्वितीय तीवरदेव महाविहार और अन्य विहार, राजप्रासाद, विशाल सुरंगटीला मंदिर, स्तूप, आवासीय मठ-संरचनाएं इस नगरी की गाथा बखानती हैं। इसके अतिरिक्त यहां से प्राप्त सिक्के, ताम्रपत्र और धातु प्रतिमाओं की बहुमूल्य निधि प्राप्त हुई है। मल्हार-जुनवानी ताम्रलेख में रोचक विवरण है कि सिरपुर राजधानी में भूमिदान, हाथ के माप के पैमाने से दिया गया, जिसमें स्पष्ट कर दिया गया है कि हाथ का मान 24 अंगुल के बराबर होगा। संभवतः तब भी यह किस्सा प्रचलन में रहा होगा, जिसमें राजधानी सीमा में राजा द्वारा ब्राह्मण को एक खाट के बराबर भूमिदान की चर्चा होती है, किन्तु बाद में दान प्राप्तकर्ता ने खाट की रस्सी खोलकर पूरे राजमहल को घेर लिया था। इसी तरह सिरपुर ताम्रपत्र निधि से यहां शैव सम्प्रदाय की अत्यंत महत्वपूर्ण शाखा का पता चलता है महाशिवगुप्त बालार्जुन इन्हीं शैव-सोम सम्प्रदाय के आचार्यों से दीक्षित होकर परम माहेश्वर की उपाधि का धारक बना था। यह भी उल्लेखनीय है कि बालार्जुन के बाद छत्तीसगढ़ के स्वर्ण युग और उसकी राजधानी श्रीपुर की चमक फीकी पड़ने लगी।

राजधानी-नगरों की कहानी बड़ी अजीब होती है, कहीं तो उनका वैभव धुंधला जाता है और कभी-कभी उनकी पहचान खो जाती है। छत्तीोसगढ़ या प्राचीन दक्षिण कोसल के दो प्रमुख नगरों- राजधानियों शरभपुर और प्रसन्नपुर की पहचान अभी तक सुनिश्चित नहीं की जा सकी है। शरभपुर का समीकरण सिरपुर, मल्हार, सारंगढ़ तथा उड़ीसा के कुछ स्थलों से जोड़ा गया, किन्तु प्रसन्नपुर की चर्चा भी नहीं होती। इसी प्रकार इस अंचल में कोसल नगर और ‘गामस कोसलीय‘ नाम के ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं, किंतु यह स्थान ‘कोसल’ राजधानी था अथवा नहीं, या कहां स्थित था, निश्चित तौर पर यह भी नहीं तय किया जा सका है। अंचल के सर्वाधिक अवशेष सम्पन्न पुरातात्विक स्थल मल्हार का राजनैतिक केन्द्र या राजधानी होना, अभी तक अनिश्चित है।

छत्तीसगढ़ की ऐतिहासिक राजधानी रतनपुर के संबंध में ऐसा कोई सन्देह नहीं है, जो रायपुर से पहले लगभग पूरी सहस्राब्दि छत्तीसगढ़ की राजधानी रहा। राजधानी तुम्माण का स्थानान्तरण रतनपुर को इस दृष्टिकोण से देखा जाना भी समीचीन होगा, कि यह काल कबीलाई छापामारी से विकसित होकर खुले मैदान में विस्तृत हो जाने का था। मुगलकाल में राजा टोडरमल का भू-राजस्व व्यवस्थापन आरंभिक माना जाता है, लेकिन इतिहास गवाह है कि तत्कालीन छत्तीरसगढ़ की व्यवस्था, जमींदारियों, ताहुतदारियों और खालसा में मालगुजारी और रैयतवारी में विभाजित कर ऐसा व्यवस्थित प्रबंधन रतनपुर राजधानी से हुआ था। छत्तीस गढ़ों की यही व्यवस्था इस राज्य के नाम का आधार बनी। रतनपुर राजधानी के साथ इन गढ़ों के माध्यम से खालसा क्षेत्र का केन्द्रीय प्रशासन होता रहा तो इसके समानांतर बस्तर, कांकेर, नांदगांव, खैरागढ़, छुईखदान, कवर्धा, रायगढ़, सक्ती, सारंगढ़, सरगुजा, उदयपुर, जशपुर, कोरिया, चांगबखार भी सीमित-संप्रभु रियासती सत्ता के केन्द्र रहे।

इतिहास में झांककर समाज के उज्जवल भविष्य की रूपरेखा बनती है और इतिहास के संदर्भ कोश से प्रेरक आशा का उत्साह संचारित होता है, आगत की तस्वीर उजागर होती है। रायपुरा से किला-पुरानी बस्ती और रायपुर से नया रायपुर तक का सफर न सिर्फ समय की बदलती करवट है, बल्कि यह राज्य की क्षमता और उसके पुरुषार्थ का भी प्रमाण है। नया रायपुर (अब अटल नगर, नवा रायपुर) के साथ नये संकल्पों का दौर आरंभ हो रहा है, इस नयी राजधानी में राज्योत्सव के शुभारंभ अवसर के लिए निर्धारित मुहूर्त पर प्रकृति ने जलाभिषेक कर मानों राज्य के उज्ज्वल भविष्य का मार्ग प्रशस्त किया है। इस अवसर पर अपने गौरवशाली अतीत का स्मरण इतिहास-यज्ञ ही है, जिसमें दृढ़ संकल्पों के साथ कर्म-उद्यम का यज्ञफल राज्य के लिए शुभ और मंगल सुनिश्चित करेगा।

नवभारत, संपादकीय पृष्ठ पर 3 नवंबर 2012 को प्रकाशित

Sunday, October 27, 2019

ऐतिहासिक छत्‍तीसगढ़

प्राचीन दक्षिण कोसल अर्थात्‌ वर्तमान छत्तीसगढ़ व उससे संलग्न क्षेत्र के गौरवपूर्ण इतिहास का प्रथम चरण है- प्रागैतिहासिक मानव संस्कृति के रोचक पाषाण खंड, जो वस्तुतः तत्कालीन जीवन-चर्या के महत्वपूर्ण उपकरण थे। लगभग इसी काल (तीस-पैंतीस हजार वर्ष पूर्व) के बर्बर मानव में से किसी एक ने अपने निवास गुफा की दीवार पर रंग में डूबी कूंची फेरकर, अपनी कलाप्रियता का प्रमाण भी दर्ज कर दिया। मानव संस्कृति की निरन्तर विकासशील यह धारा ऐतिहासिक काल में स्थापत्य के विशिष्ट उदाहरण- मंदिर, प्रतिमा, सिक्के व अभिलेख में अभिव्यक्त हुई है। विभिन्न राजवंशों के गौरवपूर्ण कला रुझान व महत्वाकांक्षी अभियानों से इस क्षेत्र के सांस्कृतिक तथा राजनैतिक इतिहास का स्वर्ण युग घटित हुआ। धरोहर सम्पन्न छत्‍तीसगढ़ की परिसीमा, आज भी पुरा सम्पदा का महत्वपूर्ण केन्द्र है।

छत्‍तीसगढ़ का यह क्षेत्र नैसर्गिक सम्पदा से पूर्ण रहा है। महानदी, इन्द्रावती, शिवनाथ, अरपा, हसदेव, केलो, रेन आदि सरिताओं के सुरम्य प्रवाह से सिंचित तथा सघन वनाच्छादित यह भू भाग आदि मानवों द्वारा संचारित रहा है। इनके पाषाण उपकरण और शैलचित्र, नदी तटवर्ती क्षेत्र तथा सिंघनपुर, कबरा पहाड़, करमागढ़ (रायगढ़ जिला) आदि स्थलों से ज्ञात हुए हैं। शास्त्रीय ग्रन्थों में इस क्षेत्र से संबंधित उल्लेख प्राप्त होने लगते हैं। रामायण के कथा प्रसंगों तथा राम के वन गमन का मार्ग, इस क्षेत्र से सम्बद्ध किया जाता है। महाभारत में पाण्डवों के दिग्विजय व अन्य प्रसंगों तथा पौराणिक ग्रन्थों में भी दक्षिण कोसल का उल्लेख अनेक स्थलों पर आया है। प्राचीन परम्पराओं और दंतकथाओं से भी यह अनुमान होता है के यह क्षेत्र प्राचीन काल से ही विशेष महत्व का भू भाग रहा है।

मौर्य काल अर्थात्‌ ईस्वी पूर्व चौथी सदी से इस क्षेत्र में नगर सभ्यता के विकास का संकेत मिलने लगता है। सरगुजा जिले की रामगढ़ पहाड़ी के ब्राह्मी अभिलेख के सिवाय आहत सिक्के, मिट्टी के गढ़ और मृद्‌भाण्ड विशेष उल्लेखनीय हैं, जिनसे इस क्षेत्र की सांस्कृतिक सम्पन्नता का अनुमान सहज ही होता है।

मौर्यों के पश्चात्‌ तत्कालीन क्षेत्रीय शक्तियों का प्रभाव रहा, जिसके सीमित प्रमाण उपलब्ध होते हैं। ईसा की आरंभिक शताब्दियों के स्पष्ट प्रमाण के रूप में अभिलेख, सिक्के, प्रतिमाएं, लाल ओपदार ठीकरे आदि प्राप्त हुए हैं। इस काल में विदेश व्यापार संबंध के परिचायक रोम और चीन के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं।

चौथी सदी ईस्वी के वाकाटक-गुप्त काल के पश्चात्‌ से इस क्षेत्र के इतिहास की रूपरेखा स्पष्ट होने लगती है। समुद्रगुप्त के प्रसिद्ध इलाहाबाद अभिलेख में दक्षिणापथ के शासकों में कोसल के महेन्द्र नामक शासक का उल्लेख प्रथम क्रम पर है। गुप्तों के प्रभाव के अन्य साक्ष्य भी ज्ञात होते हैं।

गुप्तों के समकालीन शूरा अथवा राजर्षितुल्य कुल तथा मेकल के पाण्डुवंश की सूचना मुख्‍यतः ताम्रपत्रों से मिलती है। राजर्षितुल्य कुल के भीमसेन द्वितीय के ताम्रपत्र से इसके महत्वपूर्ण शासक होने का स्पष्ट अनुमान होता है। सुवर्ण नदी से जारी किए गए इस ताम्रपत्र में शूरा को राजवंश का संस्थापक बताया गया है। मेकल के पाण्डुकुल के ताम्रपत्रों से जयबल, वत्सराज, नागबल, भरतबल एवं शूरबल जैसे शासकों के नाम मिलते हैं।

लगभग पांचवीं-छठी ईस्वी में शरभपुरीय या अमरार्यकुल नामक महत्वपूर्ण राजवंश की सूचना प्राप्त होती है। इस वंश की प्रमुख राजधानी शरभपुर थी, जो बाद में प्रसन्नपुर स्थानान्तरित हो गई। इनकी द्वितीय राजधानी के रूप में श्रीपुर (वर्तमान सिरपुर) का नाम ज्ञात होता है। इस वंश के विभिन्न ताम्रपत्रों से शरभ, नरेन्द्र, प्रसन्नमात्र, जयराज, सुदेवराज, प्रवरराज तथा व्याघ्रराज का नाम मिलता है। इनमें एकमात्र प्रसन्नमात्र के सिक्के विस्तृत भूभाग से प्राप्त हुए हैं।

लगभग छठी ईस्वी में एक अन्य राजवंश का उदय होता है, जो इतिहास में कोसल के पाण्डुवंश के नाम से प्रसिद्ध है। इनकी राजधानी श्रीपुर थी। इस वंश का आरंभ उदयन से ज्ञात होता है। इस वंश के शिलालेखों व ताम्रपत्रों से इन्द्रबल, ईशानदेव, नन्न, तीवरदेव, महाशिवगुप्त बालार्जुन आदि शासकों के नाम ज्ञात होते हैं।

लगभग सातवीं सदी ईस्वी से दसवीं सदी ईस्वी का काल मुखयतः सोमवंशी शासकों के आधिपत्य का है। इनकी राजधानी सुवर्णपुर, उड़ीसा थी। इस वंश के अभिलेखों से वंश के प्रथम शासक शिवगुप्त के अतिरिक्त ययाति, धर्मरथ, नहुष उद्योतकेसरी, कर्णकेसरी आदि शासक नाम मिलते हैं। इसी काल में त्रिपुरी के कलचुरियों के प्रच्छन्न प्रभाव के अतिरिक्त बाणवंशी शासकों के आधिपत्य के प्रमाण भी प्राप्त होते हैं।

दसवीं सदी ईस्वी में त्रिपुरी के कलचुरियों की एक शाखा ने तुम्माण (वर्तमान तुमान, कोरबा जिला) को राजधानी बना कर शासन आरंभ किया। इस वंश के राजाओं में आरंभिक नाम कलिंगराज, कमलराज मिलते हैं। इसके पश्चात्‌ रत्नदेव, पृथ्वीदेव, जाजल्लदेव, प्रतापमल्ल आदि शासकों के नाम मिलते हैं। परवर्ती काल में इस वंश की राजधानी रत्नपुर स्थानान्तरित हुई, पुनः इसी वंश की एक शाखा ने रायपुर को अपनी राजधानी बनाया। मराठों के आगमन अर्थात्‌ अठारहवीं सदी ईस्वी तक इस क्षेत्र पर कलचुरियों का एकाधिपत्य रहा।

इस क्षेत्र में उपरोक्त वर्णित राजवंशों के विभिन्न निर्माण कार्यों से जहां उनकी धार्मिक सहिष्णुता, कलाप्रियता व शास्त्रीय मान्यताओं के संरक्षण का परिचय मिलता है वहीं काव्य चमत्कार, भाषा ज्ञान, धातु सम्पन्नता की झलक, अभिलेख व सिक्के हैं। इस प्रकार की महत्वपूर्ण पुरा सम्पदा निम्नानुसार है-

स्थापत्य अवशेषों के महत्वपूर्ण उदाहरण इस क्षेत्र में विद्यमान हैं। रामगढ़ की गुफाओं से आरंभ होकर निःसंदेह इसका विशिष्ट पड़ाव मल्हार था, किन्तु मल्हार से अब तक कोई महत्वपूर्ण संरचना प्रकाश में नहीं आई अतः इसके पश्चात्‌ बिलासपुर जिले के अत्यंत विशिष्ट स्थल ताला पर दृष्टि केन्द्रित की जा सकती है, जहां उत्तर गुप्त कालीन दो शिव मंदिर हैं। इनमें से देवरानी मंदिर नाम से प्रसिद्ध स्मारक अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित और पूर्वज्ञात संरचना है, जबकि जिठानी मंदिर की अवशिष्ट संरचना पुरातत्व विभाग के कार्यों से स्पष्ट हुई है।

इसके पश्चात्‌ पाण्डु-सोमवंशी शासकों के निर्माण का काल छठी-सातवीं सदी के आरंभ होता है। इन राजवंशों के प्रमुख स्थापत्य उदाहरणों में सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर, खरौद के मंदिर, राजिम का राजीव लोचन व अन्य मंदिर, अड़भार का शिव मंदिर, धोबनी का चितावरी दाई मंदिर, पलारी का सिद्धेश्वर मंदिर, मल्हार का देउर आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। इस काल की क्षेत्रीय वास्तु शैली की विशेषता ताराकृति योजना पर बने ईंटों के मंदिर हैं।

लगभग दसवीं सदी ईस्वी तक इस कालावधि में कुछ अन्य राजवंशों ने भी महत्वपूर्ण निर्माण कार्य कराया। इनमें उल्लेखनीय उदाहरण सरगुजा जिले के डीपाडीह, देवगढ़, सतमहला, महेशपुर आदि स्थलों में विद्यमान है। रायगढ़ जिले में इस काल के उदाहरणस्वरूप नेतनागर, पुजारीपाली, सारंगढ़, कांसाबेल के अवशेष हैं। इस परिप्रेक्ष्‍य में पाली का महादेव मंदिर व शिवरीनारायण का केशवनारायण मंदिर विशेष उल्लेखनीय हैं।

कलचुरि शासकों के निर्माण का क्रम ग्यारहवीं सदी ईस्वी से प्रारंभ होता है। इन शासकों के प्रमुख स्थापत्य उदाहरण तुमान, जांजगीर, गुड़ी, मल्हार, शिवरीनारायण, किरारी गोढ़ी, सरगांव, रतनपुर आदि स्थलों के मंदिर अवशेष, विशेष महत्व के हैं।

कुछ अत्यंत विशिष्ट और उल्लेखनीय प्रतिमाओं में मल्हार के अभिलिखित विष्णु, स्कन्द माता, कुबेर, डिडिनेश्वरी देवी के रूप में पूजित राजमहिषी आदि हैं। अड़भार में महिषासुरमर्दिनी, अष्टभुजी शिव, पार्श्वनाथ, गंगा-यमुना, मिथुन आदि प्रतिमाएं हैं। ताला के रूद्र शिव, कार्तिकेय, शिव लीला के दृश्य व कीर्तिमुख भारतीय कला के अद्वितीय उदाहरण हैं। खरौद की गंगा-यमुना, शिवरीनारायण के शंख व चक्र पुरुष तथा विष्णु के विभिन्न रूपों युक्त केशवनारायण मंदिर का द्वार शाख भी उल्लेखनीय है। पाली के मंदिर की प्रतिमाओं का संतुलन व विविधता दर्शनीय है। अन्य स्थलों से भी कुछ विशिष्ट प्रतिमाएं ज्ञात हैं, जिनमें रतनपुर के कंठी देवल और किला प्रवेश द्वार की प्रतिमाओं का उल्लेख किया जा सकता है। महमंदपुर की सर्वतोभद्र महामाया जैसी कई विशिष्ट किन्तु अल्पज्ञात प्रतिमाएं भी क्षेत्र में उपलब्ध हैं।

छत्‍तीसगढ़ की मूर्तिकला विविध कला शैलियों के परिपक्व अवस्था का परिचायक है। यहां के प्राचीन शिल्पियों ने शास्त्रीय ज्ञान और मौलिक प्रतिभा का अनूठा समन्वय, अत्यंत रोचक है। मूर्तिकला में नैसर्गिक रूप-सौन्दर्य लावण्य, भावाभिव्यक्ति तथा सुरुचिपूर्ण अलंकरण सहज आकर्षक है।

अभिलेखों की दृष्टि से इस क्षेत्र में प्रारंभिक अभिलेख ईस्वी पूर्व तीसरी सदी के हैं। रामगढ़ पहाड़ी के गुफालेख, ऋषभतीर्थ, गुंजी चट्टानलेख, बूढ़ीखार मूर्तिलेख, सेमरसल शिलालेख, किरारी काष्ठ स्तंभलेख, आरंग व दुर्ग के ब्राह्मी शिलालेख प्रमुख हैं। इन लेखों का काल ईस्वी पूर्व तीसरी-दूसरी सदी है। ये लेख पालि-प्राकृत भाषा में, ब्राह्मी लिपि के रूपों में उत्कीर्ण हैं।

चौथी सदी ईस्वी के पश्चात्‌ क्षेत्रीय राजवंशों के विभिन्न अभिलेख प्राप्त होने लगते हैं। इनमें मुख्‍यतः पीपरदुला, कुरुद, मल्हार, आरंग, खरियार, सिरपुर, कौआताल, सारंगढ़, रायपुर, पोखरा, ठकुरदिया, बोण्डा, राजिम, बलौदा, अड़भार, लोधिया, बरदुला, सेनकपाट, खरौद, पाली, ताला आदि स्थलों के ताम्रपत्र व शिलालेख हैं। ये अभिलेख दसवीं सदी ईस्वी तक के उपरोल्लिखित राजवंशों से सम्बद्ध हैं। कुछ स्थानों पर तीर्थयात्रियों अथवा सामान्य नामोल्लेख वाले अभिलेख मिले हैं। इन लेखों की लिपि, पेटिकाशीर्ष और कीलाक्षर में विकसित ब्राह्मी, कुटिल या आरंभिक नागरी है, लेखों की भाषा लगभग शुद्ध संस्कृत है।

दसवीं सदी ईस्वी के पश्चात्‌ कलचुरियों के अभिलेख प्राप्ति के महत्वपूर्ण स्थल हैं- रायपुर, अमोदा, रतनपुर, पाली, शिवरीनारायण, खरौद, अकलतरा, कोटगढ़, सरखों, पारगांव, दैकोनी, कुगदा, कोथारी, बिलईगढ़, राजिम, कोनी, घोटिया, पुजारीपाली, मल्हार, पेन्डराबंध, कोसगईं, खल्लारी, आरंग, कोनारी तथा एक अन्य राजवंश का लहंगाभांठा शिलालेख। कुछ स्थानों से मूर्तिलेख भी प्राप्त हुए हैं। ये लेख भी ताम्रपत्र या शिलालेख हैं, तथा संस्कृत भाषा का प्रयोग किया गया है। लिपि, नागरी का विकसित होता हुआ रूप है।

इस क्षेत्र से सिक्कों की प्राप्तियां भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आरंभिक काल के सिक्कों में मौर्यकालीन आहत सिक्के ठठारी से प्राप्त हुए हैं। मघ, रोमन, कुषाण, सातवाहन आदि राजवंशों के सिक्कों का प्रमुख प्राप्ति स्थल मल्हार व बालपुर है। विभिन्न कालों और धातुओं से निर्मित विविध तकनीक के सिक्के जिन स्थानों से प्रमुखतः मिले हैं, उनमें केरा, सोनसरी, भगोड़, धनपुर, केन्दा, चकरबेढ़ा, आदि ग्रामों का उल्लेख किया जा सकता है। सातवाहन शासक अपीलक, माघश्री सिक्के तथा प्रसन्नमात्र व अन्य शासकों के ठप्पांकित तकनीक से निर्मित सिक्के इस क्षेत्र की मुद्राशास्त्रीय विशिष्टता रेखांकित करते हैं।

नवम्‍बर 1986 में मध्‍यप्रदेश राज्‍य स्‍थापना के तीन दशक पूरे होने पर मूलतः डा. लक्ष्‍मीशंकर निगम के मार्गदर्शन एवं श्री जी एल रायकवार के सहयोग से मेरे द्वारा संयोजित लेख, अब नई जानकारियां शामिल कर इस पेज अद्यतन किया जा रहा है। यहां आई जानकारियां पूर्व में हुए शोध और प्रकाशनों से भी ली गई हैं, लेकिन स्‍मारक, अवशेषों का सर्वेक्षण और तथ्‍यों का परीक्षण यथासंभव मेरे द्वारा किया गया है।

Thursday, October 17, 2019

आसन्न राज्य

बात अक्टूबर 2000 की है, 1 नवंबर को 'छत्तीसगढ़' राज्य बनना तय हो गया था। इसी दौरान अखबारों के लिए मैंने यह नोट 'छत्तीसगढ़: सपने की कविता और हकीकत का अफसाना' बनाया था, खंगालते हुए मिला, अब यहां-

इतिहास, सदैव अतीत नहीं होता और वह व्यतीत तो कभी भी नहीं होता। हम इतिहास के साथ जीते हैं, उसे रचते-गढ़ते हैं ओर इसीलिए प्रत्येक सुनहरे भविष्य में इतिहास की छाप होती है। कभी-कभी आगामी कल भी ऐतिहासिक होता है। ऐसे ही घटित होने वाले इतिहास की आतुर प्रतीक्षा है जिसके साथ न सिर्फ हम जी रहे हैं बल्कि जिसके साथ पीढ़िया बीती हैं और जिस इतिहास को इस विशाल समष्टि ने अपने हाथों रचा-गढ़ा है ‘पृथक छत्तीसगढ़ राज्य’ जिसके औपचारिक निर्माण की तैयारी चाक-चैबंद है और जिसके स्वागत का उल्लास अब सतह पर आ गया है, सपना आकार ले रहा है। लगभग छह सौ साल पहले दक्षिण कोसल के छत्तीसगढ़ में बदलते करवट को ज्ञात इतिहास में पहली बार पंद्रहवीं सदी के अंत में खैरागढ़ के कवि दलराम राव ने रेखांकित किया- ‘लक्ष्मीनिधि राय सुनौ चित दै, गढ़ छत्तीस में न गढै़या रही।

बदलते माहौल में यह कवि अपने अन्नदाता लक्ष्मीनिधि राय की प्रशस्ति करते हुए इस स्वप्नदृष्टा कवि के शब्द अभिलेख बन गए, सपना साकार हो गया। सोलहवीं सदी के मध्य में कल्याणसाय ने इस भू-भाग के व्यवस्थापन को अमलीजामा पहनाकर इसे मूर्त आकार दे दिया और अपनी प्रशासनिक क्षमता के साथ पूरे अंचल की प्रशासनिक व्यवस्था को एक नियमबद्ध सूत्र में पिरो दिया। गढ़ और गढ़ीदार, दीवान, चौबीसा, बरहों, दाऊ और गौंटिया, खालसा, और जमींदारी।

इस नवसृजन की प्रक्रिया में उसने न जाने कितने स्वप्न देखे होंगे और अंचल में व्यापक चेतना का संचार किया होगा। कल्याणसाय के राजस्व प्रशासन की इकाई गढ़ों की रूढ़ संख्या अड़तालिस-छत्तीस रही और यह अंचल छत्तीसगढ़ बन गया। शब्द साम्य मात्र के आधार पर इसे ‘चेदीशगढ़’ और ‘छत्तीस घर’ भी कहा गया। लेकिन कल्याणसाय के सपनों में तथ्यों की सच्चाई और उसका ठोसपन सक्षम साबित हुआ। लोग सिर्फ छत्तीसगढ़ का सपना ही नहीं देखते रहे, उस पर गंभीर विचार, सक्रिय पहल, गतिविधियां भी संचालित करते रहे।

ऐसे लोगों में से कुछेक ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर, माधवराव सप्रे, पं. सुंदरलाल शर्मा, पं. लोचनप्रसाद पाण्डेय, ठाकुर प्यारेलाल सिंह है। और भी जननायक है जिनकी चर्चा और सूची सहज उपलब्ध हो जाती है। किंतु कुछ ऐसी भी नाम हैं जो अल्पज्ञात बल्कि इस संदर्भ में लगभग अनजाने रह गए हैं। इन्हीं में से एक है डॉ. इंद्रजीत सिंह। मुस्लिम इतिहासकारों ने जिस क्षेत्र का आमतौर पर गोंडवाना नाम दे रखा था यही गोंडवाना आज के छत्तीसगढ़ की पृष्ठभूमि है। गोंडवाना की सांस्कृतिक सामाजिक पहचान को रेखांकित करने के उद्देश्य से डॉ. इंद्रजीत सिंह ने लगभग 70 साल पहले पूरे गोंडवाना का व्यापक भ्रमण-सर्वेक्षण कर अंचल के भौगोलिक परिवेश और आदिम संस्कृति की विशिष्ट महानता को समझने के लिए गहन शोध किया और मध्य- भारत में सामाजिक मानवशास्त्रश के क्षेत्र में किसी स्थाषनीय द्वारा किया गया यह पहला शोध सन् 1944 में ‘द गोंडवाना एंड द गोंड्स’ शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ जिसकी पृष्ठभूमि पर नागपुर विधानसभा में ठाकुर रामकृष्णसिंह व अन्य विधायकों ने गोंडवाना राज्य के गठन की गुहार की थी। ऐसे ढेरों जाने-अनजाने सद्प्रयास अब फलीभूत हो रहे हैं।

इस अंचल की सम्पन्नता इसकी नैसर्गिक विविधता है। यहां उच्च सांस्कृतिक परंपराएं और प्रतिमान हैं। लोगों में व्यापक गहरी सूझ और प्रासंगिक विचारशीलता है। इसीलिए पृथक छत्तीसगढ़ राज्य से अगर प्रशासनिक सुविधा होगी तो यह उससे कहीं अधिक सांस्कृतिक आवश्यकता की पूर्ति करेगा। छत्तीसगढ़ की मध्यप्रदेश से पृथकता सीमाओं का संकोच है तो सोच का विस्तार है जिसे हम अपनी सीमा संकीर्णताओं से आगे बढ़कर उदार जागरूकता से प्रमाणित करेंगे।