Monday, September 22, 2025

प्रतिभू स्मृति कथा

आखिरी पन्नों पर ‘कोरे पन्ने‘ बार-बार आता है, जो किताब के शीर्षक ‘स्मृतिशेष कथा अशेष‘ के उपयुक्त है। पहले दो पर्व पीठिका की तरह, तृतीय पर्व दंगोें, विभाजन, विस्थापन-पलायन, शरणार्थी-तनाव का है और चौथा प्रभावित पूरे समुदाय के खोना-पावना वाला, उसके वापस पटरी पर आने वाला। पुस्तक ‘पूर्वी बंगाल के विस्थापित हिन्दुओं की औपन्यासिक गाथा‘ है, जिसमें हिंदू-मुस्लिम दंगा प्रसंगों के साथ विभाजन की गाथा है, स्वाभाविक ही कई अंश संवेदनशील हैं, मगर पूर्वाग्रह न हों तो बेहद संतुलित। लेखक ने अपनी मंशा स्पष्ट कर दी है कि हिन्दू-मुस्लिम अंतर्संबंधों तथा अंतर्विरोधों को उकेरने का कारण वैमनस्यता फैलाने वाले तत्वों की पड़ताल का है। जाति-धर्म के उन्माद में भाषा का कारक किस तरह प्रभावी हो सकता है, यहां उभारा नहीं गया है, मगर महसूस किया जा सकता है।

कथा-सूत्र के लिए पात्र ‘जतीन बाबू (लेखक स्वयं?) की डायरी‘ वाला उपयुक्त तरीका अपनाया गया है। जो अपने दीर्घ अनुभवों को कलमबद्ध करने को लालायित हैं, किसी और के लिए नहीं, आने वाली पीढ़ियों को विगत से सबक लेने के लिए, डायरी लिखते हैं, जिसमें आत्मावलोकन है और स्वचिंतन भी। एक अंश जहां लगता है कि लेखक अपने भाव सीधे अभिव्यक्त कर रहा है- ‘बंगालियों द्वारा, खासकर पूर्वी बंगाल से विस्थापित बंगालियों द्वारा, ऐसी कोई तिथि या दिन स्वस्फूर्त हो नहीं तय की गई, जो समर्पित हो कष्ट और अमानुषिक यातना की उन यादों को। यह पूरे बंग समाज के लिए गंभीर आत्मचिंतन का विषय है कि क्यों वेदना के करुण देशराग को गाने का कोई मुहूर्त, कोई तिथि नहीं है। उस देशराग को, जिसने न केवल पूरे बंगाल को वरन निखिल विश्व के बंगालियों को और पूरे देश को प्रभावित किया?‘

पुस्तक में बताया गया है कि- बनर्जी, मुखर्जी, चटर्जी और गांगुली के पूर्वज मूलतः उत्तर प्रदेश के कान्यकुब्ज ब्राह्मण उपाध्याय थे। बारहवीं सदी में सेन वंश के तत्कालीन राजा ने काशी से जिन कुछ विद्वानों को वैदिक कर्मकांड हेतु स्थायी रूप से बंगाल बुलाया था, उन्हें जिन ग्रामों में बसाया गया उनसे उनकी पहचान हुई। इस तरह वन्ध्य ग्राम के उपाध्याय हुये वंद्योपाध्याय अर्थात बानुज्जे अर्थात बनर्जी और चट्ट ग्राम के उपाध्याय हुये चट्टोपाध्याय अर्थात चाटुज्जे अर्थात चटर्जी। बनर्जी, मुखर्जी, चटर्जी तथा गांगुली इन चारों को ही कुलीन ब्राह्मण कहा गया (पेज-69)। अनिमेष मुखर्जी अपनी पुस्तक ‘ठाकुरबाड़ी‘ में लिखते हैं कि ‘... यह बंगाली पहले मुखुज्यो, बाणिज्यो और चाटुज्यो से मुखोपाद्धाय, बंदोपाध्याय और चट्टोपाध्याय बने फिर मुखर्जी, बनर्जी और चटर्जी बन गए। वैसे बता दें खुद को मुखोपाध्याय, बंदोपाध्याय और चट्टोपाध्याय कहने का उद्देश्य अपने आपको विद्वान दिखाना होता था‘ (पेज-11)। इस संबंध में कहीं (संभवतः प्रभात रंजन सरकार के लेखन में) पढ़ा था कि ‘बाद में प्रश्नोत्तर के झमेले से बचने के लिए उन्हीं के उत्तरपुरुषों ने लिखना शुरू किया- ष्मेरा नाम श्री... वन्द्योपाध्याय है अर्थात् में वंन्द्यघटी गाँव का पंडित हूँष्। उसी प्रकार वर्द्धमान के चाटुति गाँव से चट्टोपाध्याय, बाँकुड़ा जिले के श्मुखोटीश् गाँव से मुखोपाध्याय, वर्द्धमान जिले में गंगोरी/गांगुली गाँव से गंगोपाध्याय, वीरभूम के श्गड़गड़ीश् गाँव से गड़गड़ी, श्पर्कटीश् (पाकुड़) से पाकड़ाशी, मानभूम (पुरुलिया) के घोषली गाँव से घोषाल, हुगली के दीर्घाड़ी से दोर्घाड्गी, पतितुण्ड गाँव से पतितुण्डी। यह तो प्रारंभिक दिनों की बात। कालक्रम में ये ही पदवियाँ जातिवाचक और जातिद्योतक बन गयीं। अंततः इन पदवियों के कारण विभिन्न प्रकार की भेदबुद्धि पैदा हो गयी। पदवी के सम्बन्ध में वर्त्तमान समाज में क्या करना उचित है इसे विचारशील लोगों के लिए चिन्तन करके देखने की जरूरत है।‘

पुस्तक का एक रोचक उद्धरण- ... वहीं मछली को भोजन का अनिवार्य भाग बनाने वाले ब्राह्मण तथा गैर ब्राह्मण समस्त हिन्दू बंगालियों के लिए बकरे का मांस केवल देवी समक्ष दिये गए बलि के प्रसाद के रूप में ही यदा-कदा अनुमत था। इस मांस को भी बिना प्याज-लहसुन के श्निरामिषश् तरीके से पकाने का विधान था। ’निरामिष‘ माने शाकाहारी और ’सामिष’ याने मांसाहारी भोजन। स्वादलोलुप जमींदारों की बिगड़ी पीढ़ियों व उन्हें अनुसरण करने वालों के साथ ही अँग्रेजी तालीम याफ्ता युवकों ने हालाँकि इसका भरपूर उल्लंघन करना आरंभ कर दिया था, पर मुर्गी तब भी कठोरता के साथ हिन्दू रसोई से दूर ही रखी गई थी। मुर्गी व उसके अंडे मुसलमानी आहार थे, अंडों के शौकीन हिन्दुओं के लिए बतख के अंडे अनुमत थे। स्वाभाविक रूप से उन दिनों मुर्गियाँ केवल मुसलमानों के द्वारा पाली व खाई जाती थीं। किसी मुसलमान के घर पाली गई मुर्गी का उड़कर या दाना चुगते हुये भटक कर किसी हिन्दू के घर की ओर चले आना बड़े विवाद का कारण बन जाता था। (पेज-111) 

पुस्तक के एक संवाद है, ‘पुटी तो छोटी मछली को कहते हैं‘ (पेज-92)। इस शब्द की चर्चा प्रभात रंजन सरकार की पुस्तक वर्णविचित्रा में इस पंकार है- ‘शफरी/सफरी - ‘शफरी‘ शब्द का अर्थ है पोंठी मछली। शफरी या पोंठी मछली की बंगाल में 11 प्रजातियां हैं ... वर्तमान में क्षुद्राकृति पोंठी को कोई कोई तीती पोंठी कहा करते हैं ... गंभीरजलसंवारी रोहितादि न विकारी। गण्डूषजलमात्रेण शफरी फरफरायते।। ... बंगला भाषा में ‘शफरी‘ शब्द का अपर अर्थ ‘विदेशागत‘ अर्थात् विदेश से सफर करके जो आया है।‘ (पेज-154)। मेरी जानकारी में यह शब्द संस्कृत के ‘प्रोष्ठी‘ से आया है और प्रोष्ठी के लिए अनुमान होता है कि ओंठ के उपरी भाग का आकार।

ऐसा उपन्यास तब निकल कर आता है, जब लेखक को पाठक का ध्यान तो हो, मगर साहित्यिक प्रतिष्ठा पाने का दबाव न हो। प्रतिभू, कहानियां, उपन्यास से इतर लेखन भी करते रहे हैं, मगर अपनी लेखकीय सहजता पर कायम हैं, जो मुझ जैसे पाठक को उनके लेखन के प्रति आकर्षित करता है। प्रतिभू स्वयं को साहित्यकार नहीं मानते, बैंकिग पेशे से जुड़े रहे, पेशेवर लेखक-साहित्यकार होते तो मुझे लगता है कि कथा-क्रम का विकास करते हुए सूत्र के लिए प्रेम-कहानी का ताना-बाना लेते। उन्होंने ऐसा नहीं किया है, जबकि हरिप्रिया-पीयूष के साथ यह प्रेम-प्रसंग में यह संभावना थी। निहायत घरू-पारिवारिक माहौल के दैनंदिन जीवन की आशा-आकांक्षा और कुछ आशंकाओं को आधार बनाया है। लगता है यह स्वाभाविक है और यह इसी तरह आए, अलग से कोई पाठक-प्रलोभन न हो, गैर-पेशेवर होने के कारण आसानी से हो पाया है।

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