इतिहास, अपनी मान्य रूढ़ियों की सीमा के चलते निर्मम होता है। घटनाएं, उनका प्रलेखन, उनकी खोज, शोध और व्याख्या के पश्चात् खंडन-मंडन का अनवरत सिलसिला। इस कसौटी पर जो खरा उतरता है, वही इतिहास-स्वीकृत होता है, वरना खारिज। ऐसा इतिहास, पाठ्यक्रम की आवश्यक शर्त पूरी कर लेता है, किन्तु इतिहास में संशोधन करते, प्रतिदिन इतिहास रचते, मानव के लिए उसकी उपयोगिता अथवा कम से कम प्रासंगिकता का सवाल जरूर बना रहता है और मजेदार कि ऐसे प्रश्न, सामान्य जिज्ञासु के जितने होते हैं, उससे कहीं अधिक खुद इतिहासकार उठाते हैं इसलिए इतिहास-दर्शन या इतिहास-शास्त्र, इतिहास अध्ययन का जरूरी हिस्सा बन जाता है।
चारण-भाटों का साहित्य, राजाश्रय पाकर इतिहास की महत्वपूर्ण स्रोत-सामग्री के रूप में उपलब्ध होता है, घुमन्तू बारोटों की पहुंच भी दरबारों में होती थी, ये सभी इतिहास के लगभग अनिवार्य घटक हैं किन्तु वंशगत इतिहास को राजसत्ता का और पुराणों को धर्मसत्ता का इतिहास माना जाता है। धर्मसत्ता और राजसत्ता जनित, इतिहास के समानान्तर और बहुधा समवाय अर्थसत्ता सम्बद्ध होकर उसे दृढ़ता प्रदान करती है पर काल की धारा, इतिहास से कहीं अधिक निर्मम है। इसीलिए एक बार इतिहास-स्वीकृत, स्थापित होने पर भी उसके खारिज होने की संभावना बनी रहती है। क्या भरोसा, कब काल-पात्र गाड़ा जाए और कब उखड़ जाए या खो ही जाए। नामकरण, स्मारक-फलक और कालजयी मानी जाने वाली मूर्तियों के साथ कब क्या हादसा हो जाए ? स्वाभाविक ही इस परिवेश में उपाश्रयी (सब-आल्टर्न) इतिहास की चर्चा जोर पकड़ती है।
इस संदर्भ में देवारों का उल्लेख आने पर समझा जा सकता है कि जैसे गंगा-यमुना के साथ सरस्वती की अन्तर्धारा इसे त्रिवेणी बनाकर शाश्वत पवित्रता का सम्मान दिलाती है, उसी तरह देवारों की गाथाएं घटनाओं और उसके हाल-अहवाल के दबाव से मुक्त इतिहास हैं और इन गाथाओं के कवि-गायक देवार, इतिहास की अन्तर्धारा के संवाहक हैं। धर्म, राज और अर्थ तीनों सत्ताओं की अपेक्षा से स्वतंत्र, लोक-नायकों के इतिहासकार। देवार-गाथा को इतिहास का दर्जा भले न मिल पाए, लेकिन खंडन-मंडन से परे, देवार-गीतों में ऐसा इतिहास है, जिसकी प्रासंगिकता पर कभी प्रश्न-चिन्ह नहीं लगाया जा सकता और जो देवार, इतिहास की उपाश्रयवादी विचारधारा के जनक, साधक और कर्ता हैं।
प्रमाण-लाचार और तथ्य-शुष्क पाठ्यक्रम-योग्य इतिहास, देवार-गीतों में विद्यमान प्रसंगों के प्रति जैसा भी बर्ताव करे, इतिहास की अन्तर्धारा के संवाहक देवारों को उसकी कोई परवाह नहीं है। मानवीय-प्रवृत्तियों और सूक्ष्म मनोभावों को घटनाओं के ताने-बाने में जिस प्रकार देवारों ने रचा है, सुरक्षित रखा है, जन-जन तक पहुंचाया है वह अंजुरी भर ही हो, लेकिन समष्टि के कल्याण के लिए है, मंगलकारी है। इस दिशा में किया गया कार्य मंगलमय ही होगा।
(जून, 2003 में प्रकाशित डॉ. सोनऊराम निर्मलकर की पुस्तक 'देवार की लोक गाथाएं' के आमुख के लिए लिखे गए अपने आलेख से)
पुनश्चः
हबीब जी के नया थियेटर से परिचितों के लिए फिदाबाई (या फीताबाई) और किस्मतबाई देवरनिन गायक-कलाकारों के नाम नये नहीं, लेकिन इनमें डाक्टर से मास्टर तक, चपरासी से कलेक्टर तक और बिस्कुट, फोटो, लगेज, मनीबेग, किताब, तीतुर, रहिंचुल, घोटारी जैसे भी नाम लोकप्रिय हैं। कई मायनों में अनूठी है देवारों की रंगीनी, क्यों न हो, कहा जाता है-
चिरई म सुंदर रे पतरेंगवा, सांप सुंदर मनिहार। राजा म सुंदर गोंड़े रे राजा, जात सुंदर रे देवार।।
और- ककनी, बनुरिया अगवारिन मन के, मोहिनी ढिला गे देवारिन मन के।
काफी अच्छी और महत्वपूर्ण जानकारी मिली ..आभार आपका.
ReplyDeleteलोक गायक देवार से परिचय के बहाने आपने लोकगीतों और कथाओं में छुपी संस्कृति के पदचिन्हों की ओर भी इशारा किया है... कभी देवार की रचनाएँ भी पढ़वायेइगा
ReplyDeleteहर बार की तरह जब यहाँ आता हूँ ख़ाली हाथ लौटने का प्रश्न ही नहीं होता!!
ReplyDeleteमेरे लिए एकदम नयी जानकारी. मैंने देवार कि गाथाओं के विषय में इससे पहले कभी भी कुछ पढ़ा या सुना नहीं था. इस लेख के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteइस तरह की लोकगाथाएं की प्रासंगिकता पर कभी प्रश्न-चिह्न लग ही नहीं सकता। ये शाश्वत हैं। इन्हें जन-जन तक पहुंचाने का काम भी वंदनीय है।
ReplyDeleteआपके द्वारा दिए गए लिंक पर जाकर भी पढा।
ReplyDeleteबड़ा आनंद आया। एक दम अल्हा-रूदल की गति है इस गीत में।
छितकी कुरिया मुकुत दुआर, भितरी केंवटिन कसे सिंगार।
खोपा पारै रिंगी चिंगी, ओकर भीतर सोन के सिंगी।
मारय पानी बिछलय बाट, ठमकत केंवटिन चलय बजार।
आन बइठे छेंवा छकार, केंवटिन बइठे बीच बजार।
सोन के माची रूप के पर्रा, राजा आइस केंवटिन करा।
मोल बिसाय सब कोइ खाय, फोकटा मछरी कोइ नहीं खाय।
कहव केंवटिन मछरी के मोल, का कहिहौं मछरी के मोल।
देवारों की प्रामणिक पहचान उनका सांस्कृतिक ज्ञान हैं । जन-सामान्य में भी उनके इसी रुप की सर्वाधिक ख्याति हैं । इन्हें प्रतिष्ठा दिलवाने में गायन, वादन एवं नृत्य पर इनका अचूक अधिकार माना गया हैं । इस जन्म-जात और असाधारण कला-ज्ञान के चलते हर हमेशा से देवार जीवंत बने हुए हैं । जीवन के प्रत्येक पल में गीत नृत्य की खनक देवारों का जातीय गुण हैं । इनकी इसी विशेषता के दर्शन रोजमर्रा की दिनचर्या में सायंकाल के समय में डेरा में आसानी से कर सकते हैं । जीविकोपार्जन का एक ठोस माध्यम तो यह हैं ही, वाद्य, गायन एवं नर्तन इन तीन बिंदुओं के सहारे भी इनकी विशेषतायें समझी जा सकती है । सांगीतक भेद को आधार मानें तो रायपुरिहा और रतनपुरिहा देवारों की अलग-अलग पहचान हैं । जो इन्हें समझने में भी सहायक बनते हैं ।
ReplyDeleteचारण भाट शब्द सुने थे पर.......इतनी यहाँ इतनी अच्छी और विस्तृत जानकरी पाकर सब नया सा लगा ...... आभार
ReplyDeleteJaankaaree to khair hai hee badhiyaa,mai to aapke bhasha prabhutv se abhibhoot hun!
ReplyDeleteइतिहास, अपनी मान्य रूढ़ियों की सीमा के चलते निर्मम होता है।
ReplyDeleteलेकिन इतिहास अपना प्रभाव भी छोड़ जाता है और आगे आने वाली पीढ़ियों को आत्ममंथन का अवसर भी प्रदान करता है ...जानकारी और विश्लेषण इस लेख को ग्राह्य बना देते हैं ...आपका प्रयास प्रशंसनीय है
भैया,
ReplyDeleteजब मैं स्कूल जाता था तो रास्ते में देवारों का डेरा पड़ता था। जहाँ 10-15 खुंदरा (तंबु) बना होता था। वहाँ इनकी आपस में लड़ाई भी होते रहती थी। लड़ाई में प्रयुक्त गालियों के तो कहने ही क्या? नई नई गालियाँ सुनने और सीखने मिलती थी। एक पेड़ के नीचे खड़े होकर इनके युद्ध और शास्त्रीय गालियों का मजा लेते थे। इनकी गालियां शोध के लायक हैं।
फ़िर नाचा में देवरनिन नाच का तो कहना ही क्या था। 50 रुपए में तो रात से लेकर पहट तक फ़ुल मनोरंजन होता था।
मान्यवर!
ReplyDeleteआपका बलॉग अपने नाम ‘सिंहावलोकन’ को सार्थक करता है। इसे हम एक विशिष्ट कोष की संज्ञा दें तो कोई अत्युक्ति न होगी। इसके माध्यम से आप बहुमूल्य सांस्कृतिक, सामाजिक जानकारियाँ पाठकों तक पहँचाते है तथा सबका ज्ञानवर्द्धन करते हैं। इसके लिये हम आपके आभारी हैं।
आपने लोक-कथा के एक महत्त्वपूर्ण स्रोत से हमारा परिचय करवाया, इस ‘देवार’ के लिये धन्यवाद
इतिहास के पन्नों में कौन रह जाता है और क्यों रह जाता है, सुन्दर चित्रण।
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ में प्रारंभिक कक्षाओं के बच्चों के लिए लोकभाषा में पाठ्य सामग्री तैयार करने का कार्य जारी है। इसी सिलसिले में हमारे संस्थान के सहयोगी देवार-बोली में लोक कथाओं, गीतों के संकलन के लिए देवारों की बस्ती में गए। वहां एक अनोखी जानकारी प्राप्त हुई। देवार समुदाय का कहना है कि वे अन्य सवर्ण जातियों से उच्च जाति के हैं। उनके पूर्वज मूलतः देवस्थल के पुजारी थे, वहां दिया बारते थे। इसी कारण उनकी जाति दियाबार कहलाई जो कालांतर में दिबार और फिर देवार हो गई।
ReplyDeleteइस जाति के लोग परम्परा से गीत-संगीत-नृत्य के साधक होते हैं। आज इनकी कला घोर उपेक्षा का शिकार है। जब इनसे उनकी लोक कथाओं और लोकगीतों के संबंध में पूछा गया तो इनका उत्तर अनपेक्षित था, उन्होंने कहा- हम अब कुछ नहीं बताएंगे। हमारे गीतों को दूसरी जाति के लोग गा-गा कर बड़े आदमी बन गए और हम वहीं के वहीं हैं। आप लोगों ने हमारा गीत-संगीत हमसे छीन लिया, अब आप हमारी भाषा को भी छीनने आ गए।
उनका कहना बिल्कुल सही लगा। आज प्रतिभासम्पन्न किस्मत, साधना, पद्मा आदि देवार कलाकार उपेक्षित जीवन जीने को विवश हैं वहीं अन्य जाति के कलाकार उनके गीत-संगीत की सी.डी. बनाकर-बेचकर लाखों कमा रहे हैं।
छत्तीसगढ़ के देवारों पर भोपाल विधानसभा पुस्तकालय में एक मोनोग्राम पर नजर अटकी रही किन्तु अग्रज विधायकों से अनुरोध करने के बावजूद पढ़ने को नहीं मिल पाई थी सिर्फ कुछ पन्ने पलट के संतोष करना पड़ा था। डॉ.सोनउ राम निर्मलकर जी के इस किताब से मेरी देवारों के संबंध में जानने की उत्सुकता काफी हद तक पूरी हुई। इस ग्रंथ में आपके द्वारा लिखा गया आमुख शोध की प्रामाणिकता को सिद्ध करता है।
ReplyDeleteलिंक पर जा रहा हूं..
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण जानकारी .....आभार आपका.
ReplyDeleteराहुल जी,
ReplyDeleteलिंक पर अभी नहीं गया हूँ, विषय बहुत पसंद आया है। उपेक्षितजन हमेशा से अपने को श्रद्धेय लगे हैं और जो उनकी बात उठाये, वे और भी ज्यादा। आप पर श्रद्धा और बढ़ गई है।
महेन्द्र वर्मा जी की टिप्पणी की प्रशंसा न की जाये तो शायद आपकी पोस्ट की प्रशंसा अधूरी रह जायेगी। बहुत अच्छी जानकारी इस टिप्पणी के माध्यम से मिली, कह सकते हैं आपकी पोस्ट को विस्तार दिया गया।
आप दोनों का आभार, देवार पर जानकारी देने के लिये।
बहुत रोचक ओर अच्छी जानकारी जी धन्यवाद
ReplyDelete[देवार-गीतों में ऐसा इतिहास है, जिसकी प्रासंगिकता पर कभी प्रश्न-चिन्ह नहीं लगाया जा सकता।]
ReplyDeleteसता की शक्त्ति से परे, बिना किसी पक्षपात के मनमौजी तरीके से इतिहास को अपने में समेटने और जिंदा रखने वाली लोक-गीत परम्परा को सही महत्व मिलना चाहिये। देवार के बारे में आपका जानकारीपरक लेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा। क्या इन गीतों के संस्करण (ऑडियो या वीडियो) नेट पर उपलब्ध हैं?
जहां तक मुझे समझ आता है, जब गद्य नहीं था तब भी पद्य रहा ही होगा. धुर है सुर. जन्म के समय गीत गाने की परंपरा तो सुनी ही है, कहीं-कहीं आज भी मृत्यु पर भी गाया जाता है. सुर शिक्षा का मुंह नहीं ताका करता. कारण, सुर में गुथे होने के कारण कहीं आसान था इसे सहेज कर रखना व आने वाली पीढ़ियों को सौपना. न ही शिक्षा की बपौतीधारकों के तलुवे चाटने की ज़रूरत. गुना/बुना/सुना. बस. यहीं हैं वे परंपराएं जिन्हें आज मुझ सरीखे पढ़े लिखे लोग ज़िंदा रखने का फ़ैशन पाले हुए हैं. पहले शहर बसाएंगे फिर फ़िक़्र करेंगे कि -'हाय हाथी-शेरों की जगह कम हो गई.'
ReplyDeleteअच्छी जानकारी
ReplyDeleteआभार
बड़ा अच्छा लगा पढ़कर.....
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट....
ममता त्रिपाठी जी की बात से सहमत हूँ....
डा. निर्मलकर जी अउ बिलासा कला मंच ल बधाई.....देवारिन के मोहिनी दवई कस पोस्ट... पढे म मन मोहा गे
ReplyDeleteभईया चंदन पेड़ देवार लेख म बियंग सांप बनेच लपटाय हे, कलाकार सगा देवार मन के सांस्कृतिक योगदान ल नमन हे, आज घला सुसाइटी, अस्पताल सरकारी दफतर अउ नेता के आगू म ए समाज के दबंगई अनुकरणीय हे.... देवारिन के सात आठ लईका के बियाय के बावजूद ईंखर टन्नक शरीर अउ उर्जा के राज का पूछबे....बिन्दास जिनगी
gyanvardhak prastooti ke liye abhar...
ReplyDeletepranam.
इस जानकारी के लिए आपका दिल से आभार मानता हूँ...
ReplyDeleteनीरज
क्षमा करें मेरी टिप्पणी में मोनोग्राम की जगह मोनोग्राफ पढ़ें.
ReplyDeleteज्ञान के पक्ष विशेष के विवेचक / संग्राहक बतौर इतिहास का अपना अनुशासन है जिसे मान्य रूढियां कहा जाना किंचित खटकता है ! चारण भाटों का रचना कर्म ऐतिहासिक सूचना स्रोत के रूप में अगर खरा नहीं उतरता तो इसके लिए इतिहास के वैषयिक अनुशासन को दोषी नहीं ठहराया जा सकता ! इस परिप्रेक्ष्य में इतिहास की निर्ममता ,प्रमाण-लाचार ,तथ्य-शुष्क पाठ्यक्रम के संकेत भी अपनी असहमति के बिंदु माने जायें !
ReplyDeleteमेरा आशय यह है कि हर विषयवस्तु को इतिहास या फिर विज्ञान होने की बाध्यता नहीं है वो अमानकीकृत ही सही 'स्वयं के स्वभाव और गुण धर्म' वाले कथ्य अथवा ज्ञान अंश के रूप में स्वीकारी जा सकती है !
अस्तु देवारों के गीत या कहानियां को उनकी निज गुणधर्मिता से पहचाना जाए ,यही उनकी मौलिक अस्मिता होगी ! वे अगर लोक जीवन के कलकल बहते झरने हैं तो उन्हें इसी रूप में स्वीकार किया जाये ! इस तर्ज के साहित्य /सृजन कर्म को इतिहास जैसे विषय विशेष के खांचे में जबरिया बैठाया जाना अपरिहार्य नहीं है !
बहोत बहोत धन्यवाद सर इस महत्वपूर्ण जानकारी केलिए.खास करके आप जो सब-आल्टर्न हिस्टरी चर्चा किए.आभार आपका. बमैंने देवार कि गाथाओं के विषय में आप की इस पोस्ट की माध्यम से बहोत कुछ जानकारी मिला .
ReplyDeleteधन्यवाद अली जी,
ReplyDeleteआपसे ऐसी ही गंभीर (असहमतिपूर्ण) टिप्पणी अपेक्षित थी. मैंने वस्तुतः दो बिंदुओं पर जोर डालना चाहा है- पहला इतिहास विज्ञान और दूसरा उपाश्रयी इतिहास.
इतिहास अध्ययन के आधुनिक सोच से ही ये दोनों अवधारणाएं निकली हैं, इसीलिए जिसे आप 'इतिहास का अपना अनुशासन' कहते हैं, मैंने उसे 'मान्य रूढि़यां' कहा है.
साथ ही इतिहास के मौन और अंधकार पक्षों को पूरने के लिए लोक-प्रचलित किंवदंतियों को सम्मानपूर्वक आधार बनाया जाता है, वह सदैव इतिहास का पूरक ही है, विरोधी नहीं, जैसा कई बार अनावश्यक ढंग से मान लिया जाता है.
यह भी कि उपाश्रयी इतिहास की अवधारणा और आवश्यकता के लिए सहमत हो कर, यह देवारों में रही है, मानने में अड़चन क्यों होती है. इस दृष्टि से वाजिब हकदार को श्रेय देने का प्रयास है यहां.
प्रसंगवश, ईश्वरसिंह बैस की भी याद दिलाना चाहूंगा, जिन्होंने 'आम आदमी इतिहास के आईने में' लिखा, किंतु उनके काम को भी इसी तरह हिन्दी में किए गए उपाश्रयी इतिहास के आरंभिक और महत्वपूर्ण काम के रूप में पर्याप्त पहचान नहीं मिली.
इतिहास की शास्त्रीयता का पक्ष रखने के नाते आपकी असहमति के प्रति सम्मान, और इसकी वजह से इन कुछ बातों को स्पष्ट करने का आपने संदर्भ उपलब्ध कराया, इसलिए विशेष आभार.
achha aalekh... pahli baar aane ka mauka mila... aata rahunga..
ReplyDeletedewaron ke baare me nayee tarah ki jaankari uplabdh karaane ke liye dhanyavaad .....
ReplyDeleteऐसी ही नित-नई शोधपरक जानकारियों की दरकार हम सभी को है. साभार !
ReplyDeleteइस आलेख के साथ ही अली-राहुल सम्वाद भी ज्ञानवर्धक रहा. साथ ही एक पिछले आलेख का पठन सुख भी. धन्यवाद!
ReplyDeleteक्या कहूँ... बस ज्ञान का बहता सोता है आपका ब्लॉग... जब भी आके डुबकी लगाता हूँ, अच्छा और तरोताज़ा महसूस करता हूँ...
ReplyDeleteमौखिक इतिहास की स्थिति तो देवार गीतों को सहज ही प्राप्त है.
ReplyDeleteनिरंजन महावर जी , रायपुर ,ने भी मानव संग्रहालय के सहयोग से एक पुस्तिका तैयार की थी.
श्री राहुल सिंह जी के सौजन्य से मल्हार गाँव में एक देवार गायक का सुनना भी हो पाया था.
जानकारी परक लेख. आभार
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट और उसपर आई सार्थक टिप्पणियाँ...
ReplyDeleteलिंक पढ़ने से पहले....टिप्पणियों से ही कितनी सारी जानकारियाँ मिल गयीं...अब तक बस नाम ही सुना था...और यहाँ ज्ञान का भण्डार ही खुला पड़ा है.
हर पोस्ट संग्रहणीय बन जाती है.
अच्छी जानकारियों से भरी पोस्ट। राहुल जी आपका धन्यवाद कि आपने अपने प्रदेश की इस विधा को करीब से जानने का अवसर दिया।
ReplyDeleteडॉ. अखिलेश त्रिपाठी जी का ईमेल संदेश-
ReplyDeletedevar geet ha mai devar man sahi nandawat he thakur. pachhu saal haman mahasamund ma khoj maaren. ek jhan milis tauno ha band baja party ma bharti ho ge rahis. ab na dera wale devar na devarin naach.TAIHA KE BAAT LA BAIHA LEG GE GAAAAAA..........Kala bataabe thakur kuchhu udim karo bhai vibhag dahar le.
फेसबुक पर प्राप्त टिप्पणीः
ReplyDeleteRajesh Bhatnagar commented on your post.
Rajesh wrote: "देवार की लोक गाथाओं, गीतों का ज़िक्र लोक कलाओ की महत्ता एवं उन्हें जीवित रखने की भावना प्रकट करता है. लोक संस्कृति हमारे इतिहास की जान हैं."
सिलसिलेवार फिर से बहुत सारी खुबसूरत जानकारियां देने का बहुत - बहुत शुक्रिया |
ReplyDeleteज्ञानवर्धक पोस्ट |
Rahul Bhaiya
ReplyDeleteChhattisgarh ka avlokan Simhavlokan ke madhyam se jo aap karva rahe hai vah vandaniya hai, abhinandaniya hai. Apko sadhuvad.
Badhte rahe, likhate rahe
Chhattisgarh ka itihas gadhte rahe
Hum ho na ho, kal to hoga
Yahi to itihas ke panno me darj hoga
Samay mile to Sarokar blog dekhiyeja aur college ka bhi blog hai
www.govtmlscollegeseepat.blogspot.com
dhanyavad