Saturday, September 6, 2025

टैगोर का छल

रवीन्द्रनाथ टैगोर (ठाकुर/ठाकूर या पूर्वज ‘कुशारी‘) का जन्म 6 मई 1861 को, उनकी पत्नी भवतारिणी उर्फ मृणालिनी देवी (विवाह पश्चात नाम) का जन्म 1 मार्च 1874 को, विवाह 9 दिसंबर 1883 को हुआ। उनकी संतानों क्रमशः मधुरिलता-बेला, रथीन्द्रनाथ-रथी, रेणुका-रानी, मीरा-अतासी तथा शमीन्द्रनाथ-शमी (बंगाली परंपरा का भालो-डाक नाम) का जन्म 1886 से 1896 के बीच हुआ, इसके बाद मृणालिनी देवी अस्वस्थ होती रही, 22 दिसंबर 1901 को ब्रह्म विद्यालय (शांति निकेतन स्कूल) की स्थापना के बाद गंभीर रूप से अस्वस्थ हुईं और 23 नवंबर 1902 को उनकी मृत्यु हुई। 1902 से 1907 के बीच पत्नी मृणालिनी के अलावा पुत्री रेणुका, पिता देवेन्द्रनाथ, छोटे पुत्र शमीन्द्रनाथ की तथा इसके बाद 1918 में बड़ी पुत्री मधुरिलता की मृत्यु हुई।

मृणालिनी की मृत्यु के अगले दिनों में पत्नी की याद में टैगोर ने लगभग प्रतिदिन कविताएं लिखीं, इन 27 कविताओं का संग्रह मोहितचन्द्र सेन के सम्पादकत्व में, रवीन्द्र काव्यग्रन्थ के छठे भाग में और ‘स्मरण‘ शीर्षक से स्वतंत्र काव्यग्रन्थ के रूप में मृणालिनी की मृत्यु के बारह वर्ष बाद 1914 में प्रकाशित हुईं। इस क्रम में टैगोर का अन्य संग्रह ‘पलातका‘ 1918 में प्रकाशित हुआ, लगभग 146 पंक्तियों, 11 पैरा और 830 शब्दों की लंबी, संग्रह की चौथी कविता ‘फाँकि‘ है। इस कविता में पात्र बीनू की अस्वस्थता, उसके साथ ‘मैं‘ की रेलयात्रा और बिलासपुर रेल्वे स्टेशन, झामरु कुली की पत्नी हिन्दुस्तानी लड़की रुक्मिनी का उल्लेख है। कविता में ‘बिलासपुर स्टेशन‘ नाम तीन बार इस तरह आता है। कविता ‘फाँकि‘ लगभग 45 साल पहले इन पंक्तियों- ‘बिलासपुर स्टेशन से बदलनी है गाड़ी, जल्दी उतरना पड़ा, मुसाफिरखाने में पड़ेगा छः घंटे ठहरना‘ के साथ चर्चा में आई।

26 दिसंबर 1983 को ए.के. बैनर्जी मंडल रेल प्रबंधक, बिलासपुर के पद पर आए। वे साहित्य में रुचि रखने वाले और प्रसिद्ध फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी के दामाद थे। बिलासपुर पदस्थापना के साथ उन्हें टैगोर की कविता ‘फाँकि‘ याद आई और उन्होंने बिलासपुर रेल्वे स्टेशन के मुख्य प्रवेश के बाईं ओर प्लेटफार्म 1 पर, वीआइपी वेटिंग लाउंज के साथ कविता की इन पंक्तियों को रवीन्द्रनाथ टैगोर के चित्र के साथ खास फलक बनवा कर समारोह पूर्वक स्थापित किया। यह आकर्षण का कारण बना और इसकी चर्चा बिलासपुर और खासकर पेंड्रा में होने लगी, जिसमें टैगोर के बिलासपुर होते पेंड्रा जाने, वहां पत्नी का इलाज, पेंड्रा में ही उनकी पत्नी की मृत्यु और उसके बाद अकेले वापस लौटने की बात होने लगी, जिसका आधार यह कविता थी। कविता में आए नाम बीनू को टैगोर की पत्नी मृणालिनी देवी और ‘मैं‘ को साहित्यिक अभिव्यक्ति के पात्र प्रथम पुरुष के बजाय टैगोर स्वयं के साथ निर्मित और घटित स्थिति मान लिया गया।


वेब पर मीडिया के विभिन्न यूट्यूब रिपोर्ट/स्टोरी तथा महीनों पेंड्रा में इलाज और इस दौरान रवीन्द्रनाथ टैगोर की पत्नी मृणालिनी-बीनू का देहांत हो गया ... इसी सैनेटोरियम में रविंद्रनाथ की पत्नी के शरीर को मिट्टी दी गई और समाधि बनाई गई ... जैसी ढेरों खबरें मिल जाती हैं। अब बिलासपुर स्टेशन पर पूरी बांग्ला कविता हिंदी और अंग्रेजी अनुवाद सहित लगाई गई है, जिस पर अंकित है- ‘यह कविता कविगुरु श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा सन 1918 में बिलासपुर स्टेशन के प्रतीक्षालय में लिखी गई।

और फिर 10.12.2012 को रवीन्द्रनाथ ठाकुर का 5 रुपये का डाक टिकट, बिलासापेक्स, विशेष आवरण सहित जारी हुआ, जिसमें अंकित है- ‘रविन्द्र नाथ टैगोर एवं उनकी धर्म पत्नी श्रीमती मृणालिनी देवी सन् 1900 में अपनी एक यात्रा के दौरान बिलासपुर स्टेशन के प्रतीक्षालय में छः घंटा रुके। उन्होंने इसका वर्णन अपनी एक कविता में किया है।‘ एक कविता में किया है।‘ जिला अस्पताल सैनेटोरियम परिसर परिसर में रविन्द्र नाथ टैगोर वाटिका, संग्रहालय निर्माण एवं गुरुदेव की मूर्ति का अनावरण, दिनांक 07.05.2023 को होने का शिलान्यास शिलापट्ट लगा है और जुलाई 2023 में परिसर के बरगद के पेड़ को काटने का विरोध हुआ कि टैगोर इस पेड़ के नीचे बैठते थे।

कविता के रचना काल, स्थान और बिलासपुर यात्रा के वर्ष की विसंगतियों के बावजूद यह बात चल पड़ी। मगर इसके पहले 2008 में ही ऐसा माना जाने लगा था, इसी साल रमेश अनुपम संपादित ‘जल भीतर इक बृच्छा उपजै‘ पुस्तक का पहला संस्करण आया, जिसकी तीसरी आवृत्ति, 2012 में नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हो चुकी है। पुस्तक के प्रवासी खंड में रवींद्रनाथ टैगोर की कविता फॉकि (बांग्ला), उत्पल बॅनर्जी के हिंदी अनुवाद ‘छलाना‘ (न कि छलना या छलावा) सहित प्रकाशित है, साथ ही लंबी पाद-टिप्पणी है, जिसमें बताया गया है कि कविगुरु मृणालिनी देवी को लेकर छत्तीसगढ़ आये। छत्तीसगढ़ का पेंड्रारोड उस समय क्षय रोग चिकित्सा के लिए संपूर्ण एशिया में विख्यात था।‘ ... उस जमाने में (सन 1901) में ... वे पेंड्रारोड में दो महीने तक रुके ... मृणालिनी देवी मात्र तेईस वर्ष की अल्पायु में कविगुरु को अकेले छोड़कर अनंत में विलीन हो गईं। पेंड्रारोड का विश्वविख्यात टी.बी. सैनेटोरियम तथा यहां की जलवायु भी मृणालिनी देवी को मृत्यु के चंगुल से नहीं बचा सका।

यहां भी पेंड्रा यात्रा-प्रवास का वर्ष 1901, तथा ‘मृणालिनी देवी मात्र तेईस वर्ष की अल्पायु‘ जैसी विसंगति है। मगर इन सबके बीच यह मान लेना कि बीनू, रवीन्द्रनाथ टैगोर की पत्नी मृणालिनी देवी का नाम हैं (जो किसी स्रोत से पुष्ट नहीं होता), ‘फाँकि‘ कविता का ‘मैं‘ स्वयं कवि है और यह संस्मरणात्मक, आत्मकथ्यात्मक अभिव्यक्ति है, के औचित्य पर विचार करने के लिए टैगोर से संबंधित अधिकृत और विश्वसनीय स्रोतों को देख लेना आवश्यक है, ऐसे स्रोतों में आए संबंधित कुछ उल्लेख आगे दिए जा रहे हैं-

रवीन्द्रनाथ टैगोर के पुत्र रथीन्द्रनाथ टैगोर की पुस्तक ‘ऑन द एजेस ऑफ टाइम‘ के विश्व-भारती द्वारा प्रकाशित जून, 1981 के द्वितीय संस्करण, पेज-52 पर मृणालिनी देवी को शांति निकेतन से इलाज के लिए कलकत्ता लाने, डॉक्टरों द्वारा आशा छोड़ देने के साथ मां मृणालिनी देवी की मृत्यु के दौरान सभी पांच संतानों का वहां होने का उल्लेख है।

कृष्ण कृपलानी (टैगोर की तीसरी बेटी मीरादेवी की बेटी नंदिता के पति) की बहु-प्रशंसित ‘रबीन्द्रनाथ टैगोर, ए बॉयोग्राफी‘ 1980 का संस्करण विश्व-भारती कलकत्ता ने प्रकाशित किया है। पेज 201 पर उल्लेख है कि शांति निकेतन में नया निवास मिलने के कुछ माह बाद ही मृणालिनी देवी गंभीर रूप से बीमार हुईं और उन्हें कलकत्ता लाया गया, जहां 23 नवंबर 1902 को उनकी मृत्यु हो गई।

विश्व भारती द्वारा प्रकाशित रवीन्द्रनाथ टैगोर के पत्र-व्यवहार के प्रथम खंड (तीसरा संस्करण बंगाब्द 1400 यानि 1993-94) में मृणालिनी देवी को लिखे पत्र हैं, इस पुस्तक के अंत में मृणालिनी देवी के जीवन की प्रमुख तिथियां-घटना दी गई हैं, जिसके अनुसार उन्हें 12 सितम्बर 1902 इलाज के लिए कलकत्ता लाया गया। 23 नवम्बर 1902 जोरासांको महर्षि भवन में निधन हो गया।

1998 में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा राष्ट्रीय जीवनचरित श्रृंखला में कृष्ण कृपलानी की पुस्तक का अनुवाद रणजीत साहा प्रकाशित ‘रवीन्द्रनाथ ठाकुर एक जीवनी‘ में पेज 116-117 पर ‘शांतिनिकेतन में, अपना नया घर पाने के कुछ ही दिनों के अंदर रवीन्द्रनाथ की पत्नी मृणालिनी देवी गंभीर रूप से बीमार पड़ीं । उन्हें कलकत्ता ले जाया गया और जहां 23 नवंबर 1902 को उनका निधन हो गया। ... ‘किसी पेशेवर नर्स को बहाल न कर उन्होंने लगातार दो महीने तक रात और दिन उनकी सेवा की। उन दिनों बिजली के पंखे नहीं हुआ करते थे और उनके समकालीन साक्ष्यकारों ने इस बात को दर्ज करते हुए बताया है कि हर घड़ी कैसे उनके सिरहाने उपस्थित रवीन्द्रनाथ हाथ में पंखा लिए हुए लगातार धीरे धीरे झलते रहे थे। जिस रात को उनका निधन हुआ, वे पूरी रात अपनी छत की बारादरी के ऊपर नीचे घूमते रहे और उन्होंने सबसे कह रखा था कि उन्हें कोई परेशान न करे।‘

रंजन बंद्योपाध्याय की पुस्तक ‘आमि रवि ठाकुरेर बोउ‘ का शुभ्रा उपाध्याय द्वारा किया हिंदी अनुवाद ‘मैं रवीन्द्रनाथ की पत्नी‘ (मृणालिनी की गोपन आत्मकथा) प्रकाशित हुई है। पुस्तक के परिचय (2013) में स्पष्ट किया गया था- ‘मृणालिनी अपनी गोपन आत्मकथा में क्या लिखतीं? इस उपन्यास में वही सोचने की कोशिश की गई है।‘ मगर इस पुस्तक का ‘उपसंहार‘ उल्लेखनीय है, जिसमें बताया गया है कि मृणालिनी देवी को चिकित्सा के लिए 12 सितंबर 1902 को कलकत्ता ला कर जोड़ासाँको में रवीन्द्रनाथ की लालबाड़ी के दूसरे तल पर एक कमरे में रखा गया। ... मृणालिनी की स्थिति 17 नवंबर को आशंकाजनक हो गई। 23 नवंबर, 1902 को जोड़ासाँको की बाड़ी में मृणालिनी के जीवन का अवसान हुआ। दो महीने ग्यारह दिन उन्हें कलकत्ता में मृत्युशैया की यंत्रणा भोगनी पड़ी।

विकीपीडिया तथा द स्कॉटिश सेंटर आफ टैगोर स्टडीज के वेबपेज के अनुसार- मृणालिनी देवी 1902 मध्य में बीमार पड़ गईं, जबकि परिवार शांतिनिकेतन में एक साथ रहता था। इसके बाद, वे और रवींद्रनाथ 12 सितंबर को शांतिनिकेतन से कलकत्ता चले गए। डॉक्टर उनकी बीमारी का निदान करने में विफल रहे और 23 नवंबर की रात को 29 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। उनके बेटे रथिंद्रनाथ ने बाद में अनुमान लगाया कि उनकी मां को एपेंडिसाइटिस था।

रामानंद चटर्जी द्वारा संपादित रवीन्द्रनाथ टैगोर के सत्तरवें जन्मदिन पर 1931 में प्रकाशित ‘द गोल्डन बुक आफ टैगोर‘ में ‘ए टैगोर क्रानिकल: 1861-1931‘ में मृणालिनी देवी से विवाह और उनकी मृत्यु का उल्लेख है, मगर मृत्यु का स्थान नहीं दिया गया है। इसी तरह 1961 में सत्यजित राय ने फिल्म्स डिवीजन के लिए रवीन्द्रनाथ टैगोर पर 51 मिनट का वृत्तचित्र बनाया है, जिसमें उनके विवाह तथा पत्नी की मृत्यु का उल्लेख है, स्थान का नहीं। इन स्रोतों में मृत्यु के स्थान का उल्लेख न होने का कारण यही हो सकता है कि मृणालिनी देवी की मृत्यु उनके मूल स्थान के अलावा कहीं अन्य नहीं हुई थी। यों 'साक्ष्य का अभाव अनुपस्थिति का साक्ष्य नहीं माना जाता' फिर भी उल्लेखनीय है कि माधवराव सप्रे ने पेंड्रा से जनवरी 1900 में ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘ पत्रिका निकालना शुरू किया, यह पत्रिका दिसंबर 1902 तक निकलती रही। टैगोर के पेंड्रा की अवधि भी 1902 के अंतिम कुछ माह माना जाता है, ऐसे में सप्रे जी की पत्रिका में इसका कोई उल्लेख न होना प्रासंगिक तथ्य है।

इस तारतम्य में पेंड्रा रेल लाइन और सैनेटोरियम संबंधी तथ्यों की पड़ताल प्रासंगिक होगी, इनमें-

1910 के बिलासपुर जिला गजेटियर पेज 336 पंडरीबन या पेंड्रा, जमींदारी में सैनेटोरियम का उल्लेख नहीं है, मगर पेज 248 पर मेडिकल शीर्षक के अंतर्गत पेंड्रा अस्पताल में पुरुष एवं महिला के लिए दो-दो बिस्तर वाले अस्पताल की जानकारी है। पेज 69 पर क्षयरोग का उल्लेख है, मगर सैनेटोरियम का नहीं, जबकि मुंगेली और चांपा के कुष्ठ आश्रम का उल्लेख है। पेज 338 पर उल्लेख है कि एक जोगी और उसके दो विशाल सर्पों ने ‘खोडरी टनल‘ काटने पर आपत्ति की और उनके शापवश बड़ी संख्या में मजदूर रोगग्रस्त हो कर मर गए।

1923 के ‘बिलासपुर वैभव‘ पेज 73 पर व्यापार के अंतर्गत उल्लेख है कि ‘सन् 1891 में जबसे कटनी लाइन खुली है ...‘ पेज 105 पर पेंडरा शीर्षक के अंतर्गत उल्लेख है कि गौरेला और पेंडरा के बीच मिस लांगडन का क्षयरोगाश्रम है। पुनः पेज 136 पर ‘पेंडरा जमींदारी का जलवायु शीतल है। इसे बिलासपुर जिले की पंचमढ़ी समझिये। गौरेला और पेंडराके बीच मिस लांगडनका क्षयरोगाश्रम देखने योग्य है।‘

1978 के बिलासपुर जिला गजेटियर में पेज 244 बिलासपुर रायपुर सेक्शन 1881 में, बिलासपुर रायगढ़ सेक्शन 1890 में, बिलासपुर बीरसिंहपुर सेक्शन 1861 में (!) आरंभ होने का उल्लेख है। साथ ही पेज 519 पर क्रिश्चियन मिशन द्वारा संचालित तथा मध्यप्रदेश सरकार और प्रादेशिक रेड क्रास सोसाइटी से सहायता प्राप्त सैनेटोरियम तथा टी.बी. के इलाज के लिए माकूल जलवायु का उल्लेख है।

राष्ट्रीय तपेदिक उन्मूलन कार्यक्रम के वेबपेज की जानकारी के अनुसार देश का पहला ओपन एयर सैनेटोरियम अजमेर के पास तिलुआनिया (तिलौनिया) में 1906 में स्थापित हुआ। ऐसी स्थिति में पेंड्रा में आबोहवा बदलने के लिए मरीजों का आना संभव है मगर उपरोक्त उद्धरणों के आधार पर निष्कर्ष आसानी से निकालता है कि सैनेटोरियम 1910 से 1923 के बीच (वस्तुतः 1916) बना।

कटनी रेलखंड पर गाड़ी परिचालन 1891 में आरंभ होने की जानकारी मिलती है, मगर इसके साथ दुविधा रह जाती है कि रेलवे रिकार्ड्स में 1907 में पहले-पहल भनवारटंक टनेल डाउन का निर्माण हुआ तथा इस खंड में रेल लाइन के दोहरीकरण का कार्य 1960-65 के बीच हुआ और भनवारटंक टनेल अप यानि इस लाइन पर नये दूसरे बोगदा का निर्माण 1965-66 में होना, पता चलता है। ऐसी स्थिति में 1907 के पहले बिलासपुर से पेंड्रा का रेल लाइन संपर्क कैसे संभव हुआ होगा?

अंततः ‘फाँकि‘ कविता की पहली पंक्ति ‘बिनुर बयस तेइश तखन‘ यानि नाम बीनू और उसकी उम्र तेइस कहा गया है, यह दोनों ही बातें टैगोर की पत्नी मृणालिनी से मेल नहीं खातीं, क्योंकि भवतारिणी उर्फ मृणालिनी का अन्य नाम बीनू था ऐसा पुष्ट नहीं होता (अन्य संबोधन ‘छोटो बोउ‘, ‘छूटी‘ या ‘छुटि‘ जैसा पत्रों में संबोधन है) और इस समय यानि 1902 में मृणालिनी (जन्म 1874, कहीं 1872/1876 मिलता है) की उम्र 23 वर्ष भी नहीं बैठती। पत्नी के निधन की कविताएं ‘स्मरण‘ में हैं और ‘फाँकि‘ कविता 1918 में प्रकाशित संग्रह ‘पलातका‘ में शामिल है, और इस कविता की रचना तिथि न होने से इसे 1918 या उसके कुछ पहले की रचना मानना उचित होगा।

संजुक्ता दासगुप्ता, टैगोर साहित्य की गंभीर अध्येता और अंगरेजी अनुवादक हैं। उनकी पुस्तक ‘इन मेमोरियम स्मरण एंड पलातका‘ 2020 में साहित्य अकादेमी से प्रकाशित हुई है, जिसमें मृणालिनी देवी की याद में टैगोर द्वारा लिखी ‘स्मरण‘ की 27 कविताएं का तथा ‘पलातका‘ की 15 कविताओं का अंगरेजी अनुवाद है। पलातका की कुछ अन्य कविताओं सहित फांकी के लिए अनुवादक की टिप्पणी प्रासंगिक और मारक है, जिसमें वे कहती हैं कि ‘पितृसत्तात्मक व्यवस्था में विवाह संस्था आजीवन कठोर कारावास की तरह प्रतीत होती है जहाँ घरेलू श्रम और प्रजनन श्रम को आश्रित महिलाओं के वांछित लक्ष्य और मिशन के रूप में महिमामंडित किया जाता है। मुक्ति, चिरादिनेर दागा, फांकी, निष्कृति, कालो मेये, हारिये जाओ जैसी कविताएँ लैंगिक मुद्दों के प्रति मुखर अभिव्यक्ति हैं।‘

कविता में बिलासपुर स्टेशन का नाम है, मगर वहां से गाड़ी बदल कर आगे जाने की बात के साथ पेंड्रा का नाम नहीं आया है। 1902 में पेंड्रा में अस्पताल जरूर था, जैसा कि 1909-10 के गजेटियर से पता लगता है। साथ ही देश का पहला सैनेटोरियम तिलुआनिया (तिलौनिया) में 1906 स्थापित होने का तथ्य असंदिग्ध है। ‘द इंडियन मेडिकल गजट, जुलाई 1945, पेज 369 से निश्चित जानकारी मिल जाती है कि पेंड्रा सैनेटोरियम स्थापना वर्ष 1916 है, यह पेंड्रा के लोगों की स्मृति में स्थायी रूप से दर्ज साधू बाबू अर्थात् मन्म्थनाथ बैनर्जी के साथ जुड़ा है, वे कलकत्ता, प्रेसिडेंसी कॉलेज से दर्शनशास्त्र में उपाधिधारी थे और पढ़ाई में सुभाषचंद्र बोस से एक कक्षा आगे होना बताया करते थे। टीबी के इलाज के लिए 1917 में सैनेटोरियम लाए गए बताए जाते हैं और फिर स्वस्थ हो कर पूरा जीवन यहां बिताया। साधू बाबू की मृत्यु 8 अगस्त 1982 को हुई। 16 जुलाई 1954 को शिलान्यास हुआ पेशेन्ट्स रिक्रिएशन हॉल अब उनके नाम पर साधू हॉल नाम से जाना जाता है।

पेंड्रा निवासी एक अन्य बुद्धिजीवी डॉ. प्रणब कुमार बैनर्जी लगभग 25 वर्ष की उम्र में 1961 में यहां आए, 2018 में उनकी मृत्यु हुई। वे साधू बाबू से नियमित संपर्क में रहे थे, उन्होंने ही अविवाहित रहे साधू बाबू को मुखाग्नि दी थी। डॉ. प्रणब जी से व्यक्तिगत संपर्क के दौरान मैंने टैगोर के पेंड्रा प्रवास के बारे में जिज्ञासा की थी, उन्होंने स्वयं अपनी तथा साधू बाबू से होने वाली उनकी चर्चाओं में ऐसी किसी बात को अपुष्ट माना था, अब पुनः डॉ. प्रणब के पुत्र प्रतिभू जी ने भी बताया कि ऐसी कोई बात अपने पिता से उन्होंने नहीं सुनी।

कटनी रेलखंड पर 1891 में रेल परिचालन की जानकारी मिलती है साथ ही बिलासपुर बीरसिंहपुर सेक्शन, जिसके बीच बोगदा और पेंड्रारोड स्टेशन है, 1861 (!) में आरंभ होने का उल्लेख मिलता है किंतु बोगदा निर्माण 1907 में होने का तथ्य, विसंगतियों के कारण पहले पेंड्रा-बिलासपुर के रेल से से जुड़ा होना स्पष्ट नहीं होता और संदेह का कारण बनता है।

इस तरह टैगोर का पत्नी के इलाज के लिए 1902 में पेंड्रा आना और यहां उनकी पत्नी की मृत्यु की बात, मात्र एक काव्य रचना के आधार पर स्वीकार किया जाना उचित प्रतीत नहीं होता और विशेषकर तब, जब सारे प्रामाणिक स्रोतों में इसके विपरीत तथ्य हैं। यों यह रचना विवरण-मूलक है किंतु ‘मैं‘ बीनू के साथ, बिलासपुर स्टेशन पर गाड़ी बदल कर कहां जा रहा है या वापसी में ‘मैं‘ के अकेले होने का कारण, बीनू को कहीं छोड़ आना है या बीनू की मृत्यु? यह कुछ कविता में नहीं आता, इसलिए भी इसे आत्मकथ्यात्मक यात्रा-विवरण मानना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता और जैसा कहा जाता है- ‘साहित्य का ‘मैं‘ सदैव बहुवचन ही होता है।‘ इस कविता के ‘मैं‘ को भी इसी तरह देखना चाहिए। 

मेरा अनुमान है कि किसी व्यक्ति ने बिलासपुर हो कर आगे जाने की ‘फाँकि‘ कविता से मिलती-जुलती अपनी रामकहानी टैगोर को सुनाई होगी, उसकी पीड़ा को अपने अनुभवों के साथ जोड़ कर टैगोर ने इस कविता को रचा होगा, जिसमें ‘मैं‘ के कारण इसे स्वयं उनका संस्मरण मान कर, पत्नी के इलाज के लिए स्वयं उनके बिलासपुर होते पेंड्रा आने और यहां पत्नी के निधन की बात प्रचलित हो गई, जो पूरी तरह काव्यात्मक अभिव्यक्ति मानी जानी चाहिए, क्योंकि तथ्यों से मेल नहीं खाती।

प्रसंगवश-

0 कविता ‘फाँकि‘ में बिलासपुर का नाम आया है। यों छत्तीसगढ़ में ही एकाधिक बिलासपुर हैं, अन्य प्रदेशों के इस स्थान-नाम में हिमांचल का जिला मुख्यालय बिलासपुर प्रमुख है, मगर पुराना जंक्शन वाला रेल्वे स्टेशन होने के कारण छत्तीसगढ़ का यही बिलासपुर होना निश्चित किया जा सकता है। इसके साथ कविता में रुक्मिणी के चले जाने के संदर्भ में तीन अन्य स्थान-नाम ‘दार्जिलिंग, खसरुबाग और आराकान‘ आए हैं। उसका यह प्रवास संभवतः मजदूरी के लिए हुआ। बिलासपुर अंचल से श्रमिक पुराने समय से प्रवास पर ‘कमाने-खाने‘ जाते रहे हैं, उनमें कुछ लौट कर आ जाते हैं और बड़ी संख्या है, जो प्रवास के बाद वहीं टिक जाते हैं। इस क्षेत्र से कालीमाटी अर्थात जमशेदपुर, जहां अब सोनारी में छत्तीसगढ़ियों की बड़ी बस्ती है, ‘कोइलारी-कलकत्ता के अलावा कंवरू-कौरूं यानि असम प्रवास होता रहा है। संभव है उस दौर में अधिकतर प्रवास कविता में आए तीनों स्थान-नामों में होता रहा होगा।

0 कविता ‘फाँकि‘ में रुक्मिनी को ‘हिन्दूस्तानि मेये’ कहा गया है। जैसा बांग्ला-जन द्वारा गैर-बांग्ला भारतीय के लिए सामान्यतः इस्तेमाल किया जाता है, जो सहज प्रवाह में यहां भी आया है। बिलासपुर स्टेशन पर लगे अनुवाद में ‘हिन्दुस्तानी लड़की‘, संजुक्ता दासगुप्ता के अंगरेजी अनुवाद में ‘हिन्दुस्तानी गर्ल‘ है, मगर उत्पल बॅनर्जी ने इसका ‘गैर बंगाली लड़की‘ किया है। इस पर विचार करें- गैर बंगाली यानि जो पूर्व-पश्चिम बंगाल निवासी या बांग्लाभाषी न हो, होगा। यों हिंदुस्तानी का अर्थ बंगाल से इतर हिंदुस्तान निवासी ध्वनित होता है किंतु हिंदुस्तानीभाषी अर्थ नहीं निकलेगा, क्योंकि ‘बंगाल से इतर ‘हिंदुस्तान‘ में हिंदुस्तानी के अलावा अन्य भाषा-भाषी भी निवास करते हैं। इस संदर्भ में कुबेरनाथ राय के निबंध ‘धुरीमन बनाम परिधिमन‘ का एक अंश उद्धृत करना प्रासंगिक होगा- ‘बंकिम ने ‘वन्देमातरम्‘ में केवल सप्तकोटि बंगालियों की बंगमाता को ही गरिमा से अभिषिक्त किया। जब इस गीत का अखिल भारतीय उपयोग होने लगा तो ‘सप्त‘ को बदल कर ‘त्रिंशकोटि-कण्ठ-निनाद-कराले‘ कर दिया गया।‘

0 इस कविता में एक पंक्ति है- ‘बिनुर येन नतुन करे शुभदृष्टि हल नतुन लोके‘- बीनू शादी के बाद ससुराल से पहली बार रेल यात्रा पर निकली है, पति से कभी-कभार मुलाकातें, दबी-घुटी हंसी और बातें ही हो पाती थीं, अब उन्मुक्त माहौल और मानों ‘शुभदृष्टि‘, यानि वह ‘दृश्य‘ जिसमें नववधू विवाह के अवसर पर पान के पत्तों से चेहरा ढकी होती है, फेरों के बाद पहली बार पत्ते हटा कर, अपने होने वाले पति को पहली बार देखती है। ‘शुभदृष्टि- इस कविता में आई बांग्ला संस्कृति का नाजुक संवेदनापूर्ण मर्मस्पर्शी अर्थपूर्ण शब्द-प्रयोग।

0 ‘स्मरण‘ की दो कविताओं का हिंदी अनुवाद-

जीवित रहते उसने मुझे
जो कुछ दिया,
उसका बदला चुकाऊँगा, लेकिन 
अभी समय नहीं है।
उसके लिए रात सुबह हो गई है,
हे प्रभु, तूने आज उसे ले लिया है।
मैंने उसे तेरे चरणों में,
कृतज्ञतापूर्वक भेंट किया है।
मैंने उसके साथ जो भी बुरा किया है,
जो भी गलतियाँ की हैं,
उसकी क्षमा मैं आपसे माँगता हूँ,
आपके चरणों में डालता हूँ।
जो कुछ उसे नहीं दिया गया,
जो कुछ मैं उसे देना चाहता हूँ,
उसे आज प्रेम के हार के रूप में
आपकी पूजा की थाली में रखता हूँ।
- - -
एक दिन इसी दुनिया में,
तुम एक नवविवाहिता के रूप में मेरे पास आईं,
अपना काँपता हुआ हाथ मेरे हाथों में रख दिया। 
क्या यह भाग्य का खेल था, क्या यह संयोग था?
यह कोई क्षणिक घटना नहीं है,
यह अनादि काल से चली आ रही योजना है।
दोनों के मिलन से भर जाऊँगा मैं,
युगों-युगों से इसी आशा में हूँ मैं।
मेरी आत्मा का कितना हिस्सा तुमने लिया है,
कितना दिया है इस जीवन धारा को?
कितने दिन, कितनी रातें, कितनी शर्म, कितनी हानि, कितनी जय-पराजय
मैं लिखता रहा हूँ,
मेरे थके हुए साथी क्या करेंगे,
सिवाय मेरे अपने शब्दों के!

0 सस्ता साहित्य मंडल द्वारा इन्द्र नाथ चौधुरी के प्रधान संपादकत्व में 2013 में प्रकाशित रवींद्रनाथ टैगोर रचनावली का खण्ड-42, ‘मेरी आत्मकथा‘ है, जिसमें मुख्यतः टैगोर के जीवन के आरंभिक वर्षों की विदेश यात्रा व प्रवास तथा साहित्यिक गतिविधियों का उल्लेख है। इसमें पेज 209-210 पर ‘स्त्री‘ कह कर अपनी पत्नी से संबंधित रोचक जिक्र आया है- एक तरुण, जो कहता है कि आपकी स्त्री पूर्वजन्म की मेरी माता है, ऐसा मुझे स्वप्न में दिखाई पड़ा है ... इतना ही नहीं कुछ दिनों बाद ‘एक लड़की का (मेरी स्त्री के पूर्व जन्म की लड़की का) एक पत्र मिला ...।‘ इस संदर्भ में उल्लेखनीय कि पता लगता है टैगोर प्लेन्चिट से मृत आत्माओं का आह्वान किया करते थे।

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शब्द-कौतुक

0 बांग्ला पलातका, जैसा मिलता-जुलता मराठी शब्द पळपुटा है, जिसका अर्थ वैसा ही है और छत्तीसगढ़ी का पल्ला भागना, पल्ला तान देना वही अर्थ देता है, इससे लगता है कि शब्द का मूल एक ही होगा।

0 1910 के बिलासपुर गजेटियर में पेंड्रा के साथ ‘पंडरीबन‘ नाम आया है, यह रोचक संकेत का आधार है। सामान्यतः पेंड्रा या पेन्डरा, पिंडारियों से संबंधित शब्द माना जाता है, यह उपयुक्त नहीं जान पड़ता। पंडरीबन शब्द का बन स्पष्टतः वन, वृक्ष-बहुलता का शब्द है और पंडरी को रायपुर के पंडरीतलई, पेंडरवा, पेंड्री, पंर्री, पांडातराई, पंडरीपानी जैसे शब्दों के साथ समझने के प्रयास में इसका अर्थ सफेद (पांडुर) या स्वच्छ-उजला निकलेगा। छत्तीसगढ़ से संबंधित ‘गोरे‘ फादर लोर या वेरियर एल्विन को और अन्य विदेशी पादरियों आदि को पंडरा साहब कहा जाता रहा है। इस आधार पर संभव है कि इस क्षेत्र में सफेदी लिए तना-छाल वाले वृक्ष- धौंरा, केकट या कउहा की अधिकता रही हो, यों कुरलू या कुल्लू, कुसुम, अकोल, मुढ़ी, कलमी, सिरसा, करही, परसा, सेमल, खम्हार, पीपल, पपरेल का तना भी सफेदी लिए होता है, मगर जंगली नही और झुंड में नहीं होता। पंडरा, चूने का संकेत भी देता है, जिसके लिए छत्तीसगढ़ी में सामान्यतः धौंरा (धवल) शब्द है, जिससे धौंराभांठा, धवलपुर, धौरपुर जैसे स्थान-नाम बनते हैं। पंडरभट्ठा स्थान-नाम स्पष्ट ही चूना पत्थर का खदान है। पेंड्रा से चूना निर्यात की जानकारी भी मिलती है, यह दूर की कौड़ी मानी जा सकती है फिर भी ... और इसी तरह गौरेला को गौ-रेला, यानि गायों की पंक्ति-झुंड या रेला बताया जाता है तो इसे गौर (वर्ण), चूने या सफेदी से जोड़ कर भी देखा जा सकता है।

0 इसी क्रम में भनवारटंक, का भनवार बहुत अजनबी शब्द है, और हिंदी में उच्चारित होने वाला टंक अंगरेजी में ‘टी-ओ-एन-के‘ लिखा जाता है। संभावना बनती है कि यह भंवर यानि बड़ी मधुमक्खी से आया हो और अंगरेजी स्पेलिंग के कारण इस तरह बदल गया हो। खोडरी, स्पष्ट ही खड्ड, खोड़रा, अर्थात गड्ढा का अर्थ देता है और खोंगसरा, जैसा एक अन्य स्थान -नाम खोंगापानी है, इसमें सरा-पानी, स्पष्ट है और खोंग का आशय व्यवधान-रुकावट या गहराई के लिए है।

टीप- इस मसौदे को तैयार करने में उपरोक्त उल्लेखित के अतिरिक्त रायपुर, भिलाई के महानुभावों और कोलकाता, विश्वभारती से संबंधित लोगों से संपर्क किया गया। विश्वभारती, शांति निकेतन द्वारा मार्च 2019 में "Rabindranath Tagore and Travel" कान्फ्रेंस का आयोजन किया गया था, संयोजक प्रो. सोमदत्ता मंडल और उनके सहयोगी डॉ. सौरव दासठाकुर थे, टैगोर की संभावित बिलासपुर यात्रा के बारे में इनसे जानकारी लेने का प्रयास किया साथ ही विश्वभारती के ही श्री राहुल सिंह, सुश्री सुर्हिता बसु से भी मेल-दूरभाष पर संपर्क किया। वहां के प्रो. अमित सेन ने सहयोग करते हुए टैगोर की जीवनी और यात्राओं के विशेषज्ञों से जानकारी जुटा कर अवगत कराने का आश्वासन दिया है। इन सबके पीछे मेरा प्रयास है कि टैगोर के बिलासपुर आने का कोई भी संकेत मिल पाता है अथवा नहीं, या ऐसी संभावना का पता करने का प्रयास जिसके कारण उनकी कविता में बिलासपुर का नाम आया है। साथ ही इससे संबंधित आपत्ति, आलोचना, संदेह पैदा करने और स्थानीय तथ्यों की जानकारी-सामग्री जुटाने में रायपुर, बिलासपुर और पेंड्रा से जुड़े बुद्धिजीवियों, मीडिया-परिचितों से सहयोग मिला। 

इस पोस्ट का मुख्य अंश 31 अगस्त को ‘द वायर‘ हिंदी में इस प्रकार पेश हुआ था। साथ ही नीचे इस पोस्ट से संबंधित फेसबुक की 29 अगस्त तथा 1 सितंबर की मेरी तथा 30 अगस्त की रमेश अनुपम जी की बातें- 

रमेश जी से मेरा व्यक्तिगत परिचय और सौहार्दपूर्ण संबंध है। उनका शिष्ट-शालीन व्यक्तित्व, अकादमिक अध्यवसाय की गहराई और समझ सुस्थापित है। फिर ऐसी बातें, जिसमें मुद्दे के बजाय व्यक्तिगत आक्षेप है, यद्यपि उन्होंने अपनी पोस्ट में किसी का नामोल्लेख नही है, इसलिए संभव है कि वह किसी अन्य के लिए की गई टिप्पणी हो, लोगों ने उसकी ओर ध्यान दिलाया, देख कर लगा कि वह टिप्पणी किसी अन्य के लिए हो तो समान रुप से मेरे प्रति भी की गई संभव है। शायद उन्होंने तात्कालिक उत्तेजना और भावावेश में आ कर लिखा है, यह भी संभव है कि उनका फेसबुक अकाउंट हैक कर उसका दुरुपयोग हम दोनों के बीच मनमुटाव पैदा करने के लिए किया गया हो। दोहराव, मगर प्रासंगिक होने के कारण यहां आवश्यक है अतएव-

अकादमिक शोध-अध्ययन, तथ्यों और उपलब्ध-प्राप्त अधिकतम संभव सूचनाओं का पूरी पारदर्शिता के साथ इस्तेमाल कर निष्कर्ष निकालना होता है, न कि सही-गलत फैसला करना या साबित करना।

किसी गंभीर व्यक्ति की पोस्ट की उपेक्षा, उसे नजरअंदाज करना, उसके अपमान जैसा है यह मानते, उनकी बातों से असहमति के बावजूद पूरा सम्मान देते बतर्ज गांधी ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है‘ के इस्तेमाल की धृष्टता करते हुए कह सकता हूं कि ‘मेरा लेख ही उनकी बातों का जवाब है।‘

पोस्ट पर यह टिप्पणी आई है। मनीष दत्त जी अब हैं नहीं।
सतीश जायसवाल जी अब भी सक्रिय हैं,
टिप्पणी में आई बात- पुष्टि/खारिज कर सकते हैं।


Saturday, August 16, 2025

जन गण मन, दयाल महरानी और राजपुत्र चिरंजीव

गांव-गोष्ठी जमी है, राज-सुराज की बातें हो रही हैं- मैंने ‘गॉड सेव द किंग‘ का तीन वर्शन सुना है, एक हमारी माताजी सुनाती थीं, वे गोला गोकर्णनाथ पढ़ती थीं, वहां प्रार्थना उर्दू में होती थी- ‘खुदाया जॉर्ज पंजुम की हिफाजत कर, हिफाजत कर।‘ इसी उच्चरण में, पंचम नहीं पंजुम। बाद में वे फतेहपुर आ गईं, वहां आर्य समाजी माहौल के स्कूल में हिंदी की प्रार्थना होती- यशस्वी रहें हे प्रभो हे मुरारे, चिरंजीवी राजा और रानी हमारे। छत्तीसगढ़ के स्कूलों में ठेठ किस्म की प्रार्थना होती थी- ‘ईश राजा को बचाओ, हमारे राजा की जै, इस राजा को बचाओ।‘- लगभग एक सदी पुरानी, सुनी-सुनाई याद रह गई ये बातें, हमारे लिए सहज उपलब्ध, आसान और भरोसेमंद गंवई गूगल रवीन्द्र सिसौदिया जी बताते हैं। याद किया जाने लगा, उस दौर की ऐसी और भी कई रचनाएं हैं। मुझे भारतेन्दु का पद याद आता है- ‘राजपुत्र चिरंजीव’। बात आई-गई से आगे भी बढ़ी, इस तरह- 

भारतेन्दु के ‘राजपुत्र चिरंजीव’ के पहले गुलामी के दौर के साहित्य और साहित्यकारों में एक छत्तीसगढ़ के पंडित सुंदरलाल शर्मा को याद करते चलें। उन्हें छत्तीसगढ़ का गांधी कहा जाता है। 
हस्तलिखित जेल पत्रिका का चित्र,
दो भिन्न स्रोतों से

1881 में जन्मे पं. सुंदरलाल, 1922 से 1932 के बीच एकाधिक बार कैद किए जाने की जानकारी मिलती है, जेल से ही ‘श्री कृष्ण जन्म स्थान समाचार पत्र‘ हस्तलिखित सचित्र पत्रिका निकाली, जिसके एक अंक का चित्र उपलब्ध होता है, इस पर अंकित है- ‘चैत्र-वैशाख, छठवां अंक प्रथम वर्ष 1923?‘ मगर इसके पहले इन्हीं ने 1902 में रचित और 1916 में प्रकाशित ‘विक्टोरिया-वियोग और ब्रिटिश-राज्य-प्रबन्ध-प्रशंसा‘ पुस्तक में निवेदन किया था कि ‘राज-भक्ति-प्रचार करने के पवित्र उद्देश्य को लेकर मैंने इसकी रचना की थी। यदि उसमें सफलता हुई, तो मैं अपना परिश्रम सार्थक समझूंगा। महारानी विक्टोरिया की प्रशंसा में की गई इस काव्य रचना में विभिन्न विभागों- पुलिस, अदालत, रेल, तार, डाक, पाठशाला, सड़क, अस्पताल, म्युनिसिपैलिटी, पलटन, जहाज, कल कारखाना, नल, बागीचा, सराय और कुँआ, सेटलमेन्ट, नहर, तालाब, अकालप्रबन्ध, पुल, कृषि-बैंक, धर्म्म, दुष्ट-दलन, रामराज्य, कोर्ट्स आफ़् वार्ड्स- के शीर्षक से काव्य रचा गया है। 

जगतसेठ अमीचंद अंग्रेजों का साथ देने के लिए इतिहास-प्रसिद्ध हैं, जिनके वंशज भारतेंदु हरिश्चंद्र हुए। 1876 में भारतदुर्दशा‘ नाटक छपा, अन्धेर नगरी चौपट्ट राजा‘ नाटक प्रसिद्ध है ही। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ग्रन्थावली-4 में संपादक ने लिखा है- ‘राजभक्ति की भावना भारतेन्दु में कूट-कूटकर भरी हुई है। ... महारानी विक्टोरिया के परिवार में किसी को छींक भी आई तो भारतेन्दु ने कविता लिखकर उसके स्वास्थ्य की कामना की है। यह बात अलग है कि छींक स्वाभाविक प्रक्रिया में आई है पर भारतेन्दु के लिए तो वह अवसर ही बनी है।‘ ऐसी कुछ कविताएं हैं- ‘श्री राजकुमार सुस्वागत‘, ‘प्रिंस ऑफ वेल्स के पीड़ित होने पर कविता‘, या वाइसराय लार्ड रिपन के प्रति कविता ‘रिपनाष्टक‘। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ग्रन्थावली के ‘राजभक्ति की कविताएं‘ खंड के अंतर्गत उनकी ऐसी 15 कविताएं संकलित हैं। उनकी कविताओं के लिए यह भी कहा गया है कि उनमें ‘राज-भक्ति‘ की कविताओं की काफी संख्या है। आश्चर्यजनक तथ्य है कि उनकी स्वतंत्र कविताओं में एक भी कविता ऐसी नहीं है जिसे देशभक्ति की कविता कहा जा सके। 

यह सुनते हुए तब के उन संदर्भों की ओर ध्यान जाता है- भारतेंदु ने सन 1874 में ‘बालबोधिनी‘ पत्रिका में प्रकाशित पौराणिक पात्र मदालसा की कथा को ‘मदालसोपाख्यान‘ शीर्षक से पुनः सन 1875 में पुस्तिका के रूप में प्रकाशित कराया था। पुस्तिका के आरंभ में विवरण था कि इसे पुस्तिका रूप में श्रीयुत प्रिस आव वेल्स बहादुर के शुभागमन के आनन्द के अवसर में बालिकाओं में वितरण के अर्थ अलग छपवाया गया। और यह भी कि ‘जिस लड़की को यह पुस्तक दी जाय उस से अध्यापक लोग 5 बेर कहला लें ‘‘राजपुत्र चिरंजीव‘‘। 

1883 में भारतेन्दु के फ्रेडरिक के. हेनफोर्ट के नाम संबोधित अधूरे पत्र में उनके द्वारा ब्रिटिश राष्ट्रगीत का अनुवाद, इस प्रकार शुरू होता है- प्रभु रच्छहु दयाल महरानी, बहु दिन जिए प्रजा सुखदानी, हे प्रभु रच्छहु श्रीमहरानी, सब दिस में तिन की जय होइ, रहै प्रसन्न सकल भय सोइ, राज करे बहु दिन लों सोई, हे प्रभु रच्छहु श्रीमहरानी। 

दूसरी तरफ 1874 में उन्होंने लिखा- बीस करोड़ (वाली आबादी के) भारतवर्ष को पचास हजार अंगरेज शासन करते हैं ये लोग प्रायः शिक्षित और सभ्य हैं परंतु इन्हीं लोगों के अत्याचार से सब भारतवर्षीयगण दुखी हैं। 

यों तो उनके लेखन में खास बनारसी ठाट और मौज के कहने ही क्या, ‘लेवी प्राण लेवी‘ जैसे शीर्षक से टिप्पणी लिखी और उसकी एक प्रासंगिक बानगी ‘स्तोत्र पंचरत्न‘ का ‘अंगरेज स्तोत्र‘ है, देखिए- ‘अस्य श्री अंगरेजस्तोत्र माला मंत्रस्य श्री भगवान मिथ्या प्रशंसक ऋषिः जगतीतल छन्दः कलियुग देवता सर्व वर्ण शक्तयः शुश्रुषा बीजं वाकस्तम्भ कीलकम् अंगरेज प्रसन्नार्थे पठे विनियोगः।’ 

रवींद्रनाथ टैगोर रचित हमारे राष्ट्रगान पर वाद-विवाद होता रहा है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस पर लिखे ‘जन गण मन अधिनायक जय हे‘ लेख में स्पष्ट किया है कि- कवि ने बड़ी व्यथा के साथ श्री सुधारानी देवी को अपने 23 मार्च 1939 के पत्र में लिखा था कि ‘‘मैंने किसी चतुर्थ या पंचम जार्ज को ‘मानव इतिहास के युग-युग धावित पथिकों की रथ यात्रा का चिर-सारथी‘ कहा है, इस प्रकार की अपरिमित मूढ़ता का सन्देह जो लोग मेरे विषय में कर सकते हैं उनके प्रश्नों का उत्तर देना आत्मावमानना है।‘‘ 

इस लेख में आगे स्पष्ट किया गया है कि- ‘असल में सन् 1911 के कांग्रेस के माडरेट नेता चाहते थे कि सम्राट दम्पति की विरुदावली कांग्रेस मंच से उच्चारित हो। उन्होंने इस आशय की रवीन्द्रनाथ से प्रार्थना भी की थी, पर उन्होंने अस्वीकार कर दिया था। कांग्रेस का अधिवेशन 'जन गण मन' गान से हुआ और बाद में सम्राट दम्पति के स्वागत का प्रस्ताव पास हुआ। प्रस्ताव पास हो जाने के बाद एक हिन्दी गान बंगाली बालक-बालिकाओं ने गाया था, यही गान सम्राट की स्तुति में था। ... विदेशी रिपोर्टरों ने दोनों गानों को गलती से रवीन्द्रनाथ लिखित समझकर उसी तरह की रिपोर्ट छापी थी। इन्हीं रिपोर्टों से आज का यह भ्रम चल पड़ा है।‘ 

यों वार्तालाप, कथन, वक्तव्य, अभिव्यक्ति, या किसी साहित्यिक रचना के साथ आवश्यक नहीं कि वह, या उसमें इस्तेमाल किया गया शब्द, सदैव विचारधारा प्रमाणित करता हो, विशेषकर संवेदनशील साहित्यिकों के साथ ऐसा तय कर दिया जाना, समाज में अब आम है। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के ‘माफीनामे‘ पर भी एकांगी टिप्पणियां होती रही हैं। मनोभाव और उसके अनुरूप या परिस्थितिगत अभिव्यक्ति स्वाभाविक है, मगर वह लिखी-छपी जाकर और अब सोशल मीडिया में दर्ज हो कर गफलत के लिए इस्तेमाल किया जाना आसान हो गया है। 

टीप - ‘द वायर‘ हिंदी ने इसे बेहतर संपादित स्वरूप में यों पेश किया है।

Tuesday, July 15, 2025

साहित्य, कला, संस्कृतिधर्मी सूची

कला-साहित्य से जुड़े छत्तीसगढ़ के महानुभावों की एकत्रित जानकारी-सूची की तलाश होती रहती है। मेरी जानकारी में ऐसे कुछ संग्रह हैं, जिनका परिचय यहां है- 


छत्तीसगढ़ के माटी चंदन‘ छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह, चित्रोत्पला लोककला परिषद्, रायपुर म.प्र. द्वारा, नगर निगम, रायपुर के सहयोग से 1996 में प्रकाशित हुई, जिसके संपादक राकेश तिवारी हैं। 136 पेज की इस पुस्तक की भूमिका हरि ठाकुर जी ने लिखी है। पुस्तक में 128 कवियों का सचित्र परिचय उनकी प्रमुख कविता सहित दिया गया है। 

साहित्य-संस्कृति-निदर्शनी, संदर्भ छत्तीसगढ़‘ का प्रकाशन, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सृजनपीठ, संस्कृति विभाग के अंतर्गत (छत्तीसगढ़ शासन) 2007 में हुआ। 198 पेज की पुस्तक के संपादक मंडल में बबनप्रसाद मिश्र, पी. अशोक कुमार शर्मा और के.पी. सक्सेना ‘दूसरे‘ का नाम है तथा सहयोग में तुंगभद्र राठौर, डॉ. तपेश चन्द्र गुप्ता, संजय सिंह ठाकुर, हितेशकुमार साहू, अरविंद साहू, किशोर ठाकुर, रामेश्वर वैष्णव, हेमंत माहुलिकर, विकास जोशी, सतीश देशपांडे, सतीश मिश्र, विपीन पटेल हैं। 

इस पुस्तक के पेज-47 पर हमारे गौरव में 54 नामों की सूची इस प्रकार है- 
1) महाप्रभु वल्लभाचार्य, 2) गुरु घासीदास, 3) गोपालचन्द्र मिश्र, 4) माधवराव सप्रे, 5) बन्सीधर पाण्डे, 6) वीरनारायण सिंह, 7) पं. रविशंकर शुक्ल, 8) ठाकुर प्यारेलाल सिंह, 9) डॉ. खूबचन्द बघेल, 10) बैरिस्टर छेदीलाल, 11) पं. सुन्दरलाल शर्मा, 12) ठाकुर जगमोहन सिंह, 13) लोचनप्रसाद पाण्डेय, 14) पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, 15) चन्दूलाल चन्द्राकर, 16) लाल प्रद्युम्न सिंह, 17) पं. सुन्दरलाल त्रिपाठी, 18) मुकुटधर पाण्डेय, 19) गजानंद माधव मुक्तिबोध, 20) बल्देवप्रसाद मिश्र, 21) बाबू रेवाराम, 22) राजा लक्ष्मी निधि राय, 23) पं. हीरालाल काव्योपाध्याय, 24) हरि ठाकुर, 25) लखनलाल गुप्ता, 26) नारायण लाल परमार, 27) जगन्नाथ प्रसाद भानु, 28) कोदूराम दलित, 29) डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा, 30) पं. द्वारिकाप्रसाद तिवारी विप्र, 31) भगवती सेन, 32) बद्रीविशाल परमानंद, 33) मिनीमाता, 34) यति यतन लालजी, 35) महाराजा प्रवीरचंद, 36) पं. विष्णुकृष्ण जोशी, 37) दाऊ कल्याण सिंह, 38) महन्त लक्ष्मीनारायणदास, 39) महन्त वैष्णवदास, 40) धर्मदास, 41) स्वामी आत्मानंद, 42) समर बहादुर सिंह, 43) श्रीकांत वर्मा, 44) गुलशेर अहमद शानी, 45) डॉ. प्रमोद वर्मा, 46) मायाराम सुरजन, 47) देवदास बन्जारे, 48) डॉ. अरुणकुमार सेन, 49) रम्मू श्रीवास्तव, 50) स्व. राम चंद्र देशमुख 51) स्व. छेदीलाल पाण्डेय, 52) डॉ. हनुमन्त नायडू, 53) स्व. नंदूलाल चोटिया, 54) स्व. लतीफ घोंघी. 

इस पुस्तक में साहित्यकार शीर्षक अंतर्गत रायपुर के 266 नाम, भिलाई-दुर्ग के 181, राजनांदगांव के 45, महासमुंद के 31, पिथौरा के 6, महासमुंद के 22 नाम, धमतरी के 48, कबीरधाम के 11, कांकेर के 6, बिलासपुर के 92, जगदलपुर के 27, जांजगीर-चांपा के 26, कोरबा के 68, कोरिया के 7, अम्बिकापुर के 31, रायगढ़ के 56 तथा जशपुर के 5 नामों की सूची है। 

संगीत विधा शीर्षक अंतर्गत रायपुर, बिलासपुर और कोरबा के 12 नामें की सूची है। 

पत्रकारों की सूची अंतर्गत रायपुर के 105 नाम, पुनः 137 नाम हैं। एजेंसियां शीर्षक अंतर्गत 12 नाम, राष्ट्रीय समाचार पत्र में 11 नाम, प्रादेशिक समाचार पत्र में 10 नाम हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के 33, प्रेस फोटोग्राफर- 21, कार्टूनिस्ट- 8 नाम हैं। बिलासपुर के पत्रकार शीर्षक अंतर्गत 218 नाम, मीडिया के 28 नाम हैं। रायगढ़ के पत्रकार में 17, जशपुर- 5, कवर्धा- 19, महासमुंद- 4, बागबाहरा महासमुंद- 7, भिलाई के 86, दुर्ग जिला के 43, तथा राजनांदगांव के 35 नाम हैं। बिलासपुर संवाददाता शीर्षक अंतर्गत के 13 नाम हैं। कोरबा जिले के पत्रकारों की सूची में 38 नाम, जांजगीर-चांपा समाचार पत्रों के प्रतिनिधि- 13, जिला जनसंपर्क कार्यालय जांजगीर-चांपा- 1, जिला मुख्यालय रायगढ़ स्थानीय दैनिक समाचार पत्रों के संपादक- 6, रायगढ़ में अन्य दैनिक समाचार पत्रों, एजेंसियों के प्रतिनिधि- 20, धमतरी जिला के पत्रकार-9, अम्बिकापुर जिला के पत्रकार-6, पिथौरा-5, सरायपाली-5 नाम हैं। 

शासकीय कार्यालयों में से जनसंपर्क संचालनालय-25 नाम, संचालनालय संस्कृति एवं पुरातत्व-11, छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल-9 नामों की सूची है। 

रंगमंच शीर्षक अंतर्गत 361 नाम, कलाकारों का नाम शीर्षक अंतर्गत 716 की सूची है। चित्रकारी शीर्षक अंतर्गत 19, राज्य के बाहर के प्रसिद्ध कलाकार में 48 नाम हैं। शिल्पकारों की सूची एवं पता शीर्षक में धातु शिल्प- 59, लौह शिल्प 45, पाषाण शिल्प 4/5, काष्ठ शिल्प 35, गोदना शिल्प 4, मृदा शिल्प 30, ढोकरा शिल्प 10 नाम हैं। 

पुस्तक के पेज 192 से 198 तक श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी की भिलाई के सृजनपीठ केन्द्र में रखी प्रतिमा के तथा पीठ के आयोजनों के छायाचित्र हैं।

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थरहा, छत्तीसगढ़ की भाषा एवं संस्कृति की साहित्यिक धरोहर, संकलन नरेन्द्र वर्मा, (संपर्क फोन-9425518050) ऋषभ प्रकाशन, भाटापारा से 2014 में प्रकाशित हुई है। अपनी बात में लिखा है- 

‘इस दुष्कर कार्य में मुख्य प्रेरणा स्रोत रहे अग्रज श्री शिवरतन जी शर्मा विधायक भाटापारा एवं मेरे श्वसुर डॉ. टेकराम वर्मा। श्री रघुनाथ प्रसाद पटेल भाटापारा, श्री लूनेश वर्मा रायपुर, श्री रविन्द्र गिन्नौरे भाटापारा, श्री संजीव तिवारी दुर्ग, डॉ. बलदेव रायगढ़, श्री संतराम साहू भाटापारा, छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के पूर्व अध्यक्ष पं. दानेश्वर शर्मा, सचिव पद्मश्री डॉ. सुरेन्द्र दुबे, श्री उमेश मिश्रा, श्री आदर्श दुबे, सुषमा गौराहा, श्री लामेश्वर उरांव, श्री लोकेन्द्र वर्मा, डॉ. विनय पाठक बिलासपुर, श्री चेतन भारती रायपुर, सुधा वर्मा रायपुर, नीलिमा साहू रायपुर, श्री महावीर अग्रवाल श्री प्रकाशन दुर्ग, श्री चन्द्रशेखर चकोर रायपुर, श्री हरिश्चंद्र वाद्यकार बिलासपुर, श्री बुधराम यादव बिलासपुर, श्री अरूण कुमार यदु बिलासपुर, श्री गिरधर गोपाल, देशबन्धु लायब्रेरी (मायाराम सुरजन फाऊंडेशन रायपुर द्वारा संचालित), पं. रविशंकर वि. वि. रायपुर के श्री अहमद अली खान, श्री भगवानी राम साहू सवपुर, श्री डी. पी. देशमुख दुर्ग, श्री संतोष कुमार चौबे मारो, श्री सुशील भोले रायपुर, श्री सुशील यदु रायपुर का पुस्तक निर्माण में सहयोग हेतु विशेष आभारी हूँ। डॉ. सुधीर पाठक अंबिकापुर, श्री मंगत रविन्द्र कापन, श्री हरिहर वैष्णव कोण्डागांव, श्री धनराज साहू बागबाहरा, श्री रामनाथ साहू देवरघटा (डभरा), आप सभी ने मुझे जानकारी उपलब्ध कराई, आप लोगों का विशेष धन्यवाद। समाचार पत्रों में देशबन्धु, नवभारत, दैनिक भास्कर, समवेत शिखर, हरिभूमि, पत्रिका, अमृतसंदेश, पत्रिकाओं में छत्तीसगढ़ी सेवक, छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर, बरछा-बारी, वेव पत्रिका गुरतुर गोठ डॉट कॉम का भी विशेष आभारी हूँ। श्रीमती गीता-अनिल अग्रवाल, श्रीमती लक्ष्मी-रामकुमार स्वर्णकार, श्रीमती गीता-गजानंद सेलोटे, श्री अजय ‘‘अमृतांशु‘‘, माता श्रीमती इन्दु वर्मा, पिता श्री माधो प्रसाद वर्मा, पत्नी श्रीमती विद्या वर्मा (श्रीमती तीर्थ कुमारी वर्मा) बहन श्रीमती प्रमिला-गणेशराम वर्मा, बहन श्रीमती निर्मला-बृजराज वर्मा, अनुज श्री सुरेन्द्र दमयन्ती वर्मा, अनुज श्री विरेन्द्र-किरण मानसरोवर, सुपुत्र ऋषभ वर्मा, प्यारी बिटिया धात्री वर्मा, ओजस्विता वर्मा एवं इष्ट मित्रों का भी आभारी हूँ, जिनके सहयोग से इस पुस्तक ने मूर्त रूप लिया। 

प्रथम सूची, पुस्तकों के नाम हिन्दी वर्णक्रम के अनुसार, जिसके अंतर्गत क्रमांक 1 से 1543 तक, प्रकाशन वर्ष, पुस्तक का नाम, लेखक का नाम, प्रकाशक, मूल्य और पृष्ठ, स्तंभों में जानकारी संकलित की गई है। क्रमांक 1544 से 1558 तक डॉ. सुधीर पाठक, अम्बिकापुर द्वारा प्राप्त सरगुजिहा साहित्य सूची में हिन्दी पद्य साहित्य तथा 1559 से 1581 तक हिन्दी साहित्य गद्य संकलित है। 

द्वितीय सूची, साहित्य की विधाओं के अनुसार, जिसके अंतर्गत छत्तीसगढ़ी गद्य साहित्य के अंतर्गत छत्तीसगढ़ी निबंध संकलन- 18, छत्तीसगढ़ी नाटक- 35, छत्तीसगढ़ी एकांकी- 10, छत्तीसगढ़ी उपन्यास- 26, छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह- 49, छत्तीसगढ़ी लघु कथा संग्रह- 3, आत्मकथा- 1, संस्मरण- 2, व्याकरण- 16, छत्तीसगढ़ी शब्दकोश- 12, छत्तीसगढ़ी अनुवाद- 12, छत्तीसगढ़ी बाल साहित्य- 3, छत्तीसगढ़ी व्यंग्य- 9, छत्तीसगढ़ी हाना/कहावत/लोकोक्तियां- 10, छत्तीसगढ़ी मुहावरा कोश- 4, छत्तीसगढ़ी वर्ग पहेली- 1, छत्तीसगढ़ी चुटकुले- 1, चिकित्सा- 2, साहित्यकारों की डायरेक्टरी- 1 है। 

आगे छत्तीसगढ़ी पद्य साहित्य के अंतर्गत छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह- 261, छत्तीसगढ़ी खंड काव्य- 43, छत्तीसगढ़ी महाकाव्य- 3, छत्तीसगढ़ी भक्ति गीत- 26, छत्तीसगढ़ी काव्य नाटिका- 2, छत्तीसगढ़ी लंबी कविता- 6, छत्तीसगढ़ी नई कविता- 5, छत्तीसगढ़ी बाल साहित्य- 12, छत्तीसगढ़ी लोकगीत- 20, छत्तीसगढ़ी गजल- 5, छत्तीसगढ़ी हाइकु- 4, छत्तीसगढ़ी हास्य व्यंग्य पद्य- 8, लोकमंत्र- 1, छत्तीसगढ़ी अनुवाद- 34, छत्तीसगढ़ी चम्पू काव्य- 27, छत्तीसगढ़ी भाषा एवं उसका इतिहास- 19, हिन्दी- छत्तीसगढ़ी, गद्य-पद्य- 20, जीवनी/व्यक्तित्व एवं कृतित्व- 164, आत्मकथा- 3, संस्मरण- 1, लेख/निबंध संग्रह- 23, अभिनन्दन ग्रंथ- 11, शोधग्रंथ- 59, इतिहास- 74, भूगोल- 61, धार्मिक- 53, पुरातत्व- 13, स्थापत्य कला- 1, चित्रकथा हिन्दी- 23, लोक कथा- 30, दंत कथा- 1, साक्षात्कार- 1, पर्यटन- 17, लोक कला- 4, लोक खेल- 2, रंगमंच- 1, फिल्म- 1, कानून- 2, छत्तीसगढ़ की जानकारियां- 76, छत्तीसगढ़ की नदियां- 7, पहाड़- 1, पक्षी- 1, पत्र- 1, पुस्तकों की सूची- 2, छत्तीसगढ़ का एटलस- 2, अनुवाद- 2, समीक्षा- 3, लोक साहित्य- 9, स्मारिका- 6, अनुसूचित जाति एवं जनजातीय- 30, अंग्रेजी- 33, अन्य- 105 है। 

तृतीय सूची, साहित्यकारों के नाम अनुसार के अंतर्गत साहित्यकार के नामों के अनुसार पुस्तकों की सूची में 1 से 1545 तक, डॉ. सुधीर पाठक, अम्बिकापुर द्वारा प्राप्त सरगुजिहा साहित्य सूची में 1546 से 1583 तक, सरगुजा से प्रकाशित पत्रिकाएं 1 से 10, छत्तीसगढ़ से पूर्व एवं वर्तमान में प्रकाशित पत्रिकाएं 1 से 44 तक है। 

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कला परम्परा का सम्पादन डी पी देशमुख, भिलाई (संपर्क फोन-9407984727, 9425553536) द्वारा किया जाता है, इसके अंकों की जानकारी इस प्रकार है- 

कला परम्परा, छत्तीसगढ़ के छत्तीस रत्न, प्रवेशांक, 28 मई 2001, पेज-85 
कला परम्परा, साहित्य बिरादरी-1, अंक-2, वर्ष-2011 
कला परम्परा, कला बिरादरी-2, अंक-3, वर्ष-2012 
कला परम्परा, पर्यटन एवं तीरथधाम, अंक-4, वर्ष-2013, पेज-198 
कला परम्परा, साहित्य बिरादरी-2, अंक-5, वर्ष-2014, पेज-524 
कला परम्परा, छत्तीसगढ़ के तीज त्यौहार, अंक-6, वर्ष-2015, पेज-497 
कला परम्परा, कला एवं साहित्य बिरादरी-2, अंक-7, वर्ष-2017, पेज-558 
लोक नाट्य सुकवा, अंक-8, वर्ष- जुलाई 2017 
कला परम्परा, कला एवं साहित्य बिरादरी, अंक-9, वर्ष-2018, पेज-286 
लोक नाट्य चन्दा, अंक-10, वर्ष-2019, पेज-558 
पुरातत्व, पर्यटन एवं तीरथधाम, अप्रकाशित, अंक-11

इनमें से प्रसंगानुकूल प्रवेशांक में 36 कलाकारों का सचित्र परिचय है, जिनमें क्रमानुसार नाम हैं- मंदराजी दाऊ, रामचन्द्र देशमुख, महासिंह चन्द्राकर, हबीब तनवीर, शरीफ मोहम्मद, मदन निषाद, रहीम खान अनजाना, झुमुक दास बघेल, न्याईक दास मानिकपुरी, खुमान साव, झाडूराम देवांगन, सुरुज बाई खांडे, लक्ष्मण मस्तुरिहा, तीजन बाई, शेख हुसेन, भुलवा राम यादव, गोविन्द राम निर्मलकर, फिदा बाई, माला बाई, कोदूराम वर्मा, प्रेम साइमन, रामहृदय तिवारी, देवदास बंजारे, पुनाराम निषाद, भैया लाल हेड़ऊ, शिवकुमार दीपक, केदार यादव, भूषण नेताम, रामाधार साहू, कविता वासनिक, दीपक चन्द्राकर, साधना यादव, कुलवंतीन बाई मिर्झा, पद्मावती, कुलेश्वर ताम्रकार, कमल नारायण सिन्हा। अंक के अंत में संपादकीय सहकर्मी मनोज अग्रवाल और सहदेव देशमुख का सचित्र संक्षिप्त परिचय है। 

कला परम्परा, साहित्य बिरादरी-1, अंक-2, वर्ष-2011 की प्रति उपलब्ध नहीं हो सकी, इसके बारे में जानकारी सम्पादक डी पी देशमुख जी से मिली। 

कला परम्परा, कला बिरादरी-2, अंक-3, वर्ष-2012 में लोककला, रंगमंच, सिने कलाकार- 438 नाम हैं। सुगम शास्त्रीय गीत, संगीत, नृत्य गजल-भजन गायन- 135 नाम हैं। चित्रकला, शिलपकला, हस्तशिल्प, फोटोग्राफी- 154 नाम हैं। बाल-कलाकारों के 91 नाम हैं। उल्लेखनीय कि इसमें नामों के साथ सचित्र संक्षिप्त परिचय भी दिया गया है। 
कला परम्परा, साहित्य बिरादरी-2, अंक-5, 1001 महानुभावों की सचित्र जानकारी का संग्रह है। इस पुस्तक में पेज 507 से 524 तक कला परम्परा-2 (साहित्य बिरादरी-1 वर्ष 2011) शीर्षक अंतर्गत 175 महानुभावों केनाम, डाक पता तथा फोन नंबर सहित दिया गया है। इसके बैक फ्लैप पर मनोज अग्रवाल, प्रधान संपादक और रश्मि पुरोहित, कार्यकारी संपादक नाम सचित्र परिचय दर्ज है। 

कला परम्परा, कला एवं साहित्य बिरादरी-2, अंक-7, वर्ष-2017 में कला एवं साहित्य साधक अंतर्गत 2222 महानुभावों की सचित्र जानकारी का समावेश है। साथ ही कला परम्परा के संयोजक शीर्षक अंतर्गत जिनके चित्र व नाम फोन नंबर सहित हैं- राजनांदगांव के श्री गोविंद साव, श्रीमती शैल किरण साहू, छुरिया के श्री शैल कुमार साहू, खैरागढ़ के डॉ. राजन यादव, गंडई पंडरिया के डॉ. पीसी लाल यादव, डोंगरगढ़ के श्री मनुराज त्रिवेदी, डोंगरगांव के श्री अजय उमरे, अम्बागढ़ चौकी के श्री कमलनारायण देशमुख, मोहला के श्री देव प्रसाद नेताम, मानपुर के श्री यशवंत रावटे, पंडरिया के श्री महेन्द्र देवांगन ‘माटी‘, कवर्धा के श्री कौशल साहू ‘लक्ष्य‘, गुंडरदेही के श्री दुष्यंत हरमुख, श्री पुनऊ राम साहू, बालोद के श्री सीताराम साहू ‘श्याम‘, बालोद के श्री जगदीश देशमुख, डौंडीलोहारा के श्री सुभाष बेलचंदन, दल्लीराजहरा के श्री परमानंद करियारे, धमतरी के श्री कान्हा कौशिक, नगरी के डॉ. आर.एस. बारले, मगरलोड के श्री पुनूराम साहू ‘राज‘, कुरुद के श्री इन्द्रजीत दादर ‘निशाचर‘, राजिम के श्री तुकाराम कंसारी, गरियाबंद के श्री गौकरण मानिकपुरी, डॉ. ईश्वर तारक, चारामा के श्री दिनेश वर्मा, भानुप्रतापपुर के श्री गनेश यदु, कांकेर के श्री अजय कुमार मंडावी, श्री राजेश मंडावी, कोन्डागांव के डॉ. राजाराम त्रिपाठी, जगदलपुर के डॉ. कौशलेन्द्र, श्री विजय सिंह, श्री भरत गंगादित्य, दन्तेवाड़ा की श्रीमती कंचन सहाय वर्मा, बचेली के श्री आशीष कुमार सिंह और किरन्दुल के श्री देवेन्द्र कुमार देशमुख। 

टीप- डॉ. सुधीर शर्मा ने स्मरण कराया कि ऐसे ही संकलन ललित सुरजन जी ने ‘रचना समय‘ और डॉ.निरुपमा शर्मा ने ‘छत्तीसगढ़ महिला रचनाकार कोश‘ प्रकाशित कराया था। ऐसी समंकित सूची, जो समय-समय पर अद्यतन की जाती रहे, तैयार कर वेब पर सार्वजनिक किए जाने पर शासन, विश्वविद्यालय, सांस्कृतिक-साहित्यिक संस्थाएं विचार कर सकती हैं।