Wednesday, December 17, 2025

लीला-लावण्य

खजुराहो-शिल्प पर आधारित काव्य ‘लीला-लावण्य‘ 140 चौपदी हैं। पुस्तक की ख्याति नहीं है, न रचयिता की प्रसिद्धि, उनका नाम ‘प्रसिद्ध चौहान‘ है। 

मेरे लिए पुस्तक की चार खास बातें- पहली-खजुराहो, दूसरी- बैकुंठपुर निवासी रचनाकार, तीसरी- सुमित्रानंदन पंत की छायावादी हिंदी में ‘दो शब्द‘, और चौथी- पुस्तक का समर्पण ‘धरा की समस्त रूपगर्विताओं को‘। 
कृति-रस का अनुमान कराने, चार चौपदियां- 

मूर्तियाँ, ज्यों शिल्प के हों पारिजातक 
शरद की यह धूप परिमल की चुनरिया, 
गल न जाए चुम्बनों की इस झड़ी में 
इसलिये पथरा गई क्या तू गुजरिया? 

वेदना की भूमिका है नयन इंगित 
फिर प्रतीक्षा तीक्ष्ण तप की सहचरी है, 
अधर रस अमरत्व का परिचय पुरातन 
द्वार परिनिर्वाण की भुजवल्लरी है. 

सजे बंदनवार आलिंगित करों के 
अधर चुम्बनरत जले ज्यों दीपमाला, 
जघन-कदली द्वार पर कुच कलश सज्जित 
रति महोत्सव है यहाँ तम का उजाला. 

प्रीति की पाती न पूरी हो सकेगी 
लेखनी की गति अचानक ठहर जाए, 
वक्ष पर जो धड़कनें लिखती रही हैं 
आज कागज पर भला कैसे समाए? 

पन्त जी के ‘दो शब्द‘ (प्रयाग 30-3-71) का एक वाक्य- ‘मिथुनों के परस्पर के स्वाभाविक आकर्षण को कला का सम्मोहन प्रदान कर तथा उसकी प्राणधारा के प्रवेग को लावण्य-लोल भाव-भंगिमाओं में अंकित कर खजुराहो के शिल्प ने जैसे अमरत्व की स्वर्णिम् पंखुरियों को जीवन की वेणी में गूंथ दिया है।‘ कृतिकार, भूमिका ‘तुम्हारे नाम‘ (पन्ना वसन्त पंचमी-71) में लिखते हैं- ‘इस संस्कृति ने संभवतः मानव-इतिहास में पहली बार मूर्त और अमूर्त को, देह और आत्मा को, संभोग और समाधि को अस्तित्व के कूलहीन आनन्द की भुजाओं में एकसाथ समेटने का उदात्त कौशल दिखलाया।‘ टीप- पुस्तक 1972 में किताब महल, इलाहाबाद से छपी है। कापीराइट ‘श्रीमती किरण चौहान, बैकुन्ठपुर, जिला सरगुजा (म.प्र.) तथा यही नाम प्रकाशक के रूप में भी है। पुस्तक में रचयिता का परिचय नही है। बैकुंठपुरवासियों से पता चला कि उनका पूरा नाम प्रसिद्ध नारायण सिंह चौहान था। परिवार के सदस्य भोपाल में रहते हैं तथा कुछ परिवारजन बैकुंठपुर में। सोच रहा हूं, छत्तीसगढ़ से जुड़े इस महत्वपूर्ण साहित्यिक की चर्चा सामान्यतः नहीं होती है, ऐसा क्यों? प्रसिद्ध जी की तस्वीर और संक्षिप्त परिचय, उनके पारिवारिक अथवा अधिकृत स्रोत से मिलने पर साझा करूंगा।

Friday, October 24, 2025

भो-रम-देव

‘छत्तीसगढ़ का खजुराहो‘ कहे जाने वाले भोरमदेव में शब्दों के साथ भटक रहा हूं। यह भटकना, रास्ता भूलना नहीं, रास्ते की तलाश भी नहीं, बल्कि मनमौजी विचरण है। भोरमदेव, शब्द पर बहुत सी बातें कही-लिखी गई हैं, भोरमदेव, बरमदेव है, ब्रह्म, बूढ़ादेव, बड़ादेव, इतने मत-मतांतर कि भरम होने लगे। अलेक्जेंडर कनिंघम 1881-82 में गजेटियर के हवाले से कहते हैं- The Great Temple of Boram Deo or Buram Deo। छत्तीसगढ़ में भिर्रा या भिरहा (Chloroxylon swietenia) कहे जाने वाले पेड़ को पड़ोसी पश्चिमी ओडिशा में ‘भोरम‘ कहा जाता है, इससे कोई रिश्ता बने न बने, शाब्दिक ही सही, मेल बनता है। भोरम के करीब का छत्तीसगढ़ी शब्द है, भोरहा यानी भ्रम, संदेह या भूल। शायद इसी भूल-भटक में राह सूझे, इसलिए फिलहाल इसे यहीं छोड़कर, उसके आसपास, अगल-बगल। कुछ नादान तोड़-फोड़ करनी हो तो ‘भो!रम देव‘, ‘भोर-म-देव‘, हे देव, भोर होते ही तुझमें मेरा मन रमा रहे।
भोरमदेव मंदिर
भोरमदेव, स्मारक का नाम है न कि गांव का। इस स्मारक के साथ मड़वा महल और छेरकी महल भी हैं, गांव हैं- छपरी और चौंरा। इनमें छपरी का छापर, छावनी या छप्पर नहीं, बल्कि सलोनी मिट्टी से से आया होगा। चौंरा का संदर्भ फणिनागवंशी शासक रामचंद्र के मड़वा महल शिलालेख, विक्रम संवत 1406 में है, जहां चतुरापुर या चवरापुर का उल्लेख है। ‘चंवरा‘ शब्द यज्ञ वेदी के लिए तैयार की गई चौकोर समतल भूमि, ‘चत्वरक‘ तद्भव रूप चउंक-चांतर से आता है। सती चौरा या माता चौंरा जेसे शब्दों में इस शब्द का आशय छोटा मंदिर या देवस्थान, निहित है। चौरा का ताल्लुक अब कबीरपंथी मान्यताओं से भी जुड़ गया है। एक गांव लाटा है, जिसे लाटा-बूटा या लता-नार से संबंधित माना जाना है, मगर यह भी ध्यान रहे कि लाटा, गुफा, सुरंगनुमा, संकरे-बंद घिरे स्थान का- जहां लेट कर, सरक कर, रेंग कर जाना पड़े, का भी पर्यायवाची होता है। भोरम और हरम शब्द आसपास हैं, पास ही गांव है ‘हरमो‘, ईंटों वाली महलनुमा संरचना ‘सतखंडा हवेली‘ के कारण यह गांव चर्चित है। इसे कुछ ‘हरम‘ से जोड़ कर देखते हैं तो दूसरी ओर एक आस्था ‘महाप्रभु वल्लभाचार्य‘ से जुड़ी है, जिससे संबद्ध कर हरमो को ‘हरि-नू‘, गुजराती ‘हरि का‘ भी मानने वाले हैं। इतिहास में काल-निर्धारण की दृष्टि से यह क्षेत्र फणिनाग, कलचुरि वंशजों, मंडला के गोंड़ तथा मराठों से जुड़ता है। इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में योद्धा स्मारक और सती स्मारक प्रतिमाएं शक्ति संतुलन के लिए होने वाले युद्धों का प्रमाण हैं।
सतखंडा हवेली, हरमो 

यह कछारी जमीन वाला इलाका है। जंगल-पहाड़ नदी-नाले और बांध-तालाब से बची रेतीली जगह- कछार, जिस पर छोटी और कंटीली झाड़ियों वाली वनस्पति, कछार में टिकने के लिए जड़ें मजबूत होनी चाहिए। कछार, धान के लिए उपयुक्त नहीं, लेकिन धान से ही तो काम नहीं चलता। जलधाराओं के नजदीक और पानी उतर जाने पर पाल कछार और उससे दूर पटपर कछार। यहां एक और कछार है- सरकी कछार, इस नाम की कई शास्त्रीय व्याख्या होती है, यह भी माना जाता है कि छेरकी ही सरकी बन गया, संभव है, क्योंकि स-द, छ-स होता रहता है, ज्यों रायपुर के पास का गांव छेरीखेड़ी-सेरीखेड़ी। सरकी का जोड़ सरकना है यानी रेंगना या खिसकना, छत्तीसगढ़ी का सलगना- पेट के बल सरक-सरक कर चलना, सरीसृप की तरह। मगर यह भी संभव जान पड़ता है कि यह सरकी-चटाई या टाट (ज्यों टाट-पैबंद या टाटीबंद) यानि समतल-पटपर का समानार्थी है मगर ‘दादर‘ से कुछ अलग।

संकरी नदी पर दुरदुरी आता है, जो तुरतुरिया, खरखरा, सुरसुरी की तरह पानी के बहाव से होने वाली ध्वनि से बना शब्द है। मगर यह सोचने का रास्ता दिखाता है कि जलधारा का बहाव कैसा है, स्थान पथरीला, रेतीला, चौड़ा-संकरा, छोटा-लंबा, कम-अधिक ऊँचाई वाला, धाराओं में बंटा हुआ या अन्य कुछ। जिस तरह का नाम है, यानि नामानुरूप ही ध्वनि सबको सुनाई देती है या इस पर सुनने वाले और आंचलिक भाषा का भी प्रभाव होता है। जलधाराओं की बात हो तो गंगा का स्मरण होता ही है और गंगा के लिए कहा जाता है- ‘गं गं गच्छति गंगा‘।

बजरहा यादव जी ठेठवार मिले, मैं पूछता हूं- देसहा, कनौजिया, कोसरिया, झेरिया, बरगाह, महतो? मुस्कुरा कर छोटा सा ‘पॉज‘ देते मेरे इस ‘ज्ञान‘ को ध्वस्त करते हुए गर्व से बताते हैं-दुधकौंरा। दुधकौंरा सुनकर पहले तो रायपुर का मठ, दूधाधारी-दुग्धआहारी याद आया फिर ठेठवारों के ‘कौंराई‘ का। मैं भी हार मानने को तैयार नहीं, कभी पाली-कटघोरा की ओर किसी कौंराई ठेठवार से मिला था, कौंराई से तुक जमाने की कोशिश करता हूं, वे टस से मस नहीं होते। मड़वा महल में बैठे हैं, आसपास छेरी चराते हैं। अब इन दोनों महलों मड़वा और छेरकी की ओर ध्यान जाता है। महल, पत्थरों वाली पक्की इमारत के कारण नाम पड़ा होगा और मड़वा, इस मंदिर के साथ जुड़ी रोचक बात कि मंदिर के सामने का स्तंभयुक्त मंडप, शादी के मड़वा जैसा है साथ ही इस स्मारक का एक नाम ‘दूल्हादेव’ मंदिर प्रचलित रहा है। इस मंदिर की बाहिरी दीवार पर जंघा में विभिन्न मिथुन मूर्तियां हैं, कुछ अजूबी भी। गर्भगृह के सामने से बाईं ओर परिक्रमा शुरू करें तो, काम-कला वाली मिथुन प्रतिमाओं का ‘अजीबपन‘ बढ़ता जाता है और आखिरी पहुंचते तक शिशु को जन्म देती नारी प्रतिमा है। मिथुन प्रतिमाओं के कारण ‘छत्तीसगढ़ का खजुराहो‘ के नाम से इसकी ख्याति रही, खजुराहो काम-कला वाली मिथुन मूर्तियों का पर्याय बन गया। मंडपयुक्त संरचना, मड़वा वाले इस महल की मूर्तिकला से यह मान लिया गया है कि इस मंदिर की दीवार पर विवाह उपरांत गृहस्थ जीवन के काम पुरुषार्थ के लिए ‘कामसूत्र‘ का शिल्पांकन किया गया है, जो नर-नारी समागम-संसर्ग से संतानोत्पत्ति करते वंशवृद्धि के ज्ञान देने वाली मूर्तियों में जीवंत प्रशिक्षण वाली पाठशाला जैसा है। कहा जाता है, यहां भाई-बहन का साथ जाने का निषेध है, मगर ऐसा अब तक नहीं सुना कि विवाह के बाद इस मंदिर के दर्शन और परिक्रमा करने का नियम है।
पश्चिमाभिमुख मडवा महल मंदिर
दक्षिणी जंघा पर प्रतिमाएं

कछार और छेरकी या छेरी यानि बकरी-बकरे को जोड़ कर सोचने का प्रयास करता हूं। छेरकी महल के लिए कहा जाता है कि छेरी चराते हुए, बरसात हो जाने पर बकरी चराने वाले चरवार इस मंदिर में शरण लिया करते थे, संभव है मगर लगता है कि इस कछारी इलाके में गोपालक भी बड़ी तादाद में बकरा-बकरी पालन करते हैं इसलिए छेरी-चरवार हैं। फिर बात आती है कि क्या कछार और छेरी का रिश्ता शब्द ‘छ-र‘ से आगे भी कुछ है। गोवंश और अजवंश के एक खास अंतर की ओर ध्यान जाता है। अजवंश की उपरी और निचली, दोनों दंतपंक्तियां होती हैं, जबकि गोवंश की उपरी दंतपंक्ति नहीं होती, इसलिए दोनों की चराई में अंतर होता है। संभव है कि सामान्य मैदानी घास-पात गोवंश के चरने भरण-पोषण के लिए अधिक उपयुक्त होता हो और कछारी भूमि की वनस्पति अजवंश, बकरे, घोड़े और हिरण परिवार के जीवों के लिए। इस क्षेत्र में देसी बकरे ही पाले जाते हैं जो बौनी-नीची झाड़ियों और घास वाली चराई क्षेत्र में graze करते हैं लंबे और लटके कान वाले जमनापारी बकरे, जो graze के बजाय browse करते हैं, ऐसे चराई क्षेत्र के लिए अनुकूल साबित नहीं होते। ‘हरिन छपरा‘ गांव भी दूर नहीं है। उल्लेखनीय कि यहां नाम छेरी-छेरकी है, इसी तरह सरगुजा में प्राचीन मंदिर ‘छेरकी नहीं छेरका‘ हैं। खैर! अपनी विशेषज्ञता का क्षेत्र न हो तो उस पर बहुत बातें करना अपनी जांघ उघाड़ने जैसा है, फिर भी इतना तो मुंह मारा ही जा सकता है।
छेरकी महल मंदिर


यहां एक परत और है, छेरकी महल के आसपास लीलाबाई यादव जी मिल जाया करती थीं और पूछने पर धाराप्रवाह कहानी सुनाती थीं- ‘देवांसू राजा बिना महल के राखय छेरिया, त छेरकिन कहिस, अतका तोर छेरी-बेड़ी ला चराएं देव, फेर एको ठन महल नई बनाये। अभी हमर देवता-देवता के पहर हावय कोई समय मनखे के पहर आहि, त देखे-घुमे ल आही अइसे कहि के। त कस छेरकिन, महूं त एके झन हावंव, कइसे महल बनावंव कथे। चल त एकक कनि तोर छेरिया चराहूं, एकक कनि महल बनान लगहूं। त छेरी चरात-चरात छेरकिन अउ देहंसू राजा बनाय हे एला। बन लिस त भीतरी म दे छेरिया ओल्हियाय हे। त आघू छेरी के लेड़ी रहय इंहा, भीतरी म। ए मडवा महल, भोरमदेव कस भुईयां म गड्ढा रहिसे। त फर्रस जठ गे, माटी पर गे, छेरी लेड़ी मूंदा गे। अब पर्री परया अचानक भकरीन-भकरीन आथे, बकरा ओइले सहिं, तेखर सेती छेरकी महल आय एहर। अउ, भोरम राजा हर न भरमे-भरम में बने हे।‘

मैदानी छत्तीसगढ़ के गांवों में गुड़ बनाने के लिए सामुदायिक गन्ने की पैदावार, सामुदायिक रूप से बरछा में ली जाती थी। बरछा, तालाब के नीचे की भूमि होती थी। अब भोरमदेव, कवर्धा क्षेत्र की एक पहचान शक्कर कारखाना और गन्ना उपजाने वाले इलाके की भी है। यहां संकरी नदी है। छत्तीसगढ़ में सांकर, संकरी जैसी संज्ञाधारी कई-एक हैं, जिनमें ओड़ार संकरी, संकरी-भंइसा, संकरी-कोल्हिया जैसे ग्राम नाम और संकरी नदी को इन सब के साथ जोड़ कर देखना होगा। संकरी, वर्णसंकर है? सांकर यानी संकल-जंजीर है? संकरा यानी कम चौड़ा है? छत्तीसगढ़ी में कहा जाता है- ‘अलकर सांकर‘। संकरी नदी के करीब का एक नाम चैतुरगढ़-कटघोरा-कोरबा वाली शंकरखोला की जटाशंकरी-अहिरन। इस तरह संकरी, शिव-शंकर के पास भी है। और क्या इसका शर्करा-शक्कर से जुड़ा होना संभव है। पुराने अभिलेखों में शर्करापद्रक, शर्करापाटक, शर्करामार्गीय, गुड़शर्कराग्राम जैसे स्थान-क्षेत्र नाम आते हैं, ये नाम क्या शक्कर से संबंधित हैं या नदी के रेत-कण को महिमामंडित किया गया है- बुझौवल तो है ही, ‘बालू जैसी किरकिरी, उजल जैसी धूप, ऐसी मीठी कुछ नहीं, जैसी मीठी चुप।‘

जेन अभ्यास होता है, जिसमें सारे विचार ‘मू‘ के अव्यक्त में पहुंचकर मौन हो जाते हैं, ‘चुप‘।

Monday, October 20, 2025

छत्तीसगढ़ ऐसा भी

छत्तीसगढ़ी, हलबी, भतरी, गोंड़ी, कुड़ुख, सादरी, सरगुजिया आदि भाषी हम, इन भाषा-विभाषाओं में हो रहे लेखन से जुड़े होते हैं, छत्तीसगढ़ पर हिंदी और अंग्रेजी में हो रहे लेखन से भी परिचित होते रहते हैं मगर हमारा ध्यान इस ओर कम जाता है कि छत्तीसगढ़ से जुड़े अन्य भाषा-भाषी, अपनी भाषा में छत्तीसगढ़ को किस तरह देखते हैं, उसे अपनी भाषा में किस तरह अभिव्यक्त करते हैं। इस दृष्टि से मेरी जानकारी में (छत्तीसगढ़ के) असमी, उड़िया, बांग्ला और मराठी भाषी मुख्य हैं।

पिछले कुछ समय में ऐसी एक मराठी और दो बांग्ला पुस्तक देखने को मिली। मराठी पुस्तक डॉ. नीलिमा थत्ते-केळकर की 2023 में प्रकाशित ‘आमचो छत्तीसगढ़‘ है। बांग्ला पुस्तकों में एक नारायण सेनगुप्ता की 2008 में प्रकाशित ‘अपरूपा छत्तीसगढ़‘ है और दूसरी रंजन रॉय की 2020 में प्रकाशित ‘छत्तिशगड़ेर चालचित्र‘ है।


‘आमचो छत्तीसगढ़‘ की लेखक ने पाठकों को संबोधित कर बताया है कि-


शीर्षक पढ़कर शायद लगे कि मैंने गलती से ‘आमचा‘ की जगह ‘आमचो‘ लिख दिया है। लेकिन ऐसा नहीं है। छत्तीसगढ़ी में यही कहते हैं। यह राज्य हमारा सबसे नज़दीकी पड़ोसी होने के बावजूद, हम इसके बारे में ज्यादा नहीं जानते। इसका एहसास मुझे दो साल पहले हुआ। जब यात्रा तय हुई, तो मैंने नियमित अध्ययन करके काफ़ी जानकारी इकट्ठा की। फिर, अपनी यात्राओं के दौरान, इस अनजान क्षेत्र ने मुझे इतना अनूठा और समृद्ध अनुभव दिया कि इसे और लोगों के साथ साझा करने का मन हुआ। मैंने फ़ेसबुक और विपुलश्री पत्रिका में लेखों की एक श्रृंखला के ज़रिए ऐसा करने की कोशिश की। फिर भी, मुझे लगा कि ज्यादा लोगों तक पहुँचने की ज़रूरत है। तो अब, यह किताब शुरू होती है।

इस राज्य में क्या नहीं है? गुफाओं में मानव निवास के समय का इतिहास, खुदाई में मिले प्राचीन अवशेष, पहाड़ियों और घाटियों से बहती नदियाँ-झरने जैसी भौगोलिक विशेषताएँ, हरे-भरे धान के खेतों और मनमोहक वृक्षों से सजी यहाँ की प्रकृति, उससे जुड़े आदिवासी, उनके गोदना, उनके नृत्य, उनकी विचित्र अवधारणाएँ, मिट्टी और धातु की विशेष कला, मंदिर, मूर्तियाँ, मंदिरों से जुड़ी प्राचीन कथाएँ, रामायण-मेघदूत जैसे काव्यों से जुड़े सूत्र और इढ़र, चीला, फरा जैसे प्रामाणिक स्थानीय व्यंजन, और भी बहुत कुछ! रायपुर, बिलासपुर, रायगढ़, सरगुजा, दुर्ग, राजनांदगाँव, बस्तर यहाँ के प्रमुख जिले हैं।

कवर्धा ज़िले का भोरमदेव मंदिर छत्तीसगढ़ का खजुराहो है और चित्रकूट जलप्रपात छोटा नियाग्रा। मैनपाट यहाँ का शिमला है और राजिम यहाँ का प्रयाग! आप इस छत्तीसगढ़ के बारे में ज़रूर जानना चाहेंगे।

मैंने स्कूल में एक शपथ ली थी। उसमें एक वाक्य था, ‘मुझे अपने देश की समृद्ध और विविध परंपराओं पर गर्व है।‘ इस वाक्य का सही अर्थ समझने के लिए मैं इधर-उधर भटकने लगी। असम, अरुणाचल, ओडिशा, बिहार, गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक की यात्रा ने मुझे बहुत कुछ दिया। अब इसमें छत्तीसगढ़ भी जुड़ गया है।

यद्यपि मैंने समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए लेख और लेखों की श्रृंखला लिखी है, लेकिन पुस्तक लिखने का यह मेरा पहला प्रयास है।

यह कोई जानकारीपूर्ण पुस्तिका नहीं है। यह पर्यटन पर लिखी अन्य पुस्तकों की तरह संरचित नहीं है, न ही यह परिपूर्ण होने का दावा करती है। मैं बस आपको छत्तीसगढ़ वैसा दिखाना चाहती हूँ जैसा मैंने उसे देखा। मैंने इस पुस्तक का कोई मूल्य निर्धारित नहीं किया है। क्योंकि मैं वहाँ देखी गई प्रकृति, कला और लोगों के जीवन का मूल्यांकन कैसे कर सकती हूँ? मैं बस यही चाहती हूँ कि आप भी इन सबका उतना ही आनंद लें जितना मैंने लिया।

दूसरे संस्करण के अवसर पर - मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं किताब लिखूँगी। लेकिन मैंने लिखी और प्रकाशित भी कर दी! इतना ही नहीं, पहली किताब का दूसरा संस्करण भी सिर्फ़ डेढ़ महीने में आने वाला है। पाठकों की ज़बरदस्त प्रतिक्रिया देखकर मुझे बहुत खुशी हो रही है।

पहले संस्करण की कीमत स्वैच्छिक रखी गई थी और एकत्रित सारी धनराशि बस्तर क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों को भेज दी गई थी।

पाठकों की विशेष माँग पर अब यह दूसरा संस्करण रियायती मूल्य पर लाया गया है। इसमें छत्तीसगढ़ का मानचित्र देवनागरी लिपि में भी दिया गया है। इस संस्करण की बिक्री से प्राप्त राशि का उपयोग भी पूर्ववत ही किया जाएगा।

इस पुस्तक के छत्तीस स्थल-स्मारक आदि शीर्षकों में भोरमदेव, ताला, मदकू, मल्हार, सिरपुर, राजिम, चित्रित शैलाश्रय, केशकाल, कोंडागांव, बस्तर, बारसूर, रायपुर, रामगढ़, चंदखुरी, मैनपाट और अमरकंटक आदि हैं।

बांग्ला पुस्तकों में पहली ‘अपरूपा छत्तीसगढ़‘ में लेखक के परिचय में बताया गया है कि उनका जन्म 1933 में हुआ। पाँच दशकों से अधिक समय से साहित्य सेवा में संलग्न हैं। 12 प्रकाशित पुस्तकें हैं तथा पाँच पत्रिकाओं व छह संस्मरणों का संपादन किया है। दिल्ली के चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट द्वारा बाल साहित्य में पुरस्कृत तथा विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित हैं। उन्होंने स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य किया। वर्तमान में, वे छत्तीसगढ़ बांग्ला अकादमी के मुख्य सलाहकार हैं।

पुस्तक में लेखक ने बताया है कि-

‘छत्तीसगढ़ की इस धरती पर 38 वर्ष का लंबा समय बीत चुका है। मुझे छत्तीसगढ़ के आकाश, वायु, लोगों, लोक उत्सवों, साहित्य और समाज को बहुत करीब से देखने का अवसर मिला है। उसी का प्रतिबिम्ब ‘अपरूपा छत्तीसगढ़‘ है। श्री सिंह बनर्जी (सिद्धार्थ नाम सार्थक) और उनकी पत्नी पी.के. गांगुली, बंबई के ‘आनंद संगबाद‘ समाचार पत्र के मेरे प्रिय दो प्रमुख, दुनिया भर के बंगालियों को एक मंच पर लाने और रिश्तेदारों के साथ बैठकें करने के प्रयास में बंगाल, आउटर बंगाल और विश्व बंगाल का भ्रमण कर रहे हैं। इन बैठकों के दौरान, एक दिन उन्होंने हमारे निवास पर एक सुखद शाम बिताई। इसकी पहल ‘छत्तीसगढ़ बांग्ला अकादमी‘ द्वारा की गई थी। बिलासपुर की लगभग सभी बंगाली संस्थाओं के प्रतिनिधि उपस्थित थे। आनंद संगबाद के प्रतिनिधियों ने इसे एक सूत्र में पिरोया। विदाई के समय, उन्होंने उस स्मृति को अपने हृदय में जीवित रखने के लिए एक पांडुलिपि भेजने का अनुरोध किया था। वह पांडुलिपि है ‘अपरूपा छत्तीसगढ़‘। ... छत्तीसगढ़ बांग्ला अकादमी के मुखपत्र ’मातृभाषा‘ के सुयोग्य संपादक और बिलासपुर शाखा के अध्यक्ष डॉ. चंद्रशेखर बनर्जी ने इस पुस्तक के लेखन में विविध प्रकार से योगदान दिया है। ... उनके सच्चे सहयोग के बिना, मेरे लिए अपने रुग्ण शरीर में कुछ दुर्लभ जानकारी एकत्रित करना संभव नहीं होता। ... मेरे मित्र भास्कर देव रॉय ने जानकारी और तस्वीरें एकत्रित करके मेरी विभिन्न प्रकार से मदद की है - मैं उनका आभारी हूँ।‘

पुस्तक में छत्तीसगढ़ के पर्यटन स्थल, छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति, छत्तीसगढ़ के लोकनाट्य और लोकगीत, कथक नृत्य और छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ के विवाह रीति रिवाज, विभिन्न व्यवसायों में छत्तीसगढ़ की महिलाएँ, बस्तर जिले का प्रसिद्ध दशहरा उत्सव, स्वतंत्रता आंदोलन में छत्तीसगढ़ की भूमिका, स्वतंत्रता आंदोलन में बिलासपुर का अतिरिक्त योगदान, छत्तीसगढ़ और बंगाली साहित्य जैसे शीर्षक हैं।

दूसरी बांग्ला पुस्तक ‘छत्तिशगड़ेर चालचित्र‘ के लेखक परिचय में बताया गया है कि उनका जन्म 1950 में कोलकाता में हुआ। ग्रामीण बैंक में अपनी नौकरी के दौरान उन्हें तीन दशकों तक छत्तीसगढ़ के ग्रामीण और आदिवासी जीवन को करीब से देखने का अवसर मिला। उन्हें साहित्य, अर्थशास्त्र, राजनीति और दर्शन पर किताबें पढ़ना और बातचीत करना पसंद है। उनकी विशेष रुचि ‘मौखिक इतिहास‘ में है। कुछ अन्य प्रकाशनों के अतिरिक्त ‘चरणदास चोर-तीन छत्तीसगढ़ी परीकथाएँ हैं। यह पुस्तक ग्रामीण छत्तीसगढ़ के लोक जीवन, भावनाओं, प्रेम और जाति की कहानी है।

पुस्तक का भाग 1: जलरंग और भाग 2: जाति की कहानी है, जिसमें लेखक के संस्मरण हैं। परिशिष्ट में भौगोलिक और राजनीतिक पहचान, पौराणिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, छत्तीसगढ़ के प्रमुख बंगाली और छत्तीसगढ़ का लोक जीवन है। यह पुस्तक मेरे लिए खास, क्योंकि पुस्तक का ‘उत्सर्ग‘ यानी समर्पण है- ‘डॉ. राहुल सिंह, एक प्रसिद्ध इतिहासकार, पुरातत्वविद् और लोक कला विशेषज्ञ‘

टीप - संभव है कि अपनी भाषाई समझ की सीमा के कारण कुछ अशुद्धियां, त्रुटियां हों। सुझाव मिलने पर यथा-आवश्यक संशोधन कर लिया जावेगा।