Thursday, February 27, 2025

आइआइटी, भिलाई

छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद कई बार ऐसा अवसर आया, जब छत्तीसगढ़ से बाहर, इसकी पहचान के लिए बताना पड़ा- ‘भिलाई‘, स्टील प्लांट वाला छत्तीसगढ़। आज 27 फरवरी 2025 को भिलाई आइआइटी के एक आयोजन में शामिल होने का अवसर, जिसमें सांस्कृतिक धरोहर और भाषाई बहुलता, पारंपरिक ज्ञान-पद्धति, समष्टि चेतना आदि पर चर्चा है। इस मौके पर याद करता हूं, 14 जून 2018 को भिलाई में आयोजित शिलान्यास कार्यकम, जिसकी तैयारियों में संस्कृति विभाग के प्रतिनिधि के रूप में मैंने कर्तव्य-निर्वाह किया था। तब भिलाई आइआइटी, सेजबहार, रायपुर में संचालित था। 

अब आइआइटी भिलाई स्वयं के भवन-परिसर में है। इसके स्थल चयन और निर्माण के दौरान ‘कुटेलाभांठा‘ नामोल्लेख होता था। इस नाम में ‘भांठा’ समतल-सपाट और लगभग अनउपजाउ भूमि है और ‘कुटेला‘ यानि छोटा मुगदर, मुगरी। कपड़ा धोने में उसे पछाड़ा-पटका जाता है और पीटा-कूटा भी जाता है, कूटने के लिए काम में या ऐसे ही किसी काम में प्रयुक्त होने वाला लकड़ी का बल्ला ‘कुटेला‘ कहलाता है। यही कुटेला देशी क्रिकेट ‘रामरेस‘ में बल्ला भी बन जाता है। 

कुटेला शब्द का एक परिचय और होता था। पहले गरमी की रात खुले आंगन में सोते हुए बड़े-बुजुर्ग ‘स्टार गेजिंग‘ कराते थे, तब आकाशगंगा ‘हाथी धरसा‘ होता था, ‘सप्तर्षि‘ खटिया-खुरा चोर, सुकवा-शुक्र के अलावा नांगर-कुटेला दिखाया-पहचान कराया जाता था। आकाश में इनकी स्थिति से रात के पहर और सूर्योदय का अनुमान किया जाता था। ग्राम नाम का यह कुटेला, ऐसे ही किसी स्रोत से प्रेरित होगा। 

इसके साथ भिलाई पर भी ध्यान गया। पता चलता है कि 1955 में 47 गांवों की भूमि-अधिग्रहित करने की अधिसूचना जारी हुई थी। मगर भिलाई पर विचार करने के पहले उन 47 गांवों में से कुछ के नाम पर ध्यान दें- जल-आशय के नाम ‘रुआबांधा‘, ‘बावली‘ है। पथरीला ‘पथर्रा‘ है। नया गांव ‘नवागांव‘ है और पुराना गांव ‘जुनवानी‘ है। जीव-जंतुओं पर नाम ‘बेंदरी‘, ‘घुघवा‘, ‘परेवाडीह‘ हैं। वनस्पति पर ‘पचपेड़ी‘, ‘डूमरडीह‘, ‘परसदा‘ है। मिश्रित वनखंड ‘दादर‘ है और प्राचीन स्मारक, मंदिर वाला दैव स्थल ‘देवबलौदा‘ है। इस तरह यहां जैव-विविधता और भू-विविधता के साथ प्राचीन संस्कृति और सभ्यता के धरोहर और उनकी स्मृति विद्यमान है। 

भिलाई, भलाई और भील के पास का शब्द है, मगर यहां प्रासंगिक नहीं जान पड़ता। भिलाई का उच्चारण लोक-जबान में सामान्यतः ‘भेलाई‘ होता है और इस उच्चारण का आधार लेना ही उचित जान पड़ता है। भेलाई के साथ पहले ध्यान जाता है भेल पर, यों तो एक भेल, बीएचइएन यानि भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स भी है, मगर एक अन्य भेल-पूरी है, जो कुछ खाद्य-सामग्री का मेल है, यह मूल आशय के कुछ पास बैठ सकता है। छत्तीसगढ़ी में अब कम प्रचलित एक भेल है, जो पतंगबाजी के दौरान इस्तेमाल होता है। दो पतंगों के बीच पेंच लड़ती है, भिडंत होती है तब किसी एक पतंग के कटने की संभावना बन जाती है और तमाशबीन बच्चे ‘भेल‘ चिल्लाते हुए अपना लग्गा तैयार कर, कटी पतंग लूटने के लिए दौड़ना शुरु करते हैं। हिंदी शब्दकोश से पता चलता है कि शब्द ‘भेला‘ है, जो पद्य में प्रयुक्त होता है, जिसका अर्थ भेंट-मुलाकात, भिड़ंत है और पिंड भी, जैसाकि गुड़ की ‘भेली‘ में आता है। 

‘भेलाई‘ के करीब एक अन्य वानस्पतिक शब्द भेलवां या भिलावां है, यह एक प्रकार का जंगली काजू का पेड़ है, जिसका फल भून कर खाया जाता है, छिल्के से पक्का काला रंग ‘परमानेंट ब्लैक मार्किंग इंक‘ बनता है, जिसका उपयोग धोबी, कपड़़ों में चिह्न लगाने के लिए किया करते थे। इसका एक अन्य उपयोग मवेशी चोर किया करते थे, चोरी किए मवेशी के सींग और देह पर यह स्याही नगा कर उसका रंग-रूप बदलने के लिए ताकि उसकी पहचान न हो सके। कुछ लोग इस वृक्ष के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं, कहा जाता है कि जिसे इससे एलर्जी है, वह इस पेड़ के नीचे से भी गुजरा, छाया भी पड़ गई तो पूरे शरीर पर चकत्ते उभर जाते हैं। 

यह सब तो भाषाई उद्यम हुआ, मगर इससे क्या किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं? संभावित निष्कर्ष के लिए यह भी ध्यान रखना होगा कि भिलाई नाम के कम से कम आधा दर्जन गांव छत्तीसगढ़ में हैं। निष्कर्षतः एक संभावना बनती है कि इस क्षेत्र में भेलवां के पेड़ रहे हों और दूसरी किन्हीं दो भू-आकृतियों, मार्गों या जलधाराओं आदि का मेल-जोड़-कटाव रहा हो। अन्य भिलाई नाम वाले ग्रामों पर इस दृष्टि से परीक्षण करने पर इस आसपास का निष्कर्ष पुष्ट होने की संभावना है, यह भी संभव है इस सबसे इतर कोई एकदम नई और अलग बात पता लगे। 

कुटेलाभांठा स्थित इस भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, भिलाई की पृष्ठभूमि में, उसके इतिहास-भूगोल में निहित सभ्यता और संस्कृति के लक्षण पहचाने जा सकते हैं। संस्थान ने ‘संस्कृति, भाषा और परंपरा केंद्र‘ की स्थापना कर छत्तीसगढ़ के आदिम चित्रित शैलाश्रय, पुरातत्वीय स्मारक और विशिष्ट उत्पादों के जीआइ टैग आदि के क्षेत्र में वैज्ञानिक अध्ययन आरंभ कर दिया है। छत्तीसगढ़ के प्राचीन धरोहर-स्मारकों में मानव सभ्यता के उत्कृष्ट प्रमाण, संस्कृति और परंपरा घनीभूत हैं। बस्तर में दंतेवाड़ा, बारसूर और भोंगापाल तो सरगुजा में रामगढ़, डीपाडीह और महेशपुर जैसे केंद्र हैं। इसके अलावा रायगढ़, कांकेर-चारामा में चित्रित शैलाश्रय हैं, सिरपुर, मल्हार, भोरमदेव, शिवरीनारायण जैसे स्मारक-केंद्र है, अकलतरा-कोटगढ़ में विशाल मृत्तिका दुर्ग है। इन धरोहरों में स्थानीय ज्ञान परंपराओं का समावेश होकर यह जीवन के सहज, सुगम और सुखद निर्वाह का साधन बन सार्थक हो। इस धरोहर के साथ जीवंत तादात्म्य स्थापित करने के प्रयासों को अब गति मिलेगी, संस्थान इन परंपराओं में सहभागी बनकर भविष्य भी गढ़ेगा, विश्वास है। 

यह नोट तैयार करते हुए तथ्यों की जानकारी और पुष्टि के लिए भिलाई के श्री संजीव तिवारी, जाकिर हुसैन, परदेशीराम वर्मा, गंडई के श्री पीसीलाल यादव, रायपुर के श्री राकेश तिवारी, डॉ. शिव कुमार पांडेय तथा अकलतरा के श्री रमाकांत सिंह व श्री रविन्द्र सिसौदिया से फोन पर बात करना उपयोगी हुआ, आप सभी के प्रति आभार।

Friday, February 7, 2025

शब्दों से परे कविता

कविताओं की मेरी समझ और रुचि संकीर्ण है, मगर परिचितों की कविता पढ़ने को अवश्य उत्सुक रहता हूं। एक खेल-सा होता है कि रचनाकार का व्यक्तित्व जैसा प्रकट है और जिस तरह परिचित हूं, उसकी रचनाओं की संगति कितनी बैठती है और फिर वह ऐसा कवि हो, जो प्रशासनिक अधिकारी हो और जिसके मातहत काम किया हो तब यह खेल और भी रोचक हो सकता है, कुछ-कुछ रोमांचक भी, मगर अंतराल लंबा हो तो यह रोमांच वैसा नहीं रह जाता और कवि-पाठक के रिश्ते का सहज निर्वाह संभव हो जाता है। यही स्थिति बनी त्रिलोक महावर जी की पुस्तकें पा कर। 

उनकी चार पुस्तके हाथ में हैं- ‘शब्दों से परे‘-2018, कविता का नया रूपाकार‘-2020, ‘नदी के लिए सोचो‘-2021 दूसरा संस्करण, ‘आज के समय में कविता‘-2022। 

‘शब्दों से परे‘ उनकी चयनित कविताएं हैं, आवरण शशांक का है, जिन्होंने उनकी कविताओं पर विमर्श की पुस्तक कविता का नया रूपाकार‘, जिसमें उनके संग्रह ‘शब्दों से परे‘ और ‘हिज्जे सुधारता है चाँद‘ पर केंद्रित विमर्श हैं, के लिए चयन किया है, संभव है कि ‘शब्दों से परे‘ की कविताओं के चयन में भी उनका मशविरा रहा हो। ‘आज के समय में कविता‘ भी उनके संग्रह ‘शब्दों से परे‘ से संबंधित है, जो उसके विमोचन पर एक सत्र में आयोजित परिचर्चा का दस्तावेज है, जबकि ‘नदी के लिए सोचो‘, उनका अन्य कविता संग्रह है। 

‘नदी के लिए सोचो‘ की कुछ कविताएं ‘शब्दों से परे‘ में भी हैं। कविताओं में बेतवा, इंद्रावती, तमसा, यमुना, बैनगंगा आदि नदी है, चांद के साथ और जंगल-दरख्त भी। नदी दुबलाती है, सिकुड़ती है, मौन रहती है, उसकी कमर कुछ ज्यादा ही झुक जाती है, कभी नवयौवना भी है, नदी रोती भी है, नदी सिसकती है, अब सपने में आती है, जैसे शब्द, पाठक को शब्दों से परे सहज ले जाते हैं। पर्यावरण के हालात भी कवि को रचने के लिए बाध्य करते हैं। ‘शब्दों से परे‘ में रूमानी कविताएं भी हैं और कम शब्दों में बात कहने के हुनरमंद, इस संग्रह की अंतिम और लंबी कविता ‘सिक्के की आखिरी साँस में मानों अपनी स्मृति के सारे पड़ाव को चवन्नी के बरअक्स देख-दिखा लेना चाहते हैं। 23 पाद टिप्पणियों वाली कविता, बस्तरिया भाषा-संस्कृति के शब्दों से अभिव्यक्त, कवि की तरल स्मृति का प्रवाह जैसा है। 

सीधे, सपाट बात कह कर असर पैदा करना, जैसे स्वयं शीर्षक ‘नदी के लिए सोचो‘ भी, इसे समीक्षकों द्वारा कितना काव्य माना जाता है, पता नहीं, लेकिन मन को छूता जरूर है। मगर नामवर सिंह, विनोद कुमार शुक्ल, राजेश जोशी, सतीश जायसवाल, राधेलाल विजघावने, राम अधीर, तेजिन्दर, शशांक, रामकुमार तिवारी, रमेश अनुपम, संजीव बख्शी, रऊफ परवेज, लक्ष्मीनारायण पयोधि, नारायण लाल परमार, विजय सिंह, सतीश कुमार सिंह नथमल शर्मा, सुधीर सक्सेना, शाकिर अली जैसे मर्मज्ञ और सुधिजन, इन कविताओं का मूल्यांकन कर चुके हैं, फिर और कुछ कहने को बस इतना कि मेरा भी वोट, इन कविताओं को। 

कविता ‘कहि देबे संदेश‘ की आखिरी पंक्तियां हैं- रोटी की आस है/ पानी की प्यास है/ धरती उदास है‘ मगर कवि यह भी मानता है कि- ‘ठिठुरती हुई जिजिविषा को भरोसा है/ एक दिन नदी फिर बहेगी/ धूप के साथ-साथ‘।

Thursday, February 6, 2025

नार्वे की खुशहाली

अजायबघर के सैर की तरह है, प्रवीण झा की ‘खुशहाली का पंचनामा’।

बचपन में किताब पढ़ी थी ‘ये भी मानव हैं‘, अब यह किताब पढ़ते हुए लगा कि नार्वे, यह भी एक देश, एक समाज है, ऐसे भी नागरिक, लोग होते हैं, ऐन्ड्रूयू ब्रेविक जैसे अपराधी, उसकी ‘सजा‘ और उसके साथ होने वाला सलूक!

किताब बताती है कि- ‘पूरे स्कैंडिनैविया में धर्म की शिक्षा भी स्कूलों में अनिवार्य है। पहले लूथेरान क्रिश्चियन पढ़ाई जाती थी। आजकल ईसाई धर्म घटाकर 50 प्रतिशत और बाकी इस्लाम, बौद्ध, यहूदी, हिंदू धर्म पढ़ाए जा रहे हैं। नास्तिकता भी पढ़ाई जा रही है। धर्म की शिक्षा पर कई विवाद हुए पर ये 100 साल से अड़े हुए हैं। कहते हैं, धर्म चाहे दो-चार और बढ़ा लो, ये शिक्षा बंद नहीं होगी।‘ इसके साथ याद आया कि भारतीय परंपरा में अथर्ववेद का मंत्र है- ‘जनं बिभ्रति बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्।‘ अर्थात- “भिन्न-भिन्न भाषा वाले, नाना धर्मों वाले जन को यह पृथिवी अपनी-अपनी जगह पर धारण कर रही है। महाभारत कहता है- धर्मं यो बाधते धर्माे न स धर्मः कुधर्म तत्। अविरोधात् ‌तु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रम।। अर्थात- जो धर्म दूसरे धर्म का बाधक हो वह धर्म नहीं, कुधर्म है। जो दूसरे किसी धर्म का विरोध नहीं करता, वही वास्तविक धर्म है। अशोक का बारहवां शिलालेख, जिसमें सभी धर्मों के सार-वृद्धि की कामना है और कथन कि ‘एक-दूसरे के धर्म को सुनना और सुनाना चाहिये।‘

लेखक पंचनामा करता है, मगर वह डॉक्टर है तो पोस्टमार्टम भी करता है और पाता है कि- ‘मेरे मन में एक शाम यह प्रश्न आया कि क्या सचमुच नॉर्वे एक ‘हैप्पी‘ या प्रसन्न देश है? या यह बस आंकड़ों पर बुना गया एक भ्रम-जाल है? दुनिया का सबसे खुश देश आत्महत्या में भी टॉप 10 में है।‘ और फिर अपनी साइकोलॉजिस्ट दोस्त के साथ अपना समाधान भी निकालता है।

यात्रा संस्मरण में देश और निवासी, निर्मल वर्मा वाले लेखन में शब्द-दर-शब्द साहित्यिक हो जाता है, ज्यों कहना कि- आइसलैंड हरा-भरा है और ग्रीनलैंड बर्फीला। मगर अपने लेखन को बेवजह साहित्य बना डालने के फेर में न पड़े, यह वैसा ही पसंद आने वाला लेखन है, कुछ-कुछ बातचीत की सपाटपन वाला। ऐसा नहीं कि ‘साहित्य है ही नहीं, एक बानगी- ‘नॉर्वे ग्रामसुंदरी है तो स्विट्ज़रलैंड राजनर्तकी। नॉर्वे के पहाड़ों में ग्रामसुंदरी की त्वचा का रूखापन है, यहाँ के पहाड़ बीहड़ हैं; बिना किसी 'फिनिशिंग' के बच्चों के सतोले की तरह जैसे पत्थर एक-दूसरे के ऊपर रख दिए गए हों। जबकि स्विट्ज़रलैंड में कौमार्य कोमलता है, हर पहाड़ तराशा हुआ नवयौवना के वक्ष की तरह।’

तिलक ‘द आर्कटिक होम इन द वेदाज‘ में वेदों आर्यों से उत्तरी ध्रुव का रिश्ता जोड़ते रहे, जिसकी चर्चा यहां भी है, उस पर मुझे याद आते रहे छत्तीसगढ़ में प्रचलित किस्से। कई प्राचीन स्मारकों के साथ यहां दंतकथा प्रचलित है कि उनका निर्माण छमासी रात में हुआ था।

उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव की खोज वाले नार्वे के एमंडसन की चर्चा है। इसे पढ़ते हुए हम मित्रों के बीच का प्रसंग याद आया। ध्रुवीय प्रदेशों की वैज्ञानिक अध्ययन के लिए गया दल बर्फीली हवाओं से जूझता सर्वे स्टेशन स्थापित करने की मशक्कत में लगा था। उधर कोई स्थानीय बर्फीली सतह के बीच एक छेद के उपर हारपून ले कर स्थिर बैठा था कि कब मछली वहां से गुजरते सेकंड भर के लिए रुके और वह उस पर वार करे। सर्वे टीम का सदस्य सोचने लगा कि हम स्टेशन खड़ा करने के लिए घेटों जूझ रहे हैं और एक ये श्रीमान हैं जो फुरसत से मछली मारने के लिए बैठे हुए हैं। इस पर हमारे मित्र ने टिप्पणी की, कि वह स्थानीय सोच रहा होगा कि यहां मछली मारने से फुर्सत नहीं और इन्हें देखो, किस बेमतलब काम के लिए समय मिल गया है, जो यहां तक चले आए हैं।

किताब में मछली मारी जाती है, पहाड़ भी एकाधिक बार चढ़ा दिया है। ऐसे दुहराव और भी हैं। स्वस्तिक को हर बार ‘स्वास्तिक‘ क्यों छापा गया है, समझ न सका।