जिसके नाम पर बसे बिलासपुर में वास करते हुए, बिलासा का जिक्र यदा-कदा और स्मरण तो अक्सर होता है, तब सदैव याद आती है, अपने बचपन की केंवटिन दाई। नियत समय पर, नियत स्थान पर हमारे गांव में नित्य-प्रति दंवरी और पर्रा में चना, मुर्रा, लाई, करी-लाड़ू लेकर आती थी। खाइ-खजेना (टिट-बिट) का पर्याय मेरे लिए आज भी यही है। पौराणिकता की चर्चा यहां अनावश्यक होगी, किन्तु जब सन्तोषी माता के प्रसाद में चना-गुड़ बांटा जाता, तो मुझे सदैव स्मरण होता, केंवटिन दाई के खाइ-खजेना का।
कभी चंदिया रोड के पास के गांव कौड़िया-सलैया जाते हुए, उसके अगले गांव बिलासपुर के कुछ लोग मिले, उस दिन मैंने हिमांचल प्रदेश के बिलासपुर के बाद तीसरे बिलासपुर का नाम सुना। चंदिया रोड से शहडोल वापस लौटते हुए रास्ते में वीरसिंहपुर पाली में बिरासिनी देवी की प्राचीन मूर्ति देखने के लिए रुका। वहां मंदिर के बाहर खाइ-खजेना लिए, एक केंवटिन दाई के भी दर्शन हुए।
इन स्फुट स्मृतियों को आपस में जोड़ने के प्रयास में अपनी प्रशिक्षित बौद्धिकता का सहारा लेता हूं तो बीच-बीच का अंतराल फैलने लगता है। लेकिन मन के स्वच्छंद विचरण में ऐसी परिकल्पना आसानी से बन जाती है कि यह सपाट और एकरूप मालूम पड़ता है। वही विरासिनी देवी, वही सन्तोषी माता, वही बिलासा केंवटिन, वही केंवटिन दाई। फिर बौद्धिक प्रतीत होने वाले कई निष्कर्ष उभरने लगते हैं, जिनमें से एक कि निषाद गृहणियां, अपने नाविक गोसइंया के लिए, जिसका यह भरोसा नहीं कि एक बार नदी में हेल जाने के बाद कितनी देर या कितने दिन बाद आए, भूंजा, खाइ-खजेना तैयार करती रही होंगी। सुधीजन और शोधार्थी परीक्षण कर खंडन-मंडन करें, उनका मन रखने के लिए उनके प्रत्येक मत का सम्मान, लेकिन अपने मन का मान कभी बदलेगा, ऐसा नहीं लगता। निष्कर्ष और भी हैं, लेकिन फिलहाल आगे बढ़ें।
इतिहास अपने को दुहराता है या यों कहें- नया कुछ घटित नहीं होता, काल, स्थान और पात्र बदलते रहते हैं और व्याख्याएं बदल जाती हैं। पौराणिक साहित्य में उल्लेख मिलता है कि पहले राजा, पृथु से भी पहले, सर्वप्रथम विन्ध्यनिवासी निषाद तथा धीवर उत्पन्न हुए। भारतीय सभ्यता का प्रजातिगत इतिहास भी निषाद, आस्ट्रिक या कोल-मुण्डा से आरंभ माना जाता है। यही कोई चार-पांच सौ साल पहले, अरपा नदी के किनारे, जवाली नाले के संगम पर पुनरावृत्ति घटित हुई। जब यहां निषादों के प्रतिनिधि उत्तराधिकारियों केंवट-मांझी समुदाय का डेरा बना। आग्नेय कुल का नदी किनारे डेरा। अग्नि और जल तत्व का समन्वय यानि सृष्टि की रचना। जीवन के लक्षण उभरने लगे। सभ्यता की संभावनाएं आकार लेने लगीं। नदी तट के अस्थायी डेरे, झोपड़ी में तब्दील होने लगे। बसाहट, सुगठित बस्ती का रूप लेने लगी। यहीं दृश्य में उभरी, लोक नायिका- बिलासा केंवटिन।
इतिहास के तथ्य तर्क-प्रमाण आश्रित होते हैं, लोक-गाथाओं की तरह सहज-स्वाभाविक नहीं, इसलिए इतिहास नायकों को चारण-भाट-बारोट की आवश्यकता होती है, जो उनकी सत्ता और कृतित्व के प्रमाणीकरण का काव्य रच-गढ़ सकें, पत्थर-तांबे पर उकेरे जा सकें, लेकिन लोक नायकों के व्यक्तित्व की विशाल उदात्तता, जनकवि को प्रेरित और बाध्य करती है, गाथाएं गाने के लिए। इतिहास के तथ्य, तर्क-प्रमाणों से परिवर्तित हो सकते हैं, इसलिए संदेह से परे नहीं होते, किंतु लोक नायकों का सच, काल व समाज स्वीकृत होकर सदैव असंदिग्ध होता है।
इसी तरह 'बिलासा केंवटिन' काव्य, संदिग्ध इतिहास नहीं, बल्कि जनकवि-गायक देवारों की असंदिग्ध गाथा है, जिसमें 'सोन के माची, रूप के पर्रा' और 'धुर्रा के मुर्रा बनाके, थूंक मं लाड़ू बांधै' कहा जाता है। अपने पिता दशरथ की पंक्तियां गाते हुए कुकुसदा की रेखा देवार याद करती हैं– 'राजपुर रतनपुर, कंचो लगे कपूर तीन फूल बेनी म झूले बिलासा केंवटिन चार कुरिया जुन्ना बिलासपुर आज उड़त हे कबिलास।' उसका परिचय इस प्रकार भी दिया जाता है- 'बड़ सतवंतिन केंवटिन ए, कुबरा केंवट के डउकी ए, नाथू केंवट के पत्तो ए, धुर्रा के केंवटिन मुर्रा बनाए, सुक्खा नदी म डोंगा चलाय, भरे नदी म घोड़ा कुदाय।' केंवटिन की गाथा, देवार गीतों के काव्य मूल्य का प्रतिनिधित्व कर सकने में सक्षम है ही, केंवटिन की वाक्पटुता और बुद्धि-कौशल का प्रमाण भी है। गीत का आरंभ होता है-
छितकी कुरिया मुकुत दुआर, भितरी केंवटिन कसे सिंगार।
खोपा पारै रिंगी चिंगी, ओकर भीतर सोन के सिंगी।
मारय पानी बिछलय बाट, ठमकत केंवटिन चलय बजार।
आन बइठे छेंवा छकार, केंवटिन बइठे बीच बजार।
सोन के माची रूप के पर्रा, राजा आइस केंवटिन करा।
मोल बिसाय सब कोइ खाय, फोकटा मछरी कोइ नहीं खाय।
कहव केंवटिन मछरी के मोल, का कहिहौं मछरी के मोल।
आगे सोलह प्रजातियों- डंडवा, घंसरा, अइछा, सोंढ़िहा, लूदू, बंजू, भाकुर, पढ़िना, जटा चिंगरा, भेंड़ो, बामी, कारीझिंया, खोकसी, झोरी, सलांगी और केकरा- का मोल तत्कालीन समाज की अलग-अलग जातिगत स्वभाव की मान्यताओं के अनुरूप उपमा देते हुए, समाज के सोलह रूप-श्रृंगार की तरह, बताया गया है। सोलह प्रजातियों का 'मेल' (range), मानों पूरा डिपार्टमेंटल स्टोर। लेकिन जिनका यहां नामो-निशान नहीं अब ऐसी रोहू-कतला-मिरकल का बोलबाला है और इस सूची की प्रजातियां, जात-बाहर जैसी हैं। जातिगत स्वभाव का उदाहरण भी सार्वजनिक किया जाना दुष्कर हो गया क्योंकि तब जातियां, स्वभावगत विशिष्टता का परिचायक थीं। प्रत्येक जाति-स्वभाव की समाज में उपयोगिता, अतएव सम्मान भी था। जातिवादिता अब सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक प्रस्थिति का हथियार बनकर, सामाजिक सौहार्द्र के लिए दोधारी छुरी बन गई है अन्यथा सुसकी, मुरहा, न्यौता नाइन, गंगा ग्वालिन, राजिम तेलिन, किरवई की धोबनिन, धुरकोट की लोहारिन, बहादुर कलारिन के साथ बिलासा केंवटिन परम्परा की ऐसी जड़ है, जिनसे समष्टि का व्यापक और उदार संसार पोषित है।
अरपा-जवाली संगम के दाहिने, जूना बिलासपुर और किला बना तो जवाली नाला के बायीं ओर शनिचरी का बाजार या पड़ाव, जिस प्रकार उसे अब भी जाना जाता है। अपनी परिकल्पना के दूसरे बिन्दु का उल्लेख यहां प्रासंगिक होगा- केंवट, एक विशिष्ट देवी 'चौरासी' की उपासना करते हैं और उसकी विशेष पूजा का दिन शनिवार होता है। कुछ क्षेत्रों में सतबहिनियां के नामों में जयलाला, कनकुद केवदी, जसोदा, कजियाम, वासूली और चण्डी के साथ 'बिलासिनी' नाम मिलता है तो क्या देवी 'चौरासी' की तरह कोई देवी 'बिरासी', 'बिरासिनी' भी है या सतबहिनियों में से एक 'बिलासिनी' है, जिसका अपभ्रंश बिलासा और बिलासपुर है। इस परिकल्पना को भी बौद्धिकता के तराजू पर माप-तौल करना आवश्यक नहीं लगा।
अरपा में पानी बहता रहा, लेकिन जवाली नाला का सहयोग-सामर्थ्य वैसा नहीं रहा। अब तो शायद संज्ञा में प्रोजेक्ट के चलते 'रोज मेरी' नाम स्थापित हो जाय (जवाली नाला शब्द में पुनः अग्नि-जल समन्वय का आभास है) और अरपा जानी जाए, स्टाप डैम से। अरपा को तब अन्तःसलिला जैसे शब्दाभूषणों की आवश्यकता (मजबूरी) नहीं थी। कलचुरियों की रतनपुर राजधानी पर सन 1740 के बाद मराठों का अधिकार हो गया, 1770 में नदी तट के आकर्षण से बिलासपुर में किले का निर्माण आरंभ हुआ, लेकिन 1818 तक मुख्यालय रतनपुर ही रहा। ब्रिटिश अधिकारियों को रायपुर और बिलासपुर सुगम, सुविधाजनक प्रतीत हुआ। अंततः 1862 में बिलासपुर, जिला मुख्यालय के रूप में पूर्णतः स्थापित हो गया।
शुरुआत में नगर के अंतर्गत तीन मालगुजारी गांव थे- बिलासपुर, चांटा और कुदुरडांड (क्रमशः वर्तमान जुना बिलासपुर, चांटापारा और कुदुदंड)। नगर, किला वार्ड से शनिचरी होते हुए गोल बाजार होकर आगे पसरने लगा और इसके बाद रेल के आगमन से नगर की विकास-गति में मानों पहिए नहीं, पर लग गए। रेलवे की तार-घेरा वाली सीमा और दीवाल वाली सीमा क्रमशः तारबाहर और देवालबंद (वर्तमान दयालबंद) मुहल्ले कहलाए। दाढ़ापारा, दाधापारा हो गया। अब नगर-सीमा में समाहित अमेरी, तिफरा, चांटीडीह, सरकंडा, कोनी, लिंगियाडीह, देवरीखुर्द, मंगला जैसे गांव, पारा-मुहल्ला जाने जा रहे हैं। नगर पर एसइसीएल, रेल जोन, संस्कारधानी, न्यायधानी की और गोंडपारा, कतियापारा, तेलीपारा, कुम्हारपारा, टिकरापारा, मसानगंज पर ...नगर, ...वार्ड, ...कालोनी की परत चढ़ने लगी है।
प्रगति के साथ, नगर की परम्परा का स्मरण स्वाभाविक है। कहा जाता है 'इतिहास तो जड़ होता है' और 'पुरातत्व यानि गड़े मुर्दे उखाड़ना', लेकिन सभ्यता आशंकित होती है तो पीछे मुड़कर देखती है आस्था के मूल की ओर, कि गलती कहां हुई? और ऐसी प्रत्येक स्थिति में सम्बल बनता है, बिलासा केंवटिन दाई का स्मरण-दर्शन। नगर की गौरवशाली परम्परा का मूल बिन्दु- बिलासा केंवटिन, गहरी और मजबूत जड़ें है, जिसके सहारे यह नगर-वृक्ष आंधी-तूफान सहता पतझड़ के बाद बसंत में फिर से उमगने लगता है।
दसेक साल पहले बिलासा कला मंच, बिलासपुर के एक प्रकाशन के लिए डॉ. सोमनाथ यादव ने बिलासा और बिलासपुर पर लिखने को कहा, नियत अंतिम तिथि पर उन्हीं के सामने वादा पूरा करने के लिए जो लिखा, लगभग वही अब यहां।
दसेक साल पहले बिलासा कला मंच, बिलासपुर के एक प्रकाशन के लिए डॉ. सोमनाथ यादव ने बिलासा और बिलासपुर पर लिखने को कहा, नियत अंतिम तिथि पर उन्हीं के सामने वादा पूरा करने के लिए जो लिखा, लगभग वही अब यहां।