Tuesday, November 9, 2021

शिवरीनारायण - गिन्नौरे

भिन्न धार्मिक आस्था और भौगोलिक क्षेत्रों के संबंध-समन्वय की कथाएं और लोक-विश्वास, उदार सोच और सहिष्णुता को संबल देती हैं। इस दृष्टि से यहां प्रस्तुत, रविन्द्र गिन्नौरे जी का यह लेख (छत्तीसगढ़ राज्य गठन के पूर्व) दैनिक भास्कर, सबरंग में ‘रथयात्रा पर विशेष‘ के रूप में प्रकाशित हुआ था।

शिवरीनारायणः जहां जगन्नाथ जी आज भी आते हैं

मैकल पर्वत श्रृंखला के किनारे बिलासपुर से ६४ किलोमीटर दूर दक्षिण-पूर्व दिशा में २९-७१ उत्तरी अक्षांश ८०.५० डिग्री पूर्वी देशांस पर शिवरीनारायण है। महानदी, जोंक और शिवनाथ नदी का संगम जिसे पुराणों में चित्रोत्पला गंगा की उपमा दी गयी है। रामायण की प्रसिद्ध शबरी भीलनी की याद संजोये जहां से कभी भगवान राम गुजरे थे। आज इस ऐतिहासिक नगरी में नर-नारायण की अनेक मूर्तियां हैं। इसलिए इसे पुरूषोत्तम तीर्थ भी कहा गया है। भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों में से एक बुद्ध को माना गया है। इंद्रभूति जो ‘वज्रयान‘ के संस्थापक रहे, उन्होंने ही जगन्नाथ की यहां स्थापना की। जिन्हें बाद में जगन्नाथपुरी में जगन्नाथ के नाम से प्रतिष्ठापित किया। चारों धाम के बीच तीर्थ शिवरीनारायण को इसलिए गुप्त तीर्थ धाम भी कहा जाता है। आज भी पूर्णिमा के दिन जगन्नाथ जी यहां आते हैं और इस दिन जगन्नाथ पुरी में भोग नहीं लगता।

शिवरीनारायण क्षेत्र में घना जंगल था, वहां शबर जाति के लोग निवास करते थे। वे भगवान जगन्नाथ की उपासना किया करते थे। बाद में एक ब्राम्हण ने जगन्नाथ की प्रतिमा शिवरीनारायण से हटाकर पुरी में स्थापित कर दी। इसके बदले में शबरी को वरदान प्राप्त हुआ था कि उनके नाम के साथ शबर नारायण हमेशा जुड़ा रहेगा। (बिलासपुर गजेटियर) इस तथ्य की पुष्टि करते हुए उड़िया के प्रसिद्ध महाकवि सरलादास ने लिखा है ‘भगवान जगन्नाथ स्वामी को शबरी नारायण से पुरी लाकर प्रतिष्ठित किया गया था।‘ इस कथन से यह सिद्ध होता है कि जगन्नाथ जी का मूल स्थान शिवरीनारायण ही है।

शबर एक प्राचीन जाति है जिसका उल्लेख रामायण, महाभारत और पुराणों में मिलता है। शबर प्राचीन काल से ही तंत्र-मंत्र विद्या में प्रवीण थे जिसके उपास्य इष्ट देव भगवान जगन्नाथ थे। कलियुग में इन्हीं शबर के मंत्रों की प्रसिद्धि है। जिसपर आज शबरतंत्र उल्लिखित है।

महामहिम कविराज गोपीनाथ ने लिखा है कि ‘शाबर आदि में मलेच्छ भाषाओं में भी मंत्र रहस्यों की व्याख्या होती थी।‘ इस मंत्रयान से ही वज्रयान की शाखा निकली। वज्रयान तांत्रिक बौद्धों की प्रमुख शाखा है। प्रो. कृष्णदत्त बाजपेयी ने भी छत्तीसगढ़ी क्षेत्र की दो प्राचीन जातियों का उल्लेख किया है जिसमें उन्होंने ‘शबर‘ और ‘निषाद‘ को बताया है।

डा. बलदेव प्रसाद मिश्र ने लिखा है- ‘(शबर) संवरा लोग भारत के मूल निवासियों में से हैं उनके मंत्रजाल की महिमा रामचरित्र मानस तक में की गयी है। शबरी नारायण में भी एक ऐसा शबर था जो भगवान जगन्नाथ जी का भक्त था।

श्री प्यारेलाल गुप्त ने ‘बिलासपुर वैभव‘ में लिखा है-जिस स्थान पर शबरी नारायण बसा, वहां उस समय जंगल था। प्राचीन समय में वहां एक शबर रहता था, वहां जगन्नाथ की मूर्ति थी। वह शबर उस मूर्ति की नित्य नियम से पूजा करता था। एक दिन एक ब्राम्हण ने उस मूर्ति को देख लिया वह उसे वहां से ले गया और जगन्नाथ पुरी में स्थापित कर दी।

भगवान जगन्नाथ की मूर्ति को शबरी नारायण से जगन्नाथपुरी ले जाया गया है, यह इतिहास के तर्कसम्मत विश्लेषण से ज्ञात होता है। परंतु मूर्ति को ले जाने वाले इंद्रभूति थे। इंद्रभूति वज्रयान के संस्थापक थे। डा. एन.के.साहू ने इंद्रभूति के बारे में लिखा है संभल (संबलपुर) के राजा इंद्रभूति जिन्होंने कोसल के इतिहास के अंधकार युग (आठवीं -नौवी शताब्दी) में राज्य किया था। बौद्ध धर्म के वज्रयान संप्रदाय के प्रवर्तक थे। इंद्रभूति पद्मवज्र (सरोरुह) वज्रयान के शिष्य अंगनवज्र के शिष्य थे। इंद्रभूति को कविराज गोपीनाथ ने ‘उड्डयन सिद्ध अवधूत‘ कहा है। सहजयान लक्ष्मीकरा इंद्रभूति की बहन थी। इंद्रभूति के पुत्र पद्मसंभव ने तिब्बत जाकर लामा संप्रदाय का स्थापना की। इंद्रभूति ने अनेक ग्रंथ लिखे। ‘ज्ञान सिद्धि‘ उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध तंत्र ग्रंथ है। उन्होंने अपने ग्रंथ ज्ञान सिद्धि में भगवान जगन्नाथ की बार-बार वंदना की है। इसके पूर्व जगन्नाथ जी को भगवान के रूप में मान्यता नहीं मिली थी। इंद्रभूति जगन्नाथ को भगवान बुद्ध के रूप में देखते थे। जगन्नाथ की प्रतिमा के सम्मुख बैठकर वे तंत्र साधन करते थे। ‘इवेज्र तंत्र साधना‘ और शाबर मंत्रों समन्वय से इंद्रभूति ने वज्रयान संप्रदाय की स्थापना की।

हरि ठाकुर ने लिखा है कि शबर यंत्र साधना और वज्रयान तंत्र साधना की जन्मभूमि दक्षिण कौशल ही है। सन १९०७ तक संबलपुर छत्तीसगढ़ में ही शामिल था। इन सबको मिलाकर यह क्षेत्र दक्षिण कोशल कहलाता था।

जे.पी.सिंह देव के अनुसार इंद्रभूति शबरी नारायण से भगवान जगनाथ को सोनपुर के पास समलाई पहाड़ी स्थित गुफा में ले गये उसके सम्मुख इंद्रभूति तंत्र साधनरत थे। शबरों के इष्टदेव जगन्नाथ जी को भगवान के रूप में मान्यता दिलाने का यश इंद्रभूति को ही है। असम के कलिका पुराण में लिखा है ‘तंत्र का उदय उड़ीसा में हुआ था। उसका आशय यही समलाई पहाड़ी स्थित गुफा.से है और भगवान जगन्नाथ उनके इष्ट देव थे।

इंद्रभूति के पश्चात आठवीं शताब्दी में उनके पुत्र पद्मसंभव ने योग्यता पूर्वक इस तंत्र पीठ को संचालित किया। वे भी अपने पिता के समान सिद्ध पुरुष थे। बाद में शांति रक्षित की अनुशंसा पर तिब्बत नरेश रवी स्रोंगल्देबत्सन ने पद्मसंभव को तिब्बत बुला लिया। वत्सन का शासन काल सन् ७८५? से ७९७ ई. तक का माना गया है। इंद्रभूति की बहन लक्ष्मीकंरा का विवाह जालेन्द्रनाथ से हो गया। भगवान जगन्नाथ की देखभाल करने वाल कोई नहीं था अतः इस संप्रदाय के लोग जगन्नाथ जी को पुरी ले गये।

जगन्नाथ जी के इतिहास का संबंध बौद्ध धर्म से भी है। कुछ बौद्ध धर्म की धातुवंश ग्रंथों में जिसमें बुद्ध के दांत का इतिहास है, उल्लेख है कि जगन्नाथ स्वयं बुद्ध का नाम है। उन्होंने कहा था मैं जगत का नाथ हूं जगन्नाथ के अतिरिक्त तीन मूर्तियां अशोक, महेंद्र और संघमित्रा की प्रतीक हैं। सम्राट अशोक जगन्नाथ के भक्त थे। जगन्नाथ मंदिर की मादल पंजी में ऐसा उल्लेख है जिसमें अशोक का नाम मिलता है। जगन्नाथ जी रथयात्रा में बौद्ध धर्म ही वैष्णव धर्म के रूप में प्रकट हुआ है। बुद्ध का दंत और तैत्तरीय ब्राम्हण का दारुब्रह्म दोनों का महान समन्वय की सुन्दरतम कल्पना है।

इसे पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी हिन्दी साहित्य की भूमिका में लिखा है। कहा जाता है कि जगन्नाथ का मंदिर पहिले बौद्धों का था बाद में बुद्ध की मूर्ति के सामने किसी वैष्णव राजा ने एक दीवार खड़ी कर दी और इन दिनों जिसे जगन्नाथ जी की मूर्ति कहते हैं वह भी बुद्ध देव के अस्थि रखने के पिटारे के सिवाय कुछ नहीं है।

शिवरी नारायण को गुप्ततीर्थ कहा गया है। इसका वर्णन रामावतार चरित और याज्ञवलक्य संहिता में मिलता है। यह नगर सतयुग में बैकुंठपुर त्रेतायुग में रामपुर, द्वापर में विष्णुपुर और कलयुग और नारायणपुर शिवरीनारायण के नाम से जाना जाता है। क्योंकि यहां नर नारायण के साथ महादेव व अन्य देवताओं का वास है।

उड़ीसा के देऊल तोला म... .कत है- मालव प्रदेश के राजा इंद्रद्युम्न से नारद ने कहा कि पूर्वीय समुद्र तट पर नील माधव रहते हैं। उस पर इंद्रद्युम्न ने अपने मंत्री विद्यापति को ढूंढने के लिये भेजा, विद्यापति बहुत कष्ट उठाकर नील माधव क्षेत्र नीलांचल पुरी पहुंचा उसने देखा कि विश्वासु नामक शबर (भील) नील माधव को जंगल में छिपाकर रखता है, किसी दूसरे को दर्शन नहीं करने देता। विद्यापति ने अतिथि के रूप में उसके यहां स्थान बना लिया है और धीरे-धीरे उसकी कन्या से प्रेम करने लगा। इस कन्या के माध्यम से विद्यापति ने गुप्त स्थान पर प्रतिमा की जानकारी करके नीलमाधव की प्रतिमा भी देख ली तथा राजा इंद्रद्युम्न को सूचना दी। इंद्रधुम्न सेना के साथ विश्वासु से संघर्ष करने लगा। विश्वासु ने आत्मसमर्पण कर दिया पर नीलमाधव अंतर्धान हो गये इस पर इंद्रधुम्न ने अन्न जल त्यागकर इक्कीस दिवस तक सत्याग्रह किया। उन्हीं दिनों से ज्ञात हुआ कि नील माधव लकड़ी के एक टुकड़े के रूप में समुद्र में बह रहे हैं अगर उस लकड़ी की .मूर्ति बना कर स्थापित की जाये तो नील माधव उसमें निवास करेंगे। वैसा ही किया गया उस लकड़ी से चार मूर्तियां बनी जगन्नाथ, बालभद्र, सुभद्रा और सुदर्शन साथ ही एक कौए की प्रतिमा भी वहां स्थापित की गयी जो वहीं वटवृक्ष में बैठा था कहते हैं कि इसे नीलमाधव के दर्शन हुए इसलिए यह सौभाग्यशाली था।

पुरुषोत्तम महात्म्य (चौरासी हजार वाला स्कन्दपुराण उत्तर खंड ७वां अध्याय) सतयुग में ब्रम्हा की पांच पीढ़ी में इंद्रधुम्न नामक सूर्यवंशी राजा मालव देश के अवन्ती नगरी में निवास करता था। एक समय उसने अपनी सभा में लोगों से पूछा कि ऐसा कौन सा क्षेत्र है जिसमें हम साक्षत भगवान का दर्शन कर सकेंगे। एक ब्राम्हण जिसने बहुतेरे तीर्थों का भ्रमण किया था राजा से बोला महराज भारत वर्ष में विख्यात ओढ़ देश में दक्षिण समुद्र तट के निकट पुरुषोत्तम क्षेत्र है। वहां नीलगिरी पर्वत के ऊपर चारों ओर से एक कोस में विस्तृत कल्पवृक्ष है जिसके पश्चिम दिशा में रोहिणी कुंड है, उसके पूर्व तट पर नीलेंद्रमणि की वासुदेव की प्रतिमा है। जो मनुष्य उस कुंड में स्नान करके पुरूषोत्तम का दर्शन करता है उसको एक हजार अश्वमेध का फल मिलता है और मुक्ति मिल जाती है। तुम विष्णु के भक्त हो इसलिए यह बात कहने को मैं तुम्हारे पास आया हूं। ऐसा सुन राजा इंद्रधुम्न ने अपने पुरोहित को वहां भेजा वह अपने भाई का साथ महानदी के एकामक्र वन में पहुंचा और जा कर नीलांचल पर चढ़कर भगवान को ढूंढने लगा जब उसको मार्ग नहीं मिला तब वह कुशों को बिछा कर वहां ही सो गया। उसका छोटा भाई विद्यापति उपर चढ़कर एक स्थान में चुपचाप बैठ गया। उस समय विश्र्वासु नामक एक शबर पुरूषोत्तम की पूजा करके उस स्थान पर आया उसने ब्राह्मण से पूछा कि तुम कहां से आये हो, ब्राह्मण ने अपने आने का सब वृतांत सुनाकर उससे कहा कि तुम मुझको भगवान के दर्शन कराओ। (बारहवां अध्याय)

कूर्मपुराण (उपरिभाग, ३४ वां अध्याय) पूर्व दिशा में जहां महानदी और विरजा नदी है पुरूषोत्तम तीर्थ में पुरूषोतम भगवान निवास करते हैं। वहां तीर्थस्नान करके पुरूषोत्तम की पूजा करने से मनुष्य विष्णुलोक को प्राप्त होता है।

याज्ञवलक्य संहिता में एक कथा है क्षत्रिय राजा कुलभूषण की रानी का सिर पिलपिला था। रानी विनिता पूर्वजन्म की ज्ञाता थी। एक बार रानी ने राजा को बताया कि वह पूर्व जन्म में बंदरिया थी और सिंदूरगिरी पर्वत के बांसों के जंगल में विचरण कर रही थी तभी फिसलकर रोहणी में गिर गयी लेकिन उसकी खोपड़ी बासों के बीच फंस गयी रोहणी कुंड गिरने से उसे मोक्ष प्राप्त हुआ लेकिन खोपड़ी बांसों के बीच लटकी रह गयी मोक्ष मिलने से वह इस जन्म में रानी बनी यह सुनकर राजा ने उस दुर्गम वन की तलाश आरंभ कर दी। आखिरकर उस बंदरिया की खोपड़ी बांसो के झुंड में मिली राजा ने बाणों की वर्षा कर कपाल को कुंड में तिरोहित किया तभी वहां से भगवान विष्णु की प्रतिमा प्रगट हुई। कालांतर में राजा ने वहां एक भव्य मंदिर बनाया वहीं शिवरीनारायण का मंदिर है यह पौराणिक कथा अब लोकमान्यता बन चुकी है।

पौराणिक कथाएं और लोकमान्यातओं को समेटे शिवरीनारायण छत्तीसगढ़ का प्राचीन नगर रहा है। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार कहा जा सकता है कि पुरी के भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा को यहीं से ले जाया गया था। शबर जाति के रहस्यमय तंत्र की साधना स्थली जिसका विराट स्वरूप तिब्बत में मिलता है शिवरीनारायण की देन है। माघ पूर्णिमा के दिन भगवान जगन्नाथ वापस शिवरीनारायण आते हैं इसी लोकविश्वास पर आज भी जगन्नाथ पुरी के मंदिर के दरवाजे इस दिन बंद रहते हैं यहां तक कि उस दिन भोग भी नहीं लगता।

शिवरीनारायण में ही शबरी भीलनी से भगवान राम की भेंट हुई थी जहां राम ने शबरी के जूठे बेर खाये थे शबरी के नाम से जोड़कर बाद में नारायण नगर बसाया गया जो जिसे आज शिवरीनारायण के नाम से जाना जाता है।

प्रो. कृष्णदत्त बाजपेयी ने छत्तीसगढ़ के पुरातत्व में रामकथा में लिखा है श्रीराम की दक्षिण यात्रा का मार्ग मध्यप्रदेश के दक्षिण भाग से होकर प्रमाणित होता है। रामायण में जिस रजतगिरी का उल्लेख है, वह जबलपुर से भेड़ाघाट की संगमरमरी चट्टानों वाला गिरी हो सकता है। वहां से अमरकंटक जिला शहडोल तक का मार्ग विशेष कष्ट प्रदत्त था। अमरकंटक पहुंचने पर राम आदि को दक्षिण जाने के लिये नर्मदा पार करने की आवश्यकता नहीं पड़ी अमरकंटक नाम से सिद्ध होता है कि वह अमर या देव संस्कृति के मानने वालों के लिये रावण के समय में कंटक (दुखदायी) क्षेत्र बन चुका था। संभवतः आर्य विरोधियों ने तब तक अपने प्रभाव का विस्तार अमरकंटक तक कर लिया था। रावण ने वहां पर बिलासपुर जिले के खरौद शिवरीनारायण स्थानों तक अपने सहायकों को नियोजित कर दिया था। खरौद नामक स्थल खर-दूषण की स्मृति आज तक संजोए हुए है। इसी प्रकार शिवरीनारायण में रामयाण कथा की प्रसिद्ध शिबरी भिल्लनी की याद आज भी शेष है।

शिवरीनारायण से तीन किलोमीटर दूर खरौद में के दक्षिण प्रवेश द्वार पर शबरी मंदिर है जिसे सौराइन दाई का मंदिर कहा जाता है। मंदिर के अंदर और बाहर चतुर्भुजी मूर्तियां हैं इस मंदिर का निर्माण शबर राजा द्वारा किया गया है ऐसी किंवदन्ती है।

पुरातत्ववेताओं के अनुसार यहां के नर नारायण के मंदिर में नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक की मूर्ति एवं स्थापत्य कला की झलक मिलती है। यह मंदिर १७२ फीट ऊंचा १३६ फीट के घेरे में बना हुआ है। जिसमें दस फीट का स्वर्ण कलश स्थापित है। मंदिर का बाह्य चबूतरा दस हजार वर्ग मीटर का है। गर्भगृह में मूर्ति के चरण को स्पर्श करता रोहणी कुंड है। यहां कलचुरी कालीन मूर्तियां की बहुलता है। साधुचरण दास ने भारत भ्रमण में लिखा- नदी के तीर पर महादेव जी का और थोड़ी दूर पर शबरी नारायण और लक्ष्मण का मंदिर है एक लेख से ज्ञात होता है कि लगभग सन् ८४१ में शबरी नारायण मंदिर बना।

नर नारायण मंदिर के पूर्व दिशा में पश्चिम की ओर से नारायण की चतुर्भुजी मूर्ति है बारहवी शताब्दी की मूर्तियों में कलचुरिकालीन वास्तुकला की झलक दिखती है। पंचरथ शैली के मंदिर के द्वार पर गंगा यमुना की मूर्ति के साथ दशावतार उत्कीर्ण है।

केशव नारायण मंदिर के वायव्य दिशा में चंद्रचूड महादेव का प्राचीन मंदिर है। मंदिर के द्वार पर एक विशाल नंदी की मूर्ति है। गर्भगृह में शिवलिंग जिसकी दीवाल में पूजा अर्जना करती राजा रानी की मूर्ति है मंदिर के बाहर नंदी के बगल में चोटी धारण किये हुए महात्मा की मूर्ति है दीवाल पर एक पाली भाषा में लगे एक शिलालेख के अनुसार इस मंदिर का निर्माण संवत् ९१९ में कुपारपाल नामक कवि ने कराया है। इसमें रतनपुर के राजाओं की वंशावली उत्कीर्ण है इसके अलावा बाद में रामजानकी च नर नारायण का मंदिर बने हैं।

अनेक पौराणिक गाथाओं को समेटे विभिन्न काल की वास्तुकला और मूर्तिकला को समाहित किये शबरी नारायण का अनोखा प्राकृतिक सौंदर्य है। यहीं है, अनोखा कृष्ण वट जब तेज हवा बहती है तो बांसुरी की धुन फूट पड़ती है और मन उल्लासित हो उठता है।

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