आइने अकबरी में हाथियों के संदर्भ में उल्लिखित बरार के विभिन्न स्थान नाम, छत्तीसगढ़ से संबंधित हो सकते हैं, किंतु उनकी सुनिश्चित पहचान निर्धारित नहीं हो सकी है, तथापि बस्तर और रतनपुर का स्पष्ट उल्लेख है। मुगल काल में कलचुरियों द्वारा और देशी रियासतों के दौर में राजाओं द्वारा छत्तीसगढ़ के हाथी उपहार में दिए जाने की जानकारी मिलती है। 15 वीं सदी के अंतिम दौर में रतनपुर के कलचुरि शासक वाहरेन्द्र के 1000 अश्व के साथ 60 हाथियों का अभिलेखीय उल्लेख मिलता है। 1939 के ऐतिहासिक त्रिपुरी (जबलपुर) कांग्रेस अधिवेशन में शोभायात्रा के लिए 25 हाथी महाराजा सरगुजा ने अपने खर्च पर भेजे थे।
सुश्री डॉ. कुन्तल गोयल ने मध्यप्रदेश सन्देश में ‘इतिहास के पृष्ठों को समेटे सरगुजा की वनश्री‘ शीर्षक से प्रकाशित लेख में बताया है- ‘स्वाधीनता संग्राम के अंतिम दिनों में महाराजा रामानुजशरण सिंह देव ने अपनी सेना से 100 हाथी महात्मा गांधी के आयोजन को सफल बनाने के लिए रांची भिजवाए थे। महाराजा द्वारा यहां के हाथी पन्ना, छतरपुर, ग्वालियर, झांसी, आदि बुन्देलखण्ड के महाराजाओं को भेंट स्वरूप भी दिये जाते थे।
1990-91 में अपने मुझे डीपाडीह, सरगुजा प्रवास के दौरान सुनने में आया कि कुसमी के रास्ते पर हाथियों का पूरा झुंड है, छोटा नागपुर में कहीं, शायद बेतला नेशनल पार्क से भटक कर आ गए हैं। ग्रीन आस्कर विजेता ‘द लास्ट माइग्रेशन‘ फिल्म वाले माइक पांडेय रायपुर आए, तब उनसे मुलाकात में बातें हुई थीं। पार्वती बरुआ के नाम और काम की खबरें मिलती रही हैं। अंबिकापुर के अमलेन्दु मिश्र, प्रभात दुबे का नाम भी हाथियों के प्रसंग में आता है। पता लगा था कि जशपुर-सरगुजा में अब भी, खासकर तपकरा के लोग हैं, जिनका हाथियों से पुश्तैनी रिश्ता है, जो हाथी को रास्ता दिखा देते हैं, बिना झिझक खदेड़ सकते हैं।
बिलासपुर- जगदलपुर वाले वकील साहब शरदचंद्र वर्मा जी से जब भी मुलाकात होती, बातचीत का मुख्य विषय हाथी होते। वे कैप्टन जे फॉरसिथ की पुस्तक ‘द हाइलैंड्स आफ सेन्ट्रल इंडिया‘ का जिक्र करते, जिसमें छत्तीसगढ़ के हाथियों से जुड़े तथ्य और ढेरों रोचक जानकारियां हैं। यहां प्रस्तुत उनका लेख अमृत संदेश, रायपुर में रविवार 25 जनवरी 1987 को छपा था। जैसाकि लेख में बताया गया है, यह मुख्यतः फॉरसिथ की पुस्तक के अंश की हिंदी में प्रस्तुति है। बाद में इससे अलग फॉरसिथ की पूरी पुस्तक का हिंदी अनुवाद दिनेश मालवीय द्वारा किया गया, जो वन्या प्रकाशन की ओर से राजकमल प्रकाशन द्वारा 2008 में ‘मध्यभारत के पहाड़ी इलाके‘ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है।
इस भूमिका के साथ शरदचंद्र वर्मा का लेख-
मध्यप्रदेश के अंतिम हाथी बिलासपुर में
मध्यप्रदेश के बिलासपुर जिले ये ऊंचे घने पहाडी वनों में इस सदी के तीसरे दशक तक हाथी वास करते थे। ए.ए. डनबर ब्रन्डर १९२३ में ... अपनी पुस्तक वाइल्ड एनिमल्स आफ सेन्ट्रल इंडिया‘ में लिखा कि बिलासपुर जिले के उत्तर पूर्व में स्थित जमींदारियों के जंगलों में अभी भी कुछ हाथी हैं। यह मध्यप्रांत का अकेला भाग है, जहां पर मैंने जंगली हाथियों को देखा है और मेरा मत है कि यह एकमात्र भाग है जहां पर ये अभी भी हैं। वर्षा के दिनों में ये हाथी कभी-कभी पश्चिम की ओर मंडला जिले तक निकल जाते हैं।
बिलासपुर के वृद्ध लोग बतलाते हैं कि उन हाथियों को सरगुजा के राजा पकड़ कर ले गये। सरगुजा राज में जंगली हाथियों को पकड़ने की पुरानी परम्परा रही है। यहां के मदनेश्वर शरण सिंह देव ने हाल की एक भेंट में बतलाया था कि उनके यहां १९३० में, जिस वर्ष उनका जन्म हुआ आखिरी बार हाथी पकड़ा गया था। अंबिकापुर के वरिष्ठ अधिवक्ता समर बहादुर सिंह ने भी बतलाया कि बिलासपुर जिले के मातन (मातंग का अपभ्रंश) के जंगल में हांककर लाया गया विशाल एक दंता हाथी १९३० में सरगुजा राज के द्वारा मैनपाट के पास दरीमा जंगल में पकड़ा गया था। इस प्रकार उस वन अंचल में हाथी मिलने और उनको पकड़ने की एक परम्परा ही समाप्त हो गई। उपलब्ध साहित्य और जनसम्पर्क के माध्यम से उस समाप्त हो चुकी परम्परा को समझने के प्रयास में केप्टेन जे. फारसाइथ की ‘हाई लेंड्स आफ सेन्ट्रल इंडिया‘ से संबंधित अंश का सारः
आज से सवा सौ साल पहले १८६० में फारसाइथ अपने एक हाथी के साथ संबलपुर से बिलासपुर २८ अप्रेल को पहुंचे। उस समय अमरकंटक (उस समय पेंड्रा जमींदारी का एक भाग था) के उत्तर और पूर्व के पहाड़ी जंगलों में हाथियों के बड़े-बड़े दल थे। वे हाथी छत्तीसगढ़ मैदान के लगे हुए भागों में फसल पकते समय उतर वहां की खड़ी फसल को बर्बाद करते जिसके कारण कृषि के प्रयासों में बाधा उत्पन्न होती थी। फारसाइथ यात्रा का एक उद्देश्य यह भी था कि उन हाथियों के प्राकृतिक वास में जाकर उनकी संख्या का अनुमान लगा उनके नाश का उपाय सुझाना। चूंकि वह विस्तृत, विशाल साल वन क्षेत्र बियावान, निर्जन प्राय था वहां भूमिया लोग की दूर दूर बिखरी, बिरली बसी बस्तियां थी जहां पर किसी प्रकार का रसद सामान मिलने की आशा नहीं थी, इसलिये उसका प्रबंध बिलासपुर में ही करना पड़ा। उस समय के छोटे से बिलासपुर में जितना चाहो अनाज मिलता था और वह भी बहुत सस्ता, एक शिलिंग में लगभग सौ पौंड। भरपूर मात्रा में गेहूं, चावल और चना खरीद वहां उपलब्ध बंजारा लोग के बैलों में लदवाकर ३ मई को छत्तीसगढ़ की प्राचीन राजधानी रतनपुर की ओर रवाना हुए। दुर्भाग्यवश यहां पहुंचते ही फारसाइथ छोटी माता के प्रकोप से बीमार पड़ गये। दूसरे दिन यद्यपि वह बीमार थे, फिर भी उसी हालत में अगले पड़ाव की ओर बढ़े। अगले दिन तबियत अधिक खराब होने के कारण उनको छह मील दूर आगे की ओर (लाफा) ले जाया गया। उस हालत में वह दृढ़ निश्चय थे कि जब तक हाथी को देखने की उनकी इच्छा पूरी होने की थोड़ी भी आशा है, तब तक वह वापस नहीं लौटेंगे। आगे लगभग सात मील दूर तक शंकवाकार पहाड़ी के शीर्ष पर मुकुट के समान एक पुराना किला लाफागढ़ स्थित है। उसकी ऊंचाई समुद्र सतह से लगभग ३००० फुट है। वहां ऊपर पानी और छाया के साथ साथ ठंडक भी थी, इसलिये उनको वहां ले जाने का निश्चय किया गया। अगली सुबह गढ़ के नीचे, बीच पहाड़ में बसे एक गांव में ले जाया गया। उस गांव तक जाने से लिये पहाड़ में एक संकरा सा रास्ता बना था। उस स्थान की समुद्र सतह से ऊंचाई उच्च दाब मापी यंत्री में २४५० फीट थी। वहां एक विशाल बरगद पेड़ की छाया में फारसाइथ के लिये एक बड़ी झोपड़ी बनाई गई थी। बातचीत में वहां भूमिया लोग ने बताया कि जंगली हाथी, सचमुच में उनके देश के राजा और राक्षस दोनों ही है। जब जिधर मन में आता है, उधर निकल पड़ते है और डाही धान की फसल को तहस नहस कर देते हैं। जैसा कि स्वाभाविक है, प्रकृति की अनियंत्रित आक्रमक शक्तियों को इन जन-जातियों के द्वारा देवी देवता का रूप दे उनको पूजा, भेंट से प्रसन्न करने का प्रयास किया जाता है।
दूसरे दिन सुबह उनको पहाड़ के ऊपर ले जाया गया। यहां तक पहुंचने का पगडंडी रास्ता खड़ा और आड़ा तिरछा लगभग ७३० फुट की ऊंचाई लिये था। एक छोटे तालाब के किनारे छायादार पेड़ के नीचे तम्बू गाड़ा गया था। पहाड़ का सबसे ऊंचा भाग तम्बू के ऊपरी ओर पर था, उसकी ऊंचाई समुद्र सतह से ३४१० फुट थी। यहां आये लाफा के ठाकुर ने जंगली हाथियों के बारे में काफी कुछ बतलाया। वे हाथी उसकी और पास की मातन और उपरोड़ा जमीदारियों के जंगलों में स्वछन्द विचरण करते थे। ठाकुर को केवल एक घटना मालूम थी जिसमें कोई जंगली हाथी किसी भूमिया के द्वारा मारा गया हो। वह हाथी बूढ़ा नर था। उसका एक दांत टूट गया था। पेड़ पर रखवाली के लिये बैठे एक भूमिया ने हाथी की सूंड़ में एक बिसर (विषैला बाण) उस समय मारा जब हाथी उसके धान के खेत में आकर फसल का नुकसान कर रहा था। घायल हाथी कई दिनों तक आसपास के जंगल में भटकता रहा। उस बीच वह दुबला और कमजोर हो गया था। एक दिन, हाथी पानी के एक स्रोत में प्यास बुझाने और अपनी देह पर पानी डालने के लिये पहुंचा। पर वहां एक बार जो बैठा तो दुबारा उठ नहीं सका। उसकी खबर मिलते ही पड़ोस के एक ठाकुर ने वहां पहुंचकर अपनी भरमार बंदूक से उस पर अंधाधुंध गोलियां चलाई। हाथी के मरने के बाद उसकी देह से ढेर सारी गोलियां निकाली गई थीं।
जहां पर फारसाइथ का डेरा लगा था, उसके दक्षिण दिशा में छत्तीसगढ़ का खुला मैदान जहां से होकर वह लाफागढ़ पहुंचे थे और उत्तर दिशा में हाथी देश का महाविशाल हरा वन क्षेत्र था जहां पर बीच-बीच में अलग से उभरी दिखती पहाड़ियां थी। इस भाग में गढ़ के तल से आरंभ होकर एक लम्बी घाटी है जिसमें बसाहट के लिये जंगल साफ किया गया भाग बीच बीच में स्पष्ट दिखता था। १५ मई तक लाफागढ़ में विश्राम करने के बाद कुछ चलने फिरने लायक होते ही एक हाथी पर सवार हो मातन की ओर पहाड़ उतर कर बढ़े। पर यहां पहुंचते ही फिर बीमार हो गये। गांव के पास के एक स्रोत में कई हथनियां पानी पीने के लिये रोज आती थीं। वह स्थान एक मील से भी कम दूरी पर था। उस समय नर हाथी को छोड़कर किसी हथनी या अन्य को मारने पर सरकार द्वारा प्रतिबंध था क्योंकि उनको खेदकर जीवित पकड़ने का विचार था। पर वहां पर एक पुराना बदमाश हाथी था जिसने कई लोगों को पकड़कर मार डाला था। इसलिये कुछ भूमिया लोगों को उसका पता लगाने के लिये भेजा गया।
दूसरे दिन रात में गर्मी से राहत पाने के लिये फारसाइथ अपने तम्बू के बाहर सो रहे थे कि कोलाहल से उनकी नींद टूट गई। कुछ देर बाद उनकी समझ में आया कि पास की पहाड़ी की ढाल के जंगल में हाथियों के एक दल की चीख चिल्लाहट से वह कोलाहल हो रहा था। हाथी दल सारी रात सूर्याेदय से कुछ पहले तक वहां बांस को तोड़ने-खाने में लगा रहा। बीच बीच में चीखना चिल्लाना भी चलता रहा। उस सबसे फारसाइथ के पालतू हाथी बहुत बेचैन हो गये थे, इसलिये सावधानी के लिये उनको रस्सों से बांधा, साथ ही उनके पास कुछ लोगों को भाला लेकर खड़ा किया गया ताकि भड़कने की स्थिति में उन पर काबू रखा जा सके। शाम को वह उस पहाडी की ओर गये। वहां का वह भाग पूरी तरह से सपाट, चौपट हो गया था। जगह-जगह बांस को तोड़, खींच गिराया, कई को दांत से चबा कर छोड़ दिया और बहुत से के कोमल भाग को खा लिया गया था। सलई और उथली जड़ वाले अन्य पेड़ों को उखाड़ गिरा दिया गया था। उनकी ऊपरी डगालों की नर्म छाल को खींच छील कर निकाल दिया गया था। उन हाथियों की पेड़ को उखाड़ फेंकने की क्षमता आठ इंच के घेरे वाले पेड़ों तक ही सीमित लगी। स्वतः के पालतू हाथियों के साथ भी वैसा ही अनुभव था। वहां वे पेड़ जड़ से उखाड़ फेंके नहीं गये थे बल्कि मस्तक और सामने के एक पैर की सहायता से शरीर अथवा जैसे कि यहां के लोगों ने बतलाया पीठ के भार से उन पर बल डालकर झुकाये गिराये गये थे। अफ्रीका की यात्रा कर आये लोगों का कथन है कि वहां हाथी बड़े बड़े पेड़ों को उखाड़ कर फेंक मारने के काम में लाये जाते हैं, केवल कपोल कल्पना है। एक ने तो यहां तक कहा है कि उसने वहां अठारह इंच के घेरे के दो पेड़ों को उखाड़ कर दस बारह गज की दूरी तक फेंकते देखा था। जंगल के दल में से हाथी जिस ओर गया था, वहां एक चौड़ा रास्ता सा बन गया था। दल ने जहां पर मातन नदी को पार किया था, वहां पर सूखी रेत में हाथियों के विभिन्न आकार के पांव के चिन्ह, दंतैल के डेढ़ फुट व्यास से ले कर बच्चे के चाय के प्याला तक दिख रहे थे। उन हाथियों की संख्या पचास साठ तो थी ही। तबियत ठीक न होने के कारण फारसाइथ ने उनका पीछा नहीं किया।
अगले दिन दोपहर में जब वह सो रहे थे, भूमिया लोग ने आकार बतलाया कि आधा मील से भी कम दूरी पर एक अकेला दंतैल है। खबर सुनकर, अपनी अस्वस्थता के बाद भी वह अपने आपको रोक नहीं पाये। जैसे थे वैसे ही एक घोड़ा में सवार होकर कम से कम उस हाथी को देख पाने का लालच किये चल पड़े। वह हाथी मातन नदी के बलुआ तट पर खड़ा था। यहां पर उसने एक बड़ा गहरा गड्ढा खोद कर उसकी गीली बालू को मक्खियों से बचने के लिये अपनी देह पर पोत लिया था। वह एक बहुत बड़ा दंतैल, आकार में नेपाली हाथी के समान था। उसके और पालतू हाथी के बीच में जो अंतर स्पष्ट दिखा- वह था उसकी गर्दन और अग्रभागों का अधिक मांसल होना। वह अन्तर वन भैंसा में भी दिखा। हाथी नदी की एक कगार से अपने दांत टिकाये खड़ा था अपनी पूंछ को धीरे-धीरे इधर-उधर डुला रहा था। वह झपकी ले रहा था। उसके पास पहुंचने का कोई रास्ता नहीं था और किसी हाथी पर गोली चलाने के लिये लगभग डेढ़ सौ गज का अंतर बहुत अधिक था। इसलिये वहां बैठे बड़ी देर तक उसे इस आशा में देखते रहे कि वह उस स्थान से हटेगा पर वैसा हुआ नहीं। तब चलकर उस स्थान को ढूंढ़े जहां से होकर हाथी नदी की खड़ी कगार में से उतरा था। वहां पहुंच पीछे की ओर बैठकर एक भूमिया को लम्बा घूमकर हाथी की ओर जाने को कहा ताकि उसकी गंध हाथी को मिले। जब हाथी को भूमिया की गंध का पहला, हल्का झोंका मिला तब उसका व्यवहार देखने लायक था। वह अपने दांतों के सहारे कगार से टिका चुपचाप खड़ा रहा पर उसकी पूंछ का हिलना डुलना बंद हो गया। उसकी सूंड का सिरा गोल घूमकर कान के नीचे गंध की दिशा में हो गया था। उसके कान सूक्ष्म आवाज को पकड़ने के लिये चौकस चौकन्ने खड़े हो गये। उस स्थिति में वह बहुत देर तक चुपचाप खड़ा था। उसके बाद ही भूमिया कुछ हटकर हवा की सीध में आकर तुरंत एक झाड़ पर जा चढ़ा, यद्यपि उस समय तक हाथी उसे देखा नहीं था। ऐसा लगा कि उन भूमिया लोगों को अपने इस जंगल देव से बहुत भय लगता है। उसके बाद हाथी वहां से चुपचाप निकलकर, अपने दुश्मन की ओर देखे बिना भारी धीमी चाल से नदी की दूसरी कगार की ओर से जो लगभग दो सौ गज की दूरी पर था, चढ़ने के लिये बढ़ा। फारसाइथ उस स्थान के पास पहुंचने के लिये घास में लुकते छिपते एक हाथी रास्ता के पास जहां पर हाथी के आ पहुंचने का अनुमान था, जा कर बैठ गये। उनका अनुमान गलत नहीं निकला। धड़कते दिल से की जा रही प्रतीक्षा के एक दो मिनट बाद ही उसका भारी मस्तक और चमकते दांत, इधर-उधर डोलते अस्सी नब्बे कदम दूर दृश्य में उभरे। फारसाइथ निश्ंिचत थे कि यदि हाथी उनकी ओर आयेगा तो अपनी भारी रायफल से उसे पा लेंगे। वे सोच रखे थे कि हाथी जब तक बिलकुल पास नहीं होगा, तब तक गोली नहीं चलायेंगे। उन दोनों के बीच में लगभग ४० (चालीस) गज का अंतर रह गया था। वे रायफल को कंधे पर रख कर आंख की सीध में ला रहे थे तभी पीछे से हल्की खांसने की आवाज से उनका ध्यान उस ओर को हुआ। वे यह देखकर आश्चर्यचकित हुए कि वहां पर पीला कोट और लाल रंग की पगड़ी पहिने एक ऊंचा कद का आदमी दीमक की बाम्बी पर खड़ा हो एक पेड़ पर उठने-चढ़ने की कोशिश कर रहा था।
उधर से ध्यान हटाकर वे हाथी की ओर मुड़े पर तब तक जो कुछ वहां दिखा वह पेड़ों के बीच में से वापस जाते हाथी का भारी भरकम पिछला गोल हिस्सा था। उस सबसे उत्तेजित होकर चे ओझल होते दंतेल के पीछे जोर से दौड़ पड़े। उससे अधिक उनको कुछ याद नहीं रहा। चेतन होने पर साथ के लोगों द्वारा अपने को घोड़ा की पीठ पर सहारा दे डेरा की ओर ले जाते पाया। उनसे मालूम हुआ कि लगभग सौ गज दौड़ने के बाद अचेत हो घास पर गिर पड़े थे। उनके पीछे चोरी छिपे आ जाने वाला आदमी मातन के ठाकुर का एक संबंधी था। वह बहुत देर तक घास में चुपचाप लेटा था, पर ज्योंही उसकी नजर उस भयानक मानव हंता पर पड़ी त्यों ही उसकी अफीम अभ्यस्त स्नायुएं जवाब दे गई। यह इतना दयनीय और लज्जित दिख रहा था कि फिर फारसाइथ उससे वह सब न कह सके जो उसके बारे में सोचे थे। वैसे भी उस समय उस क्षेत्र के लोगों में काफी भय व्याप्त था। कुछ समय पहले ही उपरोड़ा के ठाकुर का एक छोटा बेटा एक हाथी के द्वारा कुचल, मार डाला गया था। बिलासपुर के कुछ शिकारी उसे मैदान में उतर आये कुछ हाथियों के शिकार के लिये ले गये थे। वहां पर पीछा किये जा रहे एक घायल दंतेल ने पलट कर हमला किया जिसमें ठाकुर का बेटा जब तक सम्हले और बचे तब तक वह कुचला जा चुका था। उस दिन जो कुछ भी हुआ वह अपने आप में निराशाजनक था। उसके बाद उनको और उनके साथी को किसी हाथी पर गोली चलाने का दूसरा अवसर नहीं मिला।
मातन के आसपास हाथियों के जो प्रमुख वास थे, वहां फारसाइथ थोड़ी-थोड़ी दूर तक गये। वहां चारों ओर अन्य वन्य प्राणी भी बहुत थे। नालों के किनारे चीतल और साल वन के खुले मैदानों में लाल हिरण (बारा सिंघा) थे। मातन के उत्तर पूर्व में एक छोटी पहाड़ी है, जिसे मातन दाई कहते है। उस पहाड़ी के एक छोर पर, खाई के नीचे हाथियों की बहुत सी हड्डियां बिखरी पड़ी थीं। उसके बारे में मालूम हुआ कि उनके आने के एक साल पहले वहां एक दुर्घटना में एक छोटे दल के प्रायः सभी हाथी उस स्थान पर मारे गये। मातन के ठाकुर और अन्य लोग बाजा गाजा के साथ पहाड़ी पर स्थित देवी की वार्षिक पूजा के लिये संकरे रास्ते से जो ऊपर की ओर जाने का एक मात्र रास्ता था, आगे बढ़ रहे थे। ये लोग बेखबर कि उनके आगे पांच हाथियों का एक दल है जो हो रहे हो-हल्ला से आगे-आगे भागे जा रहा था। वह दल जब ऊपर पहाड़ी के छोर पर पहुंच गया फिर भी आवाज को अपनी ओर आते पाया तब वह भयभीत और घबड़ा गया। दल के चार हाथियों ने पहाड़ी की विरूद्ध दिशा में उतरने की कोशिश की। उस ओर ऊपर से नीचे बिखरे पत्थरों का एक ढाल है, जो एकाएक एक खड़ी खाई में समाप्त होता है। एक बार उस ओर बढ़ जाने के बाद उन भारी भरकम हाथियों के लिये वापस ऊपर आ पाना संभव नहीं था। वे ढाल से फिसल कर सीधे नीची खाई में जा गिर, मारे गये। पांचवां हाथी, एक दंतेल था, जिससे हाल में फारसाइथ से सामना हुआ था। उसने निकल बचने के लिये आती भीड़ पर चिंघाड़ते हुए हमला किया जिससे लोग इधर-उधर तितर-बितर हो गये और वह वहां से नीचे की ओर भाग गया।
२६ तारीख को फारसाइथ का साथी उनसे आ मिला। वह साल वन के पूर्वी भाग की ओर वहां के हाथी देश, जो उपरोड़ा के ठाकुर के आधिपत्य में था, का भ्रमण कर आया था। मातन से वे लोग उत्तर दिशा की ओर बढ़े ताकि अमरकंटक के बीच में फैले भू-भाग को भी देख परख लें। माह के अंत तक ये लोग साल वन के एक अंतहीन भाग से यात्रा करते रहे। एक अवसर पर फारसाइथ बिना किसी पथप्रदर्शक के एक हाथी रास्ता जो यहां के घने वन में सड़क का काम देता है, से हटकर निकल पड़े। उनको विश्वास था कि थोड़ी दूर के घुमाव के बाद वे फिर से रास्ता पा लेंगे। पर भटककर वे एक छोटे से जलस्रोत और दो चार झोपड़ियों के स्थान पर पहुंच गये जो बियावान जंगल के बीच अपने बुगलुगी नाम में खुश था।
जहां से होकर वे गुजरें, उस भू-भाग की समुद्र सतह से ऊंचाई १७०० फीट थी। वहां पानी की कमी के कारण वन्य प्राणी बहुत कम थे। मालूम हुआ कि वर्षा के दिनों में हाथी, वन भैसा, गौर और असंख्य लाल हिरण (बारासिंघा) यहां विचरण करते है। केंदा और पेण्डरा के जंगलों में जो मैकल पर्वत श्रेणी के. ठीक नीचे में स्थित वहां बहुत वन भैसे होने की खबर मिली थी, पर समय नहीं था इसलिये वे रूके नहीं। फारसाइथ की राय में जब मंडला के पठारी जंगलों में पालतू पशुओं के झुंड चरने पहुंचते थे, तब वहां से वनभैंसे मुख्यतया इधर के जंगल की ओर आ जाते थे। अब तक उनको जितना मालूम हो सका था, उसके अनुसार लगभग बारह सौ वर्गमील के वन क्षेत्र में हाथी वास करते थे। उनकी अनुमानित संख्या दो से तीन सौ तक थी। और वे निश्चित रूप से अपने आसपास की फसल को बहुत नुकसान करते थे। फलस्वरूप उन क्षेत्रों के ठाकुरों द्वारा पटाई जाने वाली वार्षिक लगान को कई वर्षों तक माफ करना पड़ा। वहां के लोग हाथी जैसे शक्तिशाली प्रतिद्वंदी से बचने-बचाने में पूरी तरह असहाय थे। रास्ते में जंगल से लगे जो गांव मिले, वहां अधिकांश में ऊंचे पेड़ों पर मकान बनाये गये थे। गांव में हाथी दल के आने पर लोग उन मचालों पर चढ़कर अपना बचाव करते थे। फारसाइथ के विचार से जंगली हाथियों को मारने के प्रयास में उनके द्वारा किये जाने वाले उत्पात में वृद्धि ही होती है। उसके अलावा किसी हाथी को मारना किसी आदमी को फांसी में टांगने जैसा है जो कि उसका सबसे बुरा उपयोग है।
हाथियों को देखने की इच्छा पूरी करने के लिये फारसाइथ ने हसदेव और उसकी सहायक नदियों के एक विस्तृत विशाल भू-भाग की यात्रा की थी। और १ जून को पूर्व दिशा की ओर से खड़ी चढ़ाई लिये जो पहाड़ी रास्ता है, उससे होकर अमरकंटक पहुंचे। यहां दो दिन आराम करने के बाद जबलपुर की ओर चले गये। काफी पत्र-व्यवहार के बाद तत्कालीन भारत सरकार ने अपने सुसंगठित हाथी पकड़ने वाले दल को इन जंगलों में भेजा था, जिसने सन् १८६५ से ६७ के बीच में यहां के हाथियों को पकड़ने का उपक्रम किया था।
Bahot Acha Jankari Mila Post Se . Ncert Solutions Hindi or
ReplyDeleteAaroh Book Summary ki Subh Kamnaye