Tuesday, November 16, 2021

छोटे डोंगर

छोटे डोंगर की पुरासम्पदा - नरेश कुमार पाठक

मध्यप्रदेश के दक्षिणी भाग में स्थित बस्तर जिला अपनी जनजातीय संस्कृति एवं वन्य सम्पदा के लिए प्रसिद्ध है। प्राचीन साहित्य एवं अभिलेखों में इस अंचल का उल्लेख दण्डकारण्य एवं महाकान्तार के रूप में मिलता है। पूर्व मध्यकाल में इसे चक्रकोट के नाम से सम्बोधित किया जाता था। यह क्षेत्र अपनी दीर्घ ऐतिहासिक परम्पराओं तथा पुरातात्विक सम्पदा के लिये भी विख्यात है। बस्तर की भौगोलिक स्थिति के कारण यहां की पुरातात्विक सामग्रियों का विस्तृत सर्वेक्षण पूर्व में नहीं हो सका है, अतः सर्वेक्षण एवं नवीनतम शोधों के माध्यम से प्राचीन पुरावशेषों की जानकारी लगातार प्रकाश में आ रही है। इसी क्रम में बस्तर जिले के नारायणपुर तहसील में स्थित छोटे डोंगर का उल्लेख किया जाना समुचित होगा। छोटे डोंगर रायपुर से लगभग 240 किलोमीटर दूर रायपुर-जगदलपुर-जैपुर राष्ट्रीय मार्ग क्रमांक 43 पर बस्तर जिले का कोण्डागांव नगर स्थित है एवं कोण्डागांव से लगभग 51 किलोमीटर दूर कोण्डागांव-अन्तागढ़ मार्ग पर बस्तर जिले का तहसील मुख्यालय नारायणपुर है। नारायणपुर से दक्षिण पश्चिम में लगभग 50 किलोमीटर दूर नारायणपुर-ओरछा मार्ग पर छोटे डोंगर नामक गांव अवस्थित है।

छोटे डोंगर की बस्ती के बाहर नई तराई तालाब के किनारे एक प्राचीन स्मारक भग्नावशेष अवशिष्ट है, इन अवशेषों का निरीक्षण सर्वप्रथम भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी श्री के.के. चक्रवर्ती (वर्तमान आयुक्त, पुरातत्व एवं संग्रहालय, मध्यप्रदेश) ने सन 1987-88 में रायपुर के पुरातत्ववेत्ता श्री वेदप्रकाश नगायच के साथ किया था। उस समय तालाब के पश्चिमी किनारे पर गोलाई लिये एक सामान्य आकार का उन्नत टीला स्थित था जिसमें ध्वस्त स्मारक के अवशेष दृष्टव्य हो रहे थे। इसके समीप तालाब की ओर ढलान वाले भाग में दो प्रतिमायें एवं एक शिलालेख भी पड़े हुए थे। इस प्राचीन स्थल में विलुप्त प्राचीन संस्कृति को प्रकाश में लाने के लिए आवश्यक था कि यहां स्थित टीलों की सफाई कार्य प्रारंभ किया जावे। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये, मार्च 1988 में मध्यप्रदेश पुरातत्व एवं संग्रहालय के तत्वावधान में डा. जी.के. चन्द्रौल, उपसंचालक, पुरातत्व एवं संग्रहालय, रायपुर, रायपुर में पदस्थ पुरातत्ववेत्ता द्वय सर्वश्री वेदप्रकाश नगायच एवं श्री राजाराम सिंह एवं श्री नरेश कुमार पाठक, संग्रहाध्यक्ष, जिला पुरातत्व संग्रहालय, जगदलपुर द्वारा टीले की मलबा-सफाई कार्य सम्पन्न कराया गया।

इस प्राचीन टीले के सतह पर जमी हुई मिट्टी, खंडित स्थापत्य खंड एवं प्रस्तरों के टुकड़े धीरे-धीरे हटाये जाने के उपरान्त एक प्रस्तर निर्मित आयताकार चबूतरा निकल आया। कार्य के आगे बढ़ने के साथ ही पाषाण निर्मित द्वार चौखट अपने मूल स्थिति में प्राप्त हुआ। द्वार के वाम एवं दक्षिण दोनों पार्श्व की द्वार शाखाएं टूट कर गिर चुकी थीं, वे चबूतरा के ऊपर सफाई कार्य के दौरान प्राप्त हुई हैं। उन्हें यहीं रखा गया है। इससे यह स्पष्ट हो गया कि यह एक प्राचीन मंदिर का अवशेष है तथा यह मंदिर पूर्वाभिमुखी है।

यह प्राचीन मंदिर 9वीं 10वीं शती ईस्वी में निर्मित हुआ प्रतीत होता है। इसके सूक्ष्म परीक्षण से ज्ञात होता है कि यह मंदिर शिव मंदिर था। यद्यपि गर्भगृह में जलधारी व शिवलिंग प्राप्त नहीं हुए हैं, किन्तु यहां से पूर्व दिशा में लगभग 200 मीटर की दूरी पर स्थित रामसागर के किनारे आम पेड़ के नीचे दो गोल शिवलिंग युक्त जलधारी तथा एक प्राचीन चौकोर जलधारी रखी है, जो सम्भवतः इसी ध्वस्त मंदिर की मूल जलधारी प्रतीत होती है, जिस पर शिवलिंग प्रतिष्ठापित रहा होगा। इसके शिव मंदिर होने का एक दूसरा प्रमाण भी है, कि उमा-महेश्वर प्रतिमा मंदिर के चबूतरे पर पूर्वी दीवार के समीप 0.70 मीटर की ऊंचाई पर प्राप्त हुई है, तथा तीसरे इस टीले के पूर्व ढलान वाले भाग से गणेश प्रतिमा का निचला खण्ड प्राप्त हुआ है।

बस्तर क्षेत्र में तालाब एवं पोखरों (तराईयों अथवा तलाईयों) का बाहुल्य है, क्योंकि ये जल प्राप्ति के प्रधान स्रोत रहे हैं। अतः इस क्षेत्र में पूजा स्थल भी तालाब के किनारे अधिकता से मिलते हैं। छोटे डोंगर का यह मंदिर भी इसी परम्परा में निर्मित किया गया प्रतीत होता है।

वर्तमान में मलबा सफाई करने के पूर्व मंदिर के निर्माण के समय बनाये गये प्लेटफार्म (चबूतरे) का रूप स्पष्ट मिला है, जो 5.40 मीटर लम्बा 4.10 मीटर चौड़ा रहा। इसके उपर सामने 1.60 मीटर छोड़कर गर्भगृह बनाया गया। सम्भवतः इसका उपयोग खुले मण्डप के रूप में किया जाता रहा होगा। मंदिर के सम्मुख भाग को छोड़कर शेष तीनों ओर 75 सेंटीमीटर का स्थान चबूतरे में गर्भगृह के बाहर रिक्त है। अतः अनुमान किया जा सकता है कि यह प्रदक्षिणा पथ के रूप में प्रयुक्त होता रहा होगा।

मंदिर पूर्वाभिमुखी है तथा इसका बाह्य आकार 3 मीटर पूर्व-पश्चिम, 2.60 मीटर उत्तर-दक्षिण में है। गर्भगृह की अन्तमिती (अन्तःभित्ति?)का आकार 1.90 मीटर पूर्व-पश्चिम, 1.50 मीटर उत्तर-दक्षिण है। इसका फर्स छोटे पत्थरों के टुकड़ों को चूने के साथ मिला के कूटकर बनायी गई है, जिसपर शिवलिंग की स्थापना की गई होगी। वर्तमान में जलधारी व शिवलिंग प्राप्त होने से उसकी सही स्थिति स्पष्ट नहीं की जा सकती, गर्भगृह की उत्तरी दीवार का पूर्व उत्तरी कोने के पत्थर अपने मूल स्थान पर खड़े मिले हैं, जिनकी ऊंचाई जगती सहित 1.70 मीटर है। इसके पास ही एक दूसरा पाषाण खंड मिला है जो कि संभवतः इसी दीवार का हिस्सा रहा होगा जो कि 1.45X.60X.18 मीटर का है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार की चौड़ाई 50 सेंटीमीटर है।

मूर्तियां
छोटे डोंगर के उल्लिलित मंदिर एवं निकट स्थित गढ़पारा के आसपास महत्वपूर्ण मूर्तियां एवं कलावशेष बिखरे पड़े हैं, जिनका विवरण निम्नानुसार है-

शिव: यह मूलतः एक बलुआ पत्थर का स्थापत्य खण्ड है, जिसे कालान्तर में शिव की प्रतिमा के रूप में परिवर्तित किया गया है। इस प्रतिमा में (100X38X16 सेंटीमीटर) शिव को द्विभुजी प्रदर्शित किया गया है। शिव को जटा मुकुट, कुण्डल, सर्पाहार आदि अलंकरणों से युक्त प्रदर्शित किया है।

उमा-महेश्वर: गढ़पारा से प्राप्त कृष्ण पाषाण में निर्मित इस प्रतिमा (60X18 सेंटीमीटर) उमा-महेश्वर का है जिसमें बैठे हुये महेश्वर का दायां पैर भग्न है। बायीं जंघा पर उमा आलिंगन मुद्रा में बैठी हुई है। शिव की भुजाओं में दक्षिणाधः (दक्षिणात्य) क्रम से मातुलिंग, त्रिशूल, सर्प धारण किए हुए एवं उमा के बायें उरोज का स्पर्श किये हैं। देव जटा-मुकुट, चक्र कुण्डल, ग्रैवेयक एकावलीहार, बलय (वलय?), मेखला एवं नूपुर धारण किये हैं। उमा की भुजा दक्षिणात्य क्रम से शिव के दायें स्कंद पर स्थित है। शेष भुजाओं में अंजन लगाने की सलीका (शलाका?), दर्पण एवं अर्ध चन्द्राकार कंधा से मुक्त है। देवी सुन्दर मुकुट, अलंकृत केश, चक्रकुण्डल, एकावली लोकिट युक्त ग्रैवेयक, उरोज तक फैली एक अन्य हारावली, बलय, मेखला, नूपुर एवं उत्तरीय धारण किये हैं। दायें ओर का पादपीठ भग्न है, बायें पादपीठ पर एक खण्डित पूजक आराधनारत अंकित है।

उमा-महेश्वर: गढ़पारा से ही प्राप्त यह प्रतिमा (68X50 सेंटीमीटर) कृष्ण पाषाण पर निर्मित है। इसमें सव्य(?)ललितासन महेश्वर की बायी जंघा पर उमा आलिंगन मुद्रा में प्रदर्शित है। शिव की भुजाएं दक्षिणाधः क्रम से मातुलिंग, सर्प का फणयुक्त त्रिशूल, सर्प एवं उमा के बायें उरोज को स्पर्श करते हुये प्रदर्शित है। शिव जटा मुकुट, चक्र कुण्डल, लटकन (ताबीज) युक्त एकावली, ग्रैवेयक, दोवली अन्य हार, बलय, मेखला, नूपुर एवं उत्तरीय धारण किये हैं। उमा की भुजाओं में दक्षिणाधः क्रम से शिव के दाये स्कंद पर अंजन लगाने की सलीका, दर्पण एवं अर्ध चन्द्राकार वस्तु सम्भवतः कंधा लिये हैं। पार्वती सुन्दर मुकुट से अलंकृत केश, चक्र कुण्डल, लोकिट युक्त ग्रैवेयक उरोज तक फैली दोवली हार, सोलह चूडियों युक्त बलय, मेखला, नूपुर, उत्तरीय एवं अधोवस्त्र धारण किये हैं। नितान में दोनों ओर मालाधारी विद्याधर पादपीठ पर शिव के बीच उनका वाहन नन्दी एवं पार्वती के नीचे उनके वाहन सिंह का अंकन है।

उमा-महेश्वर: यह प्रतिमा (40X31X15 सेंटीमीटर) मंदिर के मलबा-सफाई में प्राप्त हुई थी वर्तमान में जिला पुरातत्व संग्रहालय, जगदलपुर (अवाप्ति पंजी कमांकः 29) में संग्रहित है। हरे रंग के पत्थर पर निर्मित प्रतिमा काफी खण्डित अवस्था में हैं। सव्य ललितासन में बैठे हुये शिव की बायी जंघा पर उमा आलिंगन मुद्रा में बैठी हुई है। महेश्वर का दायां पैर, दायी भुजायें व सिर टूटा हुआ है। बायीं उपरी भुजा में सम्भवतः सर्प एवं बायीं नीचे भुजा में सम्भवतः उमा के बायें कंधे पर है। धर, यज्ञोपवीत व मेखला से सुशोभित है। उमा की दायी भुजा शिव के दायें स्कंद पर बायी भुजा अपने बायें पैर की जंघा पर रखे हुये है। देवी का मुख टूटा है। यह केश, हार, मेखला व नूपुर से अलंकृत है। पार्श्व में दायीं ओर खट्वांग पुरुष बायीं ओर चंवरधारिणी खड़ी है। शिव और उमा के नीचे उनके वाहन नन्दी एवं सिंह क्रमशः अंकित है। सामने चार अस्पष्ट प्रतिमा बैठी हुई है। वितान में तीन लघु प्रतिमा सम्भवतः त्रिदेव की है। दोनों ओर मालाधारी विद्याधर और उनके नीचे दोनों पार्श्व में एक-एक पूजक अंजली हस्त मुद्रा में बैठे हुये शिल्पांकित है। प्रतिमा को शिल्पी ने पूर्णरूप न देकर अर्धगढ़ित छोड़ दिया है।

गणेश: गढ़पारा से प्राप्त कृष्ण पाषाण पर निर्मित (150X32 सेंटीमीटर) चतुर्भुजी गणेश सव्य ललितासन में बैठे हुये अंकित है। गणेश की भुजाओं में दक्षिणाधः क्रम से दन्त, परशु, पुष्प एवं मोदक लिये हैं। गणपति मुकुट, पुष्प एवं मोदक लिये हैं। गणपति मुकुट, सूपकर्ण, दन्त, ग्रैवेयक, यज्ञोपवीत, बलय व नूपुर धारण किये हुये है। सूढ बायी ओर को मुड़ी हुई मोदक पात्र को स्पर्श कर रही है। पादपीठ पर नीचे गणपति के वाहन मूषक का अंकन है। यह प्रतिमा अपराजितपृच्छा के विवरण से काफी साम्यता लिये हैं, जिसके अनुसार गणेश चार भुजाओं में से दायी भुजाओं में कमल कलिका एवं मोदक पात्र होना चाहिये।

गणेश: गढ़पारा से ही प्राप्त चतुर्भुजी आसनस्थ गणेश सव्य ललितासन में बैठे हुये हैं। दायी नीचे की भुजाओं में दन्त लिये हैं। शेष तीन भुजायें भग्न है। देव यहां मुकुट, सूपकर्ण, हार केयूर एवं नूपुर धारण किये दृष्टव्य है। सूंड टूट चुकी है। प्रतिमा भग्न अवस्था में है। 50X32 सेंटीमीटर आकार की यह प्रतिमा कृष्ण पाषाण पर निर्मित है।

नृत्य गणेश: छोटे डोंगर से प्राप्त कृष्ण पाषाण की नृत्य गणेश की यह प्रतिमा दो खंडों में प्राप्त हुई है (110X50X25 सेंटीमीटर) प्रतिमा का उपरी भाग भग्न है, जिसे छोटे डोंगर के गढ़पारा में रखा गया है। नीचे का भाग मंदिर के टीले के निकट से प्राप्त जिला पुरातत्व संग्रहालय, जगदलपुर (अवाप्ति पंजी क्रमांकः 30) में संग्रहित है। द्विभंग मुद्रा में अंकित चतुर्भुजी गणेश की बायी ऊपरी भुजा में अक्षमाला नीचे की भुजा में कमल कलिका है। बायीं दोनों भुजायें भग्न है। देव करण्ड मुकुट, रूपकर्ण, ग्रैवेयक, सर्प यज्ञोपवीत, केयूर, बलय, मेखला एवं पैजनी धारण किये हैं। पार्श्व में दायी ओर एक पूजक अंजली मुद्रा में बैठा हुआ है। बांयी ओर उनका वाहन मूषक का आकर्षण मुद्रा में अंकन है। पादपीठ पर देवनागरी लिपि में लेख उत्कीर्ण है, जिसे डा. विवेकदत्त झा ने ‘श्री गणराज प्रतिमा प्रतिष्ठा‘ पढ़ा है। तथा इसका काल 11 वीं शताब्दी ईस्वी निर्धारित किया है। वस्तुतः लेख का पाठ ‘श्री उग्रवराहस्य प्रतिष्ठाः।।‘ लिपि के आधार पर इसे 9 वीं शताब्दी ईस्वी का माना जाना समुचित प्रतीत होता है।

कार्तिकेय: गढ़पारा में पीपल के वृक्ष के नीचे 51X25 सेंटीमीटर कृष्ण पाषाण में निर्मित कार्तिकेय की अत्यन्त कलात्मक प्रतिमा अवस्थित है। यह प्रतिमा क्षरित स्थिति में है। देवता की दोनों भुजाएं तथा मुख मण्डल खण्डित है। द्विभंग मुद्रा में खड़े कार्तिकेय मुकुट, कुण्डल, ग्रैवेयक, केयूर कटि मेखला और धोती से सुसज्जित है। उनके वाहन मयूर के ले हुये पंखों का मनोहारी अंकन देवता के पीछे किया गया है।

महिषमर्दिनी: गढ़पारा से अलीढ़ मुद्रा में अंकित देवी महिषमर्दिनी का नीचे का भाग टूटा है। अष्टभुजी देवी की सभी भुजाएं टूटी है। भगवती, मुकुट, सुन्दर प्रभामण्डल, कर्ण कुण्डल, हार, ग्रैवेयक, केयूर, बलय, कटि मेखला बनमाला साड़ी से सुशोभित है। देवी महिषासुर का मर्दन करने की मुद्रा में प्रदर्शित है। भावांकन की दृष्टि से प्रतिमा को वीर रस की ओजस्वी अभिव्यक्ति माना जा सकता है। कृष्ण पाषाण पर निर्मित प्रतिमा आकार 28X21सेंटीमीटर है।
(इसके अतिरिक्त लेख में 5 सती स्तंभ और 3 योद्धा प्रतिमाओं का आकार सहित उल्लेख है।)

अभिलेख: छोटे डोंगर के शिव मंदिर के टीले से एक शिलालेख और पूर्व में वर्णित प्रतिमा पादपीठ लेख प्राप्त हुए हैं। शिलालेख वर्तमान में जिला पुरातत्व संग्रहालय, जगदलपुर में संरक्षित है। यह खण्डित शिलालेख कृष्ण पाषाण पर 69X48X21 सेंटीमीटर आकार का है। इसमें प्रस्तर के दोनों ओर लेख अंकित है। अग्रभाग में कुल 6 पंक्तियां हैं तथा पृष्ठ भाग में 9 पंक्तियां हैं। डा. विवेकदत्त झा के मतानुसार इसमें ‘वंखकादित्य‘ नामक राजा का उल्लेख है। जो राजमल्ल का उत्तराधिकारी था। अभिलेख में पृष्ठ भाग में ‘परद्वार विषय‘ के संबंध में जानकारी है। डा. झा इस लेख को 9 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध का मानते हैं। प्रस्तुत अभिलेख के वाचन से स्पष्ट होता है कि इसमें राजा का नाम का अंश वस्तुतः ‘श्री कदितमि देनुज‘ का उल्लेख है। इसी प्रकार पृष्ठ भाग में परद्वार विषय के ’परद्वार विषय‘ अधिक शुद्ध पाठ है। श्री जी.एल. रायकवार के अनुसार सम्भावित तद्समय हरद्वार विषय होगा। यह संभवतः विषय वर्तमान में अबूझमाड़ का प्राचीन नाम रहा होगा। इस प्रकार यह अभिलेख बस्तर के इतिहास पर नवीन प्रकाश डालता है।

छोटे डोंगर के काल निर्धारण में कलावशेषों तथा अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर करने का प्रयास किया गया है। जगदलपुर संग्रहालय में संरक्षित अभिलेख (कमांकः -) तथा प्रतिमा पादपीठ लेख (क्रमांकः 30) संग्रहित है। प्रतिमा पादपीठ पर अंकित लेख 9 वीं क्रमांक शताब्दी ई. का है। अतः प्रतिमा का काल भी यही निर्धारित किया जा सकता है। अन्य प्रतिमायें भी इसके समकालीन प्रतीत होती है। सती स्तम्भ एवं प्रतिमाएं 14-15 वीं शताब्दी की प्रतीत होती है। एक पाषाण खण्ड को 18 वीं शताब्दी में शिव प्रतिमा के रूप में परिवर्तित किया गया है। अतः यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि छोटे डोंगर में 9 वीं शताब्दी से लेकर 18 वीं शताब्दी तक की कला परम्परा विद्यमान रही है।

श्री पाठक ने प्रकाशन हेतु यह लेख डा. ए.एल. श्रीवास्तव को अगस्त 1995 में प्रेषित किया था, जिसके प्रकाशित होने की जानकारी मुझे नहीं है। लेख में टाइपिंग की कुछ भूलें हैं, जहां स्पष्ट हो सका वह संशोधित करते हुए शेष मजमून यथावत रखा गया है। लेख के साथ पाद टिप्पणियां भी हैं, जिसमें श्री पाठक ने अपने गुरुवर डा. लक्ष्मीशंकर निगम के मार्गदर्शन एवं सुझाव हेतु आभार व्यक्त किया है। साथ ही ‘श्री उग्रवराहस्य प्रतिष्ठाः‘ वाले लेख पाठ के लिए मेरे नाम का, मेरी तत्कालीन पदस्थापना सहित (श्री राहुल कुमार सिंह, संग्रहाध्यक्ष, बिलासपुर) आभार उल्लेख किया है।

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