Wednesday, September 15, 2021

जैन परंपरा - पत्रक

छत्तीसगढ़ में जैन धर्म- पुरातत्व एवं परंपरा

वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य का भू-भाग प्राचीन काल में दक्षिण कोसल के नाम से जाना जाता था। ऐतिहासिक काल में उड़ीसा का सीमावर्ती कुछ भू-भाग भी इसमें सम्मिलित था। यह भू-भाग प्राचीन काल में सघन वनों से आच्छादित तथा दुर्गम रहा है, तथापि विभिन्न संस्कृतियों की पारस्परिक समन्वय स्थली भी था। ऐतिहासिक काल में इस भू-भाग से शैव, वैष्णव, बौद्ध और जैन धर्म के प्रमाण प्राप्त होने लगते हैं। इस श्रृंखला में मल्हार, सिरपुर, आरंग, महेशपुर, धनपुर, रतनपुर, बकेला, कुरुसपाल, बारसूर अनेक स्थलों में विविध धर्माे से संबंधित पुरावशेष प्राप्त होते हैं। यह उल्लेखनीय है कि उपरोक्त स्थल तत्कालीन राजधानी, धार्मिक केन्द्र अथवा व्यापारिक केन्द्र के रूप में विकसित रहे हैं। इन स्थलों में जैन स्मारकों के निर्माण में तत्कालीन राजवंशों के अतिरिक्त धनाढ्य वर्ग तथा जन-साधारण ने भी विपुल योगदान दिया।

विद्वानों के मतानुसार सरगुजा जिले के रामगढ़ की पहाड़ी में स्थित जोगीमारा गुफा की छत पर निर्मित चित्र जैन धर्म से संबंधित है। निरंतर प्राकृतिक दुष्प्रभाव के कारण ये चित्र अत्याधिक धूमिल तथा अस्पष्ट हो चुके हैं। रामगढ़ की गुफा में उत्कीर्ण अभिलेख के पुरालिपि प्रमाण के आधार पर इन्हें दूसरी-तीसरी ईस्वी पूर्व (मौर्यकाल) का माना जाता है। द्वितीय शती ईस्वी के कुमारवरदत्त के गुंजी अभिलेख (दमउ दहरा, सक्ती) में उल्लेखित उषभ तीर्थ को प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ से संबंधित माना जाता है। उक्त आधार पर दक्षिण कोसल में जैन धर्म का प्रादुर्भाव ईसा पूर्व से माना जा सकता है तथापि प्रारंभ से ऐतिहासिक काल के 6वी शती ईस्वी के मध्य की जैन प्रतिमायें तथा स्थापत्य अवशेष इस क्षेत्र से अनुपलब्ध है।

सातवीं आठवीं शताब्दी ईस्वी से जैन धर्म से संबंधित प्रतिमायें छत्तीसगढ़ में उपलब्ध होने लगती हैं। कालक्रम की दृष्टि से छत्तीसगढ़ में जैन धर्म से संबंधित कलात्मक प्रतिमायें 7वीं-8वीं शताब्दी ईस्वी से लेकर 12वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य प्राप्त होती हैं। उपरोक्त प्रतिमायें सोमवंशी, कलचुरि, फणिनाग एवं छिन्दक नाग शासकों के काल में निर्मित हुई हैं। सोमवंशी शासकों के द्वारा निर्मित जैन कलाकृतियों का प्रमुख केन्द्र मल्हार रहा है। इसके अतिरिक्त सिरपुर से भी जैन प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। त्रिपुरी के कलचुरि शासकों के काल में सरगुजा जिले के महेशपुर (उदयपुर के समीप) एवं धनपुर (पेण्ड्रा के सन्निकट) में जैन मंदिर के भग्नावशेष हैं। रतनपुर के कलचुरियों के काल में समग्र छत्तीसगढ़ में जैन धर्म की लोकप्रियता में प्रचुर वृद्धि हुई। इस काल के जैन पुरावशेष रतनपुर, मल्हार, आरंग, नगपुरा, नेतनागर (रायगढ़) आदि स्थलों से मिलते हैं। कवर्धा के फणिनाग शासकों के काल के जैन स्थापत्य अवशेष हाफ नदी के किनारे बकेला एवं कटंगी नामक ग्राम से प्राप्त हुये हैं। बस्तर के छिन्दक नाग शासकों के काल में ग्राम कुरुसपाल एवं बारसूर में जैन पुरावशेष उपलब्ध हुए हैं। तत्कालीन राजवंशों के धर्म निरपेक्षता तथा उदारता के फलस्वरूप जैन धर्म छत्तीसगढ़ में पर्याप्त लोकप्रिय रहा है।

स्मारक-स्थल
छत्तीसगढ़ में प्राचीन काल का एक मात्र अवशिष्ट जैन मंदिर रायपुर जिले के आरंग में विद्यमान है। यह भांड देवल के नाम से प्रसिद्ध है। पश्चिमाभिमुखी यह मंदिर 11वीं शती ईस्वी में निर्मित है। मंदिर का गर्भगृह तथा शिखर भाग अवशिष्ट है। मंदिर ताराकृति भू-योजना पर आधारित है। मंदिर की जगती पर गजथर, अश्वथर और नरथर निर्मित है। जंघा में प्रतिमायें दो तल में सुसज्जित है जिस पर जैन शासन देव देवियां, दिक्पाल, अप्सरायें, मिथुन प्रतिमायें, उपासक आदि प्रमुखता से दर्शायी गई है। जंघा पर हिन्दू धर्म से संबंधित कुछ प्रतिमायें भी दृष्टव्य है। गर्भगृह में शांतिनाथ, श्रेयांसनाथ एवं अनंतनाथ की विशालकाय प्रतिमायें प्रतिष्ठापित है। ये प्रतिमायें तालमान की दृष्टि से अत्यन्त संतुलित हैं। काले ओपदार प्रस्तर पर निर्मित इन प्रतिमाओं में अद्भुत लावण्य है तथा अजस्र शांति प्रवाहित है।

छत्तीसगढ़ अंचल में जैन धर्म से संबंधित स्थलों में आरंग सर्वाधिक प्राचीन स्थल ज्ञात होता है। महाशिवगुप्त बालार्जुन के सिरपुर से प्राप्त ताम्रपत्र लेख में आरंग का पूर्व नाम ‘अर्य्यंगाभोगिय‘ उत्कीर्ण है। सातवीं शती ईस्वी से पल्लवित जैन धर्म की उदात्त परम्परा में आरंग कलचुरि काल तक छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण स्थल बना रहा है। दुर्ग जिले के नगपुरा ग्राम में जैन मंदिर के भग्नावशेष विद्यमान हैं। यह मंदिर भी कलचुरि कालीन है। वर्तमान में इस स्थल पर तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मूल प्रतिमा प्रतिष्ठापित है तथा नाग बाबा के रूप में सार्वजनिक रूप से पूजित है।

बस्तर जिले में जैन धर्म से संबंधित प्रतिमायें तत्कालीन छिन्दक नागवंशी शासकों के काल में निर्मित हैं। कुरुसपाल से प्राप्त सोमेश्वर देव के अभिलेख में जिनग्राम का उल्लेख है। कुरुसपाल के समीपस्थ ग्रामों से जैन धर्म से संबंधित आदिनाथ, पार्श्वनाथ के अतिरिक्त अन्य अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। जगदलपुर नगर में भी जैन धर्म से संबंधित प्रतिमायें स्थानीय देवालयों में रखी हुई हैं। संभवतः ये प्रतिमायें कुरुसपाल से संग्रहित की गई है। बस्तर जिले के विशेष महत्वपूर्ण पुरातत्वीय स्थल बारसूर में भी जैन धर्म से संबंधित प्रतिमायें संग्रहीत हैं। सरगुजा जिले के महेशपुर नामक स्थल में त्रिपुरी के कलचुरियों के काल में निर्मित जैन मंदिर के भग्नावशेष विद्यमान हैं। इस स्थल में तीर्थकर आदिनाथ की प्रतिमा मूल रूप में प्रतिष्ठापित है। यह प्रतिमा अत्यन्त भव्य है तथा अष्टप्रतिहार्य युक्त है।

कवर्धा जिले के परिसीमा में प्रवाहित हाफ नदी के तट पर बकेला ग्राम के सन्निकट फणिनाग शासकों के काल में निर्मित जैन मंदिर के भग्नावशेष हैं। यहां से संग्रहीत तीर्थंकर पार्श्वनाथ की भव्य आसनस्थ अभिलिखित प्रतिमा पंडरिया के जैन मंदिर में प्रतिष्ठापित है। इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ में आदिनाथ, धर्मनाथ, पार्श्वनाथ, सहित अन्य तीर्थकर प्रतिमायें भी संग्रहीत है। जिला पुरातत्व संघ संग्रहालय, राजनांदगांव में अनेक स्थलों से जैन प्रतिमायें संग्रहीत कर रखी गई हैं। बिरखा, कटंगी के प्राचीन शिव मंदिर के प्रांगण में एक जैन प्रतिमा रखी हुई है, जो किसी जैन मंदिर के भग्नावशेषों से संग्रहीत की गई होगी।

बिलासपुर जिले में जैन धर्म से संबंधित प्रचुर अवशेष मल्हार, रतनपुर तथा धनपुर से ज्ञात हैं। मल्हार में स्थानीय संग्रहालय में विभिन्न तीर्थकरों की अनेकों प्रतिमायें संग्रहीत हैं। कलचुरियों के काल में समग्र छत्तीसगढ़ में मल्हार जैन धर्म का सर्वाधिक महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है। ग्राम में अनेक स्थलों में जैन प्रतिमायें रखी हुई है। परगनिहा नामक स्थल में जैन तीर्थकर की विशालकाय प्रतिमा प्रतिष्ठापित है। रतनपुर की अधिकांश प्रतिमायें काले ग्रेनाइट प्रस्तर से निर्मित हैं। यहां से प्राप्त प्रतिमायें बिलासपुर तथा रायपुर संग्रहालय में प्रदर्शित हैं। रायगढ़ जिले के नेतनागर तथा पुजारीपाली से जैन प्रतिमाओं की जानकारी मिलती है। छत्तीसगढ़ के सुदूरवर्ती जशपुर जिले के ग्राम रेडे, बागबहार आदि से जैन प्रतिमायें उपलब्ध होने विषयक जानकारी है।

कला-शैली
छत्तीसगढ़ में जैन धर्म से संबंधित पुरावशेषों के व्यापक क्षेत्र से यह ज्ञात होता है कि यहां पर भी सातवीं-आठवीं सदी ईस्वी से लेकर 12वीं सदी ई. तक शैव, वैष्णव एवं बौद्ध के साथ-साथ जैन धर्म भी विशेष रूप से लोकप्रिय रहा है। इस काल में जैन धर्म से संबंधित अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ। जैन धर्म का भारतीय कला में भी विशिष्ट योगदान है। स्थापत्य कला, रंगीन भित्ति चित्र, चित्रित ग्रंथ तथा अपभ्रंश साहित्य में जैन धर्म का विपुल योगदान है। छत्तीसगढ़ में जैन धर्म से प्राप्त कलाकृतियां स्थापत्य शास्त्र से अनुशासित हैं। इन प्रतिमाओं में शैलीगत विशिष्टतायें भी दृष्टिगोचर होती हैं। तीर्थकर प्रतिमायें प्रायः अष्ट प्रतिहार्य युक्त हैं। मुख गोलाकार तथा प्रशांत है एवं नेत्र अर्धनिमीलित हैं। केशराशि उष्णीषबद्ध है। सिंहासन पर उत्कीर्ण पटल, तल तक विस्तृत है। अधिष्ठान भाग पर प्रतिष्ठापक दम्पत्ति अथवा आराधनारत उपासकों का अंकन है।

छत्तीसगढ़ क्षेत्र से कुछ विशिष्ट जैन प्रतिमायें ज्ञात हुई है। इनमें सिरपुर से प्राप्त धातुनिर्मित प्रतिमायें अत्यन्त कलात्मक है। सिरपुर से प्राप्त तीर्थंकर आदिनाथ की धातु प्रतिमा गुजरात में अहमदाबाद के लालभाई दलपत भाई प्राच्य निकेतन के संग्रह में है। मुनि कांति सागर के ग्रंथ ‘खंडहरों का वैभव‘ में सिरपुर से प्राप्त तीर्थंकर आदिनाथ की धातु प्रतिमा का विवरण प्राप्त होता है। ये कांस्य प्रतिमा छत्तीसगढ़ क्षेत्र में जैन धर्म के प्रचार-प्रसार तथा उच्च कला कौशल के परिचायक है। ऐसी ही दुर्लभ प्रकार की स्फटिक निर्मित तीन तीर्थकर प्रतिमायें आरंग से प्राप्त हुई थीं तथा संप्रति रायपुर के दिगम्बर जैन मंदिर में पूजित स्थिति में रखी हुई हैं। इनमें से एक तीर्थकर पार्श्वनाथ की है तथा शेष दो शीतलनाथ की प्रतिमायें हैं। इन स्फटिक प्रतिमाओं में शिल्प कला, परम्परा तथा धार्मिक आस्था का सुन्दर सामंजस्य है। बिलासपुर संग्रहालय में बाहुबलि की एक दुर्लभ प्रतिमा संग्रहीत है। छत्तीसगढ़ में बाहुबलि की यह एकमात्र ज्ञात प्रतिमा है। बाहुबलि के कठिन तपश्चर्यारत निश्चल देह पर लता-गुल्म के अंकन सहित आरोहित छिपकली भी दृष्टव्य है। इन कथानकों के सृजन में शिल्पी की मौलिक कल्पना और पौराणिक परम्परा परस्पर आत्मसात है। धनपुर में एक विशाल आकार के एकाश्म शिला में उत्खचित तीर्थकर प्रतिमा (स्थानीय नामकरण बेनीबाई) भी महत्वपूर्ण है। कला शैली की अपेक्षा यह प्रतिमा आकार की दृष्टि से उल्लेखनीय है।

जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांतों में सत्य, अहिंसा और परमार्थ सर्वाेपरि है। यह विस्मयोत्पादक सत्य है कि जैन धर्म में साधनात्मक पक्ष के साथ-साथ प्रकृति को भी सन्निहित करते हुए वनस्पति तथा जीव जगत के प्राणियों के अवदान को स्वीकार करते हुए उन्हें तीर्थंकरों के द्वारा लांछन के रूप में स्वीकार किया गया है। सभी तीर्थकरों ने पुष्प, फल, छाया, सुगंध तथा काष्ठ के रूप में प्राणियों के लिये निरंतर उपयोगी वनस्पतियों को चैत्य वृक्ष के रूप में अंगीकार किया है। जैन धर्म का यह अवगाहन प्रकृति का काव्य है जिसमें विश्व के साथ जीवन जीने की कला का संदेश है। जैन धर्म में अर्हत के साथ सिद्ध, साधु, उपाध्याय तथा सज्जनों को अत्यन्त सम्मान दिया गया है तथा ‘णमोकार‘ महामंत्र से इनकी उपासना की जाती है। महापुरुषों, आचार्य, विद्वान तथा श्रेष्ठ पुरुषों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का यह सर्वाेत्तम माध्यम है। समग्र रूप में जैन धर्म समष्टि का स्वरूप है। छत्तीसगढ़ अंचल में जैन धर्म से संबंधित तीर्थ परम्परा में नगपुरा (जिला दुर्ग) का विशिष्ट महत्व है। यह स्थल धार्मिक आराधना के अतिरिक्त प्राकृतिक चिकित्सा, गो सदन तथा शिक्षा के क्षेत्र में निरंतर प्रगति कर रहा है।

छत्तीसगढ़ अंचल में प्राचीन काल से ही धार्मिक सद्भावना सर्वत्र विद्यमान रही है। पुरातत्वीयस्थलों से ज्ञात अवशेषों के माध्यम से यह प्रमाणित होता है कि यहां शैव, वैष्णव, बौद्ध तथा जैन धर्म साथ-साथ विकसित होते रहे हैं। इसके साथ ही साथ परस्पर सांस्कृतिक समन्वय विशेषकर कला के क्षेत्र में स्पष्ट दिखाई पड़ता है। स्थापत्य कला में मातृकायें, दिक्पाल तथा नवग्रह समान रूप से सभी देवालयों में प्राप्त होते हैं। जैन यक्षी अम्बिका शैव तथा वैष्णव मंदिरों के जंघा अलंकरण में सर्वत्र प्रदर्शित है। छत्तीसगढ़ में जैन शिल्प सम्पदा न्यूनाधिक दूरस्थ अंचलों से प्राप्त हुए हैं जो इसके लोकप्रियता का प्रमाण है। संस्कृति विभाग इस क्षेत्र में जैन धर्म से संबंधित पुरातत्वीय स्थलों का अन्वेषण, संरक्षण तथा संवर्धन करने के लिये प्रयत्नशील है।

लगभग दस वर्ष पूर्व आयोजित संगोष्ठी के अवसर पर छत्तीसगढ़ शासन, संस्कृति विभाग के अंतर्गत यह पत्रक संचालनालय, संस्कृति एवं पुरातत्व द्वारा प्रकाशित हुआ था, जिसमें प्रकाशन वर्ष उल्लिखित नहीं है। इसमें लखनी देवी मंदिर, रतनपुर तथा अकलतरा जैन मंदिर से बिलासपुर संग्रहालय में लाई गई प्रतिमाओं का उल्लेख रह गया था। यह आलेख हम विभागीय अधिकारियों ने मिलकर तैयार किया था, किंतु भाषा-शैली से निसंदेह कि इसे अंतिम रूप जी.एल.रायकवार जी ने दिया था।

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