प्राचीन दक्षिण कोसल अर्थात् वर्तमान छत्तीसगढ़ व उससे संलग्न क्षेत्र के गौरवपूर्ण इतिहास का प्रथम चरण है- प्रागैतिहासिक मानव संस्कृति के रोचक पाषाण खंड, जो वस्तुतः तत्कालीन जीवन-चर्या के महत्वपूर्ण उपकरण थे। लगभग इसी काल (तीस-पैंतीस हजार वर्ष पूर्व) के बर्बर मानव में से किसी एक ने अपने निवास गुफा की दीवार पर रंग में डूबी कूंची फेरकर, अपनी कलाप्रियता का प्रमाण भी दर्ज कर दिया। मानव संस्कृति की निरन्तर विकासशील यह धारा ऐतिहासिक काल में स्थापत्य के विशिष्ट उदाहरण- मंदिर, प्रतिमा, सिक्के व अभिलेख में अभिव्यक्त हुई है। विभिन्न राजवंशों के गौरवपूर्ण कला रुझान व महत्वाकांक्षी अभियानों से इस क्षेत्र के सांस्कृतिक तथा राजनैतिक इतिहास का स्वर्ण युग घटित हुआ। धरोहर सम्पन्न छत्तीसगढ़ की परिसीमा, आज भी पुरा सम्पदा का महत्वपूर्ण केन्द्र है।
छत्तीसगढ़ का यह क्षेत्र नैसर्गिक सम्पदा से पूर्ण रहा है। महानदी, इन्द्रावती, शिवनाथ, अरपा, हसदेव, केलो, रेन आदि सरिताओं के सुरम्य प्रवाह से सिंचित तथा सघन वनाच्छादित यह भू भाग आदि मानवों द्वारा संचारित रहा है। इनके पाषाण उपकरण और शैलचित्र, नदी तटवर्ती क्षेत्र तथा सिंघनपुर, कबरा पहाड़, करमागढ़ (रायगढ़ जिला) आदि स्थलों से ज्ञात हुए हैं। शास्त्रीय ग्रन्थों में इस क्षेत्र से संबंधित उल्लेख प्राप्त होने लगते हैं। रामायण के कथा प्रसंगों तथा राम के वन गमन का मार्ग, इस क्षेत्र से सम्बद्ध किया जाता है। महाभारत में पाण्डवों के दिग्विजय व अन्य प्रसंगों तथा पौराणिक ग्रन्थों में भी दक्षिण कोसल का उल्लेख अनेक स्थलों पर आया है। प्राचीन परम्पराओं और दंतकथाओं से भी यह अनुमान होता है के यह क्षेत्र प्राचीन काल से ही विशेष महत्व का भू भाग रहा है।
मौर्य काल अर्थात् ईस्वी पूर्व चौथी सदी से इस क्षेत्र में नगर सभ्यता के विकास का संकेत मिलने लगता है। सरगुजा जिले की रामगढ़ पहाड़ी के ब्राह्मी अभिलेख के सिवाय आहत सिक्के, मिट्टी के गढ़ और मृद्भाण्ड विशेष उल्लेखनीय हैं, जिनसे इस क्षेत्र की सांस्कृतिक सम्पन्नता का अनुमान सहज ही होता है।
मौर्यों के पश्चात् तत्कालीन क्षेत्रीय शक्तियों का प्रभाव रहा, जिसके सीमित प्रमाण उपलब्ध होते हैं। ईसा की आरंभिक शताब्दियों के स्पष्ट प्रमाण के रूप में अभिलेख, सिक्के, प्रतिमाएं, लाल ओपदार ठीकरे आदि प्राप्त हुए हैं। इस काल में विदेश व्यापार संबंध के परिचायक रोम और चीन के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं।
चौथी सदी ईस्वी के वाकाटक-गुप्त काल के पश्चात् से इस क्षेत्र के इतिहास की रूपरेखा स्पष्ट होने लगती है। समुद्रगुप्त के प्रसिद्ध इलाहाबाद अभिलेख में दक्षिणापथ के शासकों में कोसल के महेन्द्र नामक शासक का उल्लेख प्रथम क्रम पर है। गुप्तों के प्रभाव के अन्य साक्ष्य भी ज्ञात होते हैं।
गुप्तों के समकालीन शूरा अथवा राजर्षितुल्य कुल तथा मेकल के पाण्डुवंश की सूचना मुख्यतः ताम्रपत्रों से मिलती है। राजर्षितुल्य कुल के भीमसेन द्वितीय के ताम्रपत्र से इसके महत्वपूर्ण शासक होने का स्पष्ट अनुमान होता है। सुवर्ण नदी से जारी किए गए इस ताम्रपत्र में शूरा को राजवंश का संस्थापक बताया गया है। मेकल के पाण्डुकुल के ताम्रपत्रों से जयबल, वत्सराज, नागबल, भरतबल एवं शूरबल जैसे शासकों के नाम मिलते हैं।
लगभग पांचवीं-छठी ईस्वी में शरभपुरीय या अमरार्यकुल नामक महत्वपूर्ण राजवंश की सूचना प्राप्त होती है। इस वंश की प्रमुख राजधानी शरभपुर थी, जो बाद में प्रसन्नपुर स्थानान्तरित हो गई। इनकी द्वितीय राजधानी के रूप में श्रीपुर (वर्तमान सिरपुर) का नाम ज्ञात होता है। इस वंश के विभिन्न ताम्रपत्रों से शरभ, नरेन्द्र, प्रसन्नमात्र, जयराज, सुदेवराज, प्रवरराज तथा व्याघ्रराज का नाम मिलता है। इनमें एकमात्र प्रसन्नमात्र के सिक्के विस्तृत भूभाग से प्राप्त हुए हैं।
लगभग छठी ईस्वी में एक अन्य राजवंश का उदय होता है, जो इतिहास में कोसल के पाण्डुवंश के नाम से प्रसिद्ध है। इनकी राजधानी श्रीपुर थी। इस वंश का आरंभ उदयन से ज्ञात होता है। इस वंश के शिलालेखों व ताम्रपत्रों से इन्द्रबल, ईशानदेव, नन्न, तीवरदेव, महाशिवगुप्त बालार्जुन आदि शासकों के नाम ज्ञात होते हैं।
लगभग सातवीं सदी ईस्वी से दसवीं सदी ईस्वी का काल मुखयतः सोमवंशी शासकों के आधिपत्य का है। इनकी राजधानी सुवर्णपुर, उड़ीसा थी। इस वंश के अभिलेखों से वंश के प्रथम शासक शिवगुप्त के अतिरिक्त ययाति, धर्मरथ, नहुष उद्योतकेसरी, कर्णकेसरी आदि शासक नाम मिलते हैं। इसी काल में त्रिपुरी के कलचुरियों के प्रच्छन्न प्रभाव के अतिरिक्त बाणवंशी शासकों के आधिपत्य के प्रमाण भी प्राप्त होते हैं।
दसवीं सदी ईस्वी में त्रिपुरी के कलचुरियों की एक शाखा ने तुम्माण (वर्तमान तुमान, कोरबा जिला) को राजधानी बना कर शासन आरंभ किया। इस वंश के राजाओं में आरंभिक नाम कलिंगराज, कमलराज मिलते हैं। इसके पश्चात् रत्नदेव, पृथ्वीदेव, जाजल्लदेव, प्रतापमल्ल आदि शासकों के नाम मिलते हैं। परवर्ती काल में इस वंश की राजधानी रत्नपुर स्थानान्तरित हुई, पुनः इसी वंश की एक शाखा ने रायपुर को अपनी राजधानी बनाया। मराठों के आगमन अर्थात् अठारहवीं सदी ईस्वी तक इस क्षेत्र पर कलचुरियों का एकाधिपत्य रहा।
इस क्षेत्र में उपरोक्त वर्णित राजवंशों के विभिन्न निर्माण कार्यों से जहां उनकी धार्मिक सहिष्णुता, कलाप्रियता व शास्त्रीय मान्यताओं के संरक्षण का परिचय मिलता है वहीं काव्य चमत्कार, भाषा ज्ञान, धातु सम्पन्नता की झलक, अभिलेख व सिक्के हैं। इस प्रकार की महत्वपूर्ण पुरा सम्पदा निम्नानुसार है-
स्थापत्य अवशेषों के महत्वपूर्ण उदाहरण इस क्षेत्र में विद्यमान हैं। रामगढ़ की गुफाओं से आरंभ होकर निःसंदेह इसका विशिष्ट पड़ाव मल्हार था, किन्तु मल्हार से अब तक कोई महत्वपूर्ण संरचना प्रकाश में नहीं आई अतः इसके पश्चात् बिलासपुर जिले के अत्यंत विशिष्ट स्थल ताला पर दृष्टि केन्द्रित की जा सकती है, जहां उत्तर गुप्त कालीन दो शिव मंदिर हैं। इनमें से देवरानी मंदिर नाम से प्रसिद्ध स्मारक अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित और पूर्वज्ञात संरचना है, जबकि जिठानी मंदिर की अवशिष्ट संरचना पुरातत्व विभाग के कार्यों से स्पष्ट हुई है।
इसके पश्चात् पाण्डु-सोमवंशी शासकों के निर्माण का काल छठी-सातवीं सदी के आरंभ होता है। इन राजवंशों के प्रमुख स्थापत्य उदाहरणों में सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर, खरौद के मंदिर, राजिम का राजीव लोचन व अन्य मंदिर, अड़भार का शिव मंदिर, धोबनी का चितावरी दाई मंदिर, पलारी का सिद्धेश्वर मंदिर, मल्हार का देउर आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। इस काल की क्षेत्रीय वास्तु शैली की विशेषता ताराकृति योजना पर बने ईंटों के मंदिर हैं।
लगभग दसवीं सदी ईस्वी तक इस कालावधि में कुछ अन्य राजवंशों ने भी महत्वपूर्ण निर्माण कार्य कराया। इनमें उल्लेखनीय उदाहरण सरगुजा जिले के डीपाडीह, देवगढ़, सतमहला, महेशपुर आदि स्थलों में विद्यमान है। रायगढ़ जिले में इस काल के उदाहरणस्वरूप नेतनागर, पुजारीपाली, सारंगढ़, कांसाबेल के अवशेष हैं। इस परिप्रेक्ष्य में पाली का महादेव मंदिर व शिवरीनारायण का केशवनारायण मंदिर विशेष उल्लेखनीय हैं।
कलचुरि शासकों के निर्माण का क्रम ग्यारहवीं सदी ईस्वी से प्रारंभ होता है। इन शासकों के प्रमुख स्थापत्य उदाहरण तुमान, जांजगीर, गुड़ी, मल्हार, शिवरीनारायण, किरारी गोढ़ी, सरगांव, रतनपुर आदि स्थलों के मंदिर अवशेष, विशेष महत्व के हैं।
कुछ अत्यंत विशिष्ट और उल्लेखनीय प्रतिमाओं में मल्हार के अभिलिखित विष्णु, स्कन्द माता, कुबेर, डिडिनेश्वरी देवी के रूप में पूजित राजमहिषी आदि हैं। अड़भार में महिषासुरमर्दिनी, अष्टभुजी शिव, पार्श्वनाथ, गंगा-यमुना, मिथुन आदि प्रतिमाएं हैं। ताला के रूद्र शिव, कार्तिकेय, शिव लीला के दृश्य व कीर्तिमुख भारतीय कला के अद्वितीय उदाहरण हैं। खरौद की गंगा-यमुना, शिवरीनारायण के शंख व चक्र पुरुष तथा विष्णु के विभिन्न रूपों युक्त केशवनारायण मंदिर का द्वार शाख भी उल्लेखनीय है। पाली के मंदिर की प्रतिमाओं का संतुलन व विविधता दर्शनीय है। अन्य स्थलों से भी कुछ विशिष्ट प्रतिमाएं ज्ञात हैं, जिनमें रतनपुर के कंठी देवल और किला प्रवेश द्वार की प्रतिमाओं का उल्लेख किया जा सकता है। महमंदपुर की सर्वतोभद्र महामाया जैसी कई विशिष्ट किन्तु अल्पज्ञात प्रतिमाएं भी क्षेत्र में उपलब्ध हैं।
छत्तीसगढ़ की मूर्तिकला विविध कला शैलियों के परिपक्व अवस्था का परिचायक है। यहां के प्राचीन शिल्पियों ने शास्त्रीय ज्ञान और मौलिक प्रतिभा का अनूठा समन्वय, अत्यंत रोचक है। मूर्तिकला में नैसर्गिक रूप-सौन्दर्य लावण्य, भावाभिव्यक्ति तथा सुरुचिपूर्ण अलंकरण सहज आकर्षक है।
अभिलेखों की दृष्टि से इस क्षेत्र में प्रारंभिक अभिलेख ईस्वी पूर्व तीसरी सदी के हैं। रामगढ़ पहाड़ी के गुफालेख, ऋषभतीर्थ, गुंजी चट्टानलेख, बूढ़ीखार मूर्तिलेख, सेमरसल शिलालेख, किरारी काष्ठ स्तंभलेख, आरंग व दुर्ग के ब्राह्मी शिलालेख प्रमुख हैं। इन लेखों का काल ईस्वी पूर्व तीसरी-दूसरी सदी है। ये लेख पालि-प्राकृत भाषा में, ब्राह्मी लिपि के रूपों में उत्कीर्ण हैं।
चौथी सदी ईस्वी के पश्चात् क्षेत्रीय राजवंशों के विभिन्न अभिलेख प्राप्त होने लगते हैं। इनमें मुख्यतः पीपरदुला, कुरुद, मल्हार, आरंग, खरियार, सिरपुर, कौआताल, सारंगढ़, रायपुर, पोखरा, ठकुरदिया, बोण्डा, राजिम, बलौदा, अड़भार, लोधिया, बरदुला, सेनकपाट, खरौद, पाली, ताला आदि स्थलों के ताम्रपत्र व शिलालेख हैं। ये अभिलेख दसवीं सदी ईस्वी तक के उपरोल्लिखित राजवंशों से सम्बद्ध हैं। कुछ स्थानों पर तीर्थयात्रियों अथवा सामान्य नामोल्लेख वाले अभिलेख मिले हैं। इन लेखों की लिपि, पेटिकाशीर्ष और कीलाक्षर में विकसित ब्राह्मी, कुटिल या आरंभिक नागरी है, लेखों की भाषा लगभग शुद्ध संस्कृत है।
दसवीं सदी ईस्वी के पश्चात् कलचुरियों के अभिलेख प्राप्ति के महत्वपूर्ण स्थल हैं- रायपुर, अमोदा, रतनपुर, पाली, शिवरीनारायण, खरौद, अकलतरा, कोटगढ़, सरखों, पारगांव, दैकोनी, कुगदा, कोथारी, बिलईगढ़, राजिम, कोनी, घोटिया, पुजारीपाली, मल्हार, पेन्डराबंध, कोसगईं, खल्लारी, आरंग, कोनारी तथा एक अन्य राजवंश का लहंगाभांठा शिलालेख। कुछ स्थानों से मूर्तिलेख भी प्राप्त हुए हैं। ये लेख भी ताम्रपत्र या शिलालेख हैं, तथा संस्कृत भाषा का प्रयोग किया गया है। लिपि, नागरी का विकसित होता हुआ रूप है।
इस क्षेत्र से सिक्कों की प्राप्तियां भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आरंभिक काल के सिक्कों में मौर्यकालीन आहत सिक्के ठठारी से प्राप्त हुए हैं। मघ, रोमन, कुषाण, सातवाहन आदि राजवंशों के सिक्कों का प्रमुख प्राप्ति स्थल मल्हार व बालपुर है। विभिन्न कालों और धातुओं से निर्मित विविध तकनीक के सिक्के जिन स्थानों से प्रमुखतः मिले हैं, उनमें केरा, सोनसरी, भगोड़, धनपुर, केन्दा, चकरबेढ़ा, आदि ग्रामों का उल्लेख किया जा सकता है। सातवाहन शासक अपीलक, माघश्री सिक्के तथा प्रसन्नमात्र व अन्य शासकों के ठप्पांकित तकनीक से निर्मित सिक्के इस क्षेत्र की मुद्राशास्त्रीय विशिष्टता रेखांकित करते हैं।
नवम्बर 1986 में मध्यप्रदेश राज्य स्थापना के तीन दशक पूरे होने पर मूलतः डा. लक्ष्मीशंकर निगम के मार्गदर्शन एवं श्री जी एल रायकवार के सहयोग से मेरे द्वारा संयोजित लेख, अब नई जानकारियां शामिल कर इस पेज अद्यतन किया जा रहा है। यहां आई जानकारियां पूर्व में हुए शोध और प्रकाशनों से भी ली गई हैं, लेकिन स्मारक, अवशेषों का सर्वेक्षण और तथ्यों का परीक्षण यथासंभव मेरे द्वारा किया गया है।