बात अक्टूबर 2000 की है, 1 नवंबर को 'छत्तीसगढ़' राज्य बनना तय हो गया था। इसी दौरान अखबारों के लिए मैंने यह नोट 'छत्तीसगढ़: सपने की कविता और हकीकत का अफसाना' बनाया था, खंगालते हुए मिला, अब यहां-
इतिहास, सदैव अतीत नहीं होता और वह व्यतीत तो कभी भी नहीं होता। हम इतिहास के साथ जीते हैं, उसे रचते-गढ़ते हैं ओर इसीलिए प्रत्येक सुनहरे भविष्य में इतिहास की छाप होती है। कभी-कभी आगामी कल भी ऐतिहासिक होता है। ऐसे ही घटित होने वाले इतिहास की आतुर प्रतीक्षा है जिसके साथ न सिर्फ हम जी रहे हैं बल्कि जिसके साथ पीढ़िया बीती हैं और जिस इतिहास को इस विशाल समष्टि ने अपने हाथों रचा-गढ़ा है ‘पृथक छत्तीसगढ़ राज्य’ जिसके औपचारिक निर्माण की तैयारी चाक-चैबंद है और जिसके स्वागत का उल्लास अब सतह पर आ गया है, सपना आकार ले रहा है। लगभग छह सौ साल पहले दक्षिण कोसल के छत्तीसगढ़ में बदलते करवट को ज्ञात इतिहास में पहली बार पंद्रहवीं सदी के अंत में खैरागढ़ के कवि दलराम राव ने रेखांकित किया- ‘लक्ष्मीनिधि राय सुनौ चित दै, गढ़ छत्तीस में न गढै़या रही।
बदलते माहौल में यह कवि अपने अन्नदाता लक्ष्मीनिधि राय की प्रशस्ति करते हुए इस स्वप्नदृष्टा कवि के शब्द अभिलेख बन गए, सपना साकार हो गया। सोलहवीं सदी के मध्य में कल्याणसाय ने इस भू-भाग के व्यवस्थापन को अमलीजामा पहनाकर इसे मूर्त आकार दे दिया और अपनी प्रशासनिक क्षमता के साथ पूरे अंचल की प्रशासनिक व्यवस्था को एक नियमबद्ध सूत्र में पिरो दिया। गढ़ और गढ़ीदार, दीवान, चौबीसा, बरहों, दाऊ और गौंटिया, खालसा, और जमींदारी।
इस नवसृजन की प्रक्रिया में उसने न जाने कितने स्वप्न देखे होंगे और अंचल में व्यापक चेतना का संचार किया होगा। कल्याणसाय के राजस्व प्रशासन की इकाई गढ़ों की रूढ़ संख्या अड़तालिस-छत्तीस रही और यह अंचल छत्तीसगढ़ बन गया। शब्द साम्य मात्र के आधार पर इसे ‘चेदीशगढ़’ और ‘छत्तीस घर’ भी कहा गया। लेकिन कल्याणसाय के सपनों में तथ्यों की सच्चाई और उसका ठोसपन सक्षम साबित हुआ। लोग सिर्फ छत्तीसगढ़ का सपना ही नहीं देखते रहे, उस पर गंभीर विचार, सक्रिय पहल, गतिविधियां भी संचालित करते रहे।
ऐसे लोगों में से कुछेक ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर, माधवराव सप्रे, पं. सुंदरलाल शर्मा, पं. लोचनप्रसाद पाण्डेय, ठाकुर प्यारेलाल सिंह है। और भी जननायक है जिनकी चर्चा और सूची सहज उपलब्ध हो जाती है। किंतु कुछ ऐसी भी नाम हैं जो अल्पज्ञात बल्कि इस संदर्भ में लगभग अनजाने रह गए हैं। इन्हीं में से एक है डॉ. इंद्रजीत सिंह। मुस्लिम इतिहासकारों ने जिस क्षेत्र का आमतौर पर गोंडवाना नाम दे रखा था यही गोंडवाना आज के छत्तीसगढ़ की पृष्ठभूमि है। गोंडवाना की सांस्कृतिक सामाजिक पहचान को रेखांकित करने के उद्देश्य से डॉ. इंद्रजीत सिंह ने लगभग 70 साल पहले पूरे गोंडवाना का व्यापक भ्रमण-सर्वेक्षण कर अंचल के भौगोलिक परिवेश और आदिम संस्कृति की विशिष्ट महानता को समझने के लिए गहन शोध किया और मध्य- भारत में सामाजिक मानवशास्त्रश के क्षेत्र में किसी स्थाषनीय द्वारा किया गया यह पहला शोध सन् 1944 में ‘द गोंडवाना एंड द गोंड्स’ शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ जिसकी पृष्ठभूमि पर नागपुर विधानसभा में ठाकुर रामकृष्णसिंह व अन्य विधायकों ने गोंडवाना राज्य के गठन की गुहार की थी। ऐसे ढेरों जाने-अनजाने सद्प्रयास अब फलीभूत हो रहे हैं।
इस अंचल की सम्पन्नता इसकी नैसर्गिक विविधता है। यहां उच्च सांस्कृतिक परंपराएं और प्रतिमान हैं। लोगों में व्यापक गहरी सूझ और प्रासंगिक विचारशीलता है। इसीलिए पृथक छत्तीसगढ़ राज्य से अगर प्रशासनिक सुविधा होगी तो यह उससे कहीं अधिक सांस्कृतिक आवश्यकता की पूर्ति करेगा। छत्तीसगढ़ की मध्यप्रदेश से पृथकता सीमाओं का संकोच है तो सोच का विस्तार है जिसे हम अपनी सीमा संकीर्णताओं से आगे बढ़कर उदार जागरूकता से प्रमाणित करेंगे।
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