छत्तीसगढ़ के सजग जोड़ा शहर दुर्ग-भिलाई से पत्रकार कानस्कर जी का फोन आया, रविशंकर जी नहीं रहे। मेरे कानों में कुछ देर स्मृति में दर्ज उनकी खिलखिलाहट बजती रही। उनसे आमने-सामने का संपर्क बहुत पुराना नहीं था, मगर अपेक्षा-रहित उनके भरोसे का संबल मुझे अनायास मिलता रहा। ऐसे निरपेक्ष विश्वासी कम ही होते हैं।
पं. रविशंकर शुक्ल
21.01.1927-10.10.2012 |
उनका निवास भिलाई के सेक्टर-5 में था। पहली बार उनके घर गया। बात होने लगी, 'घर ढूंढने में कोई अड़चन तो नहीं हुई', मैंने कहा- आपने अपने घर के रास्ते का नामकरण जीते-जी करा लिया है 'पं. रविशंकर शुक्ल पथ' (वस्तुतः उनके हमनाम पूर्व मुख्यमंत्री)। धीर-गंभीर, प्रशांत, लगभग भावहीन चेहरा और खोई सी आंखें, लेकिन देखकर सहज पता लग जाता कि उनके मन में लगातार कुछ चल रहा है, रचा जा रहा है, मेरा जवाब सुनकर, थोड़ा ठिठके फिर खिलखिला पड़े थे, बालसुलभ-दुर्लभ अविस्मरणीय हंसी। उदार इतने कि आपके रुचि की पुस्तक या ऐसी कोई वस्तु उनके पास हो तो सौंपने को उद्यत होते।
छत्तीसगढ़ का पारम्परिक नाचा-गम्मत पचासादि के दशक में 'लोकमंच' में बदलने लगा। श्वसुर डॉ. खूबचंद बघेल और पृथ्वी थियेटर के नाटकों से प्रेरित दाऊ रामचंद्र देशमुख ने 1950 में 'छत्तीसगढ़ी देहाती कला विकास मंडल' स्थापना की, आरंभिक दौर में नाटक मंचित करते, लेकिन बड़ी और विशेष उल्लेखनीय प्रस्तुति 26 और 27 फरवरी 1953 को पिनकापार में हुई। यही मंच ऐतिहासिक 'चंदैनी गोंदा' की पृष्ठभूमि बना, जिसकी स्थापना 7 नवंबर 1971 को हुई।
दाऊजी के शब्दों में- ''भटकने की नियति आरंभ हुई। रात-रात भर गाड़ी में, कड़कती हुई धूप में, धूल भरे कच्चे रास्तों पर भटकना, गांवों में कलाकार ढूंढना ...।'' प्रतिभाएं तलाशी-तराशी गईं। लाला फूलचंद, लक्ष्मण दास, ठाकुरराम, भुलवा, मदन, लालू जुड़े। बांसुरी-संतोष टांक, बेन्जो-गिरिजा सिन्हा, तबला-महेश ठाकुर, मोहरी-पंचराम देवदास पर्याय बनते गए। टेलर मास्टर, कवि-गायक लक्ष्मण मस्तुरिया, राजभारती आर्केस्ट्रा के गायक-अभिनेता भैयालाल हेड़उ, कविता हिरकने-वासनिक, केदार यादव, अनुराग ठाकुर साथ हुए।
दाऊजी और संगीतकार खुमान साव के साथ कवि-गायक रविशंकर शुक्ल की त्रयी, चंदैनी गोंदा की सूत्रधार बनी। शुक्ल जी का रचा शीर्षक गीत- 'देखो फुल गे, चन्दैनी गोंदा फुल गे, चन्दैनी गोंदा फुल गे। एखर रंग रूप हा जिउ मा, मिसरी साही घुर गे।' छत्तीसगढ़ी लोक-जीवन के मिठास का प्रतिनिधि गीत बन गया।
रविशंकर जी की ज्यादातर रचनाएं लोकप्रिय हुई, इनमें से कुछ खास, जिन्होंने सभी के कानों में मिसरी घोली- 'झिमिर झिमिर बरसे पानी। देखो रे संगी देखो रे साथी। चुचुवावत हे ओरवांती। मोती झरे खपरा छानी।' फगुनाही गीत है- 'फागुन आ गे, फागुन आ गे, फागुन आगे, संगी फागुन आ गे, देखौ फागुन आ गे। अइसन गीत सुनाइस कोइली, पवन घलो बइहा गे।' और 'धरती मइया सोन चिरइया। देस के भुइयां, मोर धरती मइया।' जैसा गौरव-बोध का गीत। उनके रचे-गाए गीत बनारस की सरगम रिकार्ड कंपनी से बने पर स्वाभिमानी ऐसे कि गीत के बोल पसंद न आए, तो गीत गाने के फायदेमंद प्रस्ताव की परवाह नहीं करते।
आपने 'तइहा के बात ले गे बइहा गा' / 'फुगड़ी फू रे फुगड़ी फू' / 'सुन सुवना' / 'घानी मुनी घोर दे, पानी दमोर दे' जैसी पारम्परिक पंक्तियों को ले कर भी कई गीत रचे। उनकी लोरी 'सुत जा ओ बेटी मोर, झन रो दुलौरिन मोर। फेर रतिहा पहाही, अउ होही बिहनिया। आही सुरुज के अंजोर। सुत जा ...' में रात के मीठे सपने नहीं, बल्कि सुबह की आस का अनूठा प्रयोग है।
निधन के तीन दिन पूर्व का चित्र सम्मानित हुए और इस अवसर पर गीत भी सुनाया चित्र सौजन्य - आरंभ वाले श्री संजीव तिवारी, भिलाई |
उनका पहला संग्रह 'धरती मइय्या' 2005 में चौथेपन में आया। अपनी बात में उन्होंने लिखा- ''चन्दैनी गोंदा, दौना पान, नवा बिहान व अनेक साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्थाओं के लिए मैंने गीत लिखे, किन्तु अपनी रचनाओं को पुस्तकाकार न दे सकने का दुख छत्तीसगढ़ी साहित्य सम्मेलन, दुर्ग द्वारा मानस भवन में अपने साहित्य सम्मान के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह में मैंने व्यक्त किया था। छत्तीसगढ़ शासन, संस्कृति विभाग के छोटे आर्थिक सहयोग से इस दुख से मुक्ति पा सका और यह संग्रह प्रस्तुत कर सका।'' इसी पुस्तक का अंतिम गीत है-
चल मोर संगी उसल गे बजार।
का बेंचे तॅंय हा अउ का बिसाये।
बड़े मुंधेरहा ले लेड़गा तॅंय आये॥
पिंजरा के धंधाये सोन चिरइ उड़ि गे।
माटी के चोला हा माटी म मिलि गे॥
तॅंय बइठे का देखत हावस आंखी फार-फार।
चल मोर संगवारी उसल गे बजार॥
एक दिन आए, बताया, अस्पताल से आ रहे हैं। कहा- तबियत ठीक है, बस एक कागज बनवाने गया था, आप भी इसकी प्रति अपने पास रखें, बिना कागज देखे मैंने अफसरी सवाल किया, ये बताइए कि करना क्या है, उन्होंने कहा, कुछ नहीं, बस अपने पास रखिए। तब मैंने कागज पर नजर डाली, वह था वसीयतनामा (मृत्योपरांत शरीर दान का घोषणा पत्र), मेरे और कुछ कहने से पहले रवानगी को तैयार हो गए।
अंतिम दिनों में अशक्त होने पर भी श्री जी संस्था के लिए सक्रिय रहे। भिलाई आ कर उनसे मिलने की बात हुई तो पते के लिए खास किस्म का 'विजिटिंग कार्ड' दिया। छपे हुए पते को 'बदल गया है' कहते हुए काट कर सुधारा।
अब उनका पता फिर बदल गया, लेकिन अपने गीतों में वे अभी भी हम सब के साथ हैं।
कलाकार को विनम्र श्रद्धांजलि, हम तो राजनेता समझ बैठे थे..
ReplyDeleteरविशंकर जी को विनम्र आदरांजलि . आपका लेख पढ़कर चनैनीगोंदा की यादें ताजा हो आयीं तक़दीर से एक बार श्रधेय रामचंद्र जी देशमुख आशीर्वाद लेने का अवसर मुझे भी मिला था निश्चित रूप से रविशंकर जी जैसे लोगो ने आजीवन कला साधना ही की है आपका लेख पढ़कर आकाशवाणी रायपुर केंद्र से सुने कुछ पुराने गीतों की यादें ताजा हो आयीं
ReplyDeleteहमारी भी विनम्र श्रद्धांजलि. पंडित जी के बारे में पहली बार ही जाना.
ReplyDeleteउनका पता फिर बदल गया है पर इस बार इस पोस्ट के माध्यम से हमेशा के लिए अंकित हो गया ऐसे सभी लोगों के मन-मष्तिष्क पर जिन्होंने कभी भी चंदैनी गोंदा,कारी देवार डेरा में उनके गीतों का पान किया,अब कभी भी न बदलने के लिए
ReplyDeleteपहले मुझे भी लगा कि नेता हैं.
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ReplyDeleteरविशंकर जी को विनम्र श्रद्धांजलि
आज के युग में बिरले ही ऐसे लोग मिलते हैं। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे
परिचय कराने का आभार
बड़ा अच्छा लगा शुक्ल जी के बारे में जानकर !
ReplyDeleteदेहदान मैं भी कर चुका हूँ, मरने के बाद शारीर किसी काम आ जाए इससे बढ़िया और क्या होगा !
आभार अच्छे लेख के लिए !
shraddhanjli.... aisa kyun hota hai ki jinke like geet hamari jubaan aksar gun-gunaya karti hai, unke hi bare me hamein pataa nahi hota.....
ReplyDeleteVinamr aadaranjali unko!
ReplyDeleteविनम्र श्रद्धांजलि. पं. रविशंकर शुक्ल जी के बारे में पहली बार ही जाना
ReplyDeleteइस संसार में बिरले लोग हैं जो बड़े लोगों के नाम संग होकर भी अपनी अलग पहचान बना लेते हैं . सितार वादक रविशंकर जी, म.प्र.के प्रथम मुख्यमंत्री श्री रविशंकर शुक्ल जी के हमनाम होकर भी इन्होने अपना कला के क्षेत्र में जो योगदान दिया है वह इनको जनमानस में सदा जीवित रखेगा . मेरा सौभाग्य श्री रामचंद्र देशमुख जी के चंदैनी गोंडा को कुंदरू गाँव में रविशंकर जी के गीतों संग सुनने का . चंदैनी गोंदा की नायिका ठाकुर मेडम आज हरदी बाज़ार कालेज में सहायक प्राध्यापक पद पर कार्यरत हैं . आदरणीय सिंह जी आपके लिए एक बात याद आती है * बावा के थैली म का का चीज, लवांग सुपारी धतुरा के बीज * आपके साथ रहकर भी आपके खजाने का राज मालूम नहीं . अद्भुत . अनोखा सदा स्मरणीय . विनम्र श्रद्धांजलि .
ReplyDeleteविनम्र श्रद्धांजलि
ReplyDeleteबीच मे नेट चला गया था
ReplyDeleteआया तो मालूम हुआ कि
रवि शंकर जी जा चुके हैं .
नहीं मालूम था कि खूबचंद
बघेल जी से जुड़े हैं .
'धरती मइया सोन चिरइया
ReplyDeleteदेस के भुइयां
मोर धरती मइया।'
का रचनाकार ही शरीर दान कर सकता है
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ReplyDeleteखेद है विकास जी, शायद आपने पोस्ट पर ठीक से एक नजर भी नहीं डाली है. रवि जी दीर्घायु हों.
Deleteजी गलती से स्पष्ट रूप से अवगत करा दे।
Deleteशुक्ल जी को विनम्र श्रद्धांजलि, सुना है हर्ष ने अपने कपड़ों के अलावा सब कुछ कुंभ में दान कर दिया था, शुक्ल जी ने अपनी देह भी दान कर दी।
ReplyDeleteहरिहर वैष्णव जी इ-मेल पर-
ReplyDeleteदिवंगत पं. रविशंकर शुक्ल जी को विनम्र श्रद्धांजलि। उनकी याद को समर्पित आपका आलेख पढ़ते-पढ़ते मेरी आँखों के सामने 11 अक्टूबर 2009 को बिलासपुर में आयोजित छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद् के प्रान्तीय अधिवेशन का वह दृश्य घूम गया। इस कार्यक्रम में मेरी भेंट पण्डित जी से हुई थी। एक ही मंच पर हम दोनों सम्मानित भी हुए थे। इतने बड़े और सुप्रसिद्ध गीतकार को साथ पा कर मैं तो गद्गद् हो गया था। मैंने उन्हें पहली बार देखा था। उन्हें देख कर लगा ही नहीं था कि ये वही पण्डित रविशंकर शुक्ल जी हैं जिनके प्यारे-दुलारे छत्तीसगढ़ी गीत हम सुनते रहे हैं। न केवल सुनते रहे हैं अपितु गुनगुनाते और आनन्द से भर उठते रहे हैं। उनकी सादगी देख कर मैं चकित रह गया था। सच कहूँ, उनकी जगह कोई और होता तो न जाने कितने आडम्बरों से घिरा होता। मैं उनके पाँव छूने लगा तो उन्होंने मुझे ऐसा करने से रोकते हुए गले से लगा लिया।
पं. रविशंकर जी को विनम्र श्रद्धाँजलि। पहली बार इनके बारे में जाना लेकिन विलक्षण व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुआ।
ReplyDeleteअब पता नहीं बदलेगा, स्मृतियों में सुरक्षित रहेंगे।
विनम्र श्रद्धांजलि।
ReplyDeleteअपने विरासत को जानना स्वाभिमान और सपनें से भर देता है।रविशंकर जी को विनम्र नमन।
ReplyDeleteछत्तीसगढ़ के महान सपूत गीतकार पंडित रविशंकर जी को शत् शत् नमन
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