इतिहास में राजधानी-नगरों की कहानी बड़ी अजीब होती है, कहीं तो उनका वैभव धुंधला जाता है और कभी-कभी उनकी पहचान खो जाती है। छत्तीसगढ़ या प्राचीन दक्षिण कोसल के दो प्रमुख नगरों- राजधानियों शरभपुर और प्रसन्नपुर की पहचान अभी तक सुनिश्चित नहीं की जा सकी है। शरभपुर का समीकरण सिरपुर, मल्हार, सारंगढ़ तथा उड़ीसा के कुछ स्थलों से जोड़ा गया, किन्तु प्रसन्नपुर की चर्चा भी नहीं होती। इसी प्रकार इस अंचल में कोसल नगर और 'गामस कोसलीय' नाम के ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं, किंतु यह स्थान 'कोसल' राजधानी था अथवा नहीं; या कहां स्थित था, निश्चित तौर पर यह भी नहीं तय किया जा सका है। अंचल के सर्वाधिक अवशेष सम्पन्न पुरातात्विक स्थल मल्हार का राजनैतिक केन्द्र या राजधानी होना, अभी तक अनिश्चित है।
छत्तीसगढ़ की ऐतिहासिक राजधानी रतनपुर के संबंध में ऐसा कोई सन्देह नहीं है, किन्तु जैसा कि प्रत्येक राजधानी के साथ होता है, राजनैतिक आपाधापी और उलट-फेर में राजधानी-नगरों का वास्तविक सांस्कृतिक वैभव धुंधलाने लगता है। पौराणिक मान्यता है कि रतनपुर चतुर्युगों में राजधानी रहा है और लगभग हजार वर्ष का इतिहास तो ठोस प्रमाण-सम्मत है। एक हजार वर्ष की सुदीर्घ काल अवधि में कुछ घटनाओं के संकेत मिलते हैं, जिनमें चैतुरगढ़-लाफा, कोसगईं आदि स्थान भी राजसत्ता के केन्द्र बने और रतनपुर राज पर जनजातीय आक्रमणों का संकट पड़ा, किन्तु अट्ठारहवीं सदी के मध्य में मराठों के आगमन के पश्चात् घटनाक्रम तेजी से बदलने लगा, फलस्वरूप एक सहस्राब्दी के सम्पन्न वैभव की झांकी, आज रतनपुर में न हो, लेकिन उसका स्पन्दन वहां अवश्य महसूस किया जा सकता है।
कलचुरियों की आंचलिक प्रथम राजधानी तुम्माण के रतनपुर स्थानान्तरण को इस दृष्टिकोण से देखा जाना भी समीचीन होगा, कि यह काल कबीलाई छापामारी से विकसित होकर खुले मैदान में विस्तृत हो जाने का था और इतिहास गवाह है कि इसी के पश्चात पूरे दक्षिण कोसल क्षेत्र का पहली बार नियमित व्यवस्थापन रतनपुर राजधानी से हुआ। छत्तीस गढ़ यानि छत्तीस प्रशासनिक केन्द्रों में क्षेत्र को बांट कर राजस्व इतिहास में पहली जमाबंदी रतनपुर केन्द्र से की गई। शासन और शासित के संबंधों का निरूपण, कर वसूलने वाले और करदाता के रूप में किया जाता है, छत्तीसगढ़ में इस नियमित व्यवस्था की शुरुआत रतनपुर से हुई, जिसका अनुसरण बाद में अंगरेज प्रशासनिकों ने किया।
रतनपुर के वैभव और इतिहास को उजागर करने का पुनीत कार्य बाबू रेवाराम, पं. शिवदत्त शास्त्री गौरहा, अंगरेज अधिकारीगण, पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय, राय बहादुर हीरालाल, महामहोपाध्याय वा.वि. मिराशी, डॉ. सुधाकर पाण्डेय, डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर, डॉ. लक्ष्मीशंकर निगम, श्री प्यारेलाल गुप्त प्रभृत विद्वानों ने किया है लेकिन जिनका नामोल्लेख यहां नहीं है उनके प्रति और विशेषकर देवार जाति के अनाम कवि गायकों के प्रति भी श्रद्धावनत हूं, जिन्होंने परम्परागत रतनपुर राजधानी, गोपल्ला वीर, घुग्घुस राजा, रत्नदेव और बिलासा केंवटिन जैसे कितने ही पात्रों और घटनाओं को निरपेक्ष रहकर जीवन्त रखा है, जिनका उपयुक्त हवाला इतिहास में नहीं मिलता।
सन् 1999 में प्रकाशित पुस्तक में 'सम्मति' शीर्षक से मेरी टिप्पणी से. |
अतः और अंततः धन्य है ऐसा प्रत्येक व्यक्ति जो इतिहास में झांककर समाज के उज्जवल भविष्य की रूपरेखा बनाता है, निर्जीव इतिहास से जीवन में प्रेरक आशा का उत्साह संचारित कराता है, इसलिए किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं बल्कि इस विशेष भाव का उल्लेख यहां अधिक प्रासंगिक मानता हूं। ब्रजेश श्रीवास्तव की प्रस्तुत कृति 'रतनपुर दर्शन' यहां के प्राचीन वैभव को उद्घाटित करने में सफल होगा, ऐसा मेरा पूरा विश्वास है।
हार्दिक शुभकामनाओं सहित...
इतिहास पर लिखना तो बड़ा दुरूह, श्रमसाध्य और महत्वपूर्ण कार्य है.
ReplyDeleteब्रजेश श्रीवास्तव का प्रयास सफल हो, यही मेरी भी कामना
ReplyDeleteप्रयास निश्चय ही सफल होगा...
ReplyDeleteप्राचीन वैभव को उद्घाटित करने में महत्वपूर्ण योगदान!!
ReplyDeleteब्रजेश श्रीवास्तव जी का आभार!!
कलचुरियों की आंचलिक प्रथम राजधानी तुम्माण यात्रा का आनंद श्री रायकवार जी संग और आपका सानिध्य जीवन भर ऋणी बहुत कुछ सिखने के लिए हमेशा की तरह गौरव को समृद्ध करता पोस्ट सादर नमन ..
ReplyDeleteसफलता सुनिश्चित है।
ReplyDeleteरतनपुर छत्तीसगढ़ का ऐतिहासिक नगर, वर्तमान में भी इसके वैभव की कहानी कहते खंडहर मौजूद हैं।
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट ...
ReplyDeleteआपकी लेखनी के ज़रिये यह लेख सदा सुरक्षित रहेंगे राहुल जी !
बहुत अच्छी पोसट ..
ReplyDeleteअत्यन्त महत्त्वपूर्ण जानकारी। ब्रजेश श्रीवास्तव जी का प्रयास सफल हो, यह कामना है। रतनपुर की चर्चा बस्तर के मरार (पनारा/माली) और कलार समुदायों के विभिन्न लोक गीतों में पायी जाती है। वे इसे "राय रतनपुर" या "राई रतनपुर" भी सम्बोधित करते हैं। यहाँ तक कि वे यह भी कहते हैं कि उनका आगमन रतनपुर से ही हुआ है। एक गीत की पंक्तियाँ देखें :
ReplyDeleteएक डारा जातेन भइया राई ओ रतनपुर
एक डारा जातेन ओड़ियान
कि हमर भइया एक डारा जातेन ओड़ियान।
यह जानकारी कि कर-प्रणाली में रतनपुर मॉडल अंग्रेजों ने अपनाया, अनूठी है।
ReplyDeletepahli baar jab ratanpur jana hua tab 10th main tha, aisa lagta tha rajdhani nahi puravshesh hi sahi lekin devi mahamaya ke alava kuchh bhi nahi mila, aapne ratanpur paritna achchha lekh likha iske liye dhanywad
ReplyDeleteअत्यन्त महत्त्वपूर्ण जानकारी। ब्रजेश श्रीवास्तव जी का प्रयास सफल हो, यह कामना है। रतनपुर की चर्चा बस्तर के मरार (पनारा/माली) और कलार समुदायों के विभिन्न लोक गीतों में पायी जाती है। वे इसे "राय रतनपुर" या "राई रतनपुर" भी सम्बोधित करते हैं। यहाँ तक कि वे यह भी कहते हैं कि उनका आगमन रतनपुर से ही हुआ है। एक गीत की पंक्तियाँ देखें :
ReplyDeleteएक डारा जातेन भइया राई ओ रतनपुर
एक डारा जातेन ओड़ियान
कि हमर भइया एक डारा जातेन ओड़ियान।
इतिहास की इस जानकारी को सामने लाने के इस प्रयास के लिए शुभकामनाएं. आपको भी धन्यवाद...
ReplyDeleteइतिहास को जानना रोचक होता ही है किंतु इतिहासकारों के संबंध में जानना उससे कहीं अधिक रोचक होता है।
ReplyDeleteरतनपुर के अतीत को वर्तमान में प्रतिबिंबित करने वाले रत्नों को नमन।
हमेशा की तरह जानकारी से परिपूर्ण !
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