Wednesday, January 23, 2013

काल-प्रवाह

• क्रियमाण-वर्तमान की सत्ता क्षितिज की भांति है, आकाश जैसे प्रारब्‍ध-भविष्य और पृथ्वी जैसे संचित-भूत का आभासी संगम। जड़ भूत और अपरिभाषित भविष्य के बीच अभिव्यक्त (आभासी) वर्तमान। 'अर्थसत्‍ता' की जमीन पर धावमान 'राजसत्‍ता' के रथ पर 'धर्मसत्‍ता' का छत्र।

• इतिहास जो बीत गया, जो था और भविष्य जो आयेगा, जो होगा, इस दृष्टिकोण से देखने पर इतिहास के साथ जैसी तटस्थता और निरपेक्षता बरती जाती है वह कभी-कभार लावारिस लाश के पोस्‍टमार्टम जैसी निर्ममता तक पहुंच जाती है। इतिहास की जड़ता और संवेदना, वस्तुगत और विषयगत-व्यक्तिनिष्ठ के बीच का संतुलन कैसे हो? इतिहास को महसूस करने के लिए दृष्टिकोण यदि इतिहास, जो कल वर्तमान था और भविष्य जो कल वर्तमान होगा, इसे संवेदनशील बना देता है।

• इतिहास के लिए यदि एक पैमाना ईस्वी, विक्रम, शक, हिजरी या अन्य किसी संवत्सर जैसा कोई मध्य बिन्दु है, जिसके आगे और पीछे दोनों ओर काल गणना कर इतिहास का ढांचा बनता है। एक दूसरा तरीका भी प्रयुक्त होता है ईस्‍वी पूर्व-बी.सी. और ईस्वी-ए.डी. के अतिरिक्त बी.पी. before present, आज से पूर्व। अधिक प्राचीन तिथियों, जिसमें ± 2000 वर्षों का हिसाब जरूरी नहीं, उनकी गिनती बी.पी. में कर ली जाती है। तब सैद्धांतिक रूप से ही सही और इतिहास नहीं तो अन्य वस्तुस्थितियों के लिए क्या एक तरीका यह भी हो सकता है कि गणना शुरू ही वहां से हो जहां से काल शुरू होता हो या वहां से उलट गिनती करें जो अंतिम बिंदु हो-

>---------------------#----------------◌-------------------<
काल शुरू             ईसा           वर्तमान          अंतिम बिंदु 

• ऐसे बिन्दुओं की खोज सदैव मानव जाति ने की है, जॉर्ज कैन्‍टर के 'अनंतों के बीच के अनंत' की तलाश की तरह या हमारा भविष्य-पुराण (भविष्‍य भी पुराना भी), शायद इसी का परिणाम है, भारतीय चिन्तन पद्धति में वृत्तात्मक गति, मण्डल जैसी अवधारणाएं यहीं से विकसित जान पड़ती है।

• तो यदि उन आरंभिक/चरम बिन्दु को प्राप्त नहीं किया जा सकता फिर भी उसकी खोज आवश्यक है क्या? शायद यही खोज हमें नियति-बोध कराती है और अपने दृष्टिकोण को समग्र की सम्पन्नता प्रदान करती है, संवेदना प्रदान करती है, किन्तु संतुलन के बजाय इसकी अधिकता होने पर इतिहास बोध की हीनता से आरोपित होने के साथ नियतिवादी बन जाने का रास्ता अनचाहे खुलने लगता है।

• अस्तित्वमान को सिर्फ इसलिए प्रश्नातीत नहीं माना जा सकता कि वह 'घटित हो चुके का परिणाम' है, जिस तरह आगत को 'अभी तो कुछ हुआ नही' कह कर नहीं छोड़ा जाता। इतिहास क्यों? इतिहास के लिए पीछे देखना होता है तो आगे देखने की दृष्टि भी वहीं से मिलती है। इतिहास, समाज का ग्रंथागार जो है।

• इतिहास अभिलेखन का आग्रह भी तभी तीव्र होता है, जब गौरवशाली अतीत के छीन जाने का आभास होने लगे, वह मुठ्‌ठी की रेत की तरह, जितना बांधकर रखने का प्रयास हो उतनी तेजी से बिखरता जाय या फिर तब भी ऐसा आग्रह भाव बन जाता है जब आसन्न भविष्य के गौरवमंडित होने की प्रबल संभावना हो यानि जैसे राज्याभिषेक के लिए नियत पात्र की प्रशास्ति रचना, लेकिन विसंगति यह है कि ऐसे दोनों अवसरों पर तैयार किया जाने वाला इतिहास लगभग सदैव ही सापेक्ष हो जाता है यह 'इतिहास' की एक विकट समस्या भी कही जा सकती है कि उसे साथ-साथ, आगे से या पीछे से किसी (समकोण, अधिककोण या न्यूनकोण) कोण से देखें वह मृगतृष्णा बनने लगता है। ''इतिहास से बड़ा कोई झूठ नही और कहानी से बड़ा कोई सच नही'' कथन संभवतः ऐसे ही विचारों की पृष्ठभूमि पर उपजा हो। छत्‍तीसगढ़ी कहावत है- 'कथा साहीं सिरतो नहीं, कथा साहीं लबारी', अर्थात् कथा जितना सच्‍चा कुछ नहीं, लेकिन है कथा जैसा झूठा।

• हमारी सोच और उसका विस्तार, हमारे राजमर्रा की बातचीत और उसकी व्यापकता में पात्र फिर देश और उसके बाद अंतिम क्रम पर काल है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि सोच की गहराई में सबसे नीचे अवधारणात्मक काल ही हो सकता है, उसके ऊपर भौतिक देश और सबसे सतही स्तर पर सजीव पात्र होना ही स्वाभाविक है, किन्तु इसके विपरीत और साथ-साथ पात्र में भौतिक स्वरूप और अवधारणा का अंश प्रकटतः सम्मिलित है, देश में उसके भौतिक विस्तार के साथ अवधारणात्मक विचार निहित हैं जबकि काल की सत्ता देश और पात्र संदर्भपूर्ण विचारों या बातचीत में आकार ग्रहण कर जीवन्त हो पाता है। काल की स्वत्रंत और निरपेक्ष सत्ता वैचारिक स्तर पर भी असंभव नही तो दुष्कर अवश्य है।

• इतिहास कालक्रम का पैमाना है, लेकिन किसी पैमाने पर माप लेना, किसी वस्तु को जान लेने की बुनियादी और अकेली शर्त जैसा तय मान लिया जाता है (जैसे व्यक्ति का नाम, कद, वजन या किसी स्थान की दूरी और स्मारक की प्राचीनता) जबकि किसी को जान लेने में, चाहे वह सजीव पात्र हो, भौतिक देश हो या अवधारणात्मक काल, यह एक शर्त और वह भी गैर जरूरी की हद तक अंतिम, उसे माप लेने की हो सकती है।

• परम्परा में नदी-सा सातत्य भाव है। परम्परा, रूढ़ि नहीं है, वह केवल प्राचीनता भी नहीं है, न ही वह इतिहास है, परम्परा की सार्थकता तो उसके पुनर्नवा होने में ही है। गति का रैखिक या विकासवादी दृष्टिकोण उसे अपने मूल से विलग होकर दूर होते देखता है लेकिन वृत्तायत दृष्टिकोण से परिवर्तनशील किन्तु मूल से निरन्तर सामीप्य और समभाव बनाये पाता है।

• परम्परा का अभिलेखन अन्जाने में, तो कभी षड़यंत्रपूर्वक उस पर आघात का हथियार बना लिया जाता है। परम्परा को अभिलिखित कर उसी परम्परा की अगली पीढ़ी को उसके पुराने अभिलिखित स्वरूप का आईना दिखाकर (कहना कि यह है तुम्हारा असली चेहरा) उसे झूठा साबित करना आसान उपाय है, शायद तभी कहा गया है कि ''शैतान भी अपने पक्ष में बाइबिल के उद्धरण ला सकता है।''

• आगे (?) बढ़ते समय के साथ विकास को अनिवार्यतः जोडकर देखा जाता है, और विकास का अर्थ लगाया जाता है वृद्धि, यानि 1 से 2 और 2 से 4 किन्तु यह स्वाभाविक नही है स्वाभाविक है परिवर्तन जिसे हम अपने बनाए दुनियावी पैमाने पर आगे पीछे माप-गिन लेते है, यह आंकडों के व्यावहारिक इस्तेमाल में तो संभव है किन्तु इसे तत्वतः कैसे स्वीकार किया जा सकता है।

पिछली पोस्‍ट की तरह यह भी स्‍थापना नहीं मात्र विमर्श, मूलतः सन 1988-90 के नोट्स का दूसरा हिस्‍सा (पहला हिस्‍सा – पिछली पोस्‍ट में)

संबंधित पोस्‍ट - साहित्‍यगम्‍य इतिहास।

21 comments:

  1. इतिहास बोध पर अकदामिक विमर्श -काल की गति न्यारी है-कोई कहता है यह गतिमान है तो कोई इसे ठहरा हुआ बताता है -कालो न जाता वयमेव जाता -कहते हैं ऋषियों की एक ऋतम्भरा प्रज्ञा थी जिसमें वे एक साथ ही एक फलक पर भूत वर्तमान और भविष्य का त्रिविमीय रूप देख लेते थे -भले ही यह एक कपोल कल्पना हो मगर रोचक है -इतिहास लेखक को क्या त्रिकाल दर्शी नहीं होना चाहिए -मतलब एक समभाव एक विज्ञ भाव से तथ्य को समझने की दृष्टि -आपसे कभी कभी लम्बी और अनवरत बहस करने की इच्छा होती है ! :-)

    ReplyDelete
    Replies
    1. मिश्र जी ! मुझे भी लगता है कि इतिहास लेखक को त्रिकालदर्शी होना चाहिये। इतिहास मात्र घटनाओं का लेखा-जोखा ही नहीं है, वह आगम का सचेतक और मार्गदर्शक भी है। इतिहास लिखते समय यह ध्यान रखा जाना चाहिये कि क्या छोड़ना है उचित और क्या लिखना है आवश्यक है। यह निर्भर करता है इतिहासकार के दृष्टिकोण पर ...उसके उद्देशय पर। एक त्रिकालदर्शी इतिहास लेखक होना सरल नहीं है। इसी कारण इतिहास कई बार विवादास्पद हो जाता है। भारत के इतिहास में बहुत कुछ है ऐसा जो लिखा जाना चाहिये था पर लिखा नहीं गया, बहुत कुछ ऐसा भी लिखा गया जो औचित्यहीन है ...बहुत कुछ मिथ्या है तो बहुत कुछ प्रक्षिप्तांश भी। तटस्थदर्शी इतिहास लेखक को व्यास होना पड़ता है।

      Delete
  2. बढिया आलेख … सुप्रभात

    ReplyDelete
  3. सुन्दर प्रस्तुति!
    वरिष्ठ गणतन्त्रदिवस की अग्रिम शुभकामनाएँ और नेता जी सुभाष को नमन!

    ReplyDelete
  4. सबकुछ काल पर ही निर्भर है, लेकिन हम कितने बुद्धिमान हैं कि ७० साल पिछड़ गये काल की गणना में.

    ReplyDelete
  5. गणनात्मक विकास सत्ता की आवश्यकता है। गुणात्मक विकास जनता की आवश्यकता है। और लाख टके का प्रश्न है कि करेगा कौन गुणात्मक विकास?

    ReplyDelete
  6. विमर्ष से विकसित होता हुआ, गुणात्मक परिधि तक पहुचना ही, इतिहास की संरचना है।

    ReplyDelete
  7. इतिहास अभिलेखन का आग्रह भी तभी तीव्र होता है, जब गौरवशाली अतीत के छीन जाने का आभास होने लगे.............अभी पढ़ रहा हूं। आपने निसन्‍देह मानव-सम्‍बन्‍धों एवं इतिहास के मध्‍य हो सकनेवाला विराट संवाद प्रस्‍तुत किया है। आपके आलेख को बारम्‍बार पढ़कर नई से नई अनुभूतियों एवं अनुभवों का सृजन होता है/हो रहा है। आभार हेतु शब्‍दों की कमी हो रही है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपके लिए एक महत्‍वपूर्ण जानकारी ::: इतिहास पर उल्‍लेखनीय कार्य के लिए विख्‍यात पुराणविद् डॉ. रामशरण गौड़ को 15वें विष्‍णु श्रीधर वाकणकर राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार से सम्‍मानित किया गया। सम्‍मान समारोह दिल्‍ली, मयूर विहार फेज वन स्थित कात्‍यायनी सभागार में बाबा साहब आप्‍टे स्‍मारक समिति की ओर से आयोजित किया गया। मुख्‍य अतिथि हिमाचल प्रदेश के भूतपूर्व मुख्‍यमन्‍त्री शांता कुमार थे। यह तीन या चार दिन पहले का समाचार है। मैंने दैनिक जागरण में पढ़ा था।

      Delete
  8. आपकी पोस्ट की चर्चा 24- 01- 2013 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें ।

    ReplyDelete
  9. काल पर ही सबकुछ निर्भर है. लेकिन मजे की बात देखिये कि भारत ने जो काल अपनाया वह सत्तर वर्ष पीछे का.

    ReplyDelete
  10. ''इतिहास से बड़ा कोई झूठ नही और कहानी से बड़ा कोई सच नही'' कथन संभवतः ऐसे ही विचारों की पृष्ठभूमि पर उपजा हो। छत्‍तीसगढ़ी कहावत है- 'कथा साहीं सिरतो नहीं, कथा साहीं लबारी', अर्थात् कथा जितना सच्‍चा कुछ नहीं, लेकिन है कथा जैसा झूठा।

    आपका कथन कहूँ या लेखा जोखा कल और आज का कल को साक्ष्य इतिहास?

    ReplyDelete
  11. चिन्तन-परक आलेख, जो इतिहास-लेखन अथवा परम्परा के अभिलेखन से जुड़े लोगों को विचार-मंथन करने की दशा और दिशा दोनों से ही न केवल अवगत कराता है अपितु आगाह भी करता है। बधाई।

    ReplyDelete
  12. बहुत ही रोचक अनुच्छेद लग रहे हैं, एक विचार आकर ठहरा..फिर नये को स्थान दे गया।

    ReplyDelete
  13. कभी निर्मल वर्मा ने अपनी पुस्तक शब्द और स्मृति में जेम्स जॉयस की यूलीसिस की एक पंक्ति को कोट किया था, इतिहास लेखन पर यह बार-बार याद आती हैं इतिहास वह दुःस्वप्न है जिससे मैं जागने की कोशिश करता हूँ।

    ReplyDelete
  14. इतिहास और परंपरायें एक रिले रेस की तरह लगते है, पिछली पीढ़ी से बैटन लेकर हम आगे चलेंगे और आगे वाली पीढ़ी को थमा देंगे।

    ReplyDelete
  15. काल-प्रवाह एक विकट अवधारणा है जिसे मैं भारतीय मनीषियों द्वारा परिभाषित अकाल-अनंत के रूप में स्वीकार कर लेता हूँ

    ReplyDelete
  16. क्या लिखूं । इतना गहरा और गूढ शब्दो का समावेश मेरी समझ में नही आता है
    । ईमानदारी से लिखूं तो ये विशुद्ध लिटरेचर है जिस पर पीएचडी की जा सकती है

    ReplyDelete
  17. " कालो जगत भक्षति । " मनुष्य को अतीत और भविष्य को देखते हुए वर्तमान में जीना
    होता है । मानव के पास वह दृष्टि है कि वह , अतीत और भविष्य दोनों का अभिप्राय समझते
    हुए वर्तमान में , सहज हो कर जी सकता है । मुझे तो ऐसा आभास होता है , जैसे अतीत
    और भविष्य हमारे शुभचिन्तक हैं और हमें अपनी तर्जनी पकडाकर, हमारे गन्तव्य तक हमें
    पहुंचाते हैं । राहुल जी की हर पोस्ट से , बहुत कुछ सीखने को मिलता है । वस्तुतः कल ,
    आज और कल , एक दूसरे से पृथक् नहीं हैं , अर्गला की तरह एक-दूसरे से जुडे हुए हैं ।

    ReplyDelete
  18. अत्यधिक सुन्दर और उपयोगी विवेचना ।
    काल-चिन्तन ।

    ReplyDelete