अच्छा! आप नहीं देखते बिग बॉस। तब तो हम साथी हुए, मैं भी नहीं देखता यह शो। मत कहिएगा कि नाम भी नहीं सुना, पता नहीं क्या है ये, यदि आपने ऐसा कहा तो हम साथी नहीं रहेंगे। मैंने नाम सुना है और थोड़ा अंदाजा भी है कि इसमें एक घर होता है 'बिग बॉस' का, जिसमें रहने वालों की हरकत पर निगाह होती है, कैमरे लगे होते हैं और बहुत कुछ होता रहता है इसमें। मुझे लगता है कि ताक-झांक पसंद लोग इस शो से आकर्षित होते हैं फिर धीरे-धीरे पात्रों और उनके आपसी संबंधों में रुचि लेने लगते हैं। भारतीय और फ्रांसीसी इस मामले में एक जैसे माने जाते हैं कि वे सड़क पर हो रहे झगड़े के, अपना जरूरी काम छोड़ कर भी, न सिर्फ दर्शक बन जाते हैं, बल्कि मन ही मन पक्ष लेने लगते हैं और कई बार झगड़े में खुद शामिल हो जाते हैं। यह शायद मूल मानवीय स्वभाव है, मनुष्य सामाजिक प्राणी जो है।
बात थोड़ी पुरानी है, इतिहास जितनी महत्वपूर्ण नहीं, लेकिन बासी हो कर फीकी-बेस्वाद भी नहीं, बस सादा संस्मरण। पुरातत्वीय खुदाई के सिलसिले में कैम्प करना था। बस्तर का धुर अंदरूनी जंगली इलाका। मुख्यालय, जो गाइड लाइन के लिए तत्पर रहता है, से यह भी बताया गया था कि हिंस्र पशुओं से अधिक वहां इंसानों से खतरा है। मौके पर पहुंच कर पता लगा कि एक सरकारी इमारत स्कूल है और इसी स्कूल के गुरुजी हैं यहां अकेले कर्ता-धर्ता, गांव के हाकिम-हुक्काम, सब कुछ। गुरुजी निकले बांसडीह, बलिया वाले। ये कहीं भी मिल सकते हैं, दूर-दराज देश के किसी कोने में। पूरा परिवार देस में, प्राइमरी के विद्यार्थी अपने एक पुत्र को साथ ले कर खुद यहां, क्या करें, नौकरी जो है। छत्तीसगढ़ का कोई मिले, कहीं, जम्मू, असम या लद्दाख में, दम्पति साथ होंगे, खैर...
गुरुजी ने सीख दी, आपलोग यहां पूरे समय दिखते रहें, किसी न किसी की नजर में रहें। कहीं जाएं तो गांव के एक-दो लोगों को, जो आपके साथ टीले पर काम करने वाले हैं, जरूर साथ रखें, अनावश्यक किसी से बात न करें। किसी की नजर आप पर हो न हो आप ओझल न रहें, एक मिनट को भी। रात बसर करनी थी खुले खिड़की दरवाजे वाले कमरे या बरामदे में, नहाना था कुएं पर, लेकिन हाजत-फरागत का क्या होगा, कुछ समय के लिए सही, यहां तो ओट चाहिए ही। गुरुजी को मानों मन पढ़ना भी आता था। कहा कि नित्यकर्म के लिए खेतों की ओर जाएं, किसी गांववासी को साथ ले कर और खेत के मेढ़ के पीछे इस तरह बैठें कि आपका सिर दिखता रहे। गुरुजी, फिर आश्रयदाता, उनकी बात तो माननी ही थी।
गुरुजी प्राइमरी कक्षाओं को पढ़ाते थे, उनके सामने हम भी प्राइमरी के छात्र बन गए, तब कोई सवाल नहीं किया, शब्दशः निर्देश अनुरूप आचरण करते रहे, लेकिन कैम्प से वापस लौटते हुए, गुरुजी को धन्यवाद देने, विदा लेने पहुंचे और जैसे ही कहा कि जाते-जाते एक बात पूछनी है आप से, उन्होंने फिर मन पढ़ लिया और सवाल सुने बिना जवाब दिया, आपलोग यहां आए थे जिस टीले की खुदाई के लिए, माना जाता था कि टीले पर जाते ही लोगों की तबियत बिगड़ने लगती है तो बस्ती में खबर फैल गई कि साहब लोग अपनी जान तो गवाएंगे नहीं, किसी की बलि चढाएंगे, काम शुरू करने में, नहीं तो बाद में। इसलिए ओझल रहना या ऐसी कोई हरकत, आपलोगों के प्रति संदेह को बल देता।
इस पूरे अहवाल का सार कि गुरुजी से हमने सीखा कि दिखना जरूरी वाला फार्मूला सिर्फ 'जो दिखता है, वो बिकता है' के लिए नहीं, बल्कि दिखना, दिखते रहना पारदर्शिता, विश्वसनीयता बढ़ाती है, नई जगह पर आपका संदिग्ध होना कम कर सकती है। यों आसान सी लगने वाली बात, लेकिन साधना है, हमने इसे निभाया 24×7, हफ्ते के सभी सातों दिन और दिन के पूरे 24 घंटों में यहां। फिर बाद में ऐसे प्रवासों के दौरान बार-बार। अवसर बने तो कभी आप भी आजमाएं और इस प्रयोग का रोमांच महसूसें।
दुनिया रंगमंच, जिंदगी नाटक और अपनी-अपनी भूमिका निभाते हम पात्र। ऊपर वाले (बिग बॉस) के हाथों की कठपुतलियां। नेपथ्य कुछ भी नहीं, मंच भी नहीं, लेकिन नाटक निरंतर। बंद लिफाफे का मजमून नहीं बल्कि सब पर जाहिर पोस्टकार्ड की इबारत। ऐसा कभी हुआ कि आपने किसी की निजी डायरी पढ़ ली हो या कोई आपकी डायरी पढ़ ले, आप किसी की आत्मकथा के अंतरंग प्रसंगों को पढ़, उसमें डूबते-तिरते सोचें कि अगर आपके जीवन की कहानी लिखी जाए। रील, रियल, रियलिटी। मनोहर श्याम जोशी की 'कुरु कुरु स्वाहा' याद कीजिए, उन्होंने जिक्र किया है कि ऋत्विक घटक कभी-कभी सिनेमा को बायस्कोप कहते थे। बहुविध प्रयोग वाले इस उपन्यास में लेखक ने 'जिंदगी के किस्से पर कैमरे की नजर' जैसी शैली का प्रभावी और अनूठा इस्तेमाल किया है। उपन्यास को दृश्य और संवाद प्रधान गप्प-बायस्कोप कहते आग्रह किया है कि इसे पढ़ते हुए देखा-सुना जाए। आत्मकथा सी लगने वाली इस रचना के लिए लेखक मनोहर श्याम जोशी कहते हैं- ''सबसे अधिक कल्पित है वह पात्र जिसका जिक्र इसमें मनोहर श्याम जोशी संज्ञा और 'मैं' सर्वनाम से किया गया है।''
क्लोज सर्किट टीवी-कैमरों का चलन शुरू ही हुआ था, बैंक के परिचित अधिकारी ने बताया था कि फिलहाल सिस्टम ठीक से काम नहीं कर रहा है, लेकिन हमने सूचना लगा दी है कि ''सावधान! आप पर कैमरे की नजर है'' और तब से छिनैती की एक भी घटना नहीं हुई। दीवारों के भी कान का जमाना गया अब तो लिफ्ट में भी कैमरे की आंख होती है। कैमरे की आंखें हमारे व्यवहार को प्रभावित कर अनजाने ही हमें प्रदर्शनकारी बना देती हैं। सम्मान/पुरस्कार देने-लेने वाले हों या वरमाला डालते वर-वधू, दौर था जब पात्र एक-दूसरे के सम्मुख होते थे, लेकिन अब उनकी निगाहें कैमरे पर होती हैं, जो उन पर निगाह रखता है। कैमरे ने क्रिकेट को तो प्रदर्शकारी बनाया ही है, संसद और विधानसभा में जन-प्रतिनिधियों के छोटे परदे पर सार्वजनिक होने का कुछ असर उनके व्यवहार पर भी जरूर आया होगा। मशीनी आंखों ने खेल, राजनीति और फिल्मी सितारों के साथ खेल किया है, उनके सितारे बदले हैं और ट्रायल रूम में फिट कैमरों के प्रति सावधान रहने के टिप्स संदेश भी मिलते हैं। कभी तस्वीर पर या पुतला बना कर जादू-टोना करने की बात कही जाती थी और अब एमएमएस का जमाना है और धमकी होती है फेसबुक पर तस्वीर लगाने की। बस जान लें कि आप न जाने कहां-कहां कैमरे की जद में हैं। बहरहाल, ताक-झांक की आदत कोई अच्छी बात नहीं, लेकिन शायद है यह आम प्रवृत्ति। दूसरी ओर लगातार नजर में बने रहना, ऐसी सोच, इसका अभ्यास, आचरण की शुचिता के लिए मददगार हो सकता है।
कभी एक पंक्ति सूझी थी- ''परदा, संदेह का पहला कारण, तो पारदर्शिता, विश्वसनीयता की बुनियादी शर्त है।'' बस यह वाक्य कहां से, कैसे, क्यों आया होगा, की छानबीन में अब तक काम में न आए चुटके-पुर्जियों और यादों के फुटेज खंगाल कर उनकी एडिटिंग से यानी 'कबाड़ से जुगाड़' तकनीक वाली पोस्ट।
पुछल्ला - वैसे भरोसे की बुनियाद में अक्सर 'संदेह' होता है फिर संदेह से बचना क्यों? ऐतराज क्या? स्थापनाएं, साखी-प्रमाणों से बल पाती हैं या फिर संदेह और अपवाद से।
पुछल्ला - वैसे भरोसे की बुनियाद में अक्सर 'संदेह' होता है फिर संदेह से बचना क्यों? ऐतराज क्या? स्थापनाएं, साखी-प्रमाणों से बल पाती हैं या फिर संदेह और अपवाद से।
'जनसत्ता' 11 मार्च 2013 के
संपादकीय पृष्ठ पर यह पोस्ट |
@ ''परदा, संदेह का पहला कारण, तो पारदर्शिता, विश्वसनीयता की बुनियादी शर्त है।'
ReplyDeleteबोध वाक्य, हमेशा काम आए, साथ चले :)
रोचक प्रसंग. सरल बोधगम्य भाषा में सुप्रवाहित.
ReplyDeleteइस बिग बाॅस के प्रति आगे के दिनों में शायद हम सहज हो पायें. अब तो शहरों में चौक चौराहों, लगभग सभी जगह कैमरे लग रहे हैं. विश्वसनीयता की बुनियादी हिलाने के लिए जगह ढ़ूंढने पड़ेंगें.
ReplyDeleteखैर .. कम था चूना अधिक :)
यह तो बहुत अच्छी पोस्ट है जी। एक बेहद जरूरी सीख देती हुई। मुझे नहीं लगता की इसे 'कबाड़ से जुगाड़' वाली पोस्ट कहा जाय।
ReplyDeleteबहुत सारे दर्शन और प्रेरणा समेटे हुए है यह पोस्ट। सही है यदि मनुष्य पहले की तरह सार्वजनिक हो जाए तो शायद ज्यादा सुखी रहेगा।
ReplyDeleteसच कहा, दिखते रहने से औरों का विश्वास आप पर बढ़ता है, गोपनीयता अफवाहें लाती हैं..
ReplyDeleteजी, लेकिन प्रत्यक्ष, सार्वजनिक जीवन एक साधना ही है.
Deleteबिग बॉस सीरियल मेरी पसंद का था ! महज मानवीय व्यवहार के सूक्ष्म निरीक्षण के लिहाज से
ReplyDeleteतमसो माँ ज्योतिर्गमय का हमारा आदि आह्वान ही गुह्यता, छुपाव के विरुद्ध है- सारी दुनिया पारदर्शिता की और बढ़ रही है इसके बावजूद कि गुह्यता के प्रति भी आदमी का एक आदिम मोह है . अब फेसबुक के प्रवर्तक जुकरबर्ग बार बार यह बल देकर कहते हैं हम यहाँ पारदर्शिता चाहते हैं मगर लोग हैं खुलना नहीं चाहते ..कई फर्जी प्रोफाईल बनायें हैं और ब्लॉग जगत के तो कई ब्लागर हैं अपनी गोपनीयता बनाये रखना चाहते हैं -कुछ गोपनीय रहते हुए ही अनजानेपन के बियाबान में खो गए .....मुझे भी गोपनीयता पसंद नहीं -खुला खेल फर्रुखाबादी न भी हो तो एक शालीन सी पारदर्शिता बनाए रखने में क्या डर भय है ? जो डर गया वह मर गया -सच्ची बात है !
"किसी से मत कहना"अफवाहों की जड़ है।
ReplyDeleteमुझसे लोग पूछते हैं कल रातवाला बिगबास देखा? मैं चुपचाप हो जाता हूं क्यूंकि मेरे घर पर टीवी नहीं है। कारण एक ही है कि टीवी में देखने को स्तरीय मेरी नजर में तो कुछ भी नहीं बचा। परिवारीजन मेरी इस इच्छा में मेरे समर्थक हैं, इस बात की शांति है। प्रवीण जी की समाचारों का संश्लेषण पोस्ट में अपनी इस प्रवृत्ति को उजागर कर चुका हूं।
ReplyDeleteवैसे आपके इस विचार में बहुत दम है कि आप ठीक हैं तो क्या छुपाना, पारदर्शिता होनी चाहिए। दिखे, देखें, जिसे जो देखना है।
बहुत ही गहन दर्शन और जरुरी सीख लिए है यह पोस्ट.
ReplyDeleteपर यूँ पूर्णत: सार्वजनिक होना आसान भी तो नहीं.
हम अपने नेताओं, नायकों, सेलिब्रिटी के बारे में सब कुछ जानने को कितने उतावले होते हैं...
Deleteसही है, पर्दार्शियता होनी चाहिए पर जनाब पर्दानशीन का अलग महत्त्व है.
ReplyDeleteखूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं, साफ़ छुपते भी नहीं नज़र आते भी नहीं.
Deleteआप के इस लेख को पढ़ कर ...अपने अन्दर झांकना ही काफ़ी है ???
ReplyDeleteशुभकामनायें!
वाह, क्या बात कही आपने. मन की आंखें खोल बाबा.
Delete''परदा, संदेह का पहला कारण, पारदर्शिता, विश्वसनीयता की बुनियादी शर्त है।''
ReplyDeleteआपका यह अप्रत्यक्ष कथन दिल को भा गया चीजों की नहीं बात व्यवहार, आचरण, और नियमों की पारदर्शिता को आपने विश्लेषित कर पुनः सश्लेषित कर दिया .अद्भुत संग्रहनीय पोस्ट के लिए आपको नमन . जीवनोपयोगी .....
सुंदर पोस्ट! बधाई!
ReplyDeleteबहुत ही हलकी-फुलकी, बिलकुल 'चलताऊ' मानसिकता से पढना शुरु किया था। पढते-पढते 'मजा' आने लगा था किन्तु समाप्त करते-करते गम्भीर हो गया।
ReplyDeleteइससे अधिक कुछ कहना न तो मुमकिन है न ही उचित।
ई-मेल पर उज्ज्वल दीपक-
ReplyDeleteone of the best posts by you...and yes...the title (as in this case ) needs to be interesting enough for the readers to go through the entire blog. You will observe that the no of people reading this blog will be more...just a wild guess....
As shakespeare used to say..."whats there in the name"?..and ironically....beneath this line "shakespeare".....so i believe there is a lot in the name....what shakespeare also used to do was to give random names to his stories. what i got to know from my teachers...is that when he was unable to think of a name for one of his creations...he gave the name " As you Like It"....interesting !!!
धन्यवाद उज्ज्वल जी. शेक्सपियर को इसी तरह याद करते हुए बख्शी जी के प्रसिद्ध निबंध का शीर्षक है- 'क्या लिखूं'.
Deleteजाहिर है (लेकिन भोले पाठकों के लिए स्पष्टीकरण) कि मेरे बिग बॉस का आशय यहां 'ऊपर वाले' से भी है.
नीचे वाला बिग बॉस अपन देखते नहीं, 'उपरवाले' की नजर हम पर है ही। पारदर्शिता वाली बात सौ टके खरी है।
ReplyDeleteबिग बॉस से तो कुछ सीखने नहीं मिला लेकिन आपके बस्तर के अनुभव ने काफी कुछ सिखाया है। इस पोस्ट की खासियत यह है कि टिप्पणियाँ पोस्ट से भी अच्छी हैं।
ReplyDelete’रिवर-राफ़्टिंग’ का सा अनुभव दिया इस पोस्ट ने, अब महसूस कर रहा हूँ कि खुद बखुद एक मुस्कान चेहरे पर आ जमी है।
ReplyDeleteनिश्छल मन में सन्देह की घुसपैठ नहीं हो पाती इसीलिये वे प्रायः लोगों की वंचना के शिकार हो जाते हैं किंतु पुलिस और जासूसी के काम वाले सन्देह न करें तो काम कैसे चले उनका?
ReplyDeleteनीचे वाले बिग बॉस को हम नहीं देखते और ऊपर वाले बिग बॉस हमको दिखाई नहीं देते, परदे में जो रहते हैं।
ReplyDeleteपरदे में हो या पारदर्शिता में, बात बस भरोसे की है। कितने भरोसे परदे में जी जाते हैं, और पारदर्शिता में आते ही ऊपर वाले बिग बॉस को प्यारे हो जाते हैं। बोटम लाईन जिसने भरोसा बचा लिया, उसने सबकुछ पा लिया ...:)
बिग बॉस का मैं यद्यपि घोर आलोचक हुं पर जब भी ये चैनल बदलते हुए आंखों के सामने आ जाता है कुछ देर के लिए तो रुक ही जाता हुं इसपर।।। बढ़िया प्रस्तुति।
ReplyDeleteआज तक नहीं समझ पाया की इस कार्यक्रम में देखने लायक क्या है ? ऊपर वाले बिग बॉस की दया की तो सभी को जरुरत है निचे वालों की चिंता क्यों करे और कौन करे ?
ReplyDeleteबचपन में एक शिक्षा दी गयी थी जो भी काम सबसे छुप के करना पड़े उसमें कुछ गड़बड़ होती है ! कुछ वैसा ही :)
ReplyDeleteपर्दे के पीछे क्या है जानने की उत्सुकता बनी रहती है और निश्चित ही शंकाओं को जन्म देती है. गुरुजी नी अच्छी नसीहत दी थी.
ReplyDeleteलखनउ में सीसीटीवी कैमरो का पूरा सिस्टम ही उखाड कर ले गये चोर । तू डाल डाल मै पात पात ।
ReplyDeleteजैसे जैसे तकनीक का दायरा बढ रहा है वैसे वैसे उनसे बचने के रास्ते भी
चोर निगाहों पर चोरों की निगाह.
Delete''परदा, संदेह का पहला कारण, तो पारदर्शिता, विश्वसनीयता की बुनियादी शर्त है।'
ReplyDeleteनिचोड़ बहुत सुंदर निकाला राहुल जी. धन्यबाद.
बिग बॉस हम भी नहीं देखते लेकिन सुना है. यूँ तो हम टीवी ही नहीं देखते :)
ReplyDeleteआज बहुत दिन बाद आपके ब्लॉग पर आ पायी हूँ, अब एक एक करके सब पोस्ट्स पढूंगी :) आपके संस्मरण बड़े रोचक होते हैं और फिल्म सी चलने लगती है.