शुक्र मनाया जाता, यदि वसंत पंचमी शुक्रवार को न होती, लेकिन हर साल तो ऐसा नहीं हो सकता, इस साल भी नहीं हुआ, यानि वसंत पंचमी हुई 15 फरवरी, ऐन शुक्रवार को। ऐसा हुआ नहीं कि मालवा और पूरे देश की निगाहें धार की ओर होती हैं। यहां सरस्वती-पूजन और नमाज पढ़ने की खींचतान में हमारी विरासत के रोचक पक्ष ओझल रह जाते हैं।
मालवा के परमार राजाओं की प्राचीन राजधानी धारानगरी यानि वर्तमान धार के कमालमौला मस्जिद को प्राचीन भोजशाला की मान्यता मिली है। उल्लेख मिलता है कि राजा भोज द्वारा संस्कृत शिक्षा के लिए स्थापित केन्द्र के साथ सरस्वती मंदिर भी था। धार के पुराने महल क्षेत्र के मलबे से प्राप्त तथा ब्रिटिश म्यूजियम में संग्रहित वाग्देवी सरस्वती की अभिलिखित प्रतिमा की पहचान भोज की सरस्वती के रूप में हुई। यहां से व्याकरण नियम, वर्णमाला के सर्पबंध शिलालेख प्राप्त हुए हैं और यह भोज का मदरसा भी कहा जाने लगा।
सन 1902-03 में यहां कमालमौला मस्जिद के मेहराब से खिसककर निकले, औंधे मुंह लगे 5 फुट 8 इंच गुणा 5 फुट का अभिलिखित काला पाषाण खंड मिला। 82 पंक्तियों के संस्कृत और प्राकृत भाषा वाले शिलालेख में 76 श्लोक तथा शेष भाग गद्य है। लेख, वस्तुतः चार अंकों वाली नाटिका 'पारिजात मंजरी' या 'विजयश्री', जो दो पत्थरों पर अभिलिखित थी, का पहला हिस्सा है। इसके साथ ऐसा ही एक और शिलालेख मिला लेकिन वह इसका जोड़ा नहीं बल्कि 'कूर्मशतक' प्राकृत काव्य उकेरा पत्थर है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उदार अफसोस जताया था- ''अनुमान किया गया है कि बाकी के दो अंक भी निश्चय ही उसी इमारत में कहीं होंगे, यद्यपि मस्जिद के हितचिंतकों के आग्रह से उनका पता नहीं चल सका।'' बहरहाल, नाटिका 13 वीं सदी ईस्वी के राजगुरु मदन उर्फ बाल सरस्वती की रचना है।
नाटिका के पात्र सूत्रधार, नटी, राजा अर्जुनवर्मन, विदूषक विदग्ध, रानी सर्वकला, उसकी सेविका कनकलेखा, राजमाली कुसुमाकर, उसकी पत्नी वसंतलीला तथा नायिका पारिजात मंजरी या विजयश्री है। नाटिका में राजा, सूत्रधार और कुसुमाकर संस्कृत बोलते हैं, अन्य पात्र गद्य में प्राकृत-शौरसेनी एवं पद्य में महाराष्ट्री इस्तेमाल करते हैं। नेपथ्य गायन की भाषा प्राकृत, लेकिन अंतिम अंश में संस्कृत है। उल्लेख है कि नाटिका, वसंतोत्सव (चैत्रोत्सव, मधूत्सव, चैत्रपर्व) के अवसर पर धारा नगरी में सरस्वती मंदिर (शारदा देवी सदन, भारती भवन) में खेली गई। नाटिका के पहले अंक का शीर्षक 'वसंतोत्सव' तथा दूसरे का 'ताडंकदर्पण' है।
शिलालेख के आरंभ और अंत की चार-चार पंक्तियां |
परमार वंश के शासक भोजदेव के वंशज अर्जुन को लेख में भोज का अवतार कहा गया है और वही नाटिका के नायक और इस प्रशस्ति के राजा अर्जुनवर्मन हैं। अर्जुनवर्मन द्वारा जयसिंह को पराजित करने की ऐतिहासिक घटना नाटिका का कथानक है। पराजित राजा गुजरात के चालुक्य भीमदेव द्वितीय का उत्तराधिकारी ऐतिहासिक जयसिंह, अभिनव सिद्धराज है। बताया गया है कि युद्ध में विजय प्राप्त गजारूढ़ अर्जुनवर्मन पर पुष्प वर्षा होती है और पारिजात मंजरी उन्हें छूते ही एक सुन्दर युवती में परिणित हो जाती है, आकाशवाणी होती है कि भोजतुल्य ओ धार के स्वामी इस विजयश्री को स्वीकार करो। यह युवती, चालुक्य राजा की पुत्री है, जो देवी जयश्री की अवतार है। नाटिका में नटी से कहलाया जाता है- कैसी दिव्य मानुषी कथा है।
अर्जुनवर्मन, इस नायिका विजयश्री को माली कुसुमाकर व उसकी पत्नी वसंतलीला की निगरानी में धारागिरि के आमोद उद्यान में रखता है। रानी सर्वकला द्वारा आयोजित आम वृक्ष और माधवी लता का विवाह आयोजन देखने राजा, विदूषक के साथ आमोद उद्यान में जाता है। वसंतलीला और नायिका पेड़ की आड़ से आयोजन देखते रहते हैं। रानी के कर्णाभूषण में राजा नायिका की छवि देखता है। रानी को संदेह होता है। वह आयोजन छोड़कर अपनी सेविका के साथ चली जाती है। इधर जाऊं या उधर जाऊं, मनोदशा में अपराध-बोधग्रस्त किंकतर्व्यविमूढ़ राजा को विदूषक सुझाता है ''एक हो या अधिक, अपराध तो अपराध है'' यह सुनकर राजा विदूषक के साथ नायिका के पास जाता है। कनकलेखा रानी के कर्णाभूषण सहित व्यंगात्मक संदेश लाती है। राजा नायिका को छोड़कर रानी के पास वापस लौटता है। नायिका प्राण त्यागने की बात कहती है। मध्यांतर।
संस्कृत साहित्य में चित्रकाव्य की लाजवाब समृद्ध परम्परा रही है। यहां भी श्लेष, रूपक, शब्द साम्य और संयोग के चमत्कृत कर देने वाले प्रयोग हैं। इतिहास और दंतकथाओं दोनों में एक समान महान और लोकप्रिय शायद राजा भोज जैसा कोई और नहीं। राजा भोज के साथ प्रयुक्त गंगू, माना जाता है कि उससे युद्ध में पराजित राजा गांगेयदेव है और तेली को कल्याणी के चालुक्य राजा तैल (तैलप) के साथ समीकृत किया जाता है। इस शिलालेख में भोज को कृष्ण और अर्जुन भी कहा गया है और गांगेय में श्लेष है, त्रिपुरी के कलचुरि राजा गांगेयदेव और अर्जुन से पराजित गंगा पुत्र भीष्म का। अर्जुनवर्मन अपने जिस मंत्री पर पूरा भरोसा करते हैं, उसका नाम (नर-) नारायण है। कवि मदन उर्फ बाल सरस्वती की रचना यह नाटिका सरस्वती मंदिर में, सरस्वती पूजा वाले वसंतोत्सव या मदनोत्सव पर खेली जा रही है। नाटिका के पात्रों में विदूषक विदग्ध है। रानी सर्वकला, कुंतल की है और उसकी सेविका का नाम कनकलेखा है। राजमाली कुसुमाकर है तो उसकी पत्नी का नाम वसंतलीला है। नायिका 'पारिजात मंजरी' (स्मरणीय- 'पारिजात' समुद्र मंथन का रत्न, दिव्य पुष्प है) या विजय से उपलब्ध गुर्जर 'विजयश्री' है। होयसल राजकुमारी सर्वकला और चालुक्य राजकुमारी विजयश्री का द्वंद्व और इनसे परमारों के राग-द्वेष के कई कोण उभरते हैं। लगता है कि पूरी नाटिका वसंत ऋतु, फूल-फुलवारी और मदनोत्सव का रूपक है। नटी का कथन पुनः उद्धरणीय- ''कैसी दिव्य-मानुषी कथा है।''
नाटक के क्लाइमेक्स जैसा मध्यांतर। आगे दो अंकों में क्या होगा, दूसरे पत्थर के मिलने तक थोड़ा सिर खुजाएं, सोचें-सुझाएं। शायद मान-मनौवल के साथ विजयश्री की स्वीकार्यता हो और फिर वसंत उत्सव के साथ सुखांत समापन। नाटिका में स्त्री एवं पुरुष पात्रों के कामभाव से समृद्ध श्रृंगाररसात्मक व्यापार वाली ‘कैशिकी‘ वृत्ति होती है, जिसमें स्त्री-पात्रों की अधिकता और श्रृंगार प्रधान रस होता है। नायिका का नायक के अंतःपुर से सम्बद्ध होना तथा नवानुरागवती कन्या होना अपेक्षित होता है, इसमें नायक राजा का नायिका के प्रति रतिभाव देवी अथवा राजमहिषी के भय से अनुविद्ध रूप से प्रकाशित किया जाता है, यहां देवी से अभिप्राय राजकुल में उत्पन्न किंवा प्रगल्भा प्रकृति वाली राजरानी से है जो कि पग पग पर मान करती चित्रित की जाती है तथा जिसकी अनुकम्पा पर ही नायक और नायिका का प्रेम मिलन वर्णित हुआ करता है। यहां भी नाटिका और प्रशस्ति की परतों में श्लेष, रूपक, शब्द साम्य और संयोग के चमत्कृत कर देने वाले प्रयोग हैं। यह नाटिका है ही, प्रशस्ति भी, सूचना सहित कि यह 'नवरचित नाटिका की पहली प्रस्तुति है', इस तरह उसका प्रतिवेदन भी। शिलालेख के पहले भाग, इस पत्थर के अंतिम श्लोक 76 पर लेख है, जैसा आम तौर पर अभिलेखों के अंत में होता है, कि यह प्रशस्ति रूपकार सीहाक के पुत्र शिल्पी रामदेव द्वारा उत्कीर्ण की गई, मानों आशंका हो कि दूसरा पत्थर मिले न मिले।
दर्शक कौन रहे होंगे इस नाटिका के? इसका जवाब मिल जाता है नाट्यशास्त्र से, जिसमें बताया गया है कि द्रष्टा को उहापोह में पटु (क्रिटिकल?), होना चाहिए। अच्छा प्रेक्षक सद्गुणशील, शास्त्रों और नाटक के छः अंगों का जानकार, चार प्रकार के आतोद्य वाद्यों का मर्मज्ञ, वेशभूषा और भाषाओं का ज्ञाता, कला और शिल्प में विचक्षण, चतुर और अभिनय-मर्मज्ञ हो तो ठीक है (बात शास्त्रों की है जनाब! यह) हिसाब लगा रहा हूं आधे से दूने का, कि नाटक अब छपे तो कितने पेज की पुस्तक होगी और खेला जाए तो उसकी अवधि कितनी होगी। न मिले उसे बैठै-ठाले खोजने का भी अपना ही आनंद होता है। कभी लगता है कि शिलाखंड पर उत्कीर्ण इस साहित्य को वैसा सम्मान नहीं मिला, शायद इसका जोड़ा, दूसरा हिस्सा इसीलिए अभी तक रूठा, मुंह छिपाए है। शिलालेख का पत्थर मिला था यहां के शिक्षाधिकारी 'के.के. लेले' को, यह नाम भी कम अनूठा नहीं।
इस नाटिका के बारे में पहले-पहल हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंध से जाना, फिर एपिग्राफिया इण्डिका में प्रो. हुल्त्श का विस्तृत लेख और त्रिवेदी जी वाला कार्पस इंस्क्रिप्शनम इंडिकेरम देखा। इसकी फिर से चर्चा पिछले दिनों भिलाई-कोलकाता वाली डॉ. सुस्मिता बोस मजूमदार ने की, बताया कि वे इस पर गहन अध्ययन कर रही हैं, उन्हें संस्कृत-प्राकृत का अभ्यास भी है। मैंने पुराने संदर्भ फिर से खंगाले, कुछ मिला, कुछ नहीं। इस मामले में मैं पक्का खोजी हूं, जिसे सच्चा सुख खोजने में मिलता है, कुछ मिल जाए तो वाह, न मिले तो वाह-वाह। इससे संबंधित कुछ महत्वपूर्ण अध्ययन और टीका सुस्मिता जी ने उपलब्ध करा दी। भोज विशेषज्ञ उज्जैन वाले डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित जी ने फोन पर बताया है कि पद्मश्री वि.श्री. वाकणकर के चाचा इतिहास अधिकारी श्री अनन्त वामन वाकणकर ने पारिजात मंजरी का हिन्दी अनुवाद किया था, जो वाकणकर शोध संस्थान से प्रकाशित है, इसकी प्रति अब तक मिली नहीं, प्रयास कर रहा हूं।
महीने में चार पोस्ट का अपना नियम टूटा, क्योंकि डेढ़ महीने से पारिजात मंजरी के साथ वसंत मना रहा हूं और फागुन तक जारी रखने का इरादा है। कुछ तो होंगे जो वसंत में मदन-दग्ध न हों, वे इस सूचना से ईर्ष्या-दग्ध हो कर वसंतोत्सव मना सकते हैं।
महीने में चार पोस्ट का अपना नियम टूटा, क्योंकि डेढ़ महीने से पारिजात मंजरी के साथ वसंत मना रहा हूं और फागुन तक जारी रखने का इरादा है। कुछ तो होंगे जो वसंत में मदन-दग्ध न हों, वे इस सूचना से ईर्ष्या-दग्ध हो कर वसंतोत्सव मना सकते हैं।
20 फरवरी 2013 को नवभारत के संपादकीय पृष्ठ 4 पर प्रकाशित |
यदि एक ही समय में दोनों पत्थर उत्कीर्ण किए गए होते तो पहले वाले में ही शिल्पी का नाम नहीं आना चाहिए था.ईर्ष्या-दग्ध हओने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. वसंतोत्सव माना लिया.
ReplyDelete"कहां राजा भोज, कहां गंगू तेली" कहावत के सृजन-स्रोत सहित ना जाने क्या कुछ मिल गया इस वसंतोत्सव में!!!
ReplyDeleteआपका बिग बॉस वाला आलेख आज के जनसत्ता के अंक में। शुभकामनाएं।
Deleteसर जी मानना पड़ेगा आपके शोध भूख को शत शत प्रणाम . शिक्षक होने के नाते यह लेख मेरे लिये संग्रहणीय है . इतने पात्रों को याद रख पाना कठिन है किन्तु इनके सुन्दर नाम प्रकृति से जुड़े होने के कारण कुतूहल भी पैदा करते हैं साथ ही रमणीयता को रचते भी हैं।कई बार पढ़ने के बाद ही कुछ और कहने की औकात बन पड़ेगी। इसी माह नवभारत के सम्पादकीय में आपके इस पोस्ट की झलक देखने को मिली थी . संग्रहणीय लेख के लिए ह्रदय से आभार .
ReplyDeleteआपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवारीय ब्लॉग बुलेटिन पर |
ReplyDeleteलोक -इतिहास के महत्वपूर्ण पड़ावों को समेटती एक अकादमीय प्रस्तुति
ReplyDeleteसंस्कृत साहित्य की उत्कृषटता का कहना ही क्या! लेकिन अफसोस कि सरकार इसे मृत करने पर तुली सी हैं. कुछ दिनों बाद यह अपराध बोध होने लगेगा कि हिन्दुओं ने कितने अत्याचार किये अन्य लोगों पर!
ReplyDelete"कुछ दिनों बाद यह अपराध बोध होने लगेगा कि हिन्दुओं ने कितने अत्याचार किये अन्य लोगों पर!"---
Deleteहाँ, यह डर सता रहा है हम-से बहुतों को! मैं उस क्षण की कल्पना कर रहा हूँ जब यह दुःप्रतीति घनी होगी और भाषा-साहित्य की एक अद्भुत परंपरा स्वयं की खोज को अभिशप्त होगी।
इतिहास की ऎसी धरोहरों को तलाशने का कार्य तो होना ही चाहिए चाहे वे किसी धार्मिक स्थल में ही क्यों न हों !
ReplyDeleteशानदार ऐतिहासिक जानकरी
ReplyDeleteऐसे जाने-कितने महत्वपूर्ण दस्तावेजों को,तोड़-फोड़ कर, इमारतों में चिन दिया गया.दूसरे की सभ्यता-संस्कृति की इतनी बर्बादी ,और अभी भी वही चल रहा है- यह जंगलीपन कब रुकेगा ?.
ReplyDeleteबचे और उपलब्ध का पर्याप्त सम्मान हो, ध्यान रखना जरूरी है.
Deleteवसंतोस्तव पर पढ़ने पढ़ाने का यह तरीका अच्छा है , मेरी जानकारी का सूखा यूं ही दूर होता रहे ... वसंत में सही ..... सोच की नयी कोपले लाने का आपका प्रयास बहोत ज़रूरी है ...... इस ज़रूरी काम को करते रहिएगा ... मुझ जैसे आलसियों के लिए .
ReplyDeleteउत्कृष्ट एवं शास्त्रीय लेखन, बधाई कुमार साहब..
ReplyDeleteबिखरी धरोहरों को सजोंने का कार्य सम्मान जनक है, जारी रखे।
ReplyDeleteक्या बात...
ReplyDeleteपारिजात मंजरी और आपका साथ शुभ हो.
ReplyDeleteकाश दो अंक भी मिल जायें। न जाने कितने सांस्कृतिक अध्याय तोड़े और हड़पे हुये भवनों के नीचे सिसक रहे हैं, हम तो स्वतन्त्र हो गये, उन्हें कौन स्वतन्त्र करेगा?
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पात्रों का नाम भी अच्छा है राजमाली का कुसुम्कार और उसकी पत्नी वसंतलीला,पारिजात मंजरी,विजयश्री ...नाटक वसंत को ध्यान मैं रख के लिखा गया होगा . यदि पूर्ण नाटक प्राप्त होता तो एक अछि रचना मिल जाती,कहते है अढाई दिन के झोपरा मस्जिद मैं भी एक रचना प्राप्त हुई थी शायद मत्विलास प्रहसन.पता नहीं कितनी रचनाये युही पड़ी हो औरहम अनजान है.लेकिन इसे समझना भी होगा जब मुस्लिन शाशक भारत मैं आये तो युद्ध करते हुए आये,जब उन्हें नमाज़ पढने की जरूरत लगी तो उन्होंने मस्जिद बाबाने की सोची.तब यहाँ के मंदिरों या नाट्यशालाओं से ही उन्हें पत्थर मिले क्यों की ज्यादातर घर मिटटी क थे.
ReplyDeleteनवभारत में पहले ही आपका लेख पढ़ लिया था, राजा भोज का शासन ग्यारहवीं शताब्दी का सबसे श्रेष्ठ शासन मुझे लगता है। आपने सबसे अच्छे नोट पर पोस्ट की शुरुआत की। जिस सांप्रदायिकता की वजह से इतनी सुंदर रचना का दूसरा हिस्सा खो गया, उसने अब तक साथ नहीं छोड़ा और बचे हुए और उपलब्ध इतिहास को दीमक की तरह खोखला करने सक्रिय है।
ReplyDeleteहमेशा की तरह जानकारी/शोध पूर्ण .
ReplyDeleteहाजिरी कबूल हो ..
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धरोहरों के सरंक्षण के प्रति समर्पण को प्रणाम!!
ReplyDeleteहोली की हार्दिक शुभकामनायें!!!
सुंदरता , बिना साधना के उपलब्ध नही होती , राहुल जी अपनी तपस्या के बल पर ही
ReplyDelete'पारिजात-मञ्जरी' को पा सके हैं। उनके अन्वेषण की ऊर्जा को मेरा सलाम ।'पारिजात-मञ्जरी'
तो हमारी धरोहर है ही , राहुल जी भी हमारे धरोहर हैं , ईश्वर उन्हें शतायु एवम आरोग्य
प्रदान करें । वसन्तोत्सव का अनूठा उपहार , थिरकता साहित्य , सार्थक स्रर्जना ,
मन-मोहक प्रस्तुति ।
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ReplyDeleteसराहनीय आलेख, एवं संग्रहणीय भी, भाविपीढ़ी के लिए अनुसंधानात्मक भी
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