आदि मानव ने सभ्यता के आरंभ में तकनीक विकसित कर अपने दो सबसे बड़े मित्रों को साधा। कुल्हाड़ी, भाले की नोक और तीरों के सिरे बनाने के लिए चकमक पत्थर से पहचान बनी क्योंकि यह लोहे की तरह सख्त होता है और पतली तीखी धार बनाने के लिए इसे घिसा भी जा सकता है। दूसरी तकनीक विकसित हुई, आग पैदा करने की। आग या तो कमान-बरमे से मथ कर पैदा की जाती थी या चकमक को लौह-मासिक पत्थरों पर रगड़कर। मानवजाति के निएंडरथल लोग, जो पृथ्वी पर लगभग सत्तर हजार साल बिताकर, अब से तीस हजार साल पहले पूर्णतया लुप्त हो गए, तकनीकी विकास की इस स्थिति को प्राप्त कर चुके थे।
लगभग दस हजार साल पहले हमारे पूर्वजों- होमो सेपियंस ने पाषाण उपकरण और आग पैदा करने से आगे बढ़कर कृषि तकनीक विकसित कर ली, जिससे गुफावासी मानव, बद्दू जीवन बिताने के साथ-साथ तलहटी, उपजाऊ मैदान और नदियों के किनारे बसने लगा। पत्थर की कुदालों और नुकीली लकड़ियों से जमीन को पोला कर अनाज बोया जाता और लकड़ी या हड्डियों में चकमक फंसाकर बनाए हंसिए से फसल काट ली जाती। उसने अनाज पीसने की विधि भी विकसित कर ली थी। कृषि के साथ पशुपालन भी आरंभ हुआ। वृक्षों की छाल के बाद ऊन, चमड़े आदि की सहज प्राप्ति से वस्त्र निर्माण की तकनीक विकसित होने लगी। वस्त्रों के प्राचीनतम उपलब्ध प्रमाणों में लगभग सात हजार साल पुराना लिनन का टुकड़ा मिस्र से ज्ञात हुआ है।
नवपाषाण काल के ही दौरान, यही कोई पांच-छः हजार साल पहले तकनीकी विकास में 'पहिया' जुड़ जाने से मानव सभ्यता की गति तीव्र हो गई। चाक पर मिट्टी के बर्तन बनने लगे और रथ-गाड़ियां बन जाने से यातायात सुगम हो गया। अब से कोई पांच हजार साल पहले, ताम्र युग आते-आते सुमेर लोगों ने चमड़े के टायर, तांबे की कील वाले पहियों की रीम विकसित कर ली। इसके पश्चात् धातुओं का प्रयोग और उनके मिश्रण से मिश्र धातु की तकनीक जान लेना महत्वपूर्ण बिंदु साबित हुआ।
इस आरंभिक तकनीकी विकास से मानव सभ्यता के इतिहास में ऐसे केन्द्र रच गए, जिनके अवशेष भी कुतूहल पैदा करते हैं। मिस्र में 150 मीटर ऊंचा और करीब ढाई-ढाई टन भारी 23 लाख शिलाखंडों का महान पिरामिड खड़ा किया गया, वह भी पहियों का ज्ञान न होने के बावजूद। स्वाभाविक है कि ईस्वी पूर्व 2600 के आसपास बने इन पिरामिडों की तकनीक की सांगोपांग जानकारी के लिए इस बीसवीं सदी में पिरामिड अध्ययन समितियां बनी लेकिन इनके शोध से तत्कालीन तकनीकी ज्ञान की जितनी जिज्ञासाओं का उत्तर मिलता है, उतने ही नए रहस्य गहराने लगते हैं।
मिस्री खगोल विशारदों ने ही अपनी जीवन-रेखा नील नदी के बाढ़ का हिसाब रखने के लिए पंचांग बनाया। वर्ष, माह, दिन और घंटों का गणित समझने की शुरूआत हुई। असीरिया के निनवे में सत्ताइस सौ साल पहले जल प्रदाय के लिए पांच लाख टन पत्थरों का इस्तेमाल कर 275 मीटर लंबी नहर बनाई गई थी। पत्थर और डामर-अलकतरा के मोट से ऐसी व्यवस्था की गई थी कि उस पर पानी का कोई असर नहीं होता था। बेबीलोन में अड़तीस सौ साल पहले सिंचाई के लिए नहरें खुदवाई गईं। पारसी राज्य में ढाई हजार साल पहले सड़कों का जाल बिछा था। सुसा से सारडिस जाने वाले राजमार्ग की लंबाई 2500 किलोमीटर थी। राजकीय संदेशवाहक इस सड़क को एक सप्ताह में पार कर लेते थे। यहां चमकीले टाइल्स पर बने चित्र आज भी धूमिल नहीं पड़े हैं। लगभग दो हजार साल पहले यहूदी विद्रोह को कुचलने के लिए रोमनों ने येरूशलम को घेर कर दीवार तोड़ने वाले इंजन चालू कर दिए, लगातार तीन सप्ताह लकड़ी के भारी यंत्रों से चलाए गए गोल पत्थरों के आघात से दीवारों पर बड़े-बड़े छेद बन गए थे।
चीन की 2400 किलोमीटर लंबी, प्राचीन दीवार (आमतौर पर 10000 ली यानि 5000 किलोमीटर बताई जाती है) पृथ्वी पर मानव निर्मित, अंतरिक्ष से दिखने वाली एकमात्र संरचना कही जाती है। इसके साथ लेखन कला के माध्यम के लिए कागज बनाने की तकनीक यहीं विकसित मानी जाती है। प्राचीन चीन के तकनीकी कौशल का अल्पज्ञात पक्ष है कि यहां ईस्वी पूर्व आठवीं सदी से भूकंपों का ठीक-ठीक विवरण रखा जाने लगा था और ईस्वी पूर्व दूसरी सदी में भूकंप लेखी यंत्र का अविष्कार कर लिया गया था। समुद्री द्वीप क्रीट में साढ़े तीन-चार हजार साल पहले विकसित मिनोअन सभ्यता के छः एकड़ क्षेत्र में फैले राजमहल के भग्नावशेष मिले, जिसमें जल-आपूर्ति और निकास की तकनीक दंग कर देने वाली है। यूनान के माइसिनी ही संभवतः कभी ब्रिटेन पहुंचे और साढ़े तीन हजार साल पहले यूरोप के प्रागैतिहासिक स्मारकों में सबसे महान गिने जाने वाले स्टोनहेंज का निर्माण किया। यारसीनियनों के साथ ट्रोजन ने भी तकनीक इतिहास रचा और फिनीशियन भी कम साबित नहीं हुए हैं, जिनकी समुद्र यात्रा का तकनीकी ज्ञान अत्यंत विकसित था।
यूनान ने दो-ढ़ाई हजार साल पहले धर्म-दर्शन के क्षेत्र में विकास किया ही, वैज्ञानिक सोच और तकनीक का विकास भी यहां कम न था। विशाल नौकाएं, एपिडारस की पहाड़ियों में पन्द्रह हजार दर्शक क्षमता वाले प्रेक्षागृह और पारसियों को जीतने के लिए टापू पर बसे शहर टायर तक पहुंचने के लिए लंबे पुल तथा उसके बाद शहर के बाहर दीवारों के पार देखने के लिए 50 मीटर ऊंची लकड़ी की दीवार बनाई। रोमनों का लगभग दो हजार साल पुराना कैलेंडर, विशाल नौका, नीरो का 50 हेक्टेयर क्षेत्र में बना 1600 मीटर लंबे कक्ष वाला प्रासाद और पचास हजार दर्शक क्षमता वाला कोलोसियम, रोमन नहर व नालियां, तकनीकी विकास के आश्चर्यजनक उदाहरण हैं। प्राचीन अमरीकी माया, एज्टेक और इन्का सभ्यताओं तथा घाना, सुडान, कांगो जैसी प्राचीन अफ्रीकी सभ्यता के अवशेषों में भी उनके तकनीकी ज्ञान और कौशल के चिह्न परिलक्षित होते हैं।
भारत प्रायद्वीप में आदिमानव के अनेकानेक केन्द्रों के साथ करीब सात-आठ हजार साल पुरानी मिहरगढ़ की सभ्यता प्रकाश में आई है, जिसमें सभ्यता के साथ तकनीकी विकास के कई महत्वपूर्ण सोपान उजागर हुए हैं। लगभग पांच हजार साल पहले कृषक समुदाय के अस्तित्व सहित तकनीकी ज्ञान के अवशेष बलूचिस्तान से ज्ञात हैं। इसके बाद साढ़े चार हजार साल पुरानी हड़प्पा की सभ्यता उद्घाटित हुई, जिन्हें कांसे- मिश्र धातु की तकनीक के अलावा सिंचाई, सड़क, जल-निकास, पकी ईटों, मिट्टी के बर्तन, क्षेत्रफल और आयतन के नाप का गणितीय ज्ञान था। यद्यपि हड़प्पाकालीन लिपि को निर्विवाद पढ़ा नहीं जा सका है, तथापि लिपि का पर्याप्त उपयोग यहां हुआ।
वैदिक काल में तीन-साढ़े तीन हजार साल पुराने ग्रंथों से तकनीकी विकास के साहित्यिक प्रमाण मिलते हैं, जब खगोल, गणित, चिकित्सा और धातु विज्ञान के क्षेत्र में पर्याप्त तकनीकी विकास कर लिया गया था। वैदिक काल में चीन, अरब और यूनान से तकनीकी और वैज्ञानिक ज्ञान के आदान-प्रदान की जानकारी भी मिलती है। प्राचीन भारत में गणित की विभिन्न शाखाओं अंकगणित, रेखागणित, बीजगणित और खगोल ज्योतिष उन्नत थी। ब्रह्मगुप्त, वराहमिहिर और आर्यभट्ट जैसे गणितज्ञ अपने समकालीन ज्ञान से बहुत आगे थे, जिनसे भारत प्रायद्वीप में तकनीकी विकास को गति मिली।
काल-गणना पद्धति और ग्रह-नक्षत्रों का ज्ञान भी विकसित तकनीक का द्योतक है। तत्वों और अणुओं का ज्ञान, रसायन की कीमियागिरी तथा नाप-तौल और समय-माप के लिए न्यूनतम और वृहत्तम इकाई तय की गई। धात्विक तकनीकी विकास का उदाहरण मिहरौली लौह स्तंभ, आश्चर्य और जिज्ञासा का केन्द्र है। भारतीय स्थापत्य, चाहे वह शिलोत्खात हो या संरचनात्मक, अपने आप में तकनीकी कौशल की मिसाल है। भारतीय मंदिरों की विभिन्न स्थापत्य शैलियों, सौन्दर्य सिद्धांत के स्थापित मानदण्डों के साथ संरचनात्मक और स्वरूपात्मक नियम पर खरे हैं, इसलिए ये धर्म-अध्यात्मिक गहराई के साथ-साथ तकनीकी और अभियांत्रिकी कौशल की ऊंचाई का अनोखा संतुलित तालमेल प्रस्तुत करते हैं।
छत्तीसगढ़ में पाषाणयुगीन उपकरण रायगढ़ जिले के सिंघनपुर, कबरा पहाड़, टेरम, दुर्ग जिले के अरजुनी तथा बस्तर जिले से प्राप्त हुए हैं। ताम्रयुगीन उपकरणों का संग्रह छत्तीसगढ़ के संलग्न बालाघाट जिले के गुंगेरिया से मिला है। लौह युग के विभिन्न महाश्मीय स्मारक-स्थल दुर्ग जिले के करकाभाट, करहीभदर, धनोरा, मुजगहन, चिरचारी तथा धमतरी के लीलर, अरोद आदि से ज्ञात हैं। आद्य-ऐतिहासिक काल में मल्हार से भवन निर्माण के अवशेष ज्ञात हैं और छत्तीसगढ़ के मिट्टी के परकोटे वाले गढ़ भी इसी युग के होने की संभावना है। तत्कालीन मृदभाण्ड भी प्रचुर मात्रा में मिलते हैं।
ऐतिहासिक युग के चट्टान, शिला व काष्ठ स्तंभ पर उत्कीर्ण लेख तथा प्राचीन विशिष्ट ठप्पांकित तकनीक सहित अन्य सिक्के किरारी, रामगढ़, गुंजी, मल्हार, ठठारी, तारापुर आदि स्थानों से मिले हैं। सिरपुर, सलखन, आरला, फुसेरा और हरदी से प्राप्त धातु प्रतिमाएं भी विशेष उल्लेखनीय हैं। आरंभिक स्थापत्य संरचनाएं, पाषाण तथा ईंटों से निर्मित हैं जिनके उदाहरण ताला, मल्हार, राजिम, नारायणपुर, सिरपुर, आरंग, सिहावा, खल्लारी, तुमान, रतनपुर, जांजगीर, पाली, शिवरीनारायण, डीपाडीह, महेशपुर, देवबलौदा, भोरमदेव, नारायणपाल, बारसूर और भैरमगढ़ आदि में विद्यमान हैं।
भारतीय तकनीकी ज्ञान का अनुमान प्राचीन साहित्यिक स्रोतों की सूचियों से स्पष्ट होता है-
अग्निकर्म- आग पैदा करना
जलवाय्वग्निसंयोगनिरोधैः क्रिया- जल-वायु-अग्नि का संयोग, पृथक करना, नियंत्रण
छेद्यम्- भिन्न-भिन्न आकृतियां काट कर बनाना
मणिभूमिका कर्म- गच में मणि बिठाना
अनेकरूपाविर्भावकृतिज्ञानम्- पत्थर, लकड़ी पर आकृतियां बनाना
स्वर्णादीनान्तु यथार्थ्यविज्ञानम्- स्वर्ण परीक्षण
कृत्रिमस्वर्णरत्नादिक्रियाज्ञानम्- नकली सोना, रत्न आदि बनाना
रत्नानां वेधादिसदसज्ज्ञानम्- रत्नों की परीक्षा, उन्हें काटना, छेदना
मणिरागः- कीमती पत्थरों को रंगना
स्वर्णाद्यलंकारकृतिः- सोने आदि का गहना बनाना
लेपादिसत्कृतिः- मुलम्मा, पानी चढ़ाना
तक्षकर्माणि- सोने चांदी के गहनों और बर्तन पर काम
रूपम्- लकड़ी, सोना आदि में आकृति बनाना
धातुवादः- धातु शोधन व मिश्रण
पाषाणधात्वादिदृतिभस्मकरणम्- पत्थर, धातु गलाना तथा भस्म बनाना
धात्वोषधीनां संयोगाक्रियाज्ञानम्- धातु व औषध के संयोग से रसायन तैयार करना
चित्रयोगा- विचित्र औषधियों के प्रयोग की जानकारी
शल्यगूढ़ाहृतौ सिराघ्रणव्यधे ज्ञानम्- शरीर में चुभे बाण आदि को निकालना
दशनवसनागरागः- शरीर, कपड़े और दांतों पर रंग चढ़ाना
वस्त्रराग- कपड़ा रंगना
सूचीवानकर्माणि- सीना, पिरोना, जाली बुनना
मृत्तिकाकाष्ठपाषाणधातुमाण्डादिसत्क्रिया- मिट्टी, लकड़ी, पत्थर के बर्तन बनाना
पटि्टकावेत्रवानविकल्पाः- बेंत और बांस से वस्तुएं बनाना
तक्षणम्- बढ़ईगिरी/ वास्तुविद्या- आवास निर्माण कला
नौकारथादियानानां कृतिज्ञानम्- नौका, रथ आदि वाहन बनाना
जतुयन्त्रम्- लाख के यंत्र बनाना
घट्याद्यनेकयन्त्राणां वाद्यानां कृतिः- वाद्ययंत्र तथा पवनचक्की जैसी मशीन बनाना
मधूच्छ्रिष्टकृतम- मोम का काम
गंधयुक्ति- पदार्थों के मिश्रण से सुगंधि तैयार करना
वेणुतृणादिपात्राणां कृतिज्ञानम्- बांस, नरकुल आदि से बर्तन बनाना
काचपात्रादिकरणविज्ञानम्- शीशे का बर्तन बनाना
लोहाभिसारशस्त्रास्त्रकृतिज्ञानम्- धातु का हथियार बनाना
वृक्षायुर्वेदयोगाः- वृक्ष चिकित्सा और उसे इच्छानुसार छोटा-बड़ा (बोनसाई?) करना
वृक्षादिप्रसवारोपपालनादिकृतिः- बागवानी
जलानां संसेचनं संहरणम्- जल लाना, सींचना
सीराद्याकर्षणे ज्ञानम्- जोतना आदि खेती का काम।
तकनीक पर सिंहावलोकन न्याय द्वारा दृष्टिपात करने से आगे का मार्ग सुगम होकर प्रशस्त हो सकेगा।
टीप
डाटा स्पेक, बिलासपुर द्वारा रोटरी क्लब आफ बिलासपुर मिडटाउन के सहयोग से नवंबर 97 में आयोजित तकनीक व्यापार मेला के अवसर पर स्मारिका के लिए लेख की बात डा. डीएस बल जी से हुई, उनके नम्र आग्रह का बल, जिसने झेला हो वही जान सकता है। मैंने नसीहत याद की- किसी विषय की जानकारी न हो और जानना चाहें तो उस पर एक लेख लिख डालें। डा. बल से हुई चर्चा के तारतम्य में ऐसा ही कुछ किया और जो बन पड़ा, मसौदा उन्हें सौंप दिया, बाद में पता चला कि वह 'कल से आज तक' शीर्षक से स्मारिका में शामिल किया गया है।
उल्लेखनीय है कि प्राचीन ग्रंथों में 64 कलाओं की सूची के लिए वात्स्यायन कामसूत्र चर्चित है, किंतु ऐसी सूची ललित विस्तार, शुक्रनीतिसार, प्रबन्धकोश जैसे ग्रंथों में भी है। यह भी कि सन 1911 में अडयार, मद्रास से प्रकाशित ए वेंकटसुब्बैया द्वारा तैयार कला सूची को प्रामाणिक अध्ययन माना जाता है। साथ ही हजारी प्रसाद द्विवेदी की 'प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद' इस विषय की अनूठी पुस्तक है। विभिन्न स्रोतों से कुछ कलाओं के नाम यहां उदाहरणस्वरूप एकत्र हैं, जिनसे अनुमान होता है कि ये मात्र कला के नहीं, बल्कि हस्तशिल्प, अभ्यास के साथ तकनीकी कौशल के भी उदाहरण हैं।
अपने ब्लाग का शीर्षक और उसके साथ का वाक्य, ''सिंहावलोकन - आगे बढ़ते हुए पूर्व कृत पर वय वानप्रस्थ दृष्टि'', बड़ी मशक्कत के बाद तय किया था, लेकिन इस लेख की अंतिम पंक्ति चौंकाने वाली थी, क्योंकि कभी पहले सिंहावलोकन शब्द का प्रयोग मैंने इस तरह किया है मुझे कतई याद न था।
(इस पोस्ट का आरंभिक भाग समाचार पत्र 'जनसत्ता', नई दिल्ली के समांतर स्तंभ में 17 नवंबर 2011 को प्रकाशित)