नव जीवन का सुख देने
नव प्रभात की किरणों को ले,
खुशियों से आंचल भर देने
दूर किसी परियों के गढ़ से, नव कोंपल बन आई बिटिया।
सबके मन को भायी बिटिया, अच्छी प्यारी सुन्दर बिटिया॥
आंगन में गूंजे किलकारी,
जैसे सात सुरों का संगम
रोना भी उसका मन भाये,
पर हो जाती हैं, आंखें नम
इतराना इठलाना उसका,
मन को मेरे भाता है
हर पीड़ा को भूल मेरा मन,
नए तराने गाता है
जीवन के बेसुरे ताल में, राग भैरवी लायी बिटिया।
सप्त सुरों का लिए सहारा, गीत नया कोई गाई बिटिया॥
बस्ते का वह बोझ उठा,
कांधे पर पढ़ने जाती है
शाम पहुंचती जब घर हमको,
आंख बिछाए पाती है
धीरे-धीरे तुतलाकर वह,
बात सभी बतलाती है
राम रहीम गुरु ईसा के,
रिश्ते वह समझाती है
कभी ज्ञान की बातें करती, कभी शरारत करती बिटिया।
एक मधुर मुस्कान दिखाकर हर पीड़ा को हरती बिटिया॥
सुख और दुख जीवन में आते,
कभी हंसाते कभी रुलाते
सुख को तो हम बांट भी लेते,
दुख जाने क्यूं बांट न पाते
अंतर्मन के इक कोने में,
टीस कभी रह जाती है
मैं ना जिसे बता पाता हूं,
ना जुबान कह पाती है।
होते सब दुख दूर तभी, जब माथा सहलाती बिटिया।
जोश नया भर जाता मन में, जब धीमे मुस्काती बिटिया॥
लोग मूर्ख जो मासूमों से,
भेदभाव कोई करते हैं
जिम्मेदारी से बचने को
कई बहाने रचते हैं
बेटा-बेटी दिल के टुकड़े,
इक प्यारी इक प्यारा है
बेटा-बेटी एक समान,
हमने पाया नारा है
घर की बगिया में जो महके, सुन्दर कोमल फूल है बिटिया।
पाप भगाने तीरथ ना जा, सब तीरथ का मूल है बिटिया॥
मान मेरा सम्मान है बिटिया, अब मेरी पहचान है बिटिया।
ना मानो तो आ कर देखो, मां-पापा की जान है बिटिया॥
मेरी बिटिया सुन्दर बिटिया,
मेरी बिटिया प्यारी बिटिया॥
कई क्षेत्रों में सक्रिय जयप्रकाश त्रिपाठी जी (+919300925397) स्टेट बैंक से जुड़े हैं, यह 'बिटिया' उनकी रचना है। बहुमुखी जयप्रकाश जी की प्रतिभा के अन्य रूपों को अच्छी तरह पहचान पाने में मेरी रूचि-सीमा आड़े आती रहती है। लेकिन पद्य पढ़ने से बचने वाला मैं, उनकी यह कविता बार-बार पढ़ता हूं। 'बिटिया' की वेब पर विदाई के लिए उन्होंने सहमति दी, उनका आभार।
नाम-लेवा पानी-देवाः
पुंसंतति के लिए कहा जाता है कि कोई तो होना चाहिए नाम-लेवा पानी-देवा जिससे वंश चले, आशय तर्पण से होता है, लेकिन पुत्री द्वारा मुखाग्नि और श्राद्ध-तर्पण की खबरें भी आजकल मिलने लगी हैं। बात आती है नाम-लेवा की तो कहा जाता है-
'नाम कमावै काम से, सुनो सयाने लोय। मीरा सुत जायो नहीं, शिष्य न मूड़ा कोय।'बिलासपुर का एक किस्सा भी याद आ रहा है। मैंने सचाई तहकीकात नहीं की, किस्सा जो ठहरा। न सबूत, न बयान, कोई साखी-गवाही भी नहीं। आप भी बस पढ़-गुन लीजिए। तो हुआ कुछ यूं कि एक थे वकील साहब, खानदानी। अंगरेजों का जमाना। सिविल लाइन निवासी इक्के-दुक्के नेटिव। हर काम कानून से करने वाले और कानून से हर कुछ संभव कर लेने वाले। कहा तो यह भी जाता है कि उनकी जिरह-पैरवी सुन जज भी घबरा जाते थे। फिर मामला कोई भी हो, मुकदमा हारें उनके दुश्मन।
उच्च कुल के इन वकील साहब को कुल जमा एक ही पुत्री नसीब हुई। इंसान का क्या वश, यह फैसला तो ऊपर वाले का था। वंश परम्परा के रक्षक, पुश्तैनी वकील ने बेटे-बेटी में कोई फर्क न समझा। बिटिया को भी वकालत पढ़ाया। बिटिया काम में हाथ बंटाने लगी। कानून की किताबें, केस ब्रीफ और कागजात सहेजने लगी। वकील साहब निश्चिंत।
चिंता हुई, जब पत्नी ने बिटिया के हाथ पीले कर, उसे विदा करने का जिक्र छेड़ा। वकील साहब सन्न। किताबों की ओर देखने लगे इनका क्या होगा, मुवक्किल कहां जाएंगे, यह तो कभी सोचा ही नहीं। पति की चुप्पी भांपते हुए पत्नी तुरंत आगे बढ़ी, बोली बाकी तो जो रामजी की मरजी, लेकिन आप तो कोट-कछेरी में ही रमे रहे, कभी सोचा, कुल-खानदान का क्या होगा, वंश कैसे चलेगा। वकील साहब ने फिर किताबों की आलमारी की तरफ देखा और अब आसीन हो गए अपनी स्प्रिंग-गद्दे वाली झूलने वाली कुरसी पर। कुछ लिखते, कुछ पढ़ते, कुछ सोचते, झूलते-झालते रात बीत गई। ऐसा केस तो कभी नहीं आया था। लेकिन मामला कोई भी हो, आदमी हल तो अपनी विधा में ही खोजता है। उन्होंने वंश चलाने का रास्ता तलाश ही लिया, विधि-सम्मत।
सुयोग्य वर की तलाश होने लगी। पात्र मिल गया। वकील साहब ने होने वाले समधी से शर्त रखी कि वे भावी दामाद को न सिर्फ बेटा मानेंगे, बल्कि गोद ले लेंगे और अपनी बिटिया को उन्हें गोद देंगे। रिश्ता पक्का हुआ। गोदनामा बना, बाकायदा रजिस्टर भी हुआ। बस फिर क्या देर थी, चट मंगनी पट ब्याह। वकील साहब अपनी बेटी को बहू बनाकर, विदा करा अपनी ड्योढ़ी में ले आए। घर-आंगन खुशियों से भर गया.....जैसे उनके दिन फिरे .....या जैसे उन्होंने अपने दिन फेरे। वकील साहब का वंश चल रहा है, चलता रहे, 'आचन्द्रार्क तारकाः.....। अब आप ही बताइये, बेटी ही तो मां है, कौन सा वंश है जो बिना मां के चलता है और कौन कहेगा कि बेटी से वंश का नाम नहीं चल सकता।
आज नवरात्रि का आरंभ। या देवि सर्व भूतेषु .....
यह पोस्ट तैयार करते हुए मीरा वाली पंक्तियां ठीक याद नहीं कर सका था। यह भी याद नहीं आ रहा था कि यह कब और कहां पढ़ा-सुना। पोस्ट लगा दी फिर भी राजस्थान के और हिन्दी साहित्य वाले परिचितों को टटोलता रहा। 8 जनवरी 2011 को कवि उपन्यासकार विनोद कुमार शुक्ल जी पर केन्द्रित आयोजन में प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल जी रायपुर आए मैंने चान्स लिया, उन्होंने तुरंत बताया और यह भी जोड़ा कि ये उनकी पसंद की पंक्तियां हैं। सो, अब सुधार दिया है।
जा बेटी जा तू खुश रहना, दुख हरिणी नदिया सी बहना.
ReplyDeleteतू है हर क्षमता से आगे, मर्यादा ही तेरा गहना.
मान मेरा सम्मान है बिटिया, अब मेरी पहचान है बिटिया।
ReplyDeleteना मानो तो आ कर देखो, मां-पापा की जान है बिटिया॥
मेरी बिटिया सुन्दर बिटिया,
मेरी बिटिया प्यारी बिटिया॥
बहुत सुंदर रचना !!
बहुत सुन्दर रचना..
ReplyDeleteआभार
असल में बिटिया के बारे में जितना कहा जाए कम है।
ReplyDeleteजयप्रकाश जी ने सब बातें कह दी हैं। सुंदर है।
... sundar rachanaa ... prabhaavashaalee post !
ReplyDeletesundar rachna. dhanyavad
ReplyDeleteसुन्दर कविता ,लाजवाब संस्मरण
ReplyDeleteजयप्रकाश त्रिपाठी जी से उनकी बिटिया के माध्यम से परिचित हुए. सुन्दर रचना. वकील साहब ने विधि सम्मत रास्ता ढून्ढ निकाला. मात्रु सत्तात्मक व्यवस्था में भी तो वंश चलता था. अति प्रभावशाली प्रस्तुति.
ReplyDeleteसच में मन्त्रमुग्ध कर देने वाली कविता है। बार बार पढ़ने का मन कर रहा है।
ReplyDeleteगद्य और पद्य का सुन्दर समायोजन!
ReplyDeleteaaj meree do biTiyaa apanee apanee peshe kee bal pe aapanaa pahachaan banaayee. baap-maa ko dekh bhaal kar rahee hyaay. shaadee? bilakul beTe ke liye Jyaasaa soch, ayAsaa hee. unakee jab ichchhaa hogee. 29 barshh umar hone par.
ReplyDeletelarhakaa hota to meraa jyaasaa hee bekaar hotaa.
debeepax mein naareeshakti kee bandanaa ke liye ek burhe baap ke paas JayaprakashJi kee ""bitiyaa'' se behatar kyaa ho saktaa hyaay!
गीत के भाव बहुत ही प्यारे हैं...वकील साहब की कहानी अनुकरणीय है।
ReplyDeleteSUNDAR GEET HAI. AUR BEHATAR HO SAKATAA HAI. TRIPATHI KI PRATIBHA SE MAI VAKIF HU. BHAVNAO SE BHARE GEET KA PRAKASHIT KARE AAPNE PAVAN KAARY KIYA. BADHAI...
ReplyDeleteकभी किसी से सुनी हुई कुछ पंक्तिया :---
ReplyDeleteकाश की हम सोच पते की हमारी माँ भी तो किसी की बिटिया ही थी
और अगर वह न होती तो हम कहाँ से आते
घुट कर मार जाते हम यदि किसी की बेटी के द्वारा न पाले जाते
हे प्रभु इतनी सदबुधि दे हमें माँ स्वरुप बिटिया की आरती उतारें
पूजा हो इबादत हो सबसे पहले बिटिया के चरण पखारें
.............बहुत ही सुन्दर पोस्ट ईश्वर खंदेलिया
बिटिया ................ ईश्वर का उपहार है . नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नम:
ReplyDeleteसच कहूं तो वकील साहब जैसे बिरले ही होते हैं वर्ना हम सभी नें लक्ष्मी के जन्म पर मुंह बिचकाते पिता ( और माता भी ) कम देखे हैं क्या ? ...फिर दूसरे की बिटिया को स्वाहा करनें वाले बंधुबांधव भी ?
ReplyDeleteबिटिया के प्रति द्वैध और घनघोर तिरस्कार भरे इस युग में जयप्रकाश जी की फीलिंग्स ज़ख्म पर फाहे सा काम करती हैं...और आपकी तारीफ केवल इतनी कि नवरात्रि से बेहतर और कोई समय हो भी नहीं सकता इस पोस्ट के लिये !
जयप्रकाश जी की इस कविता नें हृदय के तार झंकृत कर दिये, बिटिया के प्रति स्नेह और विश्वास कायम रहे. नवरात्रि के पहले दिन बिटिया के प्रति श्रद्धा भाव जागृत करती जयप्रकाश जी की कविता के द्वारा उनसे परिचय कराने के लिए आपका धन्यवाद.
ReplyDeleteवकील साहब की कहानी दिल को सुकून दे रही है.
सुन्दर - भावपूर्ण रचना बिटिया । जैसे उनके (वकील साहब के) बहुरे वैसे सबके दिन बहुरें । अच्छा परिचय , धन्यवाद । नवरात्रि पर शुभ कामनाएं । "खबरों की दुनियाँ"
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी कविता, मुझे याद है पहली अप्रैल २००२ जब मेरी अदीति का जन्म हुआ था एवं मैं अपने पिताजी के साथ लेबर रूम के बाहर खड़ा इन्तजार कर रहा था कि nurse ने आकर उसे मेरी गोद में डाल दिया.पीछे से उसकी सहायिका ने लगभग बिलाप करते हुए कहा कि आज की बोहनी खराब हो गयी. लेकिन उसने मेरी ओर संभवतः ध्यान नहीं दिया , मैं तो अपनी पुत्री को पाकर अत्यंत प्रसन्न था.आज उसके बिना मैं स्वयं को अधूरा पाता हूँ. भाई राहुल सिंह जी को बिटिया जैसी मर्मस्पर्शी उपहार हेतु साधुवाद !
ReplyDeleteहमें भी पद्य में बाते थोडा कम समझ में आती है पर जय प्रकाश जी की रचना काफी अच्छी लगी लगा हमारे दिल की बात कोई और कह रहा है | वैसे क्या कानूनन बेटी पिता की वारिस नहीं बन सकती है ? वैसे बेटी घर से विदा हो कर भी अपनी ही रहती है और बेटा विदा करा कर लाते ही पराया हो जाता है|
ReplyDeleteहमारी प्यारी बिटिया जैसी उनकी प्यारी कविता . बहुत सुन्दर प्रस्तुतिकरण . जयप्रकाश जी और आप , दोनों का आभार . शारदीय नव-रात्रि की बधाई और शुभकामनाएं .
ReplyDeleteसहेजे जाने लायक पोस्ट जिसे बार बार पढने को जी चाहेगा इसलिए सहेज रहा हूं । बहुत ही सुंदर पोस्ट
ReplyDeleteबड़ा सुग्घर रचना हे, हमर मन संग बांटे बर आप दुनों झन ला बधाई.
ReplyDeleteपंचराम मिर्झा के गीत "करले सिंगार, मोर गर के हार, जा तेहां ससुरार जाबे" में बेटी के बिदाई के दुःख ला महसूस कर सकथे.
http://cgsongs.wordpress.com/2010/09/25/ja-tehan-sasurar-jabe/ में गीत ला सुन सकथो.
समसामयिक और बेहतर रचना पेश की है आपने बेटी पर सहधन्यवाद जयप्रकाश त्रिपाठी जी । साथ में बिलासपुर के वकील साहब उदाहरण सोने पे सुहागा,जान डाल दिया लेख में । मां दुर्गा सर्वजन को सद्बुद्धि दे जैसे नवरात्र में बेटियों को पूजते है वैसे तीन सौ पैसठ रात्र पूजे । नवरात्र की पवित्रोत्सव की शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर, शायद इसे पढने वाले बच्चे अब जान पाएं कि ऊपर से सख्त नारियल से नज़र आने वाले कठोर कहे जाने वाले पिता का हृदय भी उतना ही कोमल और नर्म होता है जिसमें अपने बच्चों खासकर बेटियों के लिए बहुत ही कोमल भावनाएं निहित होती हैं। जिन्हें अक्सर वो बयां नहीं कर पाता या कहें कि शायद उन्हें आपके जैसे शब्दों का जादू नहीं आता . . .
ReplyDeleteअब तो कोई शिकायत नहीं है आपको ..... दिल से कहता हु ... बहुत बढ़िया लिखा है आपने ... पता नहीं कैसे इस बढ़िया माल पर नजर नहीं पड़ी
ReplyDeletehttp://chorikablog.blogspot.com/2010/10/blog-post_8205.html
खैर अब तो आते रहेंगे यहाँ पर .... शुभ कामनाये आप बढ़िया लिखते रहे .....
ReplyDeleteहमारा भी तो तभी काम चलेगा
Very Interesting post.
ReplyDeleteताऊ पहेली ९५ का जवाब -- आप भी जानिए
ReplyDeletehttp://chorikablog.blogspot.com/2010/10/blog-post_9974.html
भारत प्रश्न मंच कि पहेली का जवाब
http://chorikablog.blogspot.com/2010/10/blog-post_8440.html
.
ReplyDelete@-बेटी ही तो मां है, कौन सा वंश है जो बिना मां के चलता है और कौन कहेगा कि बेटी से वंश का नाम नहीं चल सकता।....
True, None can deny this fact !
.
चाचू, अब मै क्या बोलूं? लड़का ह़ो या लड़की, बेटा ह़ो या बिटिया ,है तो अपने ही जिगर का टुकडा. तथाकथित व्यावसायिक समझ या तथाकथित दुनियादारी की समझ एक बार बेटा और बिटिया में फर्क कर सकती है,पर प्रेम कोई फर्क नहीं कर सकता. प्रेम से भरा हुआ ह्रदय अपने और पराये में भेद नहीं कर सकता,फिर बेटे और बिटिया में क्या फर्क करेगा? सवाल तो प्रेमपूर्ण (मोहपूर्ण नहीं ) ह्रदय के होने या न होने का है. यदि प्रेमपूर्ण ह्रदय है, तो दूसरे की बिटिया भी अपनी लगने लगती है, यदि नहीं, तो अपनी बिटिया से भी व्यक्ति भेदभाव करने लगता है.
ReplyDeleteपुनः चाचू, बेटा ह़ो या बिटिया, मुझे लगता है, अभिभावकत्व कोई आसान काम नहीं. पिता बनना और अपने बच्चों का अभिभावक बनना मुझे लगता है, दो भिन्न बातें हैं.पिता बनना शायद आसान है,अभिभावक बनना मुश्किल. I think, a guardian needs to be spiritually, mentally, psychologically, financially, emotionally and physically fit to properly care the child, for an all-round development of the child. anyway , कुछ समय बाद मै भी अभिभावक बन जाऊँगा और कोशिश करूँगा एक अच्छा अभिभावक बनने की, आप सभी अभिभावकों के मार्गदर्शन मे. वैसे, एक बहुत सुन्दर पोस्ट, सुन्दर और हृदयस्पर्शी कविता के साथ.
Bahut achhi rachna hai....kash sabhi bhartiya parents isi tarah soch pate.......very touching and thought provoking poem.
ReplyDeleteघर की बगिया में जो महके, सुन्दर कोमल फूल है बिटिया।
ReplyDeleteपाप भगाने तीरथ ना जा, सब तीरथ का मूल है बिटिया
bilkul sahi..... vibhor ker diya is rachna ne
जय प्रकाश जी की यह बहुत सुन्दर रचना है । उन्हे बहुत बहुत बधाई ।
ReplyDeleteजयप्रकाश त्रिपाठी जी लिखी बिटिया कविता बहुत ही प्रभावी लगी.
ReplyDeleteकविता बहुत सुन्दर और जाने कितनों के मन की आवाज है . गद्य भी ऐसे लगा जैसे कोई सामने खड़े हो कर बात कर रहा है ...रोचक
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता..
ReplyDeleteकभी ज्ञान की बातें करती, कभी शरारत करती बिटिया।
ReplyDeleteएक मधुर मुस्कान दिखाकर हर पीड़ा को हरती बिटिया॥
Bahut sunder kavita. jayprakash jee se parichay karane ka aabhar. Vakil sahb kee kahanee bahut bahee. kamal ka tod nikala.
कहानी बेहद रोचक है और प्रेरणादायक भी. आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आई...अच्छा लगा आपको पढ़कर.
ReplyDelete.
ReplyDeleteएक पिता के मुख से अपनी बेटी के लिए निकली इतनी सुन्दर रचना प्रशंसनीय है।
.
जय प्रकाश जी की इस सुन्दर और प्रेरक कविता से परिचय करवाने के लिए आपका आभार ..बेटियां सही मायने में इस सृष्टि की सबसे अनमोल चीज है ..लेकिन आवारा पूंजी के बढ़ते प्रभाव और सामाजिक जिम्मेवारियों के प्रति लगातार घटते लगाव से सामाजिक वातावरण इतना दूषित होता जा रहा है बेटियों की चिंता हर इज्जतदार मां बाप को हरवक्त सताती रहती है ...सरकारी प्रयास भी खोखला साबित हो रहा है बेटियों को सही सुरक्षा और समर्थन देने की दिशा में ..समाज में कुछ बहुत ही ठोस स्तर पर जागरूकता लाने की जरूरत है बेटियों के सुरक्षा और सहायता की दिशा में ....खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में ...
ReplyDeleteमान मेरा सम्मान है बिटिया, अब मेरी पहचान है बिटिया।
ReplyDeleteना मानो तो आ कर देखो, मां-पापा की जान है बिटिया॥
बहुत सुन्दर मेरी जान भी मेरी बेटियाँ हैं। जब सभी लोग इस बात को पहचान लेंगे तो समाज मे सुखद परिवरतन आयेगा।प्रकाश जी को बधाई, शुभकामनायें
(इ-मेल से प्राप्त)
ReplyDeleteहरिहर वैष्णव दिनांक : 08.10.10
सरगीपाल पारा, कोंडागाँव 494226, बस्तर छ.ग.
फोन : 07786242693, मोबा : 9300429264
ईमेल : lakhijag@sancharnet.in
आदरणीय राहुल सिंह जी
भाई जयप्रकाश त्रिपाठी जी की रचना बिटिया' ने अभिभूत कर दिया। इसे कृपा पूर्वक पाठकों तक पहुँचाने के लिये आप कोटिशः धन्यवाद के पात्र हैं। मेरी दोनों बेटियों का विवाह सात वर्षों पूर्व हुआ है किन्तु आज भी जब कभी वे यहाँ आ कर वापस होती हैं, तब हम दोनों पतिपत्नी की आँखों में आँसुओं का सागर बरबस उमड़ ही पड़ता है। ऐसे में मुझे मेरी सासू माँ की रुलाई भी याद आ जाती है। वे भी, बावजूद इसके कि हमारे विवाह को वर्षों गुजर गये और हम अब नानानानी भी बन चुके, मेरी पत्नी को विदा करते हुए हर बार सुबक पड़ती थीं। बेटी दरअसल केवल बेटी नहीं, वह तो मातृस्वरूपा है; माँ है। करुणामयी ममतामयी माँ! कितनी रिक्तता और तिक्तता भर जाती है जीवन में बेटी के बिना! किन्तु क्या करे बेटी का पिता? उसे तो हर हाल में एक न एक दिन अपनी लाड़ली को विदा करना ही पड़ेगा, न? यही तो नियति है बेटी के पिता की!
त्रिपाठी जी की इस कविता की प्रत्येक पंक्ति, बल्कि कहूँ तो प्रत्येक शब्द ही भावविभोर कर देने वाले हैं। इस रचना में उन्होंने जो संदेश दिया है, बेटा और बेटी के बीच भेदभाव करने वालों के लिये; वह सचमुच बहुत महत्त्वपूर्ण है। उन तक मेरा धन्यवाद पहुँचाने का कष्ट कीजियेगा।
इस रचना के साथ आपने बिलासपुर के वकील साहब से सम्बन्धित प्रेरक प्रसंग को जोड़ कर तो मणिकांचन संयोग की स्थिति निर्मित कर दी है।
प्रसंगवश, मैं इस पत्र के साथ अभी हाल ही में (03.10.10) को हँगवा नामक गाँव में अपने -ारा ध्वन्यांकित एक लोक गीत संलग्न कर रहा हूँ। शायद आप भी इसे सुनना चाहें। यों तो यह लोक गीत बस्तर की जनभाषा हल्बी में है किन्तु मुझे लगता है कि इसे समझने में कठिनाई नहीं होगी। तो भी, इस गीत का सार दे देना आवश्यक समझता हूँ। यह लोक गीत है लगन के बाद बेटी को विदा करने का। इसे गाया है सुश्री कमला कोराम ने। विदा करती हुई माँ कहती है कि रायसोड़ी सुआ (तोते की एक प्रजाति, जो बहुत बातें करने के लिये जाना जाता है) घर से निकल कर जा रही है। फिर वह प्रश्न करती है कि वह उसके -ारा उपयोग में लाये जाने वाले विविध उपकरण, पात्र आदि किसे सौंपे जा रही है? उत्तर भी वही देती है कि वह (बेटी) उसके -ारा उपयोग में लाये जा रहे विविध उपकरण, पात्र आदि परिवार के लोगों को सौंपे जा रही है।
अन्त में इस मातृ शक्ति को कोटिशः प्रणाम।
सादर,
हरिहर वैष्णव
बिटिया शीर्षक यह गीत मन को छु गयाा इसी तरह श्री हरिहर वैष्णव द्वारा बिटिया की विदाई संबंधी सुश्री कमला कोर्राम द्वारा गाये हल्बी लोक गीत का सार भी मन को छूता हैा
ReplyDeleteअभी कुछ दिन पहले घर में एक किताब हाथ लगी.. जिसमे मेरे खानदान का लगभग चालीस पुस्तों का ब्यौरा था.. खुशी-खुशी उसमें अपने जाने पहचाने नाम खोजना-पढ़ना शुरू किया.. और दो मिनट बाद ही जब यह Realize किया कि किसी भी महिला(माँ, बुवा, चाची, दादी, बहिन) का नाम नहीं है तो उसी पल उसे वापस वहीं रख दिया जहाँ से उठाया था, और पिताजी से उस किताब के घर में होने का औचित्य पूछने लगा..
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा यह पढ़ कर, मुझे गर्व है अपनी बेटी पर.
ReplyDeletebahut sunder rachna.....
ReplyDelete@ AJAY JHA JI NE SAHI BAAR BAAR PADHNE LAYA HAI
ReplyDeleteसहेजे जाने लायक पोस्ट जिसे बार बार पढने को जी चाहेगा इसलिए सहेज रहा हूं । बहुत ही सुंदर पोस्ट
meri bitiya pyari bitiya ,kitane pyar se papa kahati bitiya ,mere our aap ke vichar betiyo ke liye ek jaise hai jan kar khushi huyi bahut achchhi kavita hai .
ReplyDeleteसुंदर कविता और यथार्थ विचार। बिना गृह के वंश का क्या? और वह गृहणी के बिना संभव नहीं। प्रकृति तो नारी वंश ही चाहती है। हम ने ही उसे उलट दिया है।
ReplyDeleteबहुत ही प्यारी कविता है और उतनी ही प्यारी पोस्ट भी. इस तरह अगर सभी लोग बेटी का सम्मान करने लगें तो औरतों की बहुत सी समस्याओं का समाधान स्वयमेव हो जाए. आभार !
ReplyDelete.........
ReplyDelete.........
chachha hamra bhi du go bitiya hai......
pranam.
सच में अच्छी रचना है, आपने ध्यान दिलाया इसके लिए आभार।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावमयी रचना...
ReplyDeleteतू वर्षा की लडी शस्य का पोषण करने आती है
ReplyDeleteतपती- जलती वसुन्धरा को शीतलता पहुंचाती है ।
अन्नपूर्णा हो तुम साक्षात
शरत पूर्णिमा की हो रात।
विप्लव की देती राह तुम्हीं सदाचार सिखलाती हो
कौन यहाँ कितने पानी में तुम दर्पण दिखलाती हो ।