'विष्णु की पाती राम के नाम' की शुरूआत में ही विष्णु, राम के साथ बैठे हैं और कह रहे हैं 'काफी ले आना हनुमान'। यह कोई गड़बड़ रामायण नहीं, अच्छी खासी पुस्तक का जिक्र है, जिसका विमोचन 15 सितंबर को मारीशस में वहां के संस्कृति मंत्री श्री मुखेश्वर ने किया।
पुस्तक, विष्णु प्रभाकर जी द्वारा राम पटवा जी को लिखे पत्रों का संकलन है और हनुमान, काफी हाउस के बैरे का नाम। इसका संपादन सृजन गाथा वाले जयप्रकाश मानस जी ने किया है। फ्लैप पर प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान, रायपुर के अध्यक्ष विश्वरंजन जी ने लिखा है- 'इन पत्रों को मैं उस रूप में देखता हूं जिस रूप में शेक्सपीयर द्वारा युवा आलोचक एलेन स्टवर्ट को लगातार लिखे गए पत्र (शैक्सपीयर लैटर्स एडीटर-एलेन स्टूवर्ट) को देखा करता हूं।' उन्होंने यह भी उल्लेख किया है कि 'राम पटवा ऐसे सौभाग्यशाली साहित्यकारों में से एक हैं, जिन्हें विष्णुजी सदैव और सर्वत्र अपने व्याख्यानों में याद करते थे।'
विष्णु जी जगह-जगह, राम पटवा जी की लघु कथा 'अतिथि कबूतर' सुनाते हुए कहते कि 'शब्द मेरे हैं पर कथा श्री राम पटवा की है और वह किसी टिप्पणी की मोहताज नहीं है।' आइये देखें उस लघु कथा को-
दोनों कबूतरों ने आपस में गुटर-गूं किया, ''भटका हुआ अतिथि है.. अतिथि देवो भवः,'' लेकिन प्रश्न खड़ा हुआ कि यह अतिथि रूकेगा किसके यहां? दोनों कबूतर अलग-अलग जगह रहते थे, एक मस्जिद की मीनार पर तो दूसरा मंदिर के कंगूरे पर।
अंततः यह तय हुआ कि अतिथि कबूतर को दोनों कबूतरों के साथ एक-एक दिन रूकना पड़ेगा।
तीसरे दिन 'अतिथि' की भावभीनी विदाई हुई। दोनों मित्र अतिथि कबूतर को दूर तक छोड़ने गए। शाम को जब वे लौटे तो देखा - मंदिर और मस्जिद के कबूतरों में 'अकल्पनीय' लड़ाई हो रही है। इस दृश्य से दोनों स्तब्ध रह गए। बाद में पता चला कि अतिथि कबूतर संसद की गुंबद से आया था।
इस पुस्तक पर थोड़ी बात। संग्रह के पृष्ठ 31 पर पोस्ट कार्ड का मजमून कुछ इस तरह है-
आपके लेख की प्रतिलिपि मिली। राम की कथा को हर व्यक्ति ने अपनी-अपनी दृष्टि से देखा है। मैने नवभारत टाइम्स में एक छोटा-सा लेख लिखा था और उसमें कितने ही राम गिनाए थे। वास्तव में राम ऐतिहासिक नहीं, पौराणिक पुरुष हैं और उस युग के मूल्यों के प्रतीक हैं जब आर्य लोग पशु चराना छोड़कर खेती करने लगे थे और नदियों के किनारे बस्तियां बसाई थीं। ऐसे समय ही वर्ण-व्यवस्था और आदर्श मूल्यों का निर्माण हुआ था उसी को किसी कवि ने कथा का रूप दिया। अगर यह भी मान लें कि राम कभी हुए थे तो भी वह कुछ मूल्यों के प्रतीक थे; सत्ता का त्याग, अन्याय का प्रतिकार, साधुजनों की रक्षा और जितने भी पिछड़े वर्ग है उनको समान स्तर पर लाना। आज जो राम का नाम लेते हैं उनमें से कोई भी इन मूल्यों को नहीं मानता। बौद्ध दर्शन में तो यह आता है कि साकेत कभी किसी राजा की नगरी रही ही नहीं वह तो व्यापार नगरी थी। दशरथ बनारस के राजा थे। बौद्ध जातक में यह कथा दी हुई है सीता किसी के गर्भ में पैदा नहीं हुई थी सीता का अर्थ है जुती हुई जमीन। वाल्मीकि स्वयं शुद्र जाति के थे क्रौंचवध के बाद उनके मन में स्वतः ही कविता फूट पड़ी वह बदल गए और उन्होंने एक आदर्श पुरुष की कल्पना करके रामकथा लिखी। वह केवल अयोध्या काण्ड ही लिख पाए थे। ऐसे ही अनके कथानक हैं। लोकगीत में तो और भी विचित्र बातें बताई गई हैं। आज तो राजनीतिज्ञों ने वोट मांगने का साधन बनाया हुआ है। राम के मूल्यों से उन्हें कोई मतलब नहीं।
पुस्तक के पृष्ठ 32 पर विष्णु जी की कविता प्रकाशित है। सर्वनाम संबोधन 'प्रिय आत्मन्' से ऐसा लगता है कि यह नया साल 1993 के लिए प्राप्त हुई शुभकामनाओं के जवाब में उनके द्वारा सभी को प्रेषित किया गया होगा, अन्य संदर्भ तो साफ है, लेकिन ध्यातव्य कि यह तेवर, 80 बरस पार कर चुके 'इन्सान' के उद्वेलित हो कर खीझे, व्यथित मन की अभिव्यक्ति है, जिसमें (सर्वेश्वर जी वाले?) 'भेड़िये' भी हैं -
धम-धमाधम, धम-धमाधम, धम-धमाधम
लो आ गया एक और नया वर्ष
ढोल बजाता, रक्त बहाता
हिंसक भेड़ियों के साथ.
ये वे ही भेड़िये हैं
डर कर जिनसे
की थी गुहार आदिमानव ने
अपने प्रभु से -
'दूर रखो हमे हिंसक भेड़ियों से'
हां, ये वे ही भेड़िए हैं
जो चबा रहे है इन्सानियत इन्सान की
और पहना रहे हैं पोशाकें उन्हें
सत्ता की, शैतान की, धर्म की, धर्मान्धता की.
और पहनकर उन्हें मर गया आदमी
सचमुच
जी उठी वर्दियां और कुर्सियां
जो खेलती हैं नाटक
सद्भावना का, समानता का
निकालकर रैलियां लाशों की.
मुबारक हो, मुबारक हो
नयी रैलियों का यह नया युग
तुमको, हमको और उन भेड़ियों को भी
सबको मुबारक हो.
धम-धमाधम, धम-धमाधम, धम-धमाधम ...
इस ताजी पुस्तक में शामिल चिटि्ठयां, पुरानी और निजी किस्म की भी हैं फिर छपी क्योंकर है? किसी ने बौद्धिक मासूमियत से खुद को कहीं 'मोतिया' कहने वाले से पूछा है- 'कबीर! तुम कब अप्रासंगिक होओगे?' दिल-दिमाग दुरुस्ती से भरोसा रखें कि 'होइहि सोइ जो राम रचि राखा' तो 'न्याय-मंदिर' की प्रार्थना-इबादत भी 'सर्वजन हिताय रघुनाथ गाथा' साबित होगी।
किसी ने 'जोड़-तोड़' नामक एक सुरक्षा फार्मूला सुझाया है। यह विशेष उपयोगी होता है, दर्शनार्थ मंदिर जाने में, पादुकाएं बचाने के लिए। करना बस यह होता है कि मंदिर में प्रवेश के समय पादुकाएं उतारते हुए, जोड़ी तोड़ दें, एक साथ न रखें यानि एक पादुका एक तरफ और दूसरा परली बाजू में। बस इतने जोड़-तोड़ से आपकी पादुकाएं सुरक्षित रहेंगी। वैसे यह दर्ज करना सुझाने वाले की इस बात का उल्लंघन है कि 'जूता चोरों के हित में इसे जारी न किया जाए' लेकिन यह पेज तो हितग्राही और भुक्तभोगी सहित, सभी के लाभार्थ, लोक हित में है। इस तरकीब की अनुप्रयुक्तता कहां-कहां संभव है, गुणीजन विचार कर सकते हैं।
श्री राम पटवा जी (+919827179294) ने पुस्तक विमोचन की मेरी सहज जिज्ञासा के जवाब में तुरंत पुस्तक सहित मूल दस्तावेज और फोटो उपलब्ध करा दिए। उनकी उदारता से कई परिचित अक्सर लाभान्वित होते हैं।
राम पटवा जी से मेरा परिचय गाँव से महानगर और महानगर से नगर और पुन: गाँव की प्रदक्षिणा करते हुआ। मेरी मुलाकात कुछ ज्यादा पुरानी नहीं है,लेकिन एक ठड एक गर्मी और एक बरसात तो निकल गयी प्रथम मुलाकात हुए।
ReplyDeleteराम पटवा जी को मेरी ढेर सारी बधाई तथा "विष्णु की पाती राम के नाम" अवश्य ही पढना चाहुंगा।
राहु्ल भैया महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए आपको भी साधुवाद
Nice post thanks for share This valuble knowledge
Deleteमहत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए आभार!
ReplyDeleteराम पटवा जी को बहुत बहुत बधाइयाँ!
रोचक पाठ, तथ्यों का और कविता का।
ReplyDeleteराजेश उत्साही जी की इ-मेल पर प्राप्त टिप्पणी-
ReplyDeleteविष्णु प्रभाकर मेरे प्रिय लेखकों में से रहे हैं। उनका ‘आवारा मसीहा’ मेरी सर्वकालिक प्रिय कृति है। वे चकमक के नियमित पाठक थे। बहुत सारे लेखकों को चकमक सौजन्य में जाती थी। एक बार मैंने ऐेसे लेखकों को सौजन्य सूची से हटा दिया जिनसे न तो कोई रचना सहयोग मिलता था और न ही प्रतिक्रिया। उसमें विष्णु जी का नाम भी था। अगले ही महीने मुझे एक पोस्ट कार्ड मिला जिसमें लिखा था आपने चकमक भेजना बंद कर दिया। आप चाहें तो उसका चंदा ले लें,पर चकमक भेजते रहें। मैं उसको नियमित रूप से पढ़ता हूं। हां लिख नहीं पा रहा हूं। अब हाथ कांपते हैं। देखिए यह पत्र भी मैं किसी और से लिखवा रहा हूं। उनका यह पत्र पाकर मैं पानी पानी हो गया। उसके बाद चकमक उन्हें जीवन पर्यन्त जाती रही। उनके प्रतिक्रिया पत्र भी आते रहे।
यह बात मैंने यहां इसलिए बताई,कि श्रीराम पटवा और मेरी ही तरह उन्होंने न जाने कितने लोगों को पत्र लिखें होंगे। पटवा जी ने उन्हें सहेजकर बहुत ही अच्छा काम किया है। और इस सहेजे हुए को सार्वजनिक करने के लिए वे निसंदेह साधुवाद के पात्र हैं।
रामकथा को लेकर विष्णु प्रभाकर जैसे लेखक की यह टिप्पणी हर दौर के लिए एक महत्व रखती है। हम सब को भी इसे समझना और गुनना चाहिए। इसमें यह संदेश भी छिपा है कि इतिहास और आस्था दो अलग अलग चीजें हैं। उनकी मिलावट नहीं करनी चाहिए।
कबूतरों की लघुकथा हमारी राजनीति का कच्चा चिठ्ठा है। और जोड़तोड़ का फार्मूला बताता है कि समय के साथ सब बदलता जाता है।
आपको भी आभार कि यह महत्वपूर्ण जानकारी दी। किताब कहां से खरीदी जा सकती है। संभव हो तो मेल से जानकारी दें।
समझ में नहीं आ रहा क्या लिखूं. अभिभूत हूँ. रायपुर में रहते हुए कभी श्री राम पटवा जी के बारे में नहीं जाना. बहुत ही रोचक प्रस्तुति. आभार.
ReplyDelete... bahut sundar ... behatreen post ... saarthak va prabhaavashaalee abhivyakti !!!
ReplyDeleteउल्लिखित कविता महीने की २४ तारिख को पोस्ट कार्ड पर दर्ज की गई है सो लगता है कि नव वर्ष के प्रति विष्णु जी की अप्रसन्नता की उम्र लंबी रही !
ReplyDeleteनिज पत्रों के प्रकाशन पर कोई टिप्पणी नहीं ! विष्णु ,राम ,हनुमान और काफी का घटना संयोग संभव है पर पत्रों की पृष्ठभूमि में इस हास्य को सुरुचिपूर्ण मानना कठिन है ! लगभग इसी तर्ज़ पर कबूतर कथा भी उस सरलीकरण का नतीज़ा है जिसमें हर बुराई के लिए राजनेताओं को दोषी ठहरा कर साहित्यिक प्रतिभा निखार पाती है !
राम कथा पर विष्णु जी की टिप्पणी सहज स्वीकार...पर विश्वास कीजिये इसे हम करते तो कब के पिट चुके होते !
मंदिर वाली जोड़ तोड़ पर केवल इतना ही कहेंगे कि जिन्हें अपनी पादुकाओं से इतना मोह हो उन्हें ईश्वर से लौ लगाना ही क्यों ? मेरा मतलब उसके दर जाना क्यों ?
बहरहाल श्री राम पटवा को पुस्तकीय उपलब्धि की बधाई ! महत्वपूर्ण इसलिए कि पत्र किसी ऐरे गैरे नें नहीं लिखे हैं !
कृपया 'तारिख' को 'तारीख' पढ़ें !
ReplyDeleteram patwa ji ke sahitya se judaav ki baatein unse jude rahne wale log jante hi hain jaise ki mai bhi lekin unki yah laghukatha... aaj pahli baar padhi maine khud hi... vakai satik.....ni:shabd kar dene wali laghukatha.
ReplyDeletepatwa ji ko badhai aur shubhkamnayein, is kshhma yachna aur afsos ke sath ki yah kitaab maine nahi padhi....
पटवा जी को बहुत-बहुत बधाई। लेकिन आपको उससे ज्यादा। आपका बयान रोचक है। अच्छा लगा।
ReplyDeleteराम के नाम पर...विष्णु प्रभाकर जी से बेहतर और कौन लिख सकता था।
अली जी, इतना क्यों डरते हैं।
Bhaiya ji Pranam
ReplyDeleteShri RAM PATWA JI ko Bahut Bahut Badhai.
'RAM KE NAM VISHNU.....'
Ko jarur padhna chahunga...
Nitnayi Jankari ke liye Dhanyawad.
Sukhnandan Rathore
Dy.S.P. [PHQ RAIPUR]
बहुत ही अच्छी और सामयिक प्रस्तुति आप को बधाई कबूतरों की कथा हमारे आज की वास्तविकता को उघाड़ देने के लिए काफी है विष्णु प्रभाकर जी को पढना सचमुच में अपने आप में एक उपलब्धि सी लगती है
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
ReplyDeleteबदलते परिवेश में अनुवादकों की भूमिका, मनोज कुमार,की प्रस्तुति राजभाषा हिन्दी पर, पधारें
letters ka sankalan kar sarvajanik krne ki varsho ki mehanat ke liye patawa ji ko kotishah badhai aur usake prachar prasar k liye apko.book jarur dekhana chahungi.blog ki prarambhic do lines thoda nirash krti hai kintu shesh pastuti atyant rochak.Prabhaker ji ki kavita man ko uddvelit krti hai.
ReplyDeletekabutero ki katha rochak hai kintu shayad thodi purani kyoki yadi 30.09.10 ki hoti to kabutero k beech ladai nahi hui hoti
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ReplyDeleteकबूतर कथा बहुत पसंद हुई. संसद वाले कबूतर का इतना असर था तो विधानसभा वाले का कितना होगा..... अनुमान का विषय ही हो सकता है.
ReplyDeleteश्री राम पटवा जी को बधाइयाँ , आपको कोटिशः धन्यवाद । अच्छा लगा , पढ़कर -जानकर । अशेष शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteसोचता हूं कि कल तक ब्लागिंग के बिना कितना मुश्किल था इस तरह की जानकारियां मिल पाना. धन्यवाद.
ReplyDeleteभईया पायलागी
ReplyDeleteसमसायिक लेख,पक्का गुंबद वाला कबूतर के रंग सादा रीहीस होही भईया जेला मीनार अउ कंगूरे के कबूतर मन समझ नइ पईस फेर पूरा देश के कबूतर भार्इचारा के मिशाल पेश कर दिस । आदरणीय पटवा जी के फितरत से वाकिफ नई रेहेंव मोर लिए छुपे रूस्तम निकलिस उहु ल प्रणाम
बहुत ही महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक जानकारी मिली! धन्यवाद!
ReplyDeleteराम पटवा जी को बहुत बहुत बधाइयाँ! बहुत ही अच्छी और सामयिक प्रस्तुति
ReplyDeleteश्री राम पटवा जी को कोटिशः बधाई.
ReplyDeleteपी एन सुब्रमनियन से आपके ब्लाग और आपके विशिष्ट कार्य की जानकारी मिली .. ! हार्दिक शुभकामनायें
ReplyDeleteमै तो यहाँ सबसे छोटा हु किसी भी प्रकार की टिप्पणी के लिए, परन्तु इतना अवश्य कहूँगा की ये लाइने दिल को छू गयीं|
ReplyDeleteनिकालकर रैलियां लाशों की.
मुबारक हो, मुबारक हो
नयी रैलियों का यह नया युग
तुमको, हमको और उन भेड़ियों को भी
सबको मुबारक हो.
रविश तिवारी
यह भी पढ़ें:
http://alfaazspecial.blogspot.com/2010/06/blog-post.html
रोचक लग रही है पुस्तक -ऋग्वेदीय सीता शब्द का अर्थ है जुताई से उत्पन्न "फरो " ..खुदी हुयी जमीन ..रोचक यह है की हल से जमीन में "फार' जैसी जुगत से गहरी लकीरें (फरो ) बनती जाती हैं ..
ReplyDeleteआपके कबूतर बहुत ही अच्छे लगे
ReplyDeleteरोचक जानकारी है. ख़ासकर कबूतरों की कहानी.
ReplyDeleteMujhe pata nehi tha ki patwaji is sunder ebam rochak sahitik gyan ki baremen.Bahot achha laga kabutar ki kahani khaskar संसद ki kabutar.Kosis karunga ki e kitab padhne kelie chahein mujhe ek mahina lagjae is hindi pustak ko padhne kelie.
ReplyDeletePatwaji ko hardik badhaian ebam apko vi.
Behtrin blog.Dhanyabad
विष्णु प्रभाकर जैसे महान साहित्यकार के पत्रों पर आधारित संकलन के सफल प्रस्तुतिकरण पर भाई राम पटवा को और इस महत्वपूर्ण पुस्तक पर सुंदर समीक्षात्मक प्रस्तुतिकरण के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई .
ReplyDeleteराम पटवा जी को अपने खास पत्रों को आम करने के लिए धन्यवाद. राम पटवा जी छत्तीसगढ़ संस्कृति विभाग के नायब रतन हैं।
ReplyDeleteलोग 'गुड मार्निंग' करते हैं। आपने मेरी 'मार्निंग गुड' कर दी। लिखे जाने के तीन महीनों बाद यह पोस्ट पढ रहा हूँ, वह भी आपके कृपापूर्ण सौजन्य से। पहले तो लगा, इतनी देर से क्यों पढ पाया। अगले ही क्षण विवेक ने कहा 'देर आयद दुरुस्त आयद, जब जागे, तभी सवेरा।'
ReplyDeleteविष्णुजी विलक्षण व्यक्ति थे। उनका मौन भी बोलता था। उनके पत्रों को सहेज के बाद पटवाजी ने 'स्व' को 'सर्व' में विसर्जित कर 'सर्वस्व' पर सहजता से अधिकार कर लिया है। यह सहज काम नहीं है।
आपने इसे जन-जन तक पहुँचाकर इसे 'सर्वोपयोगी' बना दिया। 'राम' के सारे काम इसी प्रकार सिरजते हैं। 'राम-कृपा' ऐसी ही और ऐसे ही होती होगी।
आप दोनों को नमन।
राम पटवा जी को बहुत बहुत बधाइयाँ!
ReplyDeleteमेहमान से पहले ही पूछ लेना चाहिए कि किस गुम्बद से आया है.बहुत रोचक कहानी, लेख व कविता रहे.
ReplyDeleteघुघूती बासूती
kabootaron ki kahani ne utsukata badha di....bahut achchha rochak vivran hai....
ReplyDeleteबहुत मज़ेदार 'जोड़ तोड़'. बचपन में किसी ने सिखाया था, आज भी कभी-कभी अपनाता हूँ, सिर्फ मंदिर नहीं, बल्कि कई सार्वजनिक स्थानों पर.
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