Saturday, March 22, 2025

कोचिंग

1996-97। संयोगवश प्रतियोगी परीक्षा और कोचिंग से जुड़़ गया। हुआ यूं कि पता चला मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग की मुख्य परीक्षा के बाद साक्षात्कार की तैयारियां हो रही हैं। वह दौर ऐसा भी आया था कि दो-तीन सत्रों की मुख्य परीक्षा के परिणाम आ गए थे और कुछ समय के अंतर से साक्षात्कार होने थे। मैंने जानने की कोशिश की, किस तरह तैयारी कराई जाती है। जानकर अजीब लगा कि साक्षात्कार के लिए पिछले वर्षों में पूछे गए सवालों की सूची इंदौर से आ जाती है, फिर उसके प्रश्नों के जवाब लिखवाए जाते हैं और अधिकतर प्रतियोगी नोट्स ले कर, प्री और मेन्स की तैयारी की तरह इन जवाबों को रट लेते हैं। मुझे लगा कि यह अजीब है, साक्षात्कार की तारीख आने में थोड़ा वक्त था, इसलिए मैंने अपनी निशुल्क सेवा देने का प्रस्ताव रखा। धीरे-धीरे माहौल बदला। प्रतियोगी किसी कोचिंग के हों, मुझसे आ कर मिलने लगे, कई घर पर भी आने लगे। 

इस दौरान की ढेरो यादें हैं, जिन कुछ समझाइशों के लिए जोर होता था, यहां उनमें से कुछ-

# हां-नहीं, सही-गलत के बजाय सहमत -असहमत, उचित-अनुचित, उपयुक्त-अनुपयुक्त, जैसे शब्दों का इस्तेमाल करें, जजमेंटल हो, विश्लेषण करें। 
# उत्तर देते हुए भावुक नहीं संवेदनशील हों, विषयगत नहीं वस्तुगत तथ्यात्मक रहें। जब तक आवश्यक न हो माता-पिता, भाई-बहन के बजाय परिवार-अभिभावक, रिश्तेदार-परिचित जैसे शब्दों का इस्तेमाल करें। अखबार, पत्रकारिता की भाषा चिन्ताजनक, दुर्भाग्यपूर्ण, कलंक जैसे शब्दों और अपावश्यक विशेषण के इस्तेमाल से बचें।
# अपनी प्रामाणिकता और असलियत (आथेन्टिक और जेनुइन होने) का भरोसा रखें। अपने विचारों को स्पष्ट तार्किकता के साथ प्रस्तुत करें, न कि भावनात्मक प्रतिबद्धता से। प्रश्नों के जवाब में जानकारी, दृष्टिकोण को प्रस्तुति-कौशल होना चाहिए, शोध की गहराई या विशेषज्ञ की तरह के बजाय सामानज्ञ की सहजता और सतर्क जागरूकता अधिक जरूरी है। 
# एक सवाल अधिकतर होता कि क्या शासन/तंत्र की किसी नीति के विरुद्ध बोल सकते हैं/ सरकारी योजना की आलोचना कर सकते हैं? तंत्र के हिस्से के रूप में शासन की आलोचना या कमी का जिक्र सुधार-पूर्ति के सुझाव सहित किया जा सकता है। जैसे आधा गिलास पानी में आधा भरा होना आशावाद और आधा खाली होना निराशावाद है तो आधा खाली को कैसे भरा जा सकता है की दृष्टि से देखना तथ्यगत सकारात्मक है, जिसे साक्षात्कारवाद कह सकते हैं। 

सिलसिला बना रहा। बैंक, डिफेंस, एसएससी, पुलिस आदि के साक्षात्कार की तैयार वालों से संपर्क होता गया, मानता हूं कि अलग-अलग पृष्ठभूमि के युवाओं से लगातार मिलते रहने से अधिक साफ सोच पाने और बेहतरी में सहायक हुई होगी। 2012-13 में छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग का पैटर्न बदला, इस दौरान कई भूमिकाओं में आयोग से जुड़ गया, इसलिए अपनी मर्यादा तय कर ली। इस भूमिका के साथ खास तौर पर कहना है कि परीक्षा परिणाम के बाद चयनितों की दुनिया बदल जाती है, उनसे संपर्क न रहे, मेरा यथासंभव प्रयास होता, मगर जिनका चयन नहीं हो पाया, उनमें से कई ऐसे हैं, जो चयनितों से बेहतर स्थिति में हैं। 

1998.99 में पुलिस सब-इंस्पेक्टर की लिखित परीक्षा के बाद, उनके फिजिकल और साक्षात्कार के लिए बिलासपुर में मेरा नियमित जुड़ाव रहा। रेलवे ग्राउंड में फिजिकल का अभ्यास होता था। इस परीक्षा में चयन न हो पाने वाले एक प्रतियोगी को पत्र लिखा था, वह यहां है- 
प्रिय ..., 
शुभकामनाए 

कल शाम लगभग सभी लोग इकट्ठे हुए, श्री पी. जी. कृष्णन भी लगभग डेढ़-दो घन्टे रुके, पंकज अवस्थी भी आया था, मुझसे अलग से चर्चा हुई, वह अपना परिचय बताया और एकदम घरू बालक निकला. 

लगभग पूरे समय सब लोग (मेरे आलावा) तुम्हारी चर्चा करते रहे, और तुम्हारे सलेक्ट न होने पर आश्चर्य तो शायद किसी को नहीं था, अफसोस जरूर सबको था, पी. जी. का कहना था कि उनके लाड़ ने तुम्हारा नुकसान किया, वरना तुम्हें फिजिकल में 70 तक नन्बर मिलना था, लेकिन देर से आना, उनकी सहानु‌भूति और स्नेह के इच्छुक रहना, इस दिशा में तुम अधिक प्रयासरत रहे। 

तुम्हारे सभी मित्रों का यह मानना था कि जहाँ भी उन्हें किसी जानकारी के लिए मुश्किल होती थी, किसी किताब के बजाय तुम्हारी जानकारी पर अधिक भरोसा होता था, लेकिन तुम्हारे चयन की संभाव‌ना को लेकर कहीं-न-कहीं शंकित सभी थे, ऐसा क्यों हुआ तुम अधिक अच्छा विश्लेषण कर सकते हैं। 

इन्टरव्यूज (मॉक) के दौरान के लिए मैं तुमसे बार-बार जो कहता रहा, वह यहाँ दुहराने की जरूरत नहीं समझता. 

अब यह विश्लेषण करो कि तुम्हारी योग्यता (जो सचमुच तुममें है) का विश्‌वास तुम उन सभी लोगों को दिलाने में सफल रहे हो, जो तुम्हारा चयन करने वाले नहीं है, और चयन करने वालों के लिए अपनी उर्जा और क्षमता बचाकर नहीं रख पाये, तुम्हारे इस प्रयास ने तुम्हें सबकी सहानुभूति का पात्र बनाया, यदि तुम्हें इससे तसल्ली मिल रही हो, तो कम से कम मेरा ऐसा उद्देश्य नहीं है, क्योंकि बधाई का पात्र, सहानुभूति का पात्र बन जाये तो इस पर गुस्सा ही आ सकता है, मैं अपने लिए यह जरूर दुहराना चाहूँगा कि मेरे प्रति किसी का सहानुभूति दिखाना मुझे सबसे घृणास्पद लगता है और इसीलिए किसी अन्य के प्रति भी कुशलता (या चतुराईपूर्वक) सम्वेद‌ना प्रकट नहीं कर पाता, मुझे ऐसा लगता है कि किसी को या किसी की सहानुभूति, सच्ची वही होती है जो सहयोग के रूप में सामने आए. 

खैर पुनः दुहराता हूँ अपना विश्लेषण तुम करो, तुम्हारा मूल्यांकन न सिर्फ मैंने बल्कि उपरोक्त उल्लेख के अनुसार सभी ने किया है, और अपनी क्षमता और योग्यता सिर्फ वहाँ साबित करना सीखो, जहां वह आवश्यक है, हर सडक चलते बेकार के आदमी या चाय-पान ठेले पर अपने बुद्धि कौशल का प्रकाश फैलाना सार्थक नहीं होता है लेकिन यदि यह अभ्यास मानकर किया जाय तो इसे भी उपयोगी बनाया जा सकता है, अपनी योग्यता और अपनी सफलता के बीच सीधा और हक का रिश्ता कायम करने का प्रयास करो न कि अवैध संबंध स्थापित करने का, बीच के लोग सहयोगी हो सकते हैं निर्णायक नहीं, निर्णायिक सिर्फ तुम हो सकते हो और दूसरे लोग, अधिकृत लोग, उसे अटेस्ट कर सकते हैं, उन्हें उनके द्वारा तुम्हें सत्यापित किया जाय, इसके लिए मजबूर किया जा सकता है, यानि अगर परीक्षा केन्द्र उल्टा-पुल्टा हो तो ज्यादा जिद के साथ अपने लक्ष्य के लिए प्रयास करना, अपने को झोंककर अपनी सफलता खुद तय करना, पुनः शुभकामनाएं. 

राहुल 15-4-2000 

प्रतियोगी परीक्षा के दौर के बाद तब संपर्क में आए युवा अब भी यदा-कदा संपर्क करते हैं, तब की कोई बात याद दिलाते हैं, जिनमें से एक ऊपर वाला पत्र है, इसी तरह एक चयनित ने याद दिलाया था, वह यह है- 

प्रतियोगी परीक्षा में सफल होने के बाद मिलने आने वालों से मैं कहा करता- Be an average officer, who is constantly trying to improve his average ... ’

तुम एक ऐसे औसत अधिकारी बनो जो सदैव अपने औसत को बेहतर करने की कोशिश कर रहा हो।’ न कि Excellent या Best बनो। बस अपने औसत को लगातार सुधारते चलो। 

मेरी इस बात की याद दिलाते हुए एक चयनित, अब वरिष्ठ अधिकारी ने टिप्पणी की- बच्चे बुजुर्गों की बात सुनते ही कहां हैं... मैं भी अपनी मस्ती में रहता था। कभी उनका कहना मानता नहीं था, पर आज उनकी कही बात याद आती है बहुत और मानने की कोशिश भी होती है। 

वो कहते थे कि औसत होने का अभिमान नहीं पकड़ता। बेहतरीन होने का अभिमान पकड़ सकता है। औसत के आगे बेहतर दिशा में भी बहुत कुछ है, पीछे भी बहुत कुछ ... स्कोप बहुत है औसत इंसान के पास बेहतर होने का...

औसत व्यक्ति विनम्र होता है, क्योंकि वो औसत है, वो बहुत कुछ नहीं जानता। ’मेरी ही बात सही है, ऐसा उसका आग्रह नही होता। आपकी भी बात आपके Point of View (दृष्टिकोण) से सही है, ऐसा मानने में उसे कोई दिक्कत नहीं। सबकी दृष्टि का कोण एक हो, ऐसा संभव भी नहीं।’ 

औसत का नियम यह भी बताता है कि सिर्फ एक इंसान के साथ भी बेहतर या खराब संबंध आपके संपूर्ण औसत को बहुत बेहतर या बहुत खराब तरीके से प्रभावित कर सकता है, यदि वो इंसान बेहद प्रभावशाली हो। So, 

 Always pick your battles carefully...Avoid unnecessary battles ... लड़ो तभी जब उससे आपके औसत के बेहतर होने की संभावना हो...’ अब समझ पा रहा हूं कि मेरा प्रयास होता था, साक्षात्कार को एक पड़ाव माना जाए, प्रतियोगी युवा इसे अंतिम लक्ष्य की तरह न देखें और साक्षात्कार में कामयाबी के गुर, सुखी और सफल जीवन के लिए भी लगभग उतने ही अनुकूल और आवश्यक होते हैं।

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1 comment:

  1. आप के मार्गदर्शन से मुझे व्यकितगत के साथ साथ मेरे सऺस्थान को भी बहुत लाभ हुआ। इसके लिए में सदैव आप का ऋणी रहुंगा। मेरे जैसे ग्रामीण परिवेश के व्यक्ति में आपने आत्मविश्वास और ऊर्जा भरकर मुझे काबिल बनाया। सादर प्रणाम🙏🙏🙏

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