एपिग्राफिया इंडिका, वाल्युम-9, 1907-08 के शक संवत 1033 गुंड महादेवी के नारायणपाल शिलालेख का परिचय देते हुए रायबहादुर हीरालाल की टिप्पणी रोचक और महत्वपूर्ण है- 'भारत में आर्य तथा द्रविड़ जन समूह के मध्य नर्मदा, जिस प्रकार पृथक सीमारेखा खीचती है, उसी प्रकार बस्तर में इन्द्रावती की भूमिका महत्वपूर्ण है। इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं है कि इन्द्रावती नदी के उत्तरी भाग से प्राप्त समस्त अभिलेख देवनागरी लिपि में हैं तथा दक्षिणी भाग में इसी समय के अभिलेख तेलुगु लिपि में हैं। ऐसा स्पष्ट ज्ञात है कि यद्यपि नागवंशी राजा इन्द्रावती के उत्तर और दक्षिणी दोनों तरफ शासन करते थे, तथापि आर्य और द्रविड़ समुदाय कीे प्रजातीय मान्यताएं एवं कम से कम भाषायी सम्प्रेषण की दृष्टि से, स्वतः के प्रभाव को विज्ञापित करने के लिए उन्होंने इन्द्रावती नदी को ही विभाजक रेखा मान्य किया था। नारायणपाल का हमारा यह अभिलेख इन्द्रावती नदी के उत्तर तटीय क्षेत्र से प्राप्त हुआ है, इसी कारण संस्कृत में है।
इस संदर्भ में दंतेवाड़ा के प्रसिद्ध दंतेश्वरी मंदिर शिलालेख का उल्लेख आवश्यक और प्रासंगिक है। यहां दो शिलालेख दिकपालदेव के हैं, जिनकी तिथि संवत 1760 अर्थात सन 1703 है। इनमें से दोनों शिलालेखों की लिपि नागरी है, एक की भाषा संस्कृत और दूसरा ‘भाषा‘ (हिन्दी, इस लेख की भाषा, छत्तीसगढ़ी का पहला अभिलिखित प्रमाण के रूप में स्थापित है) में है। दूसरे पत्थर पर उत्कीर्ण लेख, वस्तुतः संस्कृत वाले पहले का ही संक्षेप आशय प्रकट करने वाला अनुवाद है। रोचक कि दूसरे शिलालेख के आरंभ में ही कहा गया है कि ‘देववाणी मह प्रशस्ति लिषाए पाथर है महाराजा दिकपालदेव के कलियुग मह संस्कृत के बचवैआ थोरहो हैं तै पांइ दूसर पाथर मह भाषा लिषे है।‘ पुनः अंत में कहा गया है कि- ‘ई अर्थ मैथिल भगवानमिश्र राजगुरु पंडित भाषा औ संस्कृत दोउ पाथर मह लिषाए। अस राजा श्री दिकपालदेव देव समान कलि युग न होहै आन राजा।‘ आशय स्वयं स्पष्ट है।
बस्तर पर शोध करने वाले पहले भारतीय छत्तीसगढ़ निवासी डॉ. इंद्रजीत सिंह का शोध-ग्रंथ 1944 में प्रकाशित हुआ। कलकत्ता, इलाहाबाद और लखनउ से पढ़ाई करने वाले डॉ. सिंह को हिंदी, बांग्ला, अंग्रेजी, छत्तीसगढ़ी, अंग्रेजी और लैटिन का अच्छा अभ्यास था। अपने शोध के दौरान उन्हें हल्बी का अच्छा अभ्यास हो गया था और बस्तर की अन्य लगभग सभी भाषाओं को मोटे तौर पर समझने लगे थे। उनकी पुस्तक ‘द गोंडवाना एंड द गोंड्स‘ के परिशिष्ट में लगभग 300 शब्दों की शब्दावली है, यह बस्तर संबंधी जिज्ञासा रखने वाले के लिए प्रारंभिक तैयारी के लिए जरूरी शब्द-संग्रह है।
सन 1998 में रामकथा के तीन ग्रंथों- हलबी रामकथा, माड़िया रामकथा और मुरिया रामकथा का प्रकाशन मध्यप्रदेश के जनसम्पर्क विभाग से हुआ। ग्रंथों के सम्पादक भाषाविज्ञानी प्रोफेसर हीरालाल शुक्ल हैं। भारी-भरकम इन ग्रंथों का आकार कल्याण के विशेषांक जैसा और पृष्ठ संख्या क्रमशः 688, 454 और 644 है।
एक अन्य उल्लेख- अपने जीवन काल में मिथक बन गए बस्तर के महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव ने छोटी सी पुस्तक लिखी थी ‘आइ प्रवीर द आदिवासी गॉड‘। अब एक अन्य ताजा उल्लेख, कांकेर रियासत के आदित्य प्रताप देव, जो दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफंस कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं, उनकी इसी वर्ष 2022 में प्रकाशित पुस्तक ‘किंग्स, स्पिरिट एंड मेमोरी इन सेंट्रल इंडिया‘ ‘एनचांटिंग द स्टेट‘ का। यह पुस्तक उनके सुदीर्घ और गंभीर शोध का परिणाम है ही, कांकेर को बस्तर से अलग देखने और कुछ अर्थों में प्रवीरचंद्र भंजदेव के ‘आइ प्रवीर ...‘ से अलग ‘‘द किंग एज ‘आइ‘‘, जो इस पुस्तक का पहला अध्याय है, दृष्टिगत है। अपनी पुस्तक में वे वास्तविक अवधारणाओं को समझने में पारिभाषिक बना दिए गए शब्दों, रूढ़ मुहावरों के चलते समझ की भाषाई सीमा का उल्लेख करते हैं। कांकेर में बोली जाने वाली भाषा के संबंध में स्पष्ट करते हैं कि छत्तीसगढ़ी और हिंदी बोलते हैं, जिसमें कई शब्द हल्बा और गोड़ी के होते हैं। साथ ही विशिष्ट शब्दों का अर्थ स्पष्ट करने के लगभग डेढ़ सौ शब्दों की शब्दावली है।
बस्तर की जबान (भाषा-बोली) के लिए जितना मैं समझ सका हूं, बस्तर की संपर्क भाषा हल्बी है। (यहां उल्लेखनीय कि पुराने बस्तर जिले या वर्तमान बस्तर संभाग के कांकेर या केसकाल घाटी तक छत्तीसगढ़ी प्रचलित है।) हल्बी पर छत्तीसगढ़ी और मराठी का प्रभाव है, बल्कि कुछ स्वतंत्र और मौलिक प्रयोगों के साथ वह इन्हीं दो भाषाओं का मिश्रण है। इसी तरह अधिकतर उड़ीसा से जुड़े क्षेत्र में बोली जाने वाली भतरी पर उड़िया प्रभाव-मिश्रण है। दोरली को गोंडी का रूप माना जा सकता है, जिसमें सुकमा वाली दोरली पर उड़िया का और बीजापुर वाली पर मराठी का प्रभाव होने से दोनों में अंतर आ जाता है, मगर दोनों भाषा-भाषी को एक-दूसरे की बात समझने में कठिनाई नहीं होती। इसके अलावा गोंडी है। मगर ध्यान रहे कि माड़ (अबुझमाड़) की गोंडी अलग है, जबकि इससे भिन्न दंतेवाड़ा, बीजापुर, कोंटा की गोंड़ी आपस में मिलती जुलती है। माड़ की गोंड़ी और दक्षिण-पश्चिमी गोंडी में इतना फर्क हो जाता है कि इन्हें एक-दूसरे की जबान समझ पाना कठिन होता है।
प्रसंगवश, भाषा संपर्क और अभिव्यक्ति का माध्यम है तो औपचारिक दूरी बनाने का भी साधन है। पुराने नाटकों में राजा और पुरोहित जैसे पात्रों के संवाद संस्कृत में होते हैं, वहीं नारी पात्र, सेवक, ग्रामवासी और विदूषक आदि अपभ्रंश जैसी भाषा बोलते थे। रामायण का प्रसंग है- 'अहं ह्यतितनुश्चैव ... ... ... शक्या नान्यथेयमनिन्दिता।।' हनुमान सोचते हैं कि वानर हो कर भी मैं यहां मानवोचित, द्विज की भाँति संस्कृत का प्रयोग करूँगा तो सीता मुझे रावण समझकर भयभीत हो जाएंगी, ऐसी दशा में अवश्य ही मुझे उस सार्थक भाषा का प्रयोग करना चाहिये, जिसे अयोध्या के आस-पास की साधारण जनता बोलती है। कालिदास के कुमारसंभव का सातवां सर्ग शिव-पार्वती विवाह प्रसंग है, जिसमें कुछ इस प्रकार कहा गया है कि- सरस्वती ने वर की स्तुति संस्कृत में और वधू की स्तुति सुखग्राह्य (प्राकृत?) भाषा में की। ... शिव-पार्वती ने अलग-अलग भाषा की शैलियों से निबद्ध, अप्सराओं द्वारा खेला नाटक देखा। दो अन्य प्रसंग। पहला, जिसमें राजा भोज राह चलते ग्रामीण महिला से प्राकृत में सवाल करते हैं और वह शुद्ध संस्कृत में जवाब देती है। इसी तरह विद्यानिवास मिश्र ने काशी में विवाह के अवसर पर महामहोपाध्याय शिवकुमार शास्त्री और टहल नाई के प्रसंग का उल्लेख किया है, जिसमें शास्त्रीजी द्वारा शास्त्रीय विधि के अनुमोदन और नाई द्वारा लोकाचार स्मरण कराने पर, शास्त्रीजी द्वारा बार-बार एक ही बात दुहराते उसकी बात खारिज करने पर नाई ने ‘सर्वत्रैव षड् हलानि‘ कह कर, पंडितजी को विस्मय में डाल दिया।
सरकार में जनप्रतिनिधि, जनता के बीच जाकर उनकी भाषा का प्रयोग कर आत्मीयता का प्रयास करते हैं तो दूसरी ओर कामकाज या सरकारी सहयोगी-मातहतों के साथ अंग्रेजी-हिंदी। इसी प्रकार वरिष्ठ अधिकारी, कनिष्ठ अधिकारियों से अंगरेजी में बात करते हैं और सामान्यतः उनकी अपेक्षा होती है कि मातहत उनसे हिंदी में बात करे न कि (बढ़-चढ़ कर) अंगरेजी में, ऐसा तब भी, जब दोनों छत्तीसगढ़ी भाषी होते हैं। यही व्यवहार अधिकारियों और मातहत या जनता के बीच होता है। अधिकारी हिंदी बोलते हैं और सहायक, मजदूर या ग्रामवासी जनता छत्तीसगढ़ी, दोनों आमतौर पर अलग-अलग भाषा का प्रयोग करते, एक-दूसरे की बात अच्छी तरह समझते होते हैं। ऐसा परिवार में भी होता है। एक ही घर के विभिन्न सदस्यों के बीच, खासकर बुजुर्ग महिलाएं छत्तीसगढ़ी बोलती हैं और अन्य सदस्य उनसे हिंदी में बात करते हैं, जबकि दोनों को एक-दूसरे की बात आसानी से समझ में आती है। प्रसंगवश, गुलेरी जी ने ‘खड़ी बोली: म्लेच्छ भाषा‘ में बताया है कि ‘हिंदू कवियों का यह सम्प्रदाय रहा है कि हिंदू पात्रों से प्रादेशिक भाषा कहलवाते थे और मुसलमान पात्रों से खड़ी बोली।‘
यह भूमिका एक ही पत्र पर दो लिपि और दो भाषा में उत्कीर्ण, अपने किस्म के अनूठे उदाहरण के लिए, जो जगदलपुर से प्राप्त महाराजा राजपालदेव का ताम्रपत्र है। इसका प्रकाशन COPPER PLATE INSCRIPTION OF KAKATIYA RĀJAPĀLADEVA By Shri Balchandra Jain, M. A., Sahityashastri, M. G. M. Museum, Raipur. इस प्रकार शीर्षक से The Orissa Historical Research Journal, Vol-X, No. 3 पेज 57-60 पर हुआ था, जिसे हीरालाल शुक्ल ने यथावत, 1986 में प्रकाशित History of Chhattisgarh (seminar papers) में Historical Source of Pre-Modern Bastar शीर्षक अंतर्गत शोधपत्र में शामिल किया। साथ ही श्री शुक्ल ने अपनी पुस्तक ‘आदिवासी बस्तर का बृहद् इतिहास‘ के चतुर्थ खंड में लगभग शब्दशः शामिल किया है, मूलतः श्री बालचन्द्र जैन द्वारा राष्ट्रबंधु साप्ताहिक के अंक 24.7.1969 में प्रकाशित कराया गया था, जो यहां प्रस्तुत है-
रायपुर के महंत पासीदास स्मारक संग्रहालय में बस्तर के राजवंश से संबंधित एक महत्वपूर्ण ताम्रपत्र है जो बस्तर के कलेक्टर से प्राप्त हुआ था। पत्र टूटकर दो टुकड़ों में विभाजित है। उसकी चौड़ाई लगभग ३१ से० मी०, ऊंचाई लगभग १८ से० मी० और वजन ३७५ ग्राम है। उससे ऊपरी दायें भाग पर अर्धचन्द्र और पंजे की आकृतियां हैं किन्तु बाँयें भाग के प्रतीक खण्डित हो गये हैं। ताम्रपत्र के निचले भाग में बीचों-बीच दुहरी रेखाओं से बने वर्ग में नागरी अक्षरों में सही शब्द उत्कीर्ण है। उपरले भाग के मध्य में राजमुद्रा है। यद्यपि राजमुद्रा का अधिकांश खंडित है किंतु वंश के अन्य राजा भैरमदेव की मुद्रा के आधार पर प्रस्तुत ताम्रपत्र की मुद्रा का लेख पूरा करके इस प्रकार पढ़ा जा सकता है:-
उपर्युक्त मुद्रालेख से विदित होता है कि महाराज राजपालदेव प्रौढ़प्रतापचक्रवर्ती की उपाधि धारण करते थे और माणिक्येश्वरी देवी के भक्त थे। माणिक्येश्वरी दुर्गा का ही एक रूप है। उसके वाहन सिंह की आकृति भी मुद्रा के मध्य में उत्कीर्ण है। ऐसा अनुमान किया है कि दन्तेवाड़ा की सुप्रसिद्ध दन्तेश्वरी देवी को माणिक्येश्वरी मी कहा जाता था। ताम्रपत्र पर छह पंक्तियों का एक लेख उड़िया और नागरी अक्षरों में उत्कीर्ण है। वह इस प्रकार है:- (उड़िया अक्षरों में) ।। श्री जगन्नाथ श्री बलभद्र श्री सुभद्रा सहित एहि किति निमित को साक्षी ।। श्री रक्षपालदेव राजा चालकी वंश राज्यपरियन्त पपलाडण्डि बह्मपुरा घर तीनि शए जीवन दण्ड नाही मरण मुसाली नाही शरण मार नाही ए बोलन्ते न पाल ई ताहार सुअर मा अ गधा बाप ए बोलन्कथ चन्द्र सूर्य वंश जग लोकपाल धर्मराज साक्षी वारि घरे मेलिया बांचे (नागरी अक्षरों में) जब लै श्री चालकी वंश राजा तब लै ब्रम्हपुरा क्षाडनो नाहि ए बोल छाडि कै पपलावडि आ जाइ तो सुअर माइ बाप गादह अष्टलोकपाल धर्मराज साक्षि (उड़िया अक्षरों में) वसाल सूर्य र वान कूप धौ मच्छ ते जहींकार एहि रेखा। सही
लेख से विदित होता है कि राजा रक्षपाल देव (राजपालदेव) ने पपलाडंडी के तीन सौ (ब्राह्मण) परिवारों को कुछ विशेषाधिकार देकर अपने नगर में बसाया था। राजा ने जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की साक्षीपूर्वक वचन दिया था कि जब तक चालकी वंश का राज्य रहेगा तब तक पपलाडंडी से आकर ब्रम्हपुरा में बसे तीन सौ परिवारों को जीवनदण्ड नहीं दिया जायगा, यदि उनमें से किसी की निपूते मृत्यु हो जायगी तो भी राज्य उनकी सम्पत्ति नहीं लेगा तथा शरण में लोगों आये लोगों को शारीरिक दण्ड नहीं दिया जायगा। बस्तर में आकर बसे उपर्युक्त ब्राम्हनों ने भी उसी प्रकार अष्ट दिक्पाल और धर्मराज की साक्षीपूर्वक वचन दिया था कि जब तक बस्तर में चालकी वंश राज्य करेगा तबतक हम लोग ब्रम्हपुरा नहीं छोड़ेगे। दोनों ही पक्षों ने इस शाप वचन को भी स्वीकार किया था कि प्रतिज्ञा का पालन न करने वाले व्यक्ति की माता शूकरी और पिता गधा होगा।
ध्यान देने की बात है कि प्रस्तुत ताम्रपत्रलेख दो भाषाओं और दो लिपियों में है। हिन्दी भाषी राजा की प्रतिज्ञा उड़िया भाषा में और उड़िया भाषी ब्राम्हणों की प्रतिज्ञा हिन्दी भाषा में लिखी गई है ताकि प्रत्येक पक्ष समझौते की शर्तें पढ़ और समझ सके। ताम्रपत्रलेख में कोई तिथि नहीं दी गई है किन्तु उसमें चालुकी वंश के राजा रक्षपालदेव का उल्लेख है यह राक्षपाल काकतीय वंश के राजपालदेव दिक्पालदेव के पुत्र और उत्तराधिकारी थे। दिक्पालदेव का उल्लेख दन्तेवाड़ा के वि० सं० १७६० (ईस्वी १७०३) के शिलालेख में मिलता है जिसमें उनकी दन्तेवाडा यात्रा का विवरण है। उस यात्रा के समय राजपालदेव युवराज थे और अपने पिता के साथ वे भी दन्तेश्वरी देवी के दर्शन करने गये थे। इस आधार यह अनुमान करना कठिन नहीं है कि राजपालदेव वि० सं० १७६० के पश्चात ही कभी बस्तर के राज सिंहासन पर अभिषिक्त हुये होंगे। तदनुसार प्रस्तुत ताम्रपत्र शासन की तिथि भी वि० स. १७६० के पश्चात की ही विचारी जा सकता है।
बस्तर का राजवंश काकतीय नाम से प्रसिद्ध है किन्तु प्रस्तुत ताम्रपत्रलेख में राजा राजपालदेव अपना वंश चालकी (चालुक्य) बताते हैं। यह ध्यान देने योग्य बात है।
इस पर मेरी संक्षिप्त टिप्पणी कि चालकी, बस्तर के स्थानीय प्रशासनिक ढांचे मे एक पद भी होता है तथा लेख में आया शब्द ‘मेलिया‘ अन्यत्र मेरिया आता है, जिसका अर्थ नरबलि होता है।
बहुत ही गहराई से किया गया अध्ययन। इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारी सबूत के साथ।
ReplyDeleteDhanyavad Sanat ji.
ReplyDeleteआप तो कमाल करते हैं। बस एक निवेदन " हल्बी " नहीं " हलबी "। हलबा लोगों की बोली न की भाषा।
ReplyDeleteगहन अध्ययन के साथ लिखा गया वृहत शोध आलेख । बस्तर के राजा काकतीय वंश के ही कहे जाते हैं। कांकेर में अलग तरह से छत्तीसगढ़ी बोली जाती है और उच्चारण भी भिन्न है । किंतु राज्य बनने के बाद यहां की छत्तीसगढ़ी भी रायपुर वालों की तरह हो गई है जबकि पुरानी पीढ़ी अभी भी उसी तरह बात करती है।
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